Wednesday, March 28, 2012

अब की जा सकती है कश्मीर के हल की पहल


कुलदीप नैयर
एक समय था, जब कश्मीर पर भारत या पाकिस्तान के प्रधानमंत्री का कोई बयान आने पर हंगामा खड़ा हो जाता था। दोनों देश के राजनीतिज्ञ और मीडिया कई दिनों तक उस बयान का अर्थ निकालने में जुटे रहते थे। इधर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री युसूफ रजा गिलानी ने पिछले दिनों कहा कि उनका देश कश्मीर समस्या को टकराव के बजाए बातचीत के जरिए सुलझाना चाहता है। लेकिन इस बयान पर मैंने न तो भारत में कोई प्रतिक्रिया देखी, और ना ही पाकिस्तान के किसी विपक्षी नेता या प्रेस ने इसे कोई तवज्जो दिया। इससे भी ज्यादा ध्यान देने वाली बात हर वक्त भारत के खिलाफ जेहाद की आवाज उठाने वाले आतंकवाद समर्थक गुटों की चुप्पी रही। आमतौर पर पाकिस्तान बार-बार कहता रहा है कि कश्मीरियों के सवाल पर वह पीछे नहीं हटेगा। इसी बात को उसने फिर दोहराया है। पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी ने इस हफ्ते कहा कि पाकिस्तान कश्मीर को भूला नहीं है। लेकिन इससे वह जमीनी हकीकत नहीं बदलती, जिसमें भारत और पाकिस्तान के बीच की सीमा के तौर पर नियंत्रण रेखा को कबूला गया है।

गिलानी ने फिर दोहराया है कि स्व. जुल्फीकार अली भुट्टो ने चार दशक पहले शिमला समझौता किया था। इस समझौते में कहा गया है, ‘17 दिसम्बर 1971 के युद्धविराम के परिणामस्वरूप जम्मू-कश्मीर में तय किए गए नियंत्रण रेखा को दोनों देश बिना किसी पूर्वाग्रह के स्वीकार करेंगे और यही दोनों देशों की मान्यता प्राप्त सीमा होगी। आपसी मन-भिन्नता और कानूनी व्याख्या चाहे जो भी हो, दोनों में से कोई भी इसे एकपक्षीय तरीके से नहीं बदलेगा। साथ ही इस नियंत्रण रेखा का उल्लंघन कर किसी तरह के बल प्रयोग से भी अलग रहने का वादा दोनों पक्ष वादा करते हैं। यह समझौता पिछले तीन दशकों से बना हुआ है। कारगिल की अनिष्टकारी घटनाओं को छोड़कर बाकी समय सीमा पर शांति बहाल रही है।

संभवतः आतंकियों के साथ-साथ पाकिस्तान सरकार को भी एहसास हो चुका है कि मेलजोल का कोई विकल्प नहीं है। शायद शांति चाहने वालों की संख्या दोनों ओर बढ़ी है। यहां तक कि दोनों सरकारों को भी एहसास है। कुछ समय पहले तक वे जिस तरह धमकियां दिया करती थीं, अब नहीं दे रही हैं। संभवतः प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की यह चेतावनी कि कश्मीर पर किया गया कोई हमला भारत पर हमला माना जाएगा, पुरानी हो चुकी है। तीन युद्धों और कारगिल की अनिष्टकारी घटना से साबित हो चुका है कि इस्लामाबाद के किसी हमले का नई दिल्ली पूरी ताकत के साथ जवाब दे सकती है। ऐसे में प्रधानमंत्री गिलानी का नया बयान न सिर्फ अर्थवान है बल्कि यह एक नया मौका भी देता है। दोनों देशों को कश्मीर समस्या को हल करना है और इसी तरह दूसरी समस्याओं को भी शांतिपूर्ण तरीके से निपटाना है। यह एक तरह से हस्ताक्षर की औपचारिकता निभाए बिना अपने तरह का अयुद्ध संधि है। फिर भी गिलानी के बयान से भारत को संतुष्ट होकर शांत नहीं हो जाना चाहिए। कश्मीर समस्या अभी भी बनी हुई है। लोगों के असंतोष को व्यक्त करने के लिए कभी-कभी घाटी में घटनाएं घटित हो रही हैं। यहां तक मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली निवार्चित सरकार ने भी कई बार कहा है कि कश्मीर समस्या का समाधान पाकिस्तान की भागीदारी के बिना संभव नहीं है।

