Monday, January 31, 2011

विलय में नेशनल कान्फ्रेंस की कोई भूमिका नहीं

डॉ. मोहन कृष्ण टेंग

आज मुझे आपके साथ एक्सचेंज ऑफ व्यू करने के लिए कहा गया है, एक ऐसे विषय पर जो बहुत ही संजीदा है। वह है अनुच्छेद-370।... वर्ष 1947 में विभाजन के बाद भारत स्वतंत्र हुआ। इसके बाद जिन लोगों को अंग्रेजों से भारत की सत्ता विरासत में मिली, उन लोगों ने राजनीतिक शक्ति जिस वर्ग को दिया, उस राजनीतिक वर्ग ने बड़े ही अक्लमंदी के साथ 1946 से लेकर 15 अगस्त 1947 तक के घटनाक्रम को छिपा दिया।

आज तक बहुत कम लोगों को मालूम है कि भारत का जो विभाजन हुआ- वह पूरे हिंदुस्तान का विभाजन नहीं था; