Tuesday, March 27, 2012

तार्किक नहीं मीडिया का मखौल


केके पनगोत्रा
विश्व के कुछ देश जिनमें भारत, संयुक्त राज्य अमेरिका और इंग्लैंड का नाम मुख्य रूप से लिया जा सकता है, अपने देशों को विश्वभर में सर्वोत्तम प्रजातांत्रिक प्रणाली के हामी कहते हैं। यह बात सही भी है। विश्व के इन दोनों उत्कृष्ट संविधानों की भावनाओं के समावेश भारतीय संविधान और लोकतांत्रिक प्रणाली में भी दृष्टिगोचर होते हैं। चूंकि भारतीय प्रजातांत्रिक व्यवस्था का निर्माण इन दोनों देशों में लोकतांत्रिक निर्माण के बाद की घटना है इसलिए संविधान निर्माताओं ने विश्व की श्रेष्ठ लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के गहन अध्ययन के बाद उनका अनुसरण करते हुए कुछ महत्वपूर्ण तत्वों का समावेश भारतीय संविधान में कर डाला ताकि भारत विश्व के श्रेष्ठत्तम लोकतंत्र में गिना जाए। इस तरह से जो लोकतांत्रिक व्यवस्था सामने आई उसके चार मुख्य स्तंभ उभर के सामने आए। यह स्तंभ हैं-विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और प्रेस। (अब प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया इस चौथे स्तंभ का संयुक्त रूप से प्रतिनिधित्व करते हैं।) अनैतिकता, भ्रष्टाचार, स्वार्थ और सत्तालोलुप्ता के दीमक समान रूप से भारतीय लोकतंत्र के चारों पायों को चाट रहे हैं, मगर मीडिया का विस्तृत और बढ़ता स्वरूप इस दीमक के प्रभाव में नहीं आ रहा। वर्तमान में भारतीय लोकतंत्र में अगर कहीं कुछ शुभ और संतोषजनक है तो वह है मीडिया की स्वतंत्रता। राज्य की शीतकालीन राजधानी जम्मू में विधानसभा के जारी सत्र के दौरान भारतीय लोकतंत्र के चौथे स्तंभ ने सियासतबाजी का एक नया दंभपूर्ण रूप देखा। जम्मू-कश्मीर से इतर भारत में भी मीडिया पर पहरे बिठाने और दबाने के प्रयास हुए हैं। तहलका डॉट काम के तहलके के बाद जिस प्रकार का घटनाक्रम और प्रतिक्रियाएं तत्कालीन सत्ता के गलियारों की ओर से व्यक्त की गई उनसे तो यही लगने लगा था कि लोकतंत्र के महत्वपूर्ण स्तंभ मीडिया पर पहरा बैठ जाएगा। सरकार पत्रकारिता की आचार संहिता तैयार करने में जुट गई। मगर जनता और न्यायपालिका की सहानुभूति और मीडिया जगत की प्रतिक्रिया से सरकार में बैठे लोकतंत्र विरोधी तत्वों को पीछे हटना पड़ा। लोकतंत्र के कथित पैरोकार यह भी भूल जाते हैं कि लोकतंत्र की परिभाषा मात्र प्रौढ़ मताधिकार तक ही सीमित नहीं है बल्कि इससे आगे निकलकर सूचना यानी जानने और अभिव्यक्ति का अधिकार भी स्वस्थ लोकतंत्र का ही हिस्सा है। जम्मू-कश्मीर विधानसभा की ताजा घटना के संदर्भ में, जहां स्पीकर ने मीडिया को लेकर टिप्पणी की थी कि मीडिया उनके नियंत्रण में है और मीडिया को समाचार के स्रोत बताने चाहिए लोकतंत्र के संरक्षण के लिए पत्रकारों को दो दिन तक विधानसभा की कार्यवाही को मीडिया कवरेज से वंचित रखना पड़ा। प्रतिपक्ष विशेषत: पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ने पत्रकारों का साथ दिया। कारण चाहे राजनीतिक ही रहे हों लेकिन प्रतिपक्ष ने मीडिया की स्वतंत्रता को लोकतंत्र के लिए सर्वोपरि माना। मगर सत्ता और मीडिया के टकराव की जो