भारतीय सेना भी मौजूदा स्थिति से खुश नहीं है, क्योंकि जम्मू-कश्मीर के सैन्य कमांडरों ने निरंतर कहा है कि यह एक राजनीतिक समस्या है, न कि सैन्य समस्या। इसके बावजूद भारत बड़ी संख्या में अपनी सेना कश्मीर में लगाए हुए है। बार-बार यह साबित होता रहा है कि इस सेना के पास घरेलू अशांति से निपटने का आवश्यक प्रशिक्षण नहीं है। देश की सुरक्षा समझने वाली बात है, लेकिन सेना को सीमा पर रहना चाहिए और इनका इस्तेमाल कानून-व्यवस्था बहाल करने के काम में नहीं होना चाहिए। राज्य के अंदर सेना तैनात करने से इस बात की पुष्टि होती है कि सरकार के पास स्थिति से निपटने का कोई हल नहीं है और समस्या से किस तरह निपटा जाए इसकी उसे जानकारी भी नहीं है।

यह बात सही है कि नई दिल्ली ने अंतरराष्ट्रीय अभिमत को ठीकठाक बनाए रखा है। देश के बाहर कोई प्रतिकूल प्रतिक्रिया नहीं है। लेकिन इतने से समस्या का समाधान नहीं हो जाता। अधिक से अधिक यह दब कर रह जाता है। आखिर भारत एक सिविल सोसायटी है, जिसके अपने कुछ उत्तरदायित्व हैं और लोकतांत्रिक राज्यसत्ता को इन उत्तरदायित्वों को पूरा करना होता है। अगर कश्मीरी खुश नहीं हैं, और उनके द्वारा चुनी गई सरकार भी महसूस करती है कि समस्या का समाधान पाकिस्तान को साथ लेकर ही किया जाना चाहिए, तो फिर नई दिल्ली को हकीकत स्वीकार करनी पड़ेगी। इसका मतलब यह कतई नहीं है कि पाकिस्तान की मांगें मान ही ली जाएं। पाकिस्तान को भी हकीकतों का ख्याल करना होगा और एक बड़ी हकीकत यह है कि भारत धर्म के आधार पर एक और विभाजन कभी नहीं स्वीकार करेगा।

मुस्लिम बहुल घाटी अपने रास्ते चली है। उसने हिंदूबहुल जम्मू तथा बौद्धबहुल लद्दाख से अपनी दूरी बनाए रखी है। इसलिए जब राष्ट्रपति जरदारी यह कहते हैं कि पाकिस्तान कश्मीर का साथ देता रहेगा तो वे द्विराष्ट्रवाद की बात कर रहे होते हैं। जबकि भारत द्विराष्ट्रवाद के इस सिद्धांत को बहुत पहले दफना चुका है। मुझे नहीं लगता कि पाकिस्तान का बौद्धिक समाज भी द्विराष्ट्रवाद के इस सिद्धांत को मानता है। लेकिन विचार का विषय यह सवाल नहीं है। विचार का विषय कश्मीर है और मेरा मानना है कि गिलानी ने जो पहल की है उस पर ध्यान दिया जाना चाहिए। मैं उन लोगों से सहमत नहीं हूं, जो यह कहते हैं कि पाकिस्तान जो कुछ युद्ध के जरिए नहीं हासिल कर सका, उसे बातचीत के जरिए पाने का दावा वह नहीं कर सकता। दरअसल दोनों देशों को यह महसूस करने की जरूरत है कि उन्हें अपना पुराना रुख छोड़ना होगा। शांति और सद्भाव युद्ध से ज्यादा जरूरी है। आतंकी लगातार युद्ध की बात करते रहेंगे, क्योंकि समस्या को बनाए रखने के लिए उनका निहित स्वार्थ है।

