Wednesday, December 28, 2011

उमर अब्दुल्ला की खरी-खरी

केवल कृष्ण पनगोत्रा

श्रीनगर के नौहट्टा क्षेत्र में तारिक अहमद नामक एक दुकानदार की पत्थरबाजों ने हत्या क्यों की? मात्र इसलिए कि इस अमन पसंद नागरिक ने अलगाववादियों का कहना मानने से इंकार कर दिया। उसे अलगाववादियों द्वारा की जाने वाली हड़तालों का सिलसिला भी पसंद नहीं था। तारिक की मौत से वही सामने आया जो सच था। यानि कश्मीर घाटी में आए दिन की हड़तालों से बंद नजर आने वाले बाजार और सरकारी संस्थान जनता की मर्जी से नहीं बल्कि अलगाववादियों और उनके हड़ताली व पत्थरबाज समर्थकों के दबाव के कारण बंद रहते हैं।

कई बार राज्य से बाहर रहने वाले कश्मीरी युवकों ने इन हालात की पुष्टि की है। दबाव में पत्थरबाजी और हड़तालें करवाने की पुष्टि करते हुए जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला का यह कहना जायज ही है कि झूठ अधिक दिन तक नहीं छिपता, एक दिन लोगों के सामने सच्चाई आ जाती है। मुख्यमंत्री ने यह कहते हुए अलगाववादियों को आखिर खरी-खरी ही सुनाई है कि हिंसा व नफरत फैलाने वाले अब बेनकाब हो रहे हैं। पत्थरबाजी और अलगाववादियों द्वारा प्रायोजित आए दिन की हड़तालों और प्रदर्शनों पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए उन्होंने एक समीचीन बात कही है कि अगर ऐसा कार्य किसी सुरक्षाकर्मी ने किया होता तो यह अलगाववादियों के टॉप एजेंडे में होता। उनकी यह नसीहत जायज ही है कि अलगाववादी गुंडागर्दी छोड़ दें।

यह वही पत्थरबाज हैं जिनको उकसाने वाले अलगाववादी सुरक्षाबलों पर मानवाधिकारों के हनन का इल्जाम लगाते आए हैं। क्या किसी आदमी के रोजमर्रा जीवन के आवश्यक और जायज क्रियाकलापों में इस प्रकार का हस्तक्षेप और जान से मार डालना मानवाधिकारों का खुला उल्लंघन नहीं? कौन नहीं जानता कि अलगाववादियों को पाकिस्तान और आतंकियों को पाक गुप्तचर एजेंसी आईएसआई का समर्थन और सहायता प्राप्त है। बेशक अलगाववादी यह भी भली प्रकार जानते हैं कि कश्मीर में मानवाधिकारों की दुहाई देने वाले पाकिस्तान के बलूचिस्तान में मानवाधिकारों की क्या दशा है और सिंध प्रांत में अल्पसंख्यक पाक सरकार से किस कदर खफा हैं?

मात्र बलूचिस्तान या सिंध ही नहीं अपितु समूचे पाकिस्तान में कैसे मानवाधिकारों की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। उन्हें यह भी मालूम होगा कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई मात्र कश्मीर घाटी में ही आतंकियों और अलगाववादियों के सहयोग से भारत विरोधी दुष्प्रचार नहीं कर रही बल्कि विदेशों में भी कुछेक संगठनों के माध्यम से न सिर्फ भारत विरोधी प्रचार में मशगूल है बल्कि उन देशों की कश्मीरी नीति और सोच को प्रभावित करने का दुस्साहस भी कर रही है।

इसी साल जुलाई में एक अलगाववादी कश्मीरी गुलाम नबी फई का अमेरिका में फेडरल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन (एफबीआई) द्वारा गिरफ्तार किया जाना आईएसआई की करतूतों की अनेक परतें खोलता नजर आता है। अलगाववादियों को यह भी मालूम होगा कि फई की केएसी (कश्मीर अमेरिकी कौंसिल) किसके लिए काम कर रही थी। फई पर यह आरोप था कि उसने केएसी के सम्मेलनों के जरिए कश्मीर पर अमेरिकी नीति को आईएसआई के निर्देश पर प्रभावित करने की कोशिश की। केएसी की प्रत्येक बैठक और भाषण का एजेंडा भी पाक गुप्तचर एजेंसी के आला अधिकारी ही तय करते थे। यह एक तरह से भारत और अमेरिका के संबंधों को कमजोर बनाने वाली हरकत थी।

अमेरिका की कश्मीर नीति कुछ भी हो, लेकिन यह उस नीति से भी मेल नहीं खाती जो पाकिस्तान और उसकी गुप्तचर एजेंसी तय करती है। फई की अमेरिका में गिरफ्तारी जम्मू-कश्मीर में अलगाववादियों के लिए एक बहुत बड़ा सबक थी। फई जैसे पाक परस्त लोग व आईएसआई के एजेंट अब मात्र पाकिस्तान और आईएसआई से पैसा बटोर सकते हैं, जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग-थलग नहीं करा सकते। हाल ही में फई द्वारा की गई स्वीकारोक्ति से सारी तस्वीर सामने है।

दरअसल अलगाववादी कश्मीर में सुधर रहे हालात पर हतोत्साहित हैं और देश विरोधी प्रदर्शनों से हालात को बिगाड़ने के प्रयत्न में लग रहे हैं। पिछले दिनों कट्टरपंथियों के गढ़ समझे जाने वाले सोपोर कस्बे में जब मीरवाइज उमर फारूक ने देश विरोधी बयानबाजी करने के बाद जुलूस की अगुवाई करने से इंकार किया तो उत्तेजित लोगों ने उन्हीं पर पत्थर बरसाने शुरू कर दिए। श्रीनगर के नौहट्टा, गोजवारा और डाउन-टाउन से भी ऐसी घटनाओं के समाचार मिले हैं। मालूम हो कि इसी महीने अलगाववाद समर्थक नौहट्टा और गोजवारा में जबरन दुकानों को बंद करवा रहे थे। इसी के चलते एक दुकानदार की मौत हो गई।

जाहिर है कि कश्मीर घाटी में जबरन हड़तालें और सरकार विरोधी प्रदर्शन करवाना आज की नहीं वर्षों पुरानी कवायद है। लगता है कि अमर अब्दुल्ला की फटकार और नसीहत, जिसमें उन्होंने अलगाववादियों को पथराव और हड़ताल के बजाय सियासी मोर्चे पर जनसमर्थन प्रदर्शित करने की चुनौती दी थी, से अलगाववादी बेचैन हैं और अपना चिरपरिचित राग अलाप रहे हैं। अलगाववादी यह भी जानते हैं कि सरकार का यह कठोर रवैया मात्र कश्मीर ही नहीं अपितु जम्मू संभाग में भी उजागर होता रहा है। अपनी जायज मांगों के लिए बेरोजगारों और सरकारी कर्मचारियों पर लाठीचार्ज आम बात है, लेकिन कश्मीर में लोग ऐसी हड़तालों से भी आजिज हैं जिनसे उनकी रोजमर्रा की जिंदगी संकटग्रस्त होती है।

तारिक की मौत से यह भी स्पष्ट हो रहा कि अलगाववादियों द्वारा करवाई जाने वाली हड़तालें और प्रदर्शन शांतिपूर्ण नहीं बल्कि हिंसात्मक होते हैं। उन लोगों पर हिंसा की जाती है जो अलगाववादियों के इशारे पर हड़ताल के समर्थन में व्यापारिक प्रतिष्ठानों या सरकारी संस्थानों को बंद नहीं करते। ऐसी गंभीर परिस्थितियों में राज्य के मुख्यमंत्री ने ठीक ही कहा कि अलगाववादी गुंडागर्दी छोड़ दें। हड़ताल को सफल बनाने के लिए नागरिकों के साथ ऐसे क्रूर व्यवहार को मुख्यमंत्री गुंडागर्दी नहीं तो और क्या कहते

(लेखक : जम्मू-कश्मीर मामलों के अध्येता हैं।)

