Saturday, March 12, 2011

कश्मीरी हिंदुओं के प्रति सरकार संवेदनहीन

तरुण विजय

विमला रैना 10 साल की थी जब श्रीनगर की रैनाबाड़ी में उसका परिवार उजड़कर जम्मू पहुंचा था। माता-पिता, दो भाई और वह खुद। बमुश्किल जम्मू में रहने की जगह मिली। जैसे लोग झुग्गी-झोंपड़ियों में रहते हैं वैसे एक तम्बू में सिमट गया वह घर, जो रैनाबाड़ी की शान हुआ करता था। बगीचा था, सब्जी का खेत था, पांच कमरों का दो मंजिला लकड़ी का बना पुराना कश्मीरी मकान। अखरोट, बादाम और सेब के पेड़। डल झील को छूकर आती कश्मीरी पहाड़ियों से बहकर आती ठंडी हवा। मां तो यह सब याद कर के आंखें ही गंवा बैठीं। पिता रोजगार की तलाश में कभी दिल्ली, कभी लखनऊ भटकते रहे।

भिखारियों जैसी जिंदगी में बड़ी हुई विमला ने भाइयों को आवारा और नशेबाज होते देखा। हर पड़ोसी और राहगीर की निगाहों से खुद को भेदा जाते पाया। लाज की रक्षा का एक ही उपाय था- घर में रहो, आंखें नीची रखो, घर के काम-काज में मां का हाथ बंटाओं, किसी की फब्ती का जवाब मत दो। स्कूल और कालेज इसी तरह पूरा किया विमला ने। पिता कभी घर आते, पैसे दे फिर चले जाते। पिछले साल विमला 30 साल की हो गयी। अध्यापिका हैं। शादी नहीं की। भाइयों और मां का ध्यान रखती हैं।

गत 4 मार्च को जम्मू में एक राष्ट्रीय शोकान्तिका को बड़े उत्सवी जलसे के रूप में मनाया गया। प्रधानमंत्री ने कश्मीरी हिंदू शरणार्थियों के लिए एक बड़ी आवासीय कालोनी जगती का उद्घाटन किया। अपने ही देश में तिरंगे के प्रति वफादारी निभाने के ‘गुनाह‘ में यदि राष्ट्रीय नागरिक अपने घरों से उजाड़ दिए जाएं तो उनको ससम्मान वापस घर भेजने के बजाय उन्हें शरणार्थी कालोनी में फ्लैट देने वाले प्रधानमंत्री की ‘हिम्मत’ की प्रशंसा करें क्या?

विमला रैना जैसे हजारों, परिवारों को यह उम्मीद बंधी थी कि जब डॉ. मनमोहन सिंह जुगती कैम्प में कश्मीरी हिंदू शरणार्थियों को फ्लैट आवंटन योजना का उद्घाटन करने आएंगे तो कम से कम ऐसा ठिकाना तो मिलेगा जहां भाई, मां और कभी-कभी आने वाले पिता के साथ वह रह सकें। लेकिन वह और बाकी तमाम शरणार्थी यह सुनकर स्तब्ध रह गए कि जो फ्लैट उन्हें मिलने वाले हैं, वे सिर्फ एक कमरे के हैं। साथ में रसोई और एक गुसलखाना।

सरकार यह मानकर चलती है कि इन बदनसीबों के घर में कोई मिलने नहीं आएगा, कोई अतिथि नहीं आएगा, कोई रिश्तेदार नहीं आएगा। सरकार कश्मीरी हिंदू शरणार्थियों के बारे में योजनाएं घोषित करती है, लेकिन उसका नतीजा क्या निकलता है? अभी तो इन नए फ्लैटों में रहने कोई नहीं गया है। पता नहीं कैसे बने हैं? सीमेंट और सरिये में कितना कमीशन खाया गया है?

ये तमाम शरणार्थी अभी तक जिन शिविरों में रहते आए हैं वहां की जिंदगी और रोजमर्रा के कामकाज निभाने के लिए आसपास छोटी दुकानें खुलीं। छोटे-छोटे काम-धंधे खुले। उनके लिए कोई जगह नहीं और कोई आवास नहीं, कोई सुविधा नहीं। वे शरणार्थी कहां जाएं? 21 साल के बाद उजड़े हुए परिवारों को तम्बूओं और शिविरों से हटाकर घर दिए जाने का बंदोबस्त बहुत नगाड़ों के साथ प्रचारित किया जाता है।

दुनिया भर को बताया जाता है कि सरकार इन शरणार्थियों के बारे में कितनी संवेदनशील तथा चिंतित है। स्वयं प्रधानमंत्री उनको मकान दिए जाने की योजना का उद्घाटन करने आते हैं। लेकिन यह उद्घाटन किस प्रकार की सुविधा का होता है इसके बारे में न तो कहीं कोई नहीं बोलता है, न ही कहीं कोई जांच करता है।

