Sunday, February 5, 2012

मानसिकता का विरोध


केवल कृष्ण पनगोत्रा
 
विस्थापित कश्मीरी पंडित समुदाय से संबंधित प्रसिद्ध कवि-लेखक और पंडितों के अंतरराष्ट्रीय संगठन पनुन कश्मीर के संयोजक डॉ. अग्निशेखर ने अपनी पुस्तक जवाहर टनल के लिए कला, संस्कृति एवं भाषा अकादमी की ओर से वर्ष 2010 के लिए मिलने वाले सर्वश्रेष्ठ पुस्तक अवार्ड को लेने से इंकार कर दिया है। इसे राज्य की वर्तमान और पूर्ववर्ती सरकारों के उस रवैये को लेकर नाराजगी की अलामत माना जा रहा है जिसके चलते विस्थापित पंडित समुदाय को अपने ही देश में विस्थापन की कठिनाइयों को झेलना पड़ रहा है। सबसे अहम यह है कि उनके इस निर्णय से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक ऐसी पुरानी मानसिकता को करारी चोट मिली है जिसका सीधा संबंध मात्र पंडित समुदाय ही नहीं बल्कि समूचे राज्य में व्याप्त राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक बेचैनी से है। यह बेचैनी अब छिपी नहीं है। अब यह बेचैनी मात्र महसूस ही नहीं बल्कि नंगी आंखों से देखी भी जा सकती है। उनका यह कदम इस बेचैनी की सही समझ का प्रतिनिधित्व करता है। मैंने जवाहर टनल पढ़ी नहीं है फिर भी अग्निशेखर जी की विचारधारा, पंडित समुदाय के प्रति उनकी चिंताओं और राज्य के भारत से संबंधों पर समीचीन नजरिये से परिचित होने के कारण इतना अनुमान लगा सकता हूं कि इस पुस्तक का हृदय स्थल विस्थापन के घावों से रक्तरंजित जरूर होगा। राष्ट्रीय स्तर के कई हिंदी लेखकों ने डॉ. अग्निशेखर के निर्णय का समर्थन किया है। इस प्रकार का राष्ट्रीय समर्थन नि:संदेह उस मानसिकता का विरोध करता है जिसकी वजह से कश्मीर में भारत विरोध के बीज फूटे थे। यह विरोध किसी व्यक्ति विशेष, संस्थान या राजनीतिक पार्टी को निशाना नहीं बनाता अपितु यह उस मानसिकता का विरोध करता है जिसने सबसे पहले अल फतह जैसे देश विरोधी संगठन पैदा किए और कश्मीर में राष्ट्रवादी धारा को कुंद करने की कोशिश की। एतिहासिक घटनाक्रम पर नजर डालें तो 1947 के रक्तपात और उसके बाद की राजनैतिक और सामाजिक परिस्थितियों ने राज्य में सांप्रदायिकता का बीज बोया। कश्मीर केंद्रित मानसिकता और धर्माधता के चलते ही 1990 तक कश्मीरी हिंदुओं को घाटी से पलायन करना पड़ा। 1947 के बाद जम्मू शरणार्थियों की पनाहगाह तो बना ही, शरणार्थियों ने जम्मू संभाग के मूल निवासियों के साथ मिलकर सियासी और सामाजिक संघर्ष लड़ना भी सीखा। 1931 तक जम्मू शांत था मगर उसके बाद की परिस्थितियों ने जम्मू को संघर्ष का केंद्र बना दिया। देखा जाए तो डॉ. अग्निशेखर की साहित्य वेदना और अकादमी सम्मान ठुकराना भी उसी निरंतर संघर्ष की एक कड़ी है जो आज तक अनवरत किसी न किसी रूप में जारी है। 