Sunday, December 25, 2011

अफस्पा पर अस्तित्व की लड़ाई


प्रो. हरिओम
कश्मीरी नेता सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (अफस्पा) को निरस्त करने की मांग कर रहे हैं। सेना को यह कानून राज्य में विद्रोह को कुचलने के लिए वैधानिक प्रतिरक्षा शक्ति प्रदान करता है। यह जरूरी नहीं है कि इस मांग को रखने के लिए कश्मीरी अलगाववादियों का हो-हल्ला परिलक्षित हो। कारण, वे किसी भी भारतीय प्रतीक या प्राधिकरण को मानने से इंकार करते हैं। लेकिन सत्ताधारी नेशनल कांफ्रेंस, मुख्य विपक्षी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मा‌र्क्सवादी) या सीपीआई (एम) के तथाकथित मुख्यधारा के कश्मीरी नेताओं पर यह परिलक्षित होना आवश्यक है। यह इसलिए जरूरी है कि वे खुद को मुख्यधारा के नेता के रूप में प्रस्तुत करते हैं, लेकिन उनकी मांग वही है जो वैश्विक आतंकवाद का केंद्र और भारत के दुश्मन नंबर एक कश्मीरी अलगाववादी और इस्लामाबाद आए दिन करते रहते हैं।
मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने अफस्पा मुद्दे को अपने भाषण, बयान और ट्विट्स का आधार बना लिया है। उनका कहना है कि राज्य के कई हिस्सों में स्थिति बेहतर है। इसलिए वहां से अफस्पा हटाने की जरूरत है। उनका मूल तर्क यह होता है कि इससे कश्मीरी मुस्लिमों को सांस लेने की जगह मिलेगी, जिसकी उन्हें सख्त जरूरत है और एक नागरिक के रूप में वे इसके हकदार भी हैं। कई अवसरों पर वह सेना के साथ विचार-विमर्श में इस मुद्दे का समर्थन करते रहे हैं। उनके पिता और नेकां अध्यक्ष फारूक अब्दुल्ला जो कि केंद्रीय मंत्री हैं, यही राग अलापते हुए अफस्पा को हटाने की वकालत कर रहे हैं। अपने पुत्र की उद्देश्य प्राप्ति के लिए वे केंद्र में सत्ता की कुर्सी पर बैठे लोगों के साथ लॉबिंग कर रहे हैं।
उमर के चाचा, पार्टी के पूर्व अतिरिक्त महासचिव और मुख्य प्रवक्ता मुस्तफा कमाल भी सेना और अफस्पा के कटु आलोचक हैं। वास्तव में, इस साल 25 अक्टूबर को कश्मीर घाटी में हुई आतंकी वारदातों और उसके बाद 11 दिसम्बर को नेकां के वरिष्ठ नेता और विधि मंत्री अली मुहम्मद सागर पर हुए जानलेवा हमले के लिए भी मुस्तफा कमाल सेना और अफस्पा को ही जिम्मेदार ठहराते हैं। ये हमले मीरवाइज उमर फारूक के गढ़ में हुए थे। मुस्तफा कमाल की यह राय है कि सेना और अ‌र्द्धसैनिक बल इस प्रकार की गतिविधियों में शामिल हैं, क्योंकि वे नहीं चाहते कि राज्य से अफस्पा हटे। दूसरे ही दिन उन्होंने शक की सुई सेना की तरफ मोड़ते हुए कहा कि अली मुहम्मद सागर पर जानलेवा हमला मीरवाइज उमर फारूक और नेकां के बीच दरार पैदा करने के लिए किया गया था, जिनके बीच कटुता और वैमनस्यता का इतिहास है।
पीडीपी भी अफस्पा के निरस्तीकरण को सुनिश्चित बनाने के लिए संघर्षरत है। यह नेकां पर इस मुद्दे को तोड़-मरोड़ कर पेश करने और कश्मीर घाटी में इसका दोहन कर अब्दुल्ला वंश के जनाधार को नुकसान पहुंचाने का आरोप लगा रही है। व्यावहारिक रूप से यह कश्मीर के लोगों को आश्वस्त करने में सफल रही है कि नेकां सचमुच अफस्पा को हटाने के लिए प्रतिबद्ध नहीं है और इसने सत्ता में बने रहने के लिए इस मुद्दे पर अपने नजरिए से समझौता कर लिया है। वास्तव में, कश्मीर में दो प्रमुख राजनीतिक संगठनों के बीच आरोप-प्रत्यारोप का खेल जारी है। यह सच है कि इस खेल में पीडीपी आगे और नेकां पीछे है। दोनों पार्टियां अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए राजनीति कर रही हैं। हालांकि सत्ता के लिए नेकां और पीडीपी के बीच संघर्ष जारी है। इन दोनों पार्टियों के नेताओं का कहना है कि अफस्पा के हटने से कश्मीर के लोगों को सांस लेने के लिए जगह मिलेगी। उन पर विश्वास करना कठिन है।
मुद्दा यह नहीं है कि इस कानून के निरस्त होने से कश्मीरी मुस्लिमों को सांस लेने के लिए जगह मिलेगी। वास्तविक मुद्दा यह है कि अफस्पा के हटने से कश्मीर घाटी में अशांति दूर होगी या नहीं। अफस्पा के निरस्तीकरण से घाटी में मौजूदा अशांति कदापि दूर नहीं होगी। कारण, कश्मीर में अशांति अफस्पा लागू करने का नतीजा नहीं है। कश्मीरी नेता दशकों से जिस तरह शोर-शराबा की राजनीति कर रहे हैं, यह अशांति उसी का परिणाम है। इस मसले का मुख्य बिंदु धर्म पर आधारित पाकिस्तान की राजनीति, स्वतंत्रता, वृहत्तर स्वायत्तता और स्वशासन है। घाटी में जारी हिंसात्मक आंदोलन का अंतिम नतीजा विखंडन है। कश्मीरी नेता प्रतियोगितात्मक, सांप्रदायिकतावाद और अलगाववाद की राजनीति में शामिल हैं। उनका मकसद कश्मीर और देश के शेष हिस्सों के बीच विभाजन पैदा करना है। तथ्य यह है कि तथाकथित मुख्यधारा के नेकां नेतृत्व अफस्पा मुद्दे को फिर से उखाड़ने में लगे हुए हैं ताकि वास्तविक मुद्दों और अन्य मोर्चों पर मिली नाकामियों से लोगों का ध्यान हटा सकें। राज्य सरकार और विधानमंडल में जो कश्मीरी नेता हैं, वे अपनी मांगों पर पुनर्विचार कर अच्छा काम करेंगे। उन्हें लोकतंत्र, आर्थिक और प्रशासनिक मुद्दों पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए। इसके साथ ही उन्हें सुरक्षा संबंधी मामलों में हस्तक्षेप करने से परहेज करना चाहिए, क्योंकि ये मामले रक्षा मंत्रालय के क्षेत्राधिकार में हैं। 

(लेखक : जम्मू विवि के सामाजिक विभाग के पूर्व डीन हैं।)

Saturday, December 24, 2011

अफस्पा नहीं, भ्रष्टाचार है चिंता


केवल कृष्ण पनगोत्रा
कुछ दिन पूर्व सेना की 15वीं कोर के लेफ्टिनेंट जनरल (जीओसी) सईद अता हसनैन ने राज्य में आतंकवाद की स्थिति पर एक पते की बात कही। उन्होंने कहा कि वर्ष 2012 में आतंकियों के राज्य में घुसपैठ के प्रयासों, अफगानिस्तान और पाकिस्तान की परिस्थितियों का राज्य की सुरक्षा पर प्रभाव होगा। बकौल हसनैन-हमने दूसरी ओर (पाकिस्तानी, आतंकी और अलगाववादी मानसिकता से ग्रस्त लोग) की मंशा में कोई बदलाव नहीं देखा। लांचिंग पैड पर आतंकी घुसपैठ के लिए अवसर की तलाश में हैं। इस साल उन्होंने एक नहीं बल्कि कई बार घुसपैठ का प्रयास किया। श्रीनगर में जम्मू-कश्मीर के विधि मंत्री अली मुहम्मद सागर पर हुए आतंकी हमले को भी सैन्य कमांडर ने वर्ष 2012 में आतंकवाद जारी रहने संबंधी चिंता के दृष्टिगत ही देखा है। इसके अलावा कोर कमांडर का यह कहना भी खास मायने रखता है कि जब रूसी सेना अफगानिस्तान से हटी थी तो वहां सक्रिय कई आतंकी जम्मू-कश्मीर पहुंचे और आतंकी हिंसा में तेजी आई। अब अफगानिस्तान से नाटो सेना के हटने की संभावना है, इसलिए आतंकी फिर कश्मीर का रुख कर सकते हैं। उनका यह कहना भी जायज है कि वर्ष 2011 की शांति से आतंकी हताशा में हिंसा का रास्ता अख्तियार कर सकते हैं ताकि मरणासन्न आतंकवाद को जिंदा किया जा सके। अभी कुछ रोज पूर्व पुंछ के वीजी सेक्टर में आतंकियों के एक दल ने घुसपैठ का प्रयास किया था। आतंकियों और जवानों के बीच दो घंटे की गोलीबारी के बाद प्रयास नाकाम हुआ। सुरक्षा बलों को विश्वास में लिए बगैर अफस्पा जैसे कानून को हटाया नहीं जा सकता। ऐसा होना भी नहीं चाहिए, क्योंकि सेना, सुरक्षा और गुप्तचर एजेंसियों के बीच उच्चस्तरीय तालमेल से ही वर्ष 2011 में राज्य से आतंकवाद में काफी हद तक काबू पाया जा सका है। फिलहाल नेकां की प्रतिष्ठा का मुख्य सवाल राज्य के कुछ क्षेत्रों में अफस्पा हटाने का है लेकिन जिस तरह की आशंका सेना जता रही है, उसे देखते हुए यह भी नहीं कहा जा सकता कि आतंकी अफस्पा रहित शांत इलाकों में वारदात को अंजाम नहीं देंगे। और खास बात यह भी है कि जहां शांति है वहां अफस्पा स्वमेव ही प्रभावहीन है। जाहिर है कि शांत क्षेत्रों में अफस्पा को हटवाना एक खालिस सियासी मुद्दा है। नेकां इस कानून को हटवाने की जिद्द पर है और पीडीपी नेकां द्वारा श्रेय लेने की चिंता से ग्रस्त है। राज्य से आतंकवाद का समूल सफाया कब होगा? इस सवाल पर खुलकर गारंटी से कोई कुछ भी नहीं कह सकता। जिस चेतावनी के साथ विधि मंत्री पर हमले की जिम्मेदारी आतंकी संगठन जमायतुल मुजाहिदीन के अल-जब्बार स्क्वाड ने ली है उससे तो भविष्य में राज्य से संपूर्ण शांति की उम्मीद करना ही बेमानी होगी। समाचार पत्रों में जमायतुल मुजाहिदीन के प्रवक्ता के हवाले से जिस प्रकार की चेतावनी प्रकाशित हुई है उससे तो यही लगता है कि अफस्पा जैसे कानून को हटाने की फिलवक्त कोई जरूरत ही नहीं है। कारण चाहे कुछ भी हो, खास बात यह है कि जमायतुल मुजाहिदीन ने दूसरे भारत समर्थक नेताओं के साथ नेकां नेताओं और कार्यकर्ताओं को निशाना बनाने की चेतावनी दी है। कुल मिलाकर यह कहना गलत होगा कि सीमापार से आतंकियों की घुसपैठ बंद है और राज्य में आतंकी सक्रियता पूरी तरह से समाप्त हो गई है। जाहिर है कि इन हालात में जहां विशेष सुरक्षा घेरे में रहने वाले राजनेता सुरक्षित नहीं, वहां आम लोगों की सुरक्षा रामभरोसे ही है। अगर राज्य के कुछ क्षेत्रों में आतंकी गतिविधियां बंद हैं और शेष भागों में आतंकवाद में काफी कमी दर्ज की जा रही है तो यह अफस्पा के कारण ही संभव हुआ है। अत: सरकार के लिए यह जरूरी है कि सेना को अपना काम करने दिया जाए और अफस्पा की चिंता त्याग कर जम्मू-कश्मीर के सर्वोत्तम पीड़ादायक सामाजिक कष्ट भ्रष्टाचार की ओर वरीयता से ध्यान दिया जाए। अफस्पा से पूरे राज्य की जनता का कोई सरोकार नहीं लेकिन भ्रष्टाचार से हर आम आदमी सामाजिक और राजनैतिक तौर पर विचलित है। जब से लोकपाल सामने आया है तब से ही राज्य में भी मजबूत लोकपाल के समर्थन में सियासी और समाजी हलके संघर्षरत है और समाजसेवी अन्ना हजारे के समर्थन में स्वर मुखर किए हैं। राज्य में अचानक जनता का अन्ना के समर्थन में एकजुट हो जाना ही इस बात को दर्शाता है कि जनता आतंकवाद के साथ भ्रष्टाचार से भी पीडि़त है। राज्य के संदर्भ में खास बात यह है कि यहां जब भी सरकार विरोधी धरने-प्रदर्शन हुए, जनता ने आतंकवाद के साथ-साथ भ्रष्टाचार को भी खास मुद्दा बनाया है। इसका कारण यह है कि राज्य में भ्रष्टाचार काबू से बाहर हो चुका है। हाल में ही राज्य में मदरसों को आर्थिक सहायता के लिए जारी राशि पर केंद्र और राज्य सरकार का अलग-अलग आंकड़ा विवाद का मुद्दा बना हुआ है। मानव संसाधन मंत्रालय राज्य में मदरसों की सहायता के लिए वर्ष 2010-11 के लिए पांच करोड़ रुपये की जानकारी दे रहा है मगर राज्य सरकार तीन करोड़ 74 लाख रुपये बता रही है। राबिता मदरसा इस्लामिया अरबिया संगठन का कहना है कि उनके बैनर तले 200 मदरसे हैं मगर किसी भी मदरसे ने केंद्रीय सहायता की एक कौड़ी नहीं ली। राज्य में ऐसे और भी कई मदरसे हैं जिन्हें राज्य सरकार द्वारा केंद्रीय मदद का एक पैसा भी नहीं मिला। इन हालात में यह कहना गलत होगा कि अफस्पा को राज्य के कुछ क्षेत्रों से हटाने की मांग आम जनता की है। आम जनता अफस्पा से नहीं बल्कि भ्रष्टाचार से त्रस्त है। जहां सिर्फ सिटीजन चार्टर जैसे कानूनों की कागजी घोषणाएं ही होती हैं। आए दिन राज्य में भ्रष्टाचार के खुलासे होते रहते हैं मगर अपवाद को छोड़कर ही कार्रवाई होती है। क्या भ्रष्टाचार से बढ़कर कोई और चिंता है?
(लेखक : जम्मू-कश्मीर मामलों के अध्येता हैं।) 