समस्या के हल के रूप में मेरा एक सुझाव है। दोनों सरकारें प्रतिरक्षा और विदेशी मामलों को छोड़कर बाकी सब कुछ कश्मीरियों के हवाले कर दें और सीमा को थोड़ा बंधनमुक्त बनाएं ताकि जम्मू-कश्मीर तथा आजाद कश्मीर के लोग आपस में मिल जुल सकें और साथ मिलकर अपने क्षेत्र के विकास की योजनाएं बना सकें। उनकी अपनी हवाई सेवा और व्यापार तथा विदेशों में सांस्कृतिक मिशन रहें। दोनों कश्मीर में आने-जाने के लिए वीजा का प्रावधान हो। आजाद कश्मीर पाकिस्तान का हिस्सा रहे तथा जम्मू-कश्मीर भारत का। संयुक्त राष्ट्र में लंबित मामले को वापस ले लिया जाए। मेरा सुझाव है कि जम्मू-कश्मीर से निवार्चित लोकसभा के सदस्य पाकिस्तान के नेशनल एसेम्बली में बैठें तथा आजाद कश्मीर से चुने गए प्रतिनिधि भारत की लोकसभा में। यह सुझाव भविष्य में दोनों देशों के बीच निकटता स्थपित करने के मकसद से दिया जा रहा है।

माता वैष्णो देवी श्राइन बोर्ड का हुआ पुनर्गठन


जम्मू। राज्यपाल एनएन वोहरा ने मंगलवार को श्री माता वैष्णो देवी श्राइन बोर्ड का पुनर्गठन किया। बोर्ड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी नवीन चौधरी ने बताया कि राज्यपाल (जो श्राइन बोर्ड के चेयरमैन भी हैं) ने नए सदस्यों को नामांकित किया है। इनमें दिल्ली मेट्रो रेल कॉरपोरेशन के पूर्व प्रबंध निदेशक ई श्रीधरण, इंफोसिस फाउंडेशन बेंगलूर की चेयरपर्सन सुधा मूर्ति, केंद्रीय विश्वविद्यालय जम्मू के वीसी डॉ. एसएस बलोरिया, विख्यात संतूर वादक पंडित शिव शंकर शर्मा, राज्य के पूर्व पुलिस महानिदेशक डॉ. अशोक भान, पूर्व चीफ इंजीनियर एवं पब्लिक सर्विस कमीशन के सदस्य एचएल मैनी शामिल हैं। ई श्रीधरण ने दिल्ली में मेट्रो रेल चलाने में अहम भूमिका निभाई है। वह रेलवे बोर्ड के सदस्य भी रह चुके हैं। उन्हें पद्मश्री और पद्मविभूषण भी दिया जा चुका है। नारायण मूर्ति की पत्नी सुधा मूर्ति ने वर्ष 1996 में इंफोसिस फाउंडेशन स्थापित की थी। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ बेंगलूर से कंप्यूटर साइंस में एम टेक करने वाली सुधा मूर्ति समाज के गरीब तबके के लिए काम करती हैं। एसएस बलोरिया केंद्रीय विश्र्वविद्यालय जम्मू के वीसी से पहले राज्य के मुख्य सचिव रह चुके हैं। डॉ. अशोक भान ने पुलिस विभाग में विभिन्न अहम पदों पर काम किया है। 
 (दैनिक जागरण, 28 मार्च 2012)

अफस्पा हटाने के लिए संकल्पबद्ध


जम्मू। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने मंगलवार को फिर राज्य से अफस्पा को चरणबद्ध तरीके से हटाए जाने की प्रतिबद्धता दोहराई। उन्होंने कहा कि इस संदर्भ में राज्य सरकार ने दो समितियों का भी गठन किया है। माकपा विधायक मुहम्मद यूसुफ तारीगामी द्वारा पूछे गए एक कटौती प्रस्ताव के जवाब में मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने कहा कि राज्य के विभिन्न हिस्सों से अफस्पा को हटाने के लिए राज्य सरकार संकल्पबद्ध है। इसको लेकर विभिन्न एजेंसियों द्वारा जताई गई शंकाओं को दूर करने व राज्य के उन हिस्सों को चिह्नित करने के लिए दो समितियों का गठन किया गया है। एक समिति जम्मू संभाग के लिए है और दूसरी कश्मीर संभाग के लिए। इन समितियों की रिपोर्ट जैसे ही सरकार को मिलेगी उस पर अमल की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी। (दैनिक जागरण, 28 मार्च 2012)

क्या देश में पनप रहा है एक नया कश्मीर!


