Friday, October 7, 2011

फांसी बनाम सियासी महत्वाकांक्षा


केवल कृष्ण पनगोत्रा
पिछले सप्ताह जम्मू-कश्मीर विधानसभा संसद हमले के आरोपी अफजल गुरु की फांसी के मुद्दे पर सत्ता की राजनीति का अखाड़ा बन गई। असल में मृत्युदंड का राष्ट्रीय मुद्दा तो हाशिए पर ही रहा और वैसे भी राज्य विधानसभा को सामान्यत: मृत्युदंड से कोई लेना-देना नहीं है। इससे पूर्व कभी भी राज्य विधानसभा में आम माफी का मुद्दा चर्चा में नहीं आया है।

अफजल गुरु तो एक मोहरा मात्र है जिसे हर सियासी दल अपने-अपने सियासी लाभ और हानि के दृष्टिगत उपयोग कर रहा है। मृत्युदंड का मुद्दा एक अंतरराष्ट्रीय बहस का विषय है। कई देशों में मृत्युदंड का प्रावधान ही समाप्त है, कहीं मृत्युदंड जारी भी है और बहस का विषय भी है। भारत ऐसे ही देशों की कतार में है। हमारे देश में फांसी यानि मृत्युदंड की सजा प्राप्त किसी दोषी के पास राष्ट्रपति के पास क्षमायाचना का अंतिम विकल्प है। यह एक संवैधानिक प्रावधान और न्यायिक प्रक्रिया है। लेकिन किसी दोषी के मृत्युदंड को माफ करना या उस पर बहस विधानसभाओं की कार्यवाही में शामिल हो, एक अव्यवहारिक कसरत ही ज्यादा लगती है। ऐसा करना सरकार पर दबाव की अव्यवहारिक नीति का हिस्सा ही हो सकता है।

देश में इस प्रकार की सियासी संस्कृति पूरे देश को गर्त में धकेल सकती है। हाल ही में तमिलनाडु विधानसभा ने एक ऐसी संस्कृति को जन्म दिया जो भविष्य में एक बड़ी राष्ट्रीय समस्या का रूप ले सकती है। और उसी की देखादेखी में मुख्यमंत्री का विवादास्पद ट्वीट और विधानसभा के एक सदस्य द्वारा अफजल गुरु की सजा माफी संबंधी निजी प्रस्ताव ने देश में एक नई बहस को जन्म दिया है। इसके बाद नेशनल कांफ्रेंस के वरिष्ठ नेता डॉ. महबूब वेग ने भी लगता है सियासी लाभ के दृष्टिगत ही तमिलनाडु विधानसभा का हवाला देते हुए अफजल गुरु की फांसी के मुद्दे को तूल देने की कोशिश की है।

वेग ने एक तरह से उमर अब्दुल्ला के ट्वीट का ही समर्थन किया है। वेग का कहना है कि तमिलनाडु की तरह राज्य विधानसभा को भी लोगों की भावनाओं का सम्मान करना होगा, देश के संसदीय इतिहास में एक नए विवाद को जन्म देने वाला है। मालूम हो कि समूचा देश तो क्या समूचा जम्मू-कश्मीर भी अफजल की फांसी माफी पर एकमत नहीं है। मात्र चंद लोगों की सियासी महत्वाकांक्षा और सत्ता के लिए खींचतान को राष्ट्रीय या राज्य स्तर का मुद्दा नहीं माना जा सकता। कश्मीर में अलगाववादी तत्वों और उनसे सहानुभूति रखने वाले लोगों को खुश करने और उनके वोट भुनाने की गरज से अफजल गुरु को साधन बना लिया गया है।

मुख्यमंत्री उमर निजी तौर पर अफजल की फांसी के खिलाफ हैं। यानि अगर अफजल के बजाए संसद पर हमले का दोषी कोई और होता तो उनकी निजी राय शायद कुछ और ही होती। अफजल की फांसी पर निजी राय और किसी दूसरे नागरिक की फांसी पर निजी राय दो अलग बातें हैं। अफजल के अलावा किसी दूसरे नागरिक की फांसी पर माफी की राय रखने का अर्थ है समूचे देश में फांसी के प्रावधान का विरोध करना। मगर अफजल के मुद्दे पर फांसी माफी की निजी राय भी राजनीति और राजनीतिक महत्वाकांक्षा से प्रेरित है।