स्वास्थ्य सेवाओं पर बढ़ता खर्च


दयासागर

गैर सरकारी संगठनों की ओर से दायर जनहित याचिका पर जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय के एक फैसले के तहत नवंबर माह में सरकारी अस्पताल में काम करने वाले डॉक्टरों की निजी प्रैक्टिस और सरकारी स्कूलों में पढ़ाने वाले अध्यापकों के ट्यूशन पर सरकार की ओर से दी गई ढील को नकार दिया गया है। जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय के इस फैसले के बाद सरकारी डॉक्टरों में काफी बेचैनी देखी जा रही है। आम आदमी इस विषय पर ज्यादा उत्साहित नहीं दिखता। अकसर लोगों को सरकारी अस्पताल की गिरती साख के बारे में बात करते सुना जा सकता है। लोगों का मानना है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के स्तर के लगातार गिरने का एक बड़ा कारण डॉक्टरों की निजी प्रैक्टिस है। कुछ समाचार पत्रों में यह खबर आ रही है कि सरकार उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ अपील करने की सोच रही है। इसके साथ यह तर्क भी दिया जा रहा है कि सामान्य जन को निजी प्रैक्टिस बंद होने से काफी परेशानी हो रही है। इसलिए सरकार पर निजी प्रैक्टिस को खोलने के लिए कोई रास्ता निकालने का दबाव बन रहा है। क्या सचमुच आम जन की ओर से इस प्रकार की मांग की जा रही है? हां, यह जरूर कहलवाया जा रहा है कि डॉक्टरों की कमी है, प्रैक्टिस बंद होने के बाद डॉक्टरों को अस्पताल में रात के समय आपातकालीन स्थिति में आने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। गांवों और दूरदराज के बाहरी इलाकों में निजी प्रैक्टिस बंद होने से लोग कहां जाएंगे? ऐसे तर्क आम आदमी की ओर से कम और डॉक्टरों की ओर से ज्यादा आ रहे हैं। इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि कुछ डॉक्टरों को आम आदमी की चिंता है। अपने सामाजिक प्रभाव का इस्तेमाल कर सरकार पर दोबारा निजी प्रैक्टिस शुरू करने का दबाव बनाने वाले अधिकांश डॉक्टर यह मांग आम आदमी की भलाई के लिए नहीं बल्कि अपनी कमाई के लिए कर रहे हैं। आम आदमी की चिकित्सकीय आवश्यकता को देखते हुए सरकारी कर्मचारी होते हुए भी डॉक्टरों को निजी प्रैक्टिस में पैसा लेकर मरीजों को देखने की अनुमति मिली थी। इसमें कोई बुराई भी नहीं थी। इस फीस को हम मानदेय कहते तो ज्यादा उचित होता। पर वह ढील इतनी ही थी कि आपातकाल में एक मरीज को निकटतम डॉक्टर से सलाह एवं चिकित्सा मिल सके। यह ढील डॉक्टरों को उनकी कमाई बढ़ाने और व्यापार करने के लिए नहीं दी गई थी। उच्च न्यायालय के फैसले को सामने रखते हुए अगर सरकार और सामाजिक संस्थाओं को कोई विचार करना है तो वह यह कि निजी प्रैक्टिस के विरोध में आखिर आवाज क्यों उठी? एक बात तो दृढ़ता से कही जा सकती है कि सरकारी डॉक्टरों को निजी प्रैक्टिस की इजाजत सिर्फ उनकी कमाई बढ़ाने के लिए नहीं बल्कि आम आदमी के हित में दी गई थी। जबकि स्थिति बिल्कुल विपरीत है। सेवा नियमों में दी गई छूट का इस्तेमाल सरकारी डॉक्टरों को निजी प्रैक्टिस के लिए सिर्फ सलाह और आपातकालीन स्थिति में देखने के लिए ही करना था। सरकारी डॉक्टर निजी व्यवसाय की तरह उपकरण लगाने और लेबोरेट्री खोलने लग गए हैं। हो सकता है ये किसी और के नाम पर चल रहे हों। अकसर देखा जाता है कि निजी अस्पताल और नर्सिग होम सरकारी सेवा में लगे डॉक्टरों की सदाशयता पर ही चल रहे होते हैं। निजी प्रैक्टिस की व्यवस्था, जो आम आदमी की भलाई के लिए की गई थी, आज कष्ट का कारण बन गई है। सरकार द्वारा स्वास्थ्य सेवाओं पर करोड़ों रुपये वेतन और संसाधनों के रूप में खर्च करने के बावजूद आज आम आदमी तो क्या, उच्च सरकारी कर्मचारियों और राजनेताओं का भी सरकारी अस्पतालों पर से विश्वास उठ गया है। इस कारण आम आदमी पर स्वास्थ्य सेवा का खर्च बढ़ गया है। अकसर कहा जाता है कि निजी प्रैक्टिस के कारण सरकारी डॉक्टर प्राइवेट लेबोरेट्रीज में लगे उपकरणों के इस्तेमाल के लिए बिना जरूरत के भी मरीजों को जांच करवाने के लिए भेजते हैं। इनमें कुछ तो सच्चाई होगी। इसलिए आज इस बात पर भी विचार करने की जरूरत है कि कहीं 25 नवंबर, 2011 तक जिस स्तर पर सरकारी डॉक्टरों की निजी प्रैक्टिस पर आरोप लग रहे थे, उसको देखते हुए लाभ से ज्यादा नुकसान तो नहीं हो रहा था। इसलिए राज्य सरकार को जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ अपील करने या निजी प्रैक्टिस को खोलने के लिए कोई और रास्ता ढूंढने पर विचार करते हुए इन बातों का भी ध्यान रखना चाहिए-1. डॉक्टरों को निजी प्रैक्टिस की अनुमति उनकी आमदनी बढ़ाने के लिए नहीं दी गई थी। 2. सरकारी डॉक्टरों को निजी प्रैक्टिस इमरजेंसी/ लोकल कंसल्टेशन के लिए रखी गई थी, न कि निजी व्यापार के लिए। 3. सरकारी नौकरी पार्ट टाइम नहीं है। अगर डॉक्टरों को उनकी कमाई बढ़ाने के लिए नॉन प्रैक्टिसिंग अलाउंस (एनपीए) देना है तो फिर सभी सरकारी कर्मचारियों को (इंजीनियर, अकाउंटेंट, नर्स और वकील भी परामर्श देकर लाखों कमा सकते हैं) एनपीए देना या उनको भी प्राइवेट काम करने की अनुमति देनी होगी। 4. इन दिनों बहुत से निजी अस्पताल खुल गए हैं। बहुत से सरकारी डॉक्टर रिटायर हो चुके हैं और बहुत से डॉक्टर डिग्री हासिल करने के बाद नौकरी के लिए घूम रहे हैं। इन बातों को भी ध्यान में रखना चाहिए। 5. अगर डॉक्टरों का वेतनमान कम है और सरकारी खजाना अधिक वेतन दे सकता है तो डॉक्टरों की तनख्वाह बढ़ानी चाहिए। 6. अकसर प्राइवेट क्लीनिक या निजी प्रैक्टिस करने वाले सरकारी डॉक्टर सीरियस पेशेंट या इमरजेंसी केस को आखिर सरकारी अस्पताल या मेडिकल कॉलेज अस्पताल ही रेफर कर देते हैं। 7. दूरदराज इलाकों में अगर यह समझा जाता है कि वहां पर प्राइवेट डॉक्टर नहीं हैं तो वहां सरकारी डॉक्टरों को ड्यूटी के बाद मरीजों को देखने की इजाजत दी जा सकती है और वह जो पैसा लेगा उसे फीस की जगह मानदेय कहा जा सकता है। इसी प्रकार कुछ दूसरे पहलुओं पर ध्यान देने की जरूरत है। पहले भी दो बार निजी प्रैक्टिस पर पाबंदी लगाई गई थी पर डॉक्टरों की कोशिश ज्यादा और आम लोगों की मांग कम होने की वजह से इसे फिर खोल दिया गया था। यह बात भी ठीक है कि कानून या नियम बनाना सरकार का काम है। पर कोई भी नियम बनाते समय मूलभूत सिद्धांतों और सरकारी तंत्र की जिम्मेदारी को दरकिनार नहीं किया जा सकता। यह बात एक सरकारी कर्मचारी जो सरकारी कोष से सामाजिक हितों में चलाई जा रही योजनाओं को लागू करने के लिए रखा जा सकता है, के सेवा नियमों पर भी लागू होती है।

