Saturday, December 24, 2011

स्वास्थ्य सेवाओं पर बढ़ता खर्च


दयासागर

गैर सरकारी संगठनों की ओर से दायर जनहित याचिका पर जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय के एक फैसले के तहत नवंबर माह में सरकारी अस्पताल में काम करने वाले डॉक्टरों की निजी प्रैक्टिस और सरकारी स्कूलों में पढ़ाने वाले अध्यापकों के ट्यूशन पर सरकार की ओर से दी गई ढील को नकार दिया गया है। जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय के इस फैसले के बाद सरकारी डॉक्टरों में काफी बेचैनी देखी जा रही है। आम आदमी इस विषय पर ज्यादा उत्साहित नहीं दिखता। अकसर लोगों को सरकारी अस्पताल की गिरती साख के बारे में बात करते सुना जा सकता है। लोगों का मानना है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के स्तर के लगातार गिरने का एक बड़ा कारण डॉक्टरों की निजी प्रैक्टिस है। कुछ समाचार पत्रों में यह खबर आ रही है कि सरकार उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ अपील करने की सोच रही है। इसके साथ यह तर्क भी दिया जा रहा है कि सामान्य जन को निजी प्रैक्टिस बंद होने से काफी परेशानी हो रही है। इसलिए सरकार पर निजी प्रैक्टिस को खोलने के लिए कोई रास्ता निकालने का दबाव बन रहा है। क्या सचमुच आम जन की ओर से इस प्रकार की मांग की जा रही है? हां, यह जरूर कहलवाया जा रहा है कि डॉक्टरों की कमी है, प्रैक्टिस बंद होने के बाद डॉक्टरों को अस्पताल में रात के समय आपातकालीन स्थिति में आने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। गांवों और दूरदराज के बाहरी इलाकों में निजी प्रैक्टिस बंद होने से लोग कहां जाएंगे? ऐसे तर्क आम आदमी की ओर से कम और डॉक्टरों की ओर से ज्यादा आ रहे हैं। इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि कुछ डॉक्टरों को आम आदमी की चिंता है। अपने सामाजिक प्रभाव का इस्तेमाल कर सरकार पर दोबारा निजी प्रैक्टिस शुरू करने का दबाव बनाने वाले अधिकांश डॉक्टर यह मांग आम आदमी की भलाई के लिए नहीं बल्कि अपनी कमाई के लिए कर रहे हैं। आम आदमी की चिकित्सकीय आवश्यकता को देखते हुए सरकारी कर्मचारी होते हुए भी डॉक्टरों को निजी प्रैक्टिस में पैसा लेकर मरीजों को देखने की अनुमति मिली थी। इसमें कोई बुराई भी नहीं थी। इस फीस को हम मानदेय कहते तो ज्यादा उचित होता। पर वह ढील इतनी ही थी कि आपातकाल में एक मरीज को निकटतम डॉक्टर से सलाह एवं चिकित्सा मिल सके। यह ढील डॉक्टरों को उनकी कमाई बढ़ाने और व्यापार करने के लिए नहीं दी गई थी। उच्च न्यायालय के फैसले को सामने रखते हुए अगर सरकार और सामाजिक संस्थाओं को कोई विचार करना है तो वह यह कि निजी प्रैक्टिस के विरोध में आखिर आवाज क्यों उठी? एक बात तो दृढ़ता से कही जा सकती है कि सरकारी डॉक्टरों को निजी प्रैक्टिस की इजाजत सिर्फ उनकी कमाई बढ़ाने के लिए नहीं बल्कि आम आदमी के हित में दी गई थी। जबकि स्थिति बिल्कुल विपरीत है। सेवा नियमों में दी गई छूट का इस्तेमाल सरकारी डॉक्टरों को निजी प्रैक्टिस के लिए सिर्फ सलाह और आपातकालीन स्थिति में देखने के लिए ही करना था। सरकारी डॉक्टर निजी व्यवसाय की तरह उपकरण लगाने और लेबोरेट्री खोलने लग गए हैं। हो सकता है ये किसी और के नाम पर चल रहे हों। अकसर देखा जाता है कि निजी