सिर्फ श्रीनगर, कुपवाड़ा, अनंतनाग आदि घाटी की जिहादग्रस्त जगहों से उजड़े हिंदुओं के बारे में नहीं बल्कि 1947 में पाकिस्तान के अवैध कब्जे में गए कश्मीर से उजड़े हिंदुओं के बारे में सरकार संवदेनशील के चरम को छू रही है। उन शरणार्थियों की संख्या तो अब लगभग पौने दो लाख तक पहुंच गयी है। वे जम्मू-कश्मीर से उजड़े, पाकिस्तानी हमले में देशभक्त भारतीय और हिंदू होने के ‘अपराध‘ में घरबार उजड़वाकर माता-पिता, पत्नी, बच्चों की अमानुषिक हत्याएं अपनी आंखों के सामने देखते हुए जो कुछ मिला वे समेटकर जो भी बचकर आ पाए, आ गए।

लेकिन इन तमाम हिंदू शरणार्थियों को आज तक न तो जम्मू-कश्मीर की नागरिकता दी गयी, न उन्हें मतदान का रिकार्ड मिला और अब जब सरकार शरणार्थियों की सहायता का आश्वासन देती है तो उस सूची में से भी ये तमाम हिंदू गायब कर दिए जाते हैं। ऐसी स्थिति में वहां लीबिया या काहिरा की तरह हिंसक विद्रोह, विस्फोटक आक्रोश या पत्थरबाजी के दहलाने वाले प्रदर्शन क्यों नहीं होते?

लोग कहते हैं कि यही वह पक्ष है जिसके कारण महात्मा गांधी को अली बंधुओं की आक्रामकता के सामने कहना पड़ा था कि हिंदू कायर हैं। मैं समझता हूं कि यह कायरता नहीं बल्कि संविधान और गणतांत्रिक पद्धति के प्रति हिंदुओं का गहरा विश्वास है कि बार-बार छले जाने के बावजूद वे कानून हाथ में नहीं लेते। इसी पहलू को लेकर अटल बिहारी वाजपेयी ने दशकों पहले लिखा था-

कब तक जम्मू को यों ही जलने देंगे? कब तक जुल्मों की मदिरा ढलने देंगे?
चुपचाप सहेंगे कब तक लाठी गोली? कब तक खेलेंगे दुश्मन खूं से होली?
प्रहलाद परीक्षा की बेला अब आई, होलिका बनी देखो अब्दुल्ला शाही।
मां-बहनों का अपमान सहेंगे कब तक? भोले पांडव चुपचाप रहेंगे कब तक?
आखिर सहने की भी सीमा होती है, सागर के उर में भी ज्वाला सोती है।
मलयानिल कभी बवंडर बन ही जाता, भोले शिव का तीसरा नेत्र खुल जाता।

यह कैसा तीसरा नेत्र है कि जो सिर्फ गुस्सा पीने और उजड़ने के दर्द को दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता में नौकरियां ढूंढने में गंवा देता है? वे 1947 में उजड़े, भारत आए, उन्हें नागरिकता भी नहीं मिली। फिर पैंसठ के युद्ध में उजड़कर पाकिस्तान से आए। फिर इकहत्तर के युद्ध में भी सरहद पार के हिंदुओं को उजड़कर भारत आना पड़ा। वे कहां जाएं?

सवाल यह उठता है कि इस देश में हिंदू के उजड़ने पर दर्द क्यों नहीं उमड़ता? कश्मीरी हिंदुओं को घाटी उजड़े दो दशक हो गए। क्या संसद में इस पर सवाल उठे? क्या हिंदू-मुस्लिम या सेक्युलर संगठनों ने देशभक्तों के मानवाधिकारों के नाम पर ही कहीं एकजुटता से उनके उजड़ने के सवाल पर दुःख, क्षोभ या आत्मीयता व्यक्त की?

मौलाना वस्तानवी ने कहा कि मुसलमानों को गुजरात का दर्द भूलकर प्रगति के पथ पर आगे बढ़ना चाहिए। इतना कहने भर पर उन्हें निकाले जाने की मांगे उठने लगीं। लेकिन कभी किसी हिंदू ने तो ऐसा नहीं कहा कि जब तक घाटी के हिंदू वापिस नहीं लौटते तब तक हर उस पार्टी को वोट देना बंद कर दो, जो उनकी मदद नहीं करती। बल्कि वे तो उनके साथ भी खड़े होने में गुरेज़ नहीं करते जिन्होंने न सिर्फ उनके उजड़ने पर आंसू नहीं बहाए बल्कि उन्हें उजाड़ने वालों के साथ रिश्ते कायम किए। लेकिन उन्हें मिला क्या? प्रदर्शन, आंदोलन, लाठी, गोली, और नौ फीट के एक कमरे वाला घर। एक उजड़ने के बाद यह दूसरा उजड़ना ही तो कहा जाएगा।

(लेखक : वरिष्ठ पत्रकार एवं भाजपा के राज्यसभा सदस्य हैं।)

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