(लेखक : जम्मू-कश्मीर मामलों के अध्येता हैं।)

Wednesday, December 14, 2011

अफगानिस्तान से आ सकते हैं आतंकी


श्रीनगर। सेना की 15 कोर के कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल सैयद अता हसनैन ने कहा कि अफगानिस्तान से नाटो सेना के हटने की पूरी संभावना है, ऐसे में वहां सक्रिय आतंकी कश्मीर का रुख कर सकते हैं। उन्होंने आशंका जताई कि अगले तीन माह के दौरान सीमा पार से घुसपैठ की कोशिशों में तेजी आएगी। हसनैन बुधवार को बारामूला जिले में एलओसी के साथ सटे उड़ी सेक्टर में एक कार्यक्रम के बाद पत्रकारों के सवालों के जवाब दे रहे थे। उन्होंने कहा कि जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद पर अफगानीस्तान और पाकिस्तान के हालात का सीधा असर होता है। जब रूसी सेना अफगानिस्तान से हटी थी तो वहां सक्रिय कई आतंकी जम्मू-कश्मीर पहुंचे और यहां आतंकी हिंसा में तेजी आई। अब वहां से नाटो सेना के हटने की पूरी संभावना है, इसलिए आतंकी फिर कश्मीर का रुख कर सकते हैं। कोर कमांडर ने कहा कि अगला साल जम्मू-कश्मीर के लिए बहुत अहम है, क्योंकि वर्ष 2011 में जो अमन रहा है, उससे आतंकी और उनके आका पूरी तरह हताश हैं। इसलिए वह चाहेंगे कि वर्ष 2012 में हिंसा हो और मरनासन्न आतंकवाद को फिर से जिंदा किया जाए। उन्होंने कहा कि इस समय सीमा पार स्थित लांचिंग पैड पर आतंकियों की एक बड़ी तादाद घुसपैठ के लिए तैयार बैठी है। आतंकी इस बार उड़ी सेक्टर से घुसपैठ की कोशिश कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि हमें आतंकियों के मंसूबों का पूरा आभास है और उनसे निपटने के लिए हमने पूरी तैयारी कर रखी है। बीते ढाई माह के दौरान हमने घुसपैठ का कोई प्रयास कामयाब नहीं होने दिया है, लेकिन इससे पता चलता है कि आतंकी इस बार जनवरी से मार्च माह तक पहाड़ों पर बर्फ के दौरान घुसपैठ की कोशिश करेंगे। (दैनिक जागरण, जम्मू संस्करण)

नाटो सैन्य वापसी से कश्मीर को खतरा
श्रीनगर। अफगानिस्तान से नाटो सेना के हटने की पूरी संभावना है। ऐसे में वहां सक्रिय आतंकी कश्मीर का रुख कर सकते हैं। सेना की 15 कोर के कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल सैयद अता हसनैन ने आशंका जताई है कि अगले तीन माह के दौरान सीमा पार से घुसपैठ की कोशिशों में तेजी आएगी। सैयद अता हसनैन बुधवार को बारामूला जिले में एलओसी के साथ सटे उड़ी सेक्टर में सीमांत क्षेत्र विकास कार्यक्रम के तहत जारी योजनाओं की समीक्षा के लिए आयोजित एक बैठक के बाद बातचीत कर रहे थे। हसनैन ने कहा कि अफगानिस्तान और पाकिस्तान के हालात का सीधा असर वादी में आतंकवाद पर पड़ता है। उन्होंने बताया कि रूसी सेना के अफगानिस्तान से हटने के बाद वहां सक्रिय कई आतंकियों ने जम्मू-कश्मीर पहुंचकर वारदातों को अंजाम दिया था। अब वहां से नाटो सेना के हटने की पूरी संभावना है। इसलिए आतंकी फिर कश्मीर का रुख कर सकते हैं। इसके अलावा पाकिस्तान के अंदर खराब हालात का असर भी कश्मीर में होगा। कोर कमांडर ने कहा कि अगला साल जम्मू-कश्मीर के लिए बहुत अहम है, क्योंकि वर्ष 2011 में रहे अमन से आतंकी और उनके आका हताश हैं। इसलिए वह चाहेंगे कि वर्ष 2012 में हिंसा हो और आतंकवाद को फिर जिंदा किया जाए। उन्होंने कहा कि इस समय सीमा पार स्थित लांचिंग पैड पर आतंकियों की बड़ी तादाद घुसपैठ के लिए तैयार बैठी है। आतंकी इस बार उड़ी सेक्टर से घुसपैठ की कोशिश कर रहे हैं। हसनैन ने कहा कि हमें आतंकियों के मंसूबों का पूरा आभास है और उनसे निपटने के लिए हमने पूरी तैयारी कर ली है। उन्होंने कहा कि बीते ढाई माह के दौरान हमने सीमा पार से घुसपैठ का कोई प्रयास कामयाब नहीं होने दिया है, लेकिन इससे पता चलता है कि आतंकी इस बार जनवरी से मार्च तक पहाड़ों पर बर्फ के दौरान ज्यादा से ज्यादा घुसपैठ की कोशिश करेंगे। (दैनिक जागरण, राष्ट्रीय संस्करण)
 

गद्दी-सिप्पी समुदाय को नहीं मिल रहा हक : सिंह


जम्मू। प्रदेश भारतीय जनता पार्टी ने कहा है कि राज्य सरकार की सांप्रदायिक सोच के कारण जम्मू संभाग में बसने वाले हिंदू गद्दी, सिप्पी समुदाय को उनका हक नहीं मिल रहा है। भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य डॉ. निर्मल सिंह ने इन समुदायों को शेड्यूल ट्राइब को मिलने वाले लाभ नहीं देने के लिए राज्य सरकार को आड़े हाथ लेते हुए कहा कि वह कश्मीर केंद्रित सोच त्यागकर कार्य करे। 
सिंह ने बुधवार को पार्टी मुख्यालय में आयोजित संवाददाता सम्मेलन में कहा कि जम्मू संभाग के बसोहली, कठुआ, ऊधमपुर, राजौरी व पुंछ में बसने वाले ढाई लाख गद्दी, सिप्पी समुदाय सरकारी भेदभाव का शिकार बनकर रह गए हैं। इन समुदायों को विशेष दर्जा देने की मांग करते हुए सिंह ने कहा कि सरकार ने सारा ध्यान गुज्जरों व बक्करवालों के उत्थान पर केंद्रित कर दिया है। इससे गद्दी, सिप्पी समुदाय सामाजिक, आर्थिक व शैक्षणिक स्तर पर पिछड़ गए हैं। सिंह ने कहा कि शेड्यूल ट्राइब समुदायों के लिए बनी केंद्र प्रायोजित योजनाओं का लाभ देने के साथ राज्य सरकार इन समुदायों के विकास के लिए भी प्रोजेक्ट बनाए। संवाददाता सम्मेलन में बाली भगत व सुनील सिंह भी मौजूद थे।