अस्पताल और नर्सिग होम सरकारी सेवा में लगे डॉक्टरों की सदाशयता पर ही चल रहे होते हैं। निजी प्रैक्टिस की व्यवस्था, जो आम आदमी की भलाई के लिए की गई थी, आज कष्ट का कारण बन गई है। सरकार द्वारा स्वास्थ्य सेवाओं पर करोड़ों रुपये वेतन और संसाधनों के रूप में खर्च करने के बावजूद आज आम आदमी तो क्या, उच्च सरकारी कर्मचारियों और राजनेताओं का भी सरकारी अस्पतालों पर से विश्वास उठ गया है। इस कारण आम आदमी पर स्वास्थ्य सेवा का खर्च बढ़ गया है। अकसर कहा जाता है कि निजी प्रैक्टिस के कारण सरकारी डॉक्टर प्राइवेट लेबोरेट्रीज में लगे उपकरणों के इस्तेमाल के लिए बिना जरूरत के भी मरीजों को जांच करवाने के लिए भेजते हैं। इनमें कुछ तो सच्चाई होगी। इसलिए आज इस बात पर भी विचार करने की जरूरत है कि कहीं 25 नवंबर, 2011 तक जिस स्तर पर सरकारी डॉक्टरों की निजी प्रैक्टिस पर आरोप लग रहे थे, उसको देखते हुए लाभ से ज्यादा नुकसान तो नहीं हो रहा था। इसलिए राज्य सरकार को जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ अपील करने या निजी प्रैक्टिस को खोलने के लिए कोई और रास्ता ढूंढने पर विचार करते हुए इन बातों का भी ध्यान रखना चाहिए-1. डॉक्टरों को निजी प्रैक्टिस की अनुमति उनकी आमदनी बढ़ाने के लिए नहीं दी गई थी। 2. सरकारी डॉक्टरों को निजी प्रैक्टिस इमरजेंसी/ लोकल कंसल्टेशन के लिए रखी गई थी, न कि निजी व्यापार के लिए। 3. सरकारी नौकरी पार्ट टाइम नहीं है। अगर डॉक्टरों को उनकी कमाई बढ़ाने के लिए नॉन प्रैक्टिसिंग अलाउंस (एनपीए) देना है तो फिर सभी सरकारी कर्मचारियों को (इंजीनियर, अकाउंटेंट, नर्स और वकील भी परामर्श देकर लाखों कमा सकते हैं) एनपीए देना या उनको भी प्राइवेट काम करने की अनुमति देनी होगी। 4. इन दिनों बहुत से निजी अस्पताल खुल गए हैं। बहुत से सरकारी डॉक्टर रिटायर हो चुके हैं और बहुत से डॉक्टर डिग्री हासिल करने के बाद नौकरी के लिए घूम रहे हैं। इन बातों को भी ध्यान में रखना चाहिए। 5. अगर डॉक्टरों का वेतनमान कम है और सरकारी खजाना अधिक वेतन दे सकता है तो डॉक्टरों की तनख्वाह बढ़ानी चाहिए। 6. अकसर प्राइवेट क्लीनिक या निजी प्रैक्टिस करने वाले सरकारी डॉक्टर सीरियस पेशेंट या इमरजेंसी केस को आखिर सरकारी अस्पताल या मेडिकल कॉलेज अस्पताल ही रेफर कर देते हैं। 7. दूरदराज इलाकों में अगर यह समझा जाता है कि वहां पर प्राइवेट डॉक्टर नहीं हैं तो वहां सरकारी डॉक्टरों को ड्यूटी के बाद मरीजों को देखने की इजाजत दी जा सकती है और वह जो पैसा लेगा उसे फीस की जगह मानदेय कहा जा सकता है। इसी प्रकार कुछ दूसरे पहलुओं पर ध्यान देने की जरूरत है। पहले भी दो बार निजी प्रैक्टिस पर पाबंदी लगाई गई थी पर डॉक्टरों की कोशिश ज्यादा और आम लोगों की मांग कम होने की वजह से इसे फिर खोल दिया गया था। यह बात भी ठीक है कि कानून या नियम बनाना सरकार का काम है। पर कोई भी नियम बनाते समय मूलभूत सिद्धांतों और सरकारी तंत्र की जिम्मेदारी को दरकिनार नहीं किया जा सकता। यह बात एक सरकारी कर्मचारी जो सरकारी कोष से सामाजिक हितों में चलाई जा रही योजनाओं को लागू करने के लिए रखा जा सकता है, के सेवा नियमों पर भी लागू होती है।

(लेखक : जम्मू-कश्मीर मामलों के अध्येता हैं।)

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