March 28th, 2012
मुम्बई। क्या महाराष्ट्र आतंकवादियों का शरणस्थली बन गया है? यह सवाल इन दिनों राज्य की जनता की जुबान पर है। क्योंकि औरंगाबाद में आतंकवादियों से मुठभेड़ की घटना के दूसरे ही दिन अब आतंकवाद निरोधक दस्ते (एटीएस) ने बुलढाणा जिले से दो संदिग्ध आतंकवादियों को गिरफ्तार करने का दावा किया है।

एटीएस से मिली जानकारी के अनुसार बुलढाणा जिले में कई महीनों से छुपे संदिग्ध आतंकवादी अखिल मोहम्मद युसूफ खिलजी और मोहम्मद जाफर को गिरफ्तार किया गया है। बताया जाता है कि इन दोनों की गिरफ्तारी सोमवार को औरंगाबाद जिले में एटीएस के साथ मुठभेड़ में पकड़े गये मोहम्मद अबरार खान उर्फ मुन्ना और शाकिर हुसैन की निशानदेही पर हुई है।

चौकाने वाली बात यह है कि अखिल और जाफर दोनों भी मध्य प्रदेश के खंडवा जिले के मूल निवासी बताये जा रहे हैं। इसके अलावा ये दोनों भी प्रतिबंधित संगठन सिमी के सदस्य रहे अबू फैजल से अतीत में जुड़े रहे हैं।

एटीएस के सूत्रों का कहना है कि सोमवार को मुठभेड़ में मारा गया आतंकवादी खलिल कुरैशी 1999 में औरंगाबाद में सिमी के सफदर नागोरी द्वारा बुलाई गई इख्वानपरिषद में शामिल हुआ था। इतना ही नहीं इस परिषद में 2008 में अहमदाबाद में हुए सीरियल बम विस्फोट की वारदात का संदिग्ध आतंकवादी मोहम्मद अबरार खान भी आया था।

गिरफ्तार आतंकवादियों से बड़े खुलासे की उम्मीद

सोमवार को औरंगाबाद से मोहम्मद अबरार खान व शाकिर हुसैन और मंगलवार को बुलढाणा से अखिल खिलजी व मोहम्मद जाफर की गिरफ्तारी के बाद एटीएस को इन चारों संदिग्ध आतंकवादियों से बड़े खुलासे की उम्मीद है।

एटीएस के अधिकारियों के जेहन में सबसे बड़ा सवाल यह है कि म.प्र. के विभिन्न जिलों में आपराधिक वारदातों को अंजाम देने वाले ये आतंकवादी आखिर महाराष्ट्र में क्यों पनाह लिये हुए थे? इन्हें महाराष्ट्र में कौन मदद कर रहा था? क्या ये आतंकवादी महाराष्ट्र को दहलाने की किसी साजिश को अंजाम देने के लिए महाराष्ट्र में इकट्ठा हुए थे?

हालांकि अभी तक की पूछताछ में अयोध्या प्रकरण में फैसला सुनाने वाले इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति डी.वी. शर्मा, सुधीर अग्रवाल और एस.यू. खान की हत्या की साजिश रचे जाने की अबरार व खलिल ने एटीएस को जानकारी दी है।

क्या है ऑपरेशन माल-ए-गनिमत

एटीएस को गिरफ्तार आतंकवादियों से माल-ए-गनिमतनामक एक ऑपरेशन (मुहिम) की जानकारी मिली है। बताया जा रहा है कि म.प्र. में गिरफ्तार आतंकवादियों ने बैंक डकैती या फिर इस प्रकार की जो भी वारदातों को अंजाम दिया था। उससे मिली रकम को माल-ए-गनिमतके तहत पुलिस मुठभेड़ में मारे गये आतंकवादियों के परिजनों तक आर्थिक मदद के रूप में पहुंचाई जाती थी।