मानवाधिकारों की दुहाई

केवल कृष्ण पनगोत्रा
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की एक ताजा रिपोर्ट ने जम्मू-कश्मीर में सशस्त्र सेना विशेषाधिकार अधिनियम (अफस्पा) की तार्किकता पर सवाल उठाए हैं। आयोग का कहना है कि भारत सरकार स्वयं जानती है कि देश किसी सशस्त्र विवाद की स्थिति का सामना नहीं करता। देश में मानवाधिकारों की दूसरी व्यापक सामयिक समीक्षा (सेकंड यूनिवर्सल पीरियोडिक रिव्यू) में आयोग के इस नजरिए का खुलासा हुआ है। आयोग की यह दृष्टि मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को काफी रास आ रही है। वह अपनी संतुष्टता भी जाहिर कर चुके हैं। उनकी दलील है कि कुछ लोग उन पर जनता का ध्यान बंटाने का आक्षेप लगाते हैं, लेकिन राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग तो ध्यान नहीं बंटा रहा। बात का लबोलुआब यह है कि अफस्पा एक निर्दयी कानून है और मानवाधिकारों की रोशनी में अफस्पा का हटना तर्कसंगत है। लेकिन मानवाधिकारों को आधार मानकर अफस्पा को अनुचित बताना समझ से परे है। मानवाधिकारों की कसौटी पर राज्य का नागरिक प्रशासन भी खरा नहीं उतरता। वास्तव में जम्मू-कश्मीर ही नहीं अपितु पूरी दुनिया में मानवाधिकारों का हनन एक गंभीर और चिंतनीय मुद्दा है। मानवाधिकारों का एक विस्तृत क्षेत्र है। कालक्रम की लिहाज से देखा जाए तो भारत में मानवाधिकार संदर्भित घटनाओं की सूची और क्षेत्र बड़ा लंबा है। 1829 में अंग्रेजी शासन के दौरान राजा राममोहन राय के प्रयासों से सती प्रथा का बंद होना, 1929 में बाल-विवाह अधिनियम, 1947 में ब्रिटिशराज से राजनैतिक आजादी, 1950 में बने संविधान में मूल अधिकारों की गारंटी तक का संबंध किसी न किसी रूप में मानवाधिकारों से ही है। मगर फिर भी 1829 से लेकर आज तक मानवाधिकारों के हनन का चैप्टर बंद नहीं हुआ। अगर यह चैप्टर बंद होता तो न आज मानवाधिकार आयोग होता, न ह्यूमन वॉच और न ही एमनेस्टि इंटरनेशनल जैसी मानवाधिकारवादी एजेंसियां। मोटे तौर पर देखा जाए तो कुछ अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार एजेंसियां, यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी जम्मू-कश्मीर में मानवाधिकारों के हनन की शिकायत की है। मानवाधिकार उच्चायुक्त कार्यालय के एक प्रवक्ता ने एक प्रेस विज्ञप्ति में कश्मीर में नागरिकों की मृत्यु और अभिव्यक्ति के अधिकार पर पाबंदियों का संज्ञान लिया है। यह पाबंदियां मात्र कश्मीर घाटी में ही नहीं अपितु पूरे राज्य में हैं। काबिलेगौर है कि ये पाबंदियां मात्र अफस्पा जैसे कानून से ही पैदा नहीं हुई हैं बल्कि नागरिक और सरकारी स्तर पर जनता पर थोपी गई हैं। आखिर जब जनता अपने नागरिक अधिकारों के लिए धरने-प्रदर्शन करती है तो उन पर सेना नहीं बल्कि नागरिक प्रशासन लाठियां बरसाता है। क्या एक सरकारी कर्मचारी को दंडित करने के लिए उसके वेतन पर लगाई गई रोक उसके मानवाधिकार का हनन नहीं? मानवाधिकार सिर्फ अफस्पा तक ही सीमित नहीं हैं बल्कि इनका दायरा बहुत बड़ा है। सवाल यह भी है कि अगर मानवाधिकारों को आधार बनाकर अफस्पा समाप्त होना चाहिए तो राज्य में व्याप्त भ्रष्टाचार के चलते नागरिक अधिकारों के हनन के आधार पर राज्य सरकार को भी जाना चाहिए। गहनता से देखा जाए तो कोई भी सरकार मानवाधिकारों के विभिन्न आयामों और पहलुओं के हिसाब से नागरिकों के प्रत्येक अधिकार की रखवाली करने में नाकाम रही है। कुछ लोग तो मात्र संविधान द्वारा प्रदत्त मूल अधिकारों को ही मानवाधिकार प्रतिपादित करते हैं। अगर भारतीय संविधान में दर्ज मूल अधिकारों के संदर्भ में देखा जाए तो भी सरकार लोगों के मानवाधिकारों की रक्षा करती नजर नहीं आती। भारत में आपातकाल के दौरान संविधान द्वारा प्रदत्त मूल अधिकारों को स्वमेव निलंबित माना जाता है। क्या यह मानवाधिकार का उल्लंघन नहीं? इसी बात के दृष्टिगत 1978 में मेनका गांधी बनाम भारत संघ के एक मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी थी कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन का अधिकार आपातकाल के दौरान निलंबित नहीं किया जा सकता। मानवाधिकारों की सूक्ष्म दृष्टि से तो नागरिकों को शिक्षा और रोजगार से वंचित रखना भी मानवाधिकारों का हनन है। वस्तुत: भारत में मानवाधिकारों की स्थिति ही बहुत पेचीदा है। हालांकि संविधान में जिन मूल अधिकारों का उल्लेख है वह मानवाधिकारों के दृष्टिगत ही नागरिकों को दिए गए हैं। मगर फिर भी 2010 के दौरान प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में ह्यूमन राइट्स वॉच नामक मानवाधिकार संस्था ने भारत को मानवाधिकारों के हनन का देश बताया है। संस्था ने मात्र सुरक्षाबलों को ही नहीं अपितु पुलिस की क्रूरता पर भी सवाल खड़े किए हैं। यहां यह ध्यान देना भी जरूरी है कि नागरिक प्रशासन की सहयोगी पुलिस मात्र जम्मू-कश्मीर जैसे आतंकग्रस्त राज्यों में ही क्रूर नहीं है बल्कि हिमाचल, पंजाब और हरियाणा जैसे शांत राज्यों में भी सामान कार्यप्रणाली से काम करती है। मानवाधिकार संस्थाओं का अपना कार्यक्षेत्र और कार्यपद्धति है। इन्हें मानवाधिकारों के प्रत्येक पहलू के दृष्टिगत अपने निष्कर्ष एवं रिपोर्ट देनी होती है। बेशक इनका कार्य तथ्यों पर आधारित होता है, लेकिन अक्सर इन रिपोर्टो पर बहस और विवाद भी बने रहते हैं। इन एजेंसियों पर आतंकवाद प्रभावित क्षेत्रों में आतंकवादियों द्वारा मारे जाने वाले निर्दोष लोगों के मानवाधिकार की चिंता न करने के आक्षेप लगते रहे हैं। जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में यह तो माना ही जा रहा है कि अफस्पा जैसे कानून से ही राज्य के कुछ भागों में शांति स्थापित हुई है। जाहिर है कि इस शांति को बनाने में सैनिक कार्रवाई के दौरान मानवाधिकार का हनन हुआ होगा। कई बार शांति के लिए समाज और देशविरोधी तत्वों से सशस्त्र टकराव जरूरी हो जाता है और टकराव में मानवाधिकारों के हनन को टाला नहीं जा सकता। ऐसे मामलों में सुरक्षाबल किसी के अधिकारों के हनन के इच्छुक नहीं होते बल्कि ये घटनाएं आतंकियों और देशविरोधी तत्वों की क्रिया की स्वाभाविक प्रतिक्रिया का परिणाम होती है।
(लेखक : जम्मू-कश्मीर मामलों के अध्येता हैं।)