बुनियादी मुद्दा यही है कि अगर सियासी दबाव में कातिलों या कत्ल की साजिश रचने वालों को माफ किया जाने लगा तो कल को हर राज्य की विधानसभा ऐसे प्रस्तावों की ही चर्चा करती नजर आ सकती है जहां सियासी दबदबा रखने वाले हर अपराधी की वकालत विधानसभाएं करती नजर आएंगी। हां अगर देश की हर विधानसभा में देश से मृत्युदंड के प्रावधान को समाप्त करने की मांग उठती है तो इसे एक उचित दिशा माना जाएगा और यह सारे देश की जनता को मान्य हो सकता है, मगर जिस तरह अफजल या राजीव गांधी के कातिलों पर सियासत की जा रही है यह न ही देश की समूची जनता को स्वीकार होगा न ही अस्वीकार।

अफजल के बारे में तो कई हलकों का यह भी मानना है कि उसे सही तरीके से अपना पक्ष रखने का अवसर ही अदालती प्रक्रिया के दौरान नहीं मिला है। ऐसे में स्वाभाविक तौर पर अफजल के हमदर्दों से यह पूछा जा सकता है कि आपने न्याययिक प्रक्रिया के दौरान अफजल को कानूनी सहायता क्यों उपलब्ध नहीं करवाई? आज जब उसे फांसी की सजा हुई तो कुछ कश्मीर केंद्रित सियासतबाज अपनी सियासी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए अफजल से सहानुभूति दर्शा रहे हैं। जम्मू-कश्मीर में क्षेत्रीय सियासी पार्टियों की अपनी-अपनी वोटों की जागीरें हैं। कांग्रेस की जागीर जम्मू-कश्मीर और लद्दाख तीनों खित्तों में है। यही वजह है कि कांग्रेस नेताओं को यह कहना पड़ा कि अफजल गुरु की फांसी का मुद्दा कांग्रेस के लिए कोई मुद्दा नहीं है। नेकां और पीडीपी को घाटी से वोटों की फसल की उम्मीद ज्यादा रहती है। यही वजह है कि अफजल की फांसी माफी का सीधा समर्थन करके पीडीपी ने कांग्रेस से ज्यादा नेकां के लिए सियासी संकट पैदा करने की कोशिश की।

भाजपा, जम्मू स्टेट मोर्चा (जस्मो) और पैंथर्स का नजरिया साफ और टिकाऊ है। भाजपा राष्ट्रीय स्तर की पार्टी है। जम्मू में उसका जनादेश फिलहाल मजबूत है। पैंथर्स और जस्मो भी अपने स्तर पर संतुष्ट है। मात्र कांग्रेस, नेकां और पीडीपी अफजल मुद्दे पर विचलित लगी। पीडीपी राज्य में सत्ता के सपने देख रही है और नेकां और कांग्रेस सत्ता छोड़ना चाहती नहीं। इन दोनों दलों के लिए अफजल गुरु का मुद्दा गले की फांस है। निजी प्रस्ताव होने के कारण नेकां अपने विधायकों को जमीर का पाठ पढ़ाती देखी गई और कांग्रेस ने इसे मुद्दा न मानते हुए क्रॉस वोटिंग के गड़े मुर्दे को उखाड़ना ठीक समझा ताकि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर राष्ट्रीय स्तर की किरकरी को कुछ कम किया जा सके। अतिवादी सियासी महत्वाकांक्षा ऐसी भी नहीं होनी चाहिए जिन्हें कि देश की न्यायिक, वैधानिक और संवैधानिक मान्यताओं पर हमला समझा जाए।
(लेखक : जम्मू-कश्मीर मामलों के अध्येता हैं)

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