Tuesday, March 27, 2012

तार्किक नहीं मीडिया का मखौल


केके पनगोत्रा
विश्व के कुछ देश जिनमें भारत, संयुक्त राज्य अमेरिका और इंग्लैंड का नाम मुख्य रूप से लिया जा सकता है, अपने देशों को विश्वभर में सर्वोत्तम प्रजातांत्रिक प्रणाली के हामी कहते हैं। यह बात सही भी है। विश्व के इन दोनों उत्कृष्ट संविधानों की भावनाओं के समावेश भारतीय संविधान और लोकतांत्रिक प्रणाली में भी दृष्टिगोचर होते हैं। चूंकि भारतीय प्रजातांत्रिक व्यवस्था का निर्माण इन दोनों देशों में लोकतांत्रिक निर्माण के बाद की घटना है इसलिए संविधान निर्माताओं ने विश्व की श्रेष्ठ लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के गहन अध्ययन के बाद उनका अनुसरण करते हुए कुछ महत्वपूर्ण तत्वों का समावेश भारतीय संविधान में कर डाला ताकि भारत विश्व के श्रेष्ठत्तम लोकतंत्र में गिना जाए। इस तरह से जो लोकतांत्रिक व्यवस्था सामने आई उसके चार मुख्य स्तंभ उभर के सामने आए। यह स्तंभ हैं-विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और प्रेस। (अब प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया इस चौथे स्तंभ का संयुक्त रूप से प्रतिनिधित्व करते हैं।) अनैतिकता, भ्रष्टाचार, स्वार्थ और सत्तालोलुप्ता के दीमक समान रूप से भारतीय लोकतंत्र के चारों पायों को चाट रहे हैं, मगर मीडिया का विस्तृत और बढ़ता स्वरूप इस दीमक के प्रभाव में नहीं आ रहा। वर्तमान में भारतीय लोकतंत्र में अगर कहीं कुछ शुभ और संतोषजनक है तो वह है मीडिया की स्वतंत्रता। राज्य की शीतकालीन राजधानी जम्मू में विधानसभा के जारी सत्र के दौरान भारतीय लोकतंत्र के चौथे स्तंभ ने सियासतबाजी का एक नया दंभपूर्ण रूप देखा। जम्मू-कश्मीर से इतर भारत में भी मीडिया पर पहरे बिठाने और दबाने के प्रयास हुए हैं। तहलका डॉट काम के तहलके के बाद जिस प्रकार का घटनाक्रम और प्रतिक्रियाएं तत्कालीन सत्ता के गलियारों की ओर से व्यक्त की गई उनसे तो यही लगने लगा था कि लोकतंत्र के महत्वपूर्ण स्तंभ मीडिया पर पहरा बैठ जाएगा। सरकार पत्रकारिता की आचार संहिता तैयार करने में जुट गई। मगर जनता और न्यायपालिका की सहानुभूति और मीडिया जगत की प्रतिक्रिया से सरकार में बैठे लोकतंत्र विरोधी तत्वों को पीछे हटना पड़ा। लोकतंत्र के कथित पैरोकार यह भी भूल जाते हैं कि लोकतंत्र की परिभाषा मात्र प्रौढ़ मताधिकार तक ही सीमित नहीं है बल्कि इससे आगे निकलकर सूचना यानी जानने और अभिव्यक्ति का अधिकार भी स्वस्थ लोकतंत्र का ही हिस्सा है। जम्मू-कश्मीर विधानसभा की ताजा घटना के संदर्भ में, जहां स्पीकर ने मीडिया को लेकर टिप्पणी की थी कि मीडिया उनके नियंत्रण में है और मीडिया को समाचार के स्रोत बताने चाहिए लोकतंत्र के संरक्षण के लिए पत्रकारों को दो दिन तक विधानसभा की कार्यवाही को मीडिया कवरेज से वंचित रखना पड़ा। प्रतिपक्ष विशेषत: पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ने पत्रकारों का साथ दिया। कारण चाहे राजनीतिक ही रहे हों लेकिन प्रतिपक्ष ने मीडिया की स्वतंत्रता को लोकतंत्र के लिए सर्वोपरि माना। मगर