तरक्की के लिए तरसते रास्ते


दयासागर
जम्मू संभाग के डोडा क्षेत्र (किश्तवाड़, डोडा और रामबन) की तरह राजौरी और पुंछ जिले भी उपेक्षा के शिकार हैं। वर्ष 1978-79 में मुगल रोड की जो दुर्दशा शुरू हुई वह उपेक्षा की कहानी बयां करती है। कृषि और बागवानी विभाग से भी सौतेला व्यवहार किया गया है। इन जिलों में भी स्वादिष्ट फलों का उत्पादन हो सकता है। पुंछ के स्वादिष्ट आडू प्रशंसनीय हैं। राजौरी की दालों और मीठे चावलों से बाहरी लोगों को कभी परिचित नहीं कराया गया। यद्यपि मुगल शासकों ने कश्मीर जाने के लिए इसी रास्ते का प्रयोग किया था, लेकिन उन्होंने भी इन क्षेत्रों के विकास के लिए कुछ नहीं किया। वर्ष 1947 से पहले महाराजा के शासनकाल में भी यहां पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए कोई कदम नहीं उठाया गया। पुंछ, जम्मू-कश्मीर राज्य का एक जागीर था। जेएंडके के महाराजा ने श्रीनगर को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाया था। उन्होंने सिर्फ कश्मीर घाटी को ही बाहरी दुनिया के सामने प्रदर्शित किया। नि:संदेह महाराजा के पास संसाधनों की कमी थी। हालांकि पिछले पांच वर्षो में राज्य सरकार ने इन जिलों में बुनियादी ढांचे के विकास के लिए थोड़ी रुचि दिखाई है, लेकिन उपेक्षाओं की भरपाई के लिए बड़ी परियोजनाओं पर काम करने की जरूरत है। वर्ष 1947 में पाक प्रायोजित जनजातीय समुदाय के हमलों में सबसे अधिक इन्हीं इलाकों को नुकसान हुआ था। वर्ष 1990 से इन जिलों में आतंकियों ने अनेक निर्दोष लोगों का खून बहाया है, जिस कारण जो थोड़ा-बहुत विकास हो रहा था वह भी थम गया है। शैक्षणिक और प्रशासनिक दृष्टि से ये इलाके बहुत पिछड़े हैं। इन क्षेत्रों में अधिकांश लोग गरीब हैं और सरकारी स्कूलों पर ही निर्भर हैं। पिछले 21 वर्षो की अशांति ने सरकारी स्कूलों के बुनियादी ढांचे को ध्वस्त कर दिया है। बावजूद इसके इन जिलों में व्यावसायिक पर्यटन के विकास की अपार संभावनाएं हैं। इन क्षेत्रों में बड़ी संख्या में ऐतिहासिक और धार्मिक स्थल हैं। इनके इर्द-गिर्द पर्यटकों की रुचि के कई स्थान हैं, जहां गर्मियों में भी ठंडा और सुहावना मौसम होता है। बुद्धा अमरनाथ मंदिर मंडी, गुरुद्वारा नांगली साहिब, दशनामी अखाड़ा (पुंछ), राजौरी स्थित शाहदरा शरीफ की जियारत, जियारत बडगयाल डोरा (पुंछ), जियारत बाटलकोट मंडी, जियारत गुनट्रियन पुंछ, जियारत पमरोट सुरनकोट व जियारत छोटे शाह मेंढर जैसे तीर्थस्थल और मकबरे पर्यटकों को लुभा सकते हैं। इन क्षेत्रों में कुछ दिन रुकने की योजना बनाई जा सकती है। यहां रिसॉर्ट और मनोरंजनस्थल बनाए जा सकते हैं। छुट्टी बिताने और स्वास्थ्य लाभ के लिए सैरगाह को बढ़ावा दिया जा सकता है। कश्मीर से पर्यटक यहां आएं और फिर कश्मीर के रास्ते ही लौटें, यह ठीक नहीं होगा। कश्मीर जा रहे पर्यटकों को इन जिलों से जाने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है। यहां तक कि मुगल शासक भी कश्मीर घाटी जाने के लिए राजौरी-पुंछ मार्ग का ही इस्तेमाल करते थे। सुंदरबनी तक गर्म इलाकों की यात्रा करने के बाद पर्यटकों को बढि़या मौसम मिल सकता है। पुंछ के रास्ते में चिंगस और लंबेरी (नौशहरा) के किलों में पर्यटकों की रुचि हो सकती है। बफलियाज-शोपियां मार्ग से भी पर्यटकों के लिए रास्ता बनाया जा सकता है। रोमांच से भरा यह रास्ता पर्यटकों की प्रतीक्षा कर रहा है। इस क्षेत्र की प्राकृतिक सुंदरता देखने लायक है। हरे-भरे जंगलों, चारागाहों, ऐतिहासिक जलप्रपातों और सात खूबसूरत झीलों (चन्दन सर, दिव्य सर, सुख सर, गम सर) की सुंदरता मनमोहक है। इसके आसपास कुछ और छोटी झीलें हैं, लेकिन ये अधिक ऊंचाई पर हैं। पीरपंजाल क्षेत्र में 12000 फीट की ऊंचाई पर स्थित घाटियां अलियाबाद सराय से सिर्फ 6-7 किलोमीटर दूर हैं। गंगा छौती, टट्टा कट्टी, कंगलाना आदि पहाड़ी चोटियों की कोई सानी नहीं है। इन इलाकों के पिछड़ेपन के लिए कश्मीरी नेतृत्व पर आरोप लगाने का कोई मतलब नहीं है। बेहतर होगा कि अच्छे परियोजनाओं पर काम कर केंद्र सरकार को प्रभावित किया जाए ताकि वह विशेष कार्यक्रमों के जरिए राज्य सरकार की मदद करे। काफी समय बीत चुका है, इसलिए इन क्षेत्रों में औद्योगिक विकास के लिए अधिक समय और अतिरिक्त पूंजी की जरूरत है। शुरुआत में तीर्थस्थलों को बढ़ावा दिया जा सकता है। इसके बाद व्यावसायिक पर्यटन के लिए बुनियादी ढांचे को विकसित किया जा सकता है। पांच या दस करोड़ के छोटे प्रस्तावों के बदले कुछ हजार करोड़ रुपये आवंटित करने की जरूरत है। पर्यटकों के सुरक्षित और आरामदायक सफर के लिए एक किलोमीटर सड़क निर्माण की न्यूनतम लागत 5 से 10 करोड़ रुपये आएगी। छह दशकों की उपेक्षा की भरपाई के लिए इन जिलों के लिए एक उच्च अधिकार प्राप्त पर्यटन विकास प्राधिकरण की आवश्यकता है। प्राधिकरण का मुखिया अतिरक्त मुख्य सचिव से कम स्तर का अधिकारी नहीं होना चाहिए। इन इलाकों में बुनियादी ढांचे के विकास पर तीन से चार हजार करोड़ रुपये खर्च करने की जरूरत है। अगर सही समय पर काम किया गया होता तो तीन-चार सौ करोड़ रुपये में ही कार्य संपन्न हो जाता। मुगल रोड परियोजना को भी पर्यटन विकास कार्यक्रम से जोड़ने की आवश्यकता है। जब सड़कों और इमारतों का निर्माण होता है तो कई बार कुल लागत की आधी से अधिक धनराशि प्रत्यक्ष या परोक्ष सेवा के रूप में स्थानीय लोगों को मिलती है। यही नहीं, रोजगार और व्यापार के अवसर भी उपलब्ध होते हैं, जिससे अर्थव्यवस्था बेहतर होती है। इससे धर्म के नाम पर गरीबों का शोषण करने वाले देश विरोधी तत्वों का काम कठिन हो जाता है। शैक्षणिक पिछड़ापन भी दूर होता है। स्थानीय लोग बाहरी सूचनाओं से जुड़ते हैं। हिमाचल प्रदेश के डलहौजी व धर्मशाला की तरह पुंछ और राजौरी भी सुंदर है। सुरनकोट की सुंदरता और इसके नजदीक बफलियाज मार्ग पर छह किमी लंबे मैदान का दृश्य दुर्लभ है। नूरी छम्ब में चीर के जंगल और जल प्रपात हैं। छम्ब से महज 22 किमी दूर मंडी में बुद्धा अमरनाथ श्राइन है। पर्यटकों के ठहरने के लिए मंडी को विकसित किया जा सकता है। उदाहरण के लिए बुद्धल ठंडा और सुंदर क्षेत्र है, लेकिन यह शहर उपेक्षित है। बुद्धल के पास संगरी एक अन्य सुंदर पहाड़ी इलाका है। मंडी से सिर्फ 22 किमी दूर लोरान है। लोरान से छह किमी दूर 10 वर्ग किलोमीटर लंबा गली मैदान है। गली मैदान से करीब 20 किमी दूर मुगल रोड पर पूरे साल बर्फ के मैदान देखे जा सकते हैं। मुगल रोड से लिंक जोड़ने के लिए बड़े सुरंगों का निर्माण आवश्यक है। इसके लिए अनुभवी व पेशेवर निर्माण कंपनियों की जरूरत है, ताकि इन परियोजनाओं को वर्ष 2014 तक पूरा किया जा सके। (लेखक जम्मू-कश्मीर मामलों के अध्येता हैं।)

समस्या के समाधान तक उठाते रहेंगे कश्मीर मुद्दा

Suresh Joshi alias Bhaiyaji Joshi
सुरेश जोशी उपाख्य भैयाजी

वर्ष 1947 के पूर्व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाओं में एक खेल मैदान पर खेलते थे, वह खेल था दिल्ली किसकी है। 1947 के बाद खेल बदला और प्रश्न आया कि कश्मीर किसका है? कश्मीर हमारा है। संघ की शाखा में स्वयंसेवकों के मन में इस भाव का जागरण बहुत पहले से ही होता आया है। समस्या है कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, इसके बारे में संघ के स्वयंसेवकों के मन में अलग कोई भावना या विचार नहीं है, पहले से ही इस प्रकार की धारणा है।

कश्मीर के संदर्भ में भावी परिदृश्य क्या होता है? जो भूत में था वही परिदृश्य है, वर्तमान में वही रहेगा, कोई अलग नहीं है। वर्तमान में जो है उसके कारण कुछ प्रश्न है। कश्मीर के संदर्भ में वर्तमान परिदृश्य भूतकाल का परिदृश्य नहीं है और यह वर्तमान का भी परिदृश्य देने वाल नहीं है। कश्मीर के संदर्भ में भावी परिदृश्य यही है कि जो प्रारम्भ से चला आ रहा है उसी दृष्टिकोण को देश ही नहीं बल्कि दुनिया के समक्ष सिद्ध करना, हमारा यही कार्य है। परिदृश्य के बारे में कोई दोराय नहीं है।

इस देश पर समय-समय पर विभिन्न प्रकार के आक्रमण होते आये हैं। शस्त्र लेकर आये, सारा एकदम खुला स्वरूप था आक्रमण का, ध्यान में आता है, तो लोग तैयारी करते थे आक्रमण का। पुरुषार्थ के बल पर, शक्ति के बल पर विजय प्राप्त करते हैं। तो एक बहुत लम्बी परम्परा इस देश की शक्ति ने, पुरुषार्थ ने देखी है कि किस प्रकार से शत्रुओं का सामना करना पड़ता है। शस्त्र के सामने न झुकते हुए चलते थे उसी कारण भारत का अस्तित्व विश्वमंच पर बना रहा है नहीं तो भारत समाप्त हो जाता।

एक दूसरा विभिन्न प्रकार का आक्रमण जो चला, योजना पूर्वक एक षड्यंत्र के रूप में रहा, अंग्रेजों का जो आक्रमण था वह बहुत ही सहज, हमें लगा भी नहीं कि कोई शत्रु आ रहा है, अंग्रेज हमें मित्र ही लगे। लोगों को कितनी प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध करायी। अगर अंग्रेज नहीं होते तो यह देश कैसे बनता, अंग्रेजों ने एक देश को देश दिया है। ऐसी भावना अच्छे-अच्छे और बुद्धिमान लोगों के मन में है। कभी-कभी लोग कहते थे कि अंग्रेजों का राज्य बहुत अच्छा था, क्या अच्छा था- तो कोई कष्ट नहीं, सुविधाएं सब प्रकार की थी, सब सम्मान मिलता था। रायबहादुर वगैरह इस प्रकार की पदवियां दी जाती थीं। समाज के संभ्रांत लोग अपने आपको धन्य मानते थे। उस समय के अंग्रेज अधिकारियों के साथ उठना-बैठना तथा चाय-पान करने को एक बड़ा गौरव मानते थे। तो शत्रु को शत्रु न समझना, यह बहुत ही कठिन स्थिति है किसी देश के लिए। अंग्रेज इस देश में कई प्रकार के बीज रोपण करके गये कि यहां का एक समान्य व्यक्ति भी भारत का दिखेगा लेकिन भारत का रहेगा कि नहीं, यह प्रश्न है। यह सामान्य अनुभव हम लोग देखते आये हैं।

