Sunday, January 1, 2012

नादान उमर का अंजाम


Jawahar Lal Kaul
जवाहर लाल कौल
 
बीता वर्ष जम्मू-कश्मीर की वास्तविक त्रासदी को रेखांकित करने वाला रहा है। यह आतंकियों और सरकार के टकराव से अधिक सरकार और सुरक्षाबलों के विवाद का वर्ष रहा। ऐसे प्रश्नों पर बहस चल पड़ी जो आपसी बातचीत के विषय हो सकते थे, मसलन- कश्मीर घाटी में आतंकवाद समाप्त हो गया है कि नहीं, आतंकवाद से लड़ने के लिए सेना को मिले विशेषाधिकारों को छीन लिया जाए कि नहीं आदि। 

दिलचस्प बात है कि यह सवाल स्वयं मुख्यमंत्री की पहल पर उठ रहे थे। वर्ष का आखिरी भाग तो इन्हीं प्रश्नों से जूझते हुए बीता। नौबत यहां तक आ गई थी कि राज्य में नेशनल कान्फ्रेंस और कांग्रेस की मिलीजुली सरकार के लिए भी खतरा पैदा होने लगा था। विवाद के तीन ही पक्ष थे- मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला, कश्मीर में तैनात सशस्त्र बलों के अधिकारी और भारत सरकार। शेष सभी पक्ष और दल या तो तमाशाई बने रहे या बीच-बीच में अपने छिटपुट बयानों से आग में घी का काम करते रहे।

यह साल उमर अब्दुल्ला की अनुभवहीनता के भी उदाहरण पेश करता रहा। इसे उनके विरोधी उनका बचकानापन कहते हैं। सशस्त्र सेना विशेष अधिकार कानून को निरस्त करने के पीछे मुख्यमंत्री की योजना अपने विरोधियों, खासकर पीडीपी नेता मेहबूबा मुफ्ती से मुद्दा छीनना था। अलगाववादी नेताओं सैयद अली शाह गिलानी और उमर फारूक के अतिरिक्त महबूबा मुफ्ती भी सेना की कथित ज्यादतियों को मुद्दा बना चुकीं थी। उनका आरोप था कि सेना बेकसूर लोगों की धर-पकड़ करती है और औरतों से छेड़छाड़ भी करती रही है। यह सब इसलिए हो रहा है कि उनके पास आतंकवाद के नाम पर विशेष अधिकार हैं और वे स्थानीय कानून व्यवस्था के सामने जवाबदेह नहीं हैं। 

राज्य में आतंकवादी घटनाओं में कमी और कुछ जिलों में तुलनात्मक रूप से शांति के आसार दिखने का राजनीतिक लाभ लेने के लिए उमर अब्दुल्ला ने एक योजना बनाई। अगर श्रीनगर समेत कुछ जिलों से सेना की गतिविधि कम कर दी जाए तो विपक्ष के आरोप ही अप्रासंगिक हो जाएंगे। जब सेना के पास विशेषाधिकार ही नहीं रहेंगे तो वह बिना स्थानीय पुलिस के कोई कार्रवाई ही नहीं कर पाएगी क्योंकि उसकी हर कार्रवाई स्थानीय नियमों और कायदों के ही तहत होगी। लेकिन उमर अब्दुल्ला इस सरल सी बात को भूल गए कि आतंकी गतिविधियों में कुछ कमी केवल सामयिक ठहराव मात्र है; उसकी समाप्ति नहीं। 

कश्मीर घाटी पहाड़ों से घिरा एक मैदान है, जिसमें एक जिले और दूसरे के बीच कोई भौगोलिक सीमाएं नहीं हैं, जिनकी पहरेदारी करके किसी जिले को पड़ोसी जिले के आतंकियों से सुरक्षित रखा जा सकता है। घाटी को ही नहीं, पूरे राज्य को भी आतंकवाद के परिमाण के लिहाज से सुरक्षित और असुरक्षित भागों में नहीं बांटा जा सकता है। अपनी राजनीतिक योजना पेश करने से पहले उमर अब्दुल्ला ने सेना के अधिकारों में कटौती के दूरगामी परिणामों के बारे तो सोचा ही नहीं था और देश के अन्य आतंकवाद ग्रस्त क्षेत्रों में जारी व्यवस्था के बारे में भी जानकारी प्राप्त नहीं की थी। 

Omar Abdullah, Chief Minister of J&K
आतंकवाद सामान्य अपराधियों के विपरीत कानून को पूरी तरह नकारता है और उसे खुली चुनौती देता है। वह छिप कर वार करता है और आम जनता को आड़ बनाता है। समाज, प्रशासन में और पुलिस में डर पैदा कर ही आतंकवाद पनपता है। ऐसे गुटों को काबू करना असाधारण काम है, जिसके लिए असाधारण अधिकारों की आवश्यकता होती है। ऐसा कश्मीर में ही नहीं, देश के अन्य भागों में भी होता है और देश से बाहर अन्य लोकतांत्रिक देशों में भी। देश के अन्य राज्यों में सामान्य कानूनों में ही ऐसी व्यवस्था है जिसमें सुरक्षा का अपना कर्त्तव्य निभाते समय किसी आवश्यक कार्रवाई के लिए सैनिकों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। उन पर सेना के नियमों के तहत ही कार्रवाई की जा सकती है। कश्मीर में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है।