1947 तक जम्मू संभाग की जनता भी राज्य के लिए स्वायत्तता की हामी भरती थी मगर अब परिस्थितियां बदल गई हैं। अब कश्मीर केंद्रित मानसिकता वाले लोग ही ऐसी मांगों के हामी हैं जिन्हें आए दिन बड़ी राजनैतिक चतुरता से पेश किया जाता है। हिंदुओं के साथ जम्मू के अधिकतर मुस्लिम भी संपूर्णत: भारत के साथ जुड़ाव के हामी हैं। राज्य के तीनों खित्तों में सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक असमानता और जम्मू व लद्दाख से भेदभाव के चलते जम्मू, लद्दाख और पश्चिमी पाकिस्तान एवं गुलाम कश्मीर के शरणार्थियों के साथ पंडित समुदाय ने मिलकर एक साझी विचारधारा को जन्म दिया है। यह विचारधारा अब स्थापित हो चुकी है और इस विचारधारा के मानने वालों का उद्देश्य कश्मीर केंद्रित मानसिकता से मुक्ति है। इस साक्षी विचारधारा को सुदृढ़ता देने के लिए डॉ. अग्निशेखर ने एक नवीन प्रयोग किया है। उनका क्षोभ मात्र विस्थापित पंडित समुदाय की मांगों की पैरवी नहीं करता अपितु सैद्धांतिक रूप से शरणार्थियों की अनदेखी और राज्य के दो खित्तों, जम्मू और लद्दाख के साथ निरंतर भेदभाव की मानसिकता पर भी एक बौद्धिक प्रहार है। जिस गैर मुस्लिम जनता ने कभी जिन हुकमरानों पर भरोसा किया था वह उस भरोसे को कायम रखने में असफल रहे हैं। भले ही शासक तबका जम्मू को अलग राज्य, लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश और पंडितों के लिए होमलैंड की मांगों को न माने मगर यह मांगें तार्किक जमीन पर खड़ी हैं। अपवादों को छोड़कर वादी ने हमेशा यह आभास करवाया है कि उच्की सच्ची और पूरी सहानुभूति भारत से नहीं बल्कि केंद्र से मन माफिक धनराशि के लिए भारत से अधूरा जुड़ाव प्रदर्शित करना मात्र है। 1947 के बाद जब भी भारत और पाकिस्तान के बीच कोई मैच खेला गया तो वहां की अधिकतर मुस्लिम जनता ने पाकिस्तान का ही पक्ष लिया। यह कोई अनजानी खुराफातें नहीं हैं बल्कि एक सोचे समझे मनसूबे और खास मानसिकता की अलामत है। विशारत पीर की पुस्तक कफ्र्यू नाइट में ऐसी ही बातों का उल्लेख है जो कश्मीर सूबा की भारत विरोधी मानसिकता दर्शाते हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि विशारत पीर जैसे लोग अपनी पुस्तक के माध्यम से भारत विरोधी मानसिकता को प्रकट करने की कोशिश करते हैं जबकि अग्निशेखर अपनी पुस्तक पर मिलने वाले सम्मान को ठुकराकर उसी मानसिकता पर चोट करने का प्रयास कर रहे हैं जो भारत समर्थक पंडितों की विरोधी रही है। अग्निशेखर के निर्णय का समर्थन करने वालों में क्षमा कौल का नाम ही खुलकर सामने आया है मगर यह उतना ही खिन्न करने वाला है कि क्षमा के अतिरिक्त शायद ही जम्मू के किसी साहित्यकार ने खुलकर उनकी मुखरता का समर्थन किया है। दर्दपुर क्षमा जी का प्रसिद्ध उपन्यास है जिसमें विस्थापन के कारणों की विषमता को उभारा गया है। जिन लोगों ने इस उपन्यास को पढ़ा है वे कभी भी डॉ. अग्निशेखर के निर्णय को अनुचित नहीं ठहरा सकते। अग्निशेखर एक ऐसे प्रतिभा के धनी हैं जिन्होंने अपनी विलक्षण बौद्धिक क्षमता का उपयोग न सिर्फ कश्मीरी पंडित समुदाय बल्कि राज्य में राष्ट्रच्की सच्ची पैरवी और क्षेत्रीय भेदभाव के विरोध के लिए प्रत्येक पंथ और संप्रदाय के हर उस नागरिक के नाम कर दी जिसे भारत और भारतीयता से लगाव है।
(लेखक जेएंडके के सामाजिक विषयों के अध्येता हैं)  



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