सत्ता और मीडिया के टकराव की जो नई इबारत जम्मू-कश्मीर में लिखी गई उसने सत्ता के दंभ की बानगी समूचे भारत में प्रस्तुत की है। सत्ता और मीडिया का टकराव भारत में नया नहीं है। मीडिया पर लगाम लगाने की कई कोशिशें की गई हैं। फिर भी सभ्य नागरिक हलकों और आम जनता ने मीडिया से सहानुभूति की मिसाल कायम करते हुए लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को धराशायी नहीं होने दिया। सियासतबाजों की चले तो लोकतंत्र का जनाजा ही निकाल दें मगर स्वतंत्र मीडिया और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का चौथा पाया अभी जनता की सहानुभूति और विश्वास पर अटल खड़ा है। इन परिस्थितियों में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या जनता को भ्रष्टाचारियों और उनके कुकृत्यों की जानकारी नहीं होनी चाहिए? क्या किसी भ्रष्टाचारी के कुकृत्यों की ताक-झांक नहीं होनी चाहिए? भारत विश्व का सर्वश्रेष्ठ लोकतंत्र माना जाता है। अत: इन प्रश्नों को दूसरे लोकतांत्रिक देशों के संदर्भ में भी जांचा-परखा जाना चाहिए। एक बार अमेरिका के द वाशिंगटन पोस्ट समाचार पत्र ने संयुक्त राज्य अमेरिका के सुरक्षा विभाग के गुप्त कारनामों को लेकर एक लेख प्रकाशित किया था। संबंधित दस्तावेज एक पूर्व विभागीय अधिकारी डेनियल ऐल्सवर्ग ने उपलब्ध करवाए थे। अमेरिका सरकार ने इस लेख के विरुद्ध अर्जी दायर की थी। जून 30, 1971 को अमेरिका अदालत के नौ सदस्यीय बैंच ने जो निर्णय दिया वह भारत में पत्रकारिता आचार संहिता और पॉलीटिक्स ऑफ सीक्रेसी के मुद्दे का लोकतांत्रिक भावनाओं के मद्देनजर एक सही और विश्लेषणात्मक उत्तर है। इसमें कहा गया था कि, जिस सच को सरकार छुपाना चाहती है उसे बेनकाब करके जनता के सामने लाना प्रेस की पहली जिम्मेदारी है। कूटनीति और सुरक्षा को लेकर रहस्यों को सामने लाना प्रेस का प्रथम दायित्व है। इसके लिए गोपनीयता की दुहाई नहीं दी जा सकती। हमारे देश में पत्रकारिता से जुडे़ लोगों को आए दिन जिस प्रकार की आलोचनाओं और प्रताड़ना का सामना करना पड़ता है मीडिया की स्वतंत्रता से जुड़ा एक गंभीर मसला है। अमेरिका में तो उन नागरिकों की सुरक्षा के लिए बकायदा विसिलब्लोअर प्रोटेक्शन एक्ट 1989 एक कानून बनाया गया है जो जनहित की गुप्त सूचनाएं देकर भ्रष्टाचार का पर्दाफाश करते हैं मगर हमारे यहां दिनदहाड़े पुलिस और आपराधिक पृष्ठिभूमि के राजनेताओं द्वारा पत्रकारों और मीडिया के कार्यालयों पर हमले बोले जाते हैं। किसी भी तरह से मीडिया को सूली देने के मंसूबे राजनीति के उस चरित्र को दर्शाते हैं जिसे गंदा खेल कहते हैं। अमेरिका के प्रथम राष्ट्रपति जॉर्ज वाशिंगटन ने कहा था-सरकार का अर्थ तर्क नहीं है और न ही बयान देने की कला है। यह मात्र शक्ति है।.. एक क्षण के लिए इसे गैर जिम्मेदाराना आचार-व्यवहार की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। जम्मू-कश्मीर विधानसभा में मीडिया की महत्ता और लोकतांत्रिक व्यवस्था की खिल्ली उड़ाना क्या शोभनीय था? फिर भी मीडिया के सम्मान का स्वागत।
(लेखक : जम्मू-कश्मीर मामलों के अध्येता हैं।)