नई इबारत जम्मू-कश्मीर में लिखी गई उसने सत्ता के दंभ की बानगी समूचे भारत में प्रस्तुत की है। सत्ता और मीडिया का टकराव भारत में नया नहीं है। मीडिया पर लगाम लगाने की कई कोशिशें की गई हैं। फिर भी सभ्य नागरिक हलकों और आम जनता ने मीडिया से सहानुभूति की मिसाल कायम करते हुए लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को धराशायी नहीं होने दिया। सियासतबाजों की चले तो लोकतंत्र का जनाजा ही निकाल दें मगर स्वतंत्र मीडिया और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का चौथा पाया अभी जनता की सहानुभूति और विश्वास पर अटल खड़ा है। इन परिस्थितियों में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या जनता को भ्रष्टाचारियों और उनके कुकृत्यों की जानकारी नहीं होनी चाहिए? क्या किसी भ्रष्टाचारी के कुकृत्यों की ताक-झांक नहीं होनी चाहिए? भारत विश्व का सर्वश्रेष्ठ लोकतंत्र माना जाता है। अत: इन प्रश्नों को दूसरे लोकतांत्रिक देशों के संदर्भ में भी जांचा-परखा जाना चाहिए। एक बार अमेरिका के द वाशिंगटन पोस्ट समाचार पत्र ने संयुक्त राज्य अमेरिका के सुरक्षा विभाग के गुप्त कारनामों को लेकर एक लेख प्रकाशित किया था। संबंधित दस्तावेज एक पूर्व विभागीय अधिकारी डेनियल ऐल्सवर्ग ने उपलब्ध करवाए थे। अमेरिका सरकार ने इस लेख के विरुद्ध अर्जी दायर की थी। जून 30, 1971 को अमेरिका अदालत के नौ सदस्यीय बैंच ने जो निर्णय दिया वह भारत में पत्रकारिता आचार संहिता और पॉलीटिक्स ऑफ सीक्रेसी के मुद्दे का लोकतांत्रिक भावनाओं के मद्देनजर एक सही और विश्लेषणात्मक उत्तर है। इसमें कहा गया था कि, जिस सच को सरकार छुपाना चाहती है उसे बेनकाब करके जनता के सामने लाना प्रेस की पहली जिम्मेदारी है। कूटनीति और सुरक्षा को लेकर रहस्यों को सामने लाना प्रेस का प्रथम दायित्व है। इसके लिए गोपनीयता की दुहाई नहीं दी जा सकती। हमारे देश में पत्रकारिता से जुडे़ लोगों को आए दिन जिस प्रकार की आलोचनाओं और प्रताड़ना का सामना करना पड़ता है मीडिया की स्वतंत्रता से जुड़ा एक गंभीर मसला है। अमेरिका में तो उन नागरिकों की सुरक्षा के लिए बकायदा विसिलब्लोअर प्रोटेक्शन एक्ट 1989 एक कानून बनाया गया है जो जनहित की गुप्त सूचनाएं देकर भ्रष्टाचार का पर्दाफाश करते हैं मगर हमारे यहां दिनदहाड़े पुलिस और आपराधिक पृष्ठिभूमि के राजनेताओं द्वारा पत्रकारों और मीडिया के कार्यालयों पर हमले बोले जाते हैं। किसी भी तरह से मीडिया को सूली देने के मंसूबे राजनीति के उस चरित्र को दर्शाते हैं जिसे गंदा खेल कहते हैं। अमेरिका के प्रथम राष्ट्रपति जॉर्ज वाशिंगटन ने कहा था-सरकार का अर्थ तर्क नहीं है और न ही बयान देने की कला है। यह मात्र शक्ति है।.. एक क्षण के लिए इसे गैर जिम्मेदाराना आचार-व्यवहार की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। जम्मू-कश्मीर विधानसभा में मीडिया की महत्ता और लोकतांत्रिक व्यवस्था की खिल्ली उड़ाना क्या शोभनीय था? फिर भी मीडिया के सम्मान का स्वागत।
(लेखक : जम्मू-कश्मीर मामलों के अध्येता हैं।) 




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