अब वर्तमान का दृश्य जब हम देखते हैं तो दोनों प्रकार के आक्रमण हमारे देश पर चल रहे हैं। शस्त्र का सहारा लेकर आतंकवाद यहां प्रवेश कर चुका। और भी भिन्न-भिन्न प्रकार की आर्थिक शक्तियों का इस देश के जीवन में हस्तक्षेप भारत को फिर से अर्थ की दृष्टि से गुलाम बनाने में लगा हुआ है। शस्त्र का सहारा लेकर आतंकवाद के रूप में खुला आक्रमण भी चल रहा है; परन्तु दुर्भाग्य की स्थिति इस समय यह हो रही है कि इस देश में रहने वाले लोगों को ही अपने मित्र बनाकर अपने देश के साथ गद्दारी करने वाले खड़े करते गये। आतंकी घटनाएं होती हैं, मुम्बई, दिल्ली, जम्मू में होती है, या देश में कहीं और होती है, यह इसीलिए होती है क्योंकि उनको सहयोग करने वाले तत्व यहां विद्यमान हैं। यह पिछले आक्रमणों की तुलना में आया हुआ एक नया रूप है। इस देश के अंदर ही उनको सब प्रकार से सहयोग करने वाले लोग हैं। क्या अजमल कसाब बिना किसी सहयोग के ही यहां आया? केवल कसाब की ही बात नहीं है, बल्कि 26/11 में तो 10 पाकिस्तानी आतंकी समुद्री सीमा से देश में घुस आये और मुम्बई में तीन दिन तक रहकर 26/11 को अंजाम दे दिया। यह बिना किसी सहयोग के संभव ही नहीं है। यह सारा कुछ इसलिए हो रहा है कि देश के साथ गद्दारी करने वाली शक्तियां सक्रिय हैं। यह एक बड़ी समस्या है। इसके साथ हम जूझ रहे हैं।

सीमावर्ती देश पाकिस्तान, चीन और बांग्लादेश अपने देश में घुसपैठ कारने की कोशिश करते रहते हैं। एसे सीमावर्ती क्षेत्र पीड़ित हैं। तो ऐसी परिस्थितियां देश के अंदर हैं। देश के जो रणनीतिकार हैं उनका दायित्व बनता है कि अपने देश के लिए रणनीति बनाकर चलें। कोई नीति है क्या, इस प्रकार की नीति बनाने वाले जो लोग हैं उनकी प्रामाणिकता पर, देशभक्ति पर प्रश्नचिन्ह कभी-कभी लगाये जाते हैं। क्या वे प्रामाणिकता से देशहित को सामने रखकर रणनीति बनाने में लगे हुए हैं, यह सोचना आवश्यक है।

यह बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण है कि राजनैतिक-तात्कालिक स्वार्थ को सामने रखकर, उसको हिंदू मुस्लिम का संघर्ष बताकार उसको राजनीतिक पाले में डाल दो, यह एक बड़ी आदत है। अब कश्मीर के बारे में कोई बोलेगा, घुसपैठ और आतंकवाद के बारे में कोई बोलेगा तो वह साम्प्रदायिक है। वह इस्लाम का विरोधी है। ऐसी छवि निर्माण करने का प्रयास हो रहा है।

प्रश्न के मूल में जाकर, उसको समझकर, समस्या निवारण के प्रति योजना या रणनीति बनाने की बजाय अपने राजनीतिक स्वार्थ को सामने रखकर क्षणिक लाभ देनेवाली बातें करते रहना, दुर्भाग्य से कुछ राजनीतिक दलों ने अपनी भूमिका इस प्रकार की बनायी है।

अब इस राष्ट्र के बारे में, देश की समस्याओं के बारे में बोलना भी राजनीतिक हो गया है, वह राष्ट्रीय नहीं रहा। यदि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ राष्ट्रीय मुद्दों को उठा रहा है तो वह राजनीतिक हो गया। क्या राष्ट्रहित से जुड़े हुए मुद्दों को जनजागरण की दृष्टि से उठाने में कोई चुनावी लाभ निहित है? किसी राजनैतिक क्षेत्र को प्रभावित करने के लिए है? ऐसे कुछ संकुचित स्वार्थ को लेकर क्या प्रश्न उठाये जाते हैं? जनसामान्य की देशभक्ति पर इस प्रकार की आशंकाएं प्रकट करना क्या देश की मानसिकता को दुर्बल करने वाला सिद्ध नहीं होगा? परन्तु इतना प्रामाणिकता से विचार करने के लिए किसके पास समय है, यह सोचने की आवश्यकता रहेगी।

भारत की शैली रही है बाचतीत करो, वार्तालाप करो, समझौता करो। यह पद्धति तो श्रेष्ठ है। इस इक्कीसवीं सदी में, आज के इस वैज्ञानिक युग में, एक विकसित मानव-जीवन के कालखंड में वार्तालाप करते हुए, गलतफहमियां दूर करते हुए, मनुष्य का जीवन सुख-शांति से चले, यह समय की मांग है। परन्तु बातचीत करने वाले को दुर्बल माना जाता है, शक्ति नहीं है तो बात करने आये हैं। जो शांति का मार्ग लेकर चले हैं और सबको मिलकर चलने की बात करते हैं, सबकी अस्मिताओं का संरक्षण करते हुए अपना-अपना देश अपने-अपने ढंग से चलता रहे, ऐसी बात करना दुर्बलता का प्रतीक माना गया है! इस प्रकार की एक गलत सोच विकसित हुई है।

भारत मित्रता चाहता है, सबसे मित्रता का इच्छुक है। समानता के आधार पर, हम अपनी छोटी भूमिका लेकर नहीं, और कुछ बातों में हम श्रेष्ठ भी हैं, इस भाव को लेकर भारत को खड़ा होना पड़ेगा। ऐसे रणनीतिकार भारत के चाहिए। इस भाव को प्रबल करने वाले लोग सत्ता में बैठने चाहिए। किसी भी प्रकार की देशहित के साथ समझौता करने वाली राजनीतिक शक्तियों को समाज में जागृत होकर पराभूत करने की आवश्यकता है। उनके सारे षड्यंत्रों का पर्दाफाश करने की आवश्यकता है।

वर्तमान में कई प्रश्नों के बारे में उदासीनता का वातावरण है। ऐसे प्रश्नों के निवारण के लिए समाज को कुछ करना चाहिए, इसके प्रति उदासीनता है। उदासीनता तो है ही, अज्ञानता भी है, हम कई बातों को जानते ही नहीं। इसके बारे में समाज को जागृत करना चाहिए, इसकी आवश्यकता है। यह जो कश्मीर का प्रश्न है, हिंदुस्तान, पाकिस्तान का प्रश्न है, ऐसा जो माना जाता है। ठीक है पाकिस्तान सारी समस्याओं की जड़ में है, लेकिन क्या यह प्रश्न हमारा नहीं है, देश का नहीं है, देश के रणनीतिकारों का नहीं है। देश के अंदर राष्ट्रभाव को जागृत करते हुए, उदासीनता को दूर करते हुए प्रश्नों को दूर करने के लिए, प्रश्नों का हल ढंढने के लिए समाज के अंदर शक्ति का जागरण करना पड़ेगा। यह काम एक चुनौती है, एक आह्वान है। इसको लेकर हम जायेंगे, हम खड़े हैं। कभी-कभी लोग कहते हैं कि हो गया, अब बहुत हो गया, कितने बार कश्मीर को लेकर आंदोलन करेंगे। इस प्रश्न का भी सरल शब्दों में यही उत्तर है कि जब तक कश्मीर समस्या हल नहीं होगी, यह प्रश्न बार-बार उठता रहेगा। इसके लिए हम निरंतर प्रयास करेंगे।

लोग बड़ी सहजता से कह देते हैं कि जो नियंत्रण रेखा है, एलओसी है, उसको अंतरराष्ट्रीय सीमा मान लो। क्यों झगड़ा करना। पड़ोसी देश है। बड़ा गरीब है। बड़े पिछड़ा हुआ है। भारत से ज्यादा पाकिस्तान में दर्दनाक घटनाएं होती हैं। क्या ऐसी सामान्य बुद्धि को लेकर विदेशी शक्ति की उदण्डता को देखते रहेंगे? देश के प्रश्नों के बारे में कठोरता से कहना पड़ता है, कदम उठाने पड़ते हैं। ऐसी सरकार चाहिए। अपने अस्मिता और सम्मान के साथ कोई समझौता नहीं। इस प्रकार की शक्ति का भाव का जागरण निरंतर करेंगे। प्रश्नों को लंबित करते जाओ, प्रश्नों की उपेक्षा करते रहो, ऐसे आत्मविश्वास से शून्य, इस प्रकार का परिचायक जो व्यवहार होता है, इससे सब लोगों को मुक्त करना, यह संकल्प हम लोगों ने लिया है।

हम कश्मीर के प्रश्न को लेकर जाएंगे। लोकतंत्र में शासन जनशक्ति को ही समझता है। ऐसे प्रश्नों पर शासन जनशक्ति को ही समझता है। हमारा भी दायित्व बनता है कि हम जनशक्ति का प्रकटीकरण करें, जनशक्ति को खड़ा करें। और आवश्यकता पड़ती है तो शक्ति का लोकतांत्रिक प्रदर्शन करने की भी तैयारी करें।

(उपरोक्त आलेख राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह श्री सुरेश जोशी उपाख्य भैयाजी द्वारा जम्मू-कश्मीर : तथ्य समस्याएं एवं समाधान नामक कार्यशाला में व्यक्त विचारों का मूलरूप है। इसका आयोजन 19 व 20 नवम्बर 2011 को जम्मू-कश्मीर अध्ययन केंद्र के तत्वावधान में नागपुर स्थित रेशिमबाग में किया गया था।)