आवेश में मुख्यमंत्री ने धमकी दी कि मैं विषेशाधिकारों को मुख्यमंत्री होने के नाते एक तरफा हटा सकता हूं, सैनिक अधिकारी इससे सहमत हों या नहीं। परोक्ष रूप से यह केंद्र सरकार को धमकाने के बराबर था, जो शायद उनका इरादा नहीं रहा होगा। विवाद इस हद पर पहुंचने के बाद जब मुख्यमंत्री ने कश्मीर के आपराधिक कानूनों में संशोधन करने की पेशकश की तो अलगाववादी गुट मैदान में उतर पड़े और ऐसी किसी भी कार्रवाई का विरोध करने की धमकी दी। जिस कदम से उमर अपने विरोधियों पर हावी होना चाहते थे, उसी से उनके विरोधियों के हाथ एक नया हथियार लग गया। 

मुख्यमंत्री अपने आप को आधुनिक दिखाने की धुन में यह भी भूल जाते हैं कि जिस पद पर वे हैं, उससे कहे गए किसी शब्द या किए गए छोटे से काम की तरंगें बहुत दूर तक जाती हैं और उनकी प्रतिध्वनि कभी-कभी अपने आप को ही भयभीत कर देती है। जब राजीव गांधी की हत्या में दोषी कुछ तमिल अपराधियों की फांसी की सजा माफ कराने के लिए तमिलनाडु विधानसभा में प्रस्ताव पारित किया गया तो उमर अब्दुल्ला ने इंटरनेट पर टिप्पणी की कि अगर हम कश्मीर में संसद पर हमले के अपराधी अफजल गुरु को क्षमा करने का प्रस्ताव विधान सभा में पारित करें तो कैसा हंगामा होगा? उमर अब्दुल्ला शायद विनोद कर रहे थे लेकिन इसके ठीक कुछ दिन बाद प्रदेश विधान सभा में सचमुच एक निर्दलीय सदस्य ने ऐसा प्रस्ताव पेश करके उमर और कांग्रेस के लिए परेशानी पैदा कर दी। 

वर्ष 2011 अंतरंग वार्ताकारों की अब तक गोपनीय रपट के लिए विभिन्न पक्षों से बातचीत के लिए भी याद किया जाएगा। हालांकि अब तक सरकार इस रपट को दबाए बैठी है लेकिन वह इतनी गोपनीय भी नहीं रही है। कुछ तो कश्मीर में बातचीत के दौरान वार्ता में शामिल लोगों ने ही बताया और कुछ शायद वार्ताकारों या सरकार ने जानबूझ कर इसे लीक करवा दिया। आम तौर पर माना जाता है कि इस रपट में सरकार से सिफारिश की गई है कि कश्मीर में आंतरिक स्वायत्तता दी जानी चाहिए और इस स्वायत्तता की मात्रा भी तय की गई है- 1953 से पहले की स्थिति बहाल की जाए। 

याद होगा इसी वर्ष शेख अब्दुल्ला को गिरफ्तार किया गया था। इसके बाद बख्शी गुलाम मोहम्मद के शासन के दौरान विधानसभा ने कुछ ऐसे कानून पारित किए जिनसे कई भारतीय कानून, जैसे चुनाव आयोग, महालेखाकार और सर्वोच्च न्यायालय का अधिकार कश्मीर में लागू किए गए। शेख अब्दुल्ला, फारूक अब्दुल्ला और अब उमर मानते रहे हैं कि इससे अनुच्छेद 370 का उल्लंघन होता है, पर जो संशोधन कश्मीर के कानूनों में हुए, उन्हें भी इसी अनुच्छेद के अनुसार किया गया और उन्हें जम्मू-कश्मीर की चुनी हुई विधान सभा ने ही तय किया तो उन्हें उल्लंघन कैसे माना जा सकता है? अगर अंतरंग वार्ताकारों ने ऐसी सिफारिश की है और भारत सरकार उस पर अमल करने वाली है तो यह न तो भारत और कश्मीर को पास लाने के बदले पीछे हटने वाला कदम होगा अपितु कश्मीर के गरीब और पिछड़े वर्गों के ही हित में भी नहीं होगा। इससे कश्मीर व जम्मू में दूरी और बढ़ जाएगी।

(लेखक : वरिष्ठ पत्रकार एवं जम्मू-कश्मीर मामलों के जानकार हैं।)

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