Thursday, December 8, 2011

फई ने कबूला जासूसी का जुर्म


वाशिंगटन। अमेरिका में बसे कश्मीरी अलगाववादी नेता गुलाम नबी फई ने पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आइएसआइ के लिए जासूसी करने का जुर्म कबूल लिया है। वाशिंगटन स्थित कश्मीरी अमेरिकन काउंसिल (केएसी) के प्रमुख फई का कबूलनामा आइएसआइ के लिए करारा झटका है। 62 वर्षीय फई ने बुधवार को अदालत में माना कि उसने अवैध रूप से अमेरिकी सांसदों के बीच लॉबिंग कर कश्मीर पर अमेरिकी नीति को प्रभावित करने की कोशिश की। इसके लिए उसे आइएसआइ ने बड़ी रकम दी थी। फई को 9 मार्च को सजा सुनाई जाएगी। वर्जीनिया की इस्टर्न डिस्टि्रक कोर्ट के समक्ष फई ने कुबूल किया कि वह आइएसआइ अधिकारियों के सीधे संपर्क में था। फई ने अभियोजकों के इस आरोप से सहमति जताई कि 1990 से 2011 के बीच आइएसआइ से उसे 35 लाख डॉलर (करीब 18 करोड़ रुपये) मिले। फई ने माना कि कश्मीर मुद्दे पर अमेरिकी सांसदों के बीच लॉबिंग के लिए आइएसआइ से उसे बाकायदा यह निर्देश मिलते थे कि उसे क्या बोलना है और क्या लिखना है। अमेरिकी अटॉर्नी मैकब्राइड ने कहा, फई ने पिछले 20 साल में गुपचुप तरीके से पाक खुफिया एजेंसी से लाखों डॉलर लिए और इस बारे में अमेरिकी सरकार से झूठ बोलता रहा। आइएसआइ के भाड़े के सदस्य के रूप में वह अपने पाकिस्तानी आकाओं के निर्देश पर अमेरिकी सांसदों से मिला, हाई-प्रोफाइल सेमीनार आयोजित किए और वाशिंगटन में नीति निर्धारकों के बीच कश्मीर मुद्दे को हवा दी। 

विशेषाधिकार कानून पर नई बातें

केवल कृष्ण पनगोत्रा
सशस्त्र सेना विशेषाधिकार अधिनियम (अफस्पा) करीब डेढ़ महीने की बहस के बाद राज्य के कुछ भागों से हटाए जाने पर सर्वसम्मति हासिल करता नजर नहीं आ रहा। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के साथ फौजी कानून को हटाए जाने की पैरवी करने वाले लोगों की दलीलों की समानांतर रूप से आलोचना होने लगी है। अब तो ऐसा लगने लगा है कि जैसे-तैसे अफस्पा हटाने के मुद्दे को मुख्यमंत्री दिल्ली जाकर लॉबिंग करने की कोशिश कर रहे हैं, वैसे ही राज्य में भी इस पर बहस और आलोचना बढ़ती ही जा रही है।

अफस्पा का हटना नेशनल कांफ्रेंस के लिए प्रतिष्ठा का मुद्दा बन चुका है जबकि कांग्रेस के लिए गले की फांस। आश्चर्य की बात है कि अफस्पा का विरोध करते समय सुरक्षा के अलावा राज्य में सेना की सकारात्मक सामाजिक व सांस्कृतिक भूमिका को भी नजरअंदाज किया जा रहा है। सेना ने राज्य में आंतरिक सुरक्षा बहाल करने के लिए बलिदान दिए हैं और आपसी सद्भाव को सुदृढ़ सुदूर ग्रामीण अंचलों में सद्भावना कैंप लगाकर महती भूमिका निभाई है, मगर फिर भी सेना के बारे में यह कहना दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि सेना लोगों की मास्टर नहीं है। सेना की भूमिका पर ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण टिप्पणियों का संज्ञान लेते हुए जम्मू-कश्मीर के एक सेवानिवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश बीएल सर्राफ ने एक अंग्रेजी अखबार में लिखे लेख में कहा है कि सेना की भूमिका के कारण ही लोग स्वयं अपने मास्टर हैं, किसी के गुलाम नहीं। राज्य के राजनीतिज्ञों को यह अच्छी तरह जान लेना चाहिए कि सशस्त्र बलों ने कानून का सम्मान करने वाले नागरिकों से कभी विश्वासघात नहीं किया।

सेना की भूमिका को कमतर करके आंकने वाली एक और बानगी यह है कि सेना को राज्य में नागरिक गतिविधियां बंद कर देनी चाहिए। इस बानगी की अंगुली साफ तौर पर सेना के आपरेशन सद्भावना पर उठी है। इन हलकों का मानना है कि कुछ इलाकों से अफस्पा के हटने से जम्मू-कश्मीर में विश्वास की कमी दूर होगी। यानि अफस्पा हटने से राज्य के लोगों (सिर्फ कश्मीर केंद्रित लोग) का केंद्र से उठा विश्वास बहाल होगा। राज्य में सेना के आपरेशन सद्भावना पर सवाल उठाते हुए अलगाव समर्थक हलकों का मानना है कि स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में सेना की सेवाओं को बंद करके इन्हें राज्य सरकार को सौंप देना चाहिए ताकि राज्य सरकार की नकारात्मक सूरत सामने न आए। बेशक ऐसे लोग राज्य के दूरस्थ पहाड़ी ग्रामीण क्षेत्रों में सेना की भूमिका को थोड़ा-बहुत महत्व जरूर देते हैं, मगर कस्बाई क्षेत्रों में आपरेशन सद्भावना को निरर्थक मानते हैं। यह हलका सैनिक कमांडरों की दलीलों को यह कहकर खारिज करता है कि यदि सेना गरीबों के लिए कुछ करना चाहती है तो उसे दिल्ली और मुंबई की झोपड़ बस्तियों में जाना चाहिए।

सारांश में कहा जाए तो आंतरिक सुरक्षा तो क्या, इन लोगों का आशय राज्य में सेना की सामाजिक-सांस्कृतिक भूमिका को भी कमतर करके आंकना ही है। क्या इन लोगों से राज्य की भलाई की उम्मीद की जा सकती है? अफस्पा का विरोध करने वाले लोग यह भूलते जा रहे हैं कि उनके इस अतार्किक विरोध के कारण अब सेना की भूमिका भी आम लोगों की समझ में आने लगी है और आम जनता सेना की भूमिका जानने के लिए उत्सुक हो रही है। दरअसल आपरेशन सद्भावना का एक उद्देश्य राज्य में उन क्षेत्रों, जहां अलगाववादियों और आतंकियों का ज्यादा प्रभाव है, में राष्ट्रविरोधी तत्वों के दुष्प्रचार से फैलाई जा रही राष्ट्रविरोधी भावनाओं को समाजसेवा द्वारा समाप्त करके राष्ट्रीय भावना जागृत करना भी है। इस लिहाज से आपरेशन सद्भावना को राज्य में कमतर करके देखना आश्चर्यजनक ही नहीं तर्क से परे भी है।

पूर्व जिला एवं सत्र न्यायाधीश बीएल सराफ ने सेना की आलोचना के दृष्टिगत ठीक ही कहा है कि एक वर्ष से कुछ ज्यादा की खामोशी के बाद अफस्पा को समाप्त करने और दानव बताने के लिए एक वादक अभियान उभर रहा है। कश्मीर घाटी में स्थिति सुधर रही है और राज्य के कुछ क्षेत्रों में अफस्पा को हटना ही होगा। यह बातें शायद उसी वादक अभियान का हिस्सा है जो अफस्पा को हटाने के लिए चलाया जा रहा है। अफस्पा के विरोधी किसी भी सियासतबाज का ध्यान इस ओर नहीं कि यह कानून राष्ट्रविरोधी गतिविधियों के दमन और राष्ट्र के सामरिक हितों की सुरक्षा के लिए है।

स्पष्ट है कि सियासतबाजी की जिद के आगे राष्ट्र के सामरिक हित कमजोर पड़ते जा रहे हैं। अफस्पा का बेजा विरोध करने वाले राजनीतिज्ञों, सत्ता के तलवे चाटने वाले चंद सेवानिवृत्त नौकरशाहों और कथित बुद्धिजीवियों को सेना पर टिप्पणी करते हुए कम से कम कश्मीर केंद्रित राजनीति करने वाली महबूबा मुफ्ती से भी कुछ सीख लेना चाहिए। पिछले दिनों दिल्ली में मीडिया के एक सम्मेलन के बाद मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के अफस्पा पर निर्णय को महबूबा ने विस्मित करने वाला कहा। कश्मीर केंद्रित राजनीति में यह अफस्पा पर नई बात नहीं तो और क्या है? दिल्ली में महबूबा ने स्पष्ट कहा कि सुरक्षाबलों ने राज्य में सराहनीय काम किया है। उन्होंने अफस्पा के धुर विरोधियों से हटकर सेना की भूमिका पर संतुलित बात कही है और अपवाद को छोड़कर भारतीय सेना को अति अनुशासित भी कहा है। उनकी बात का आशय यह है कि अगर सेना को जाना ही है तो यह गमन सम्मानजनक होना चाहिए।

दुर्भाग्य यह है कि सेना को सम्मानजनक गुडबॉय कहने के बजाय राज्य से बाहर धकेलने जैसी मानसिकता का प्रदर्शन किया जा रहा है। उन्होंने ठीक ही कहा कि अफस्पा हटाने के फैसले को राज्य और देश के मुंह पर फेंका नहीं जा सकता। जिस तरह अफस्पा को हटाने की पैरवी की जा रही है उससे आम लोगों में यह संदेश जाना स्वाभाविक है कि भ्रष्टाचार जैसे गंभीर मोर्चे पर विफल सरकार जनता का ध्यान बंटाने के लिए अफस्पा का राग अलाप रही है। सवाल यह भी है कि क्या हालात अफस्पा हटने देंगे?
(लेखक : जम्मू-कश्मीर मामलों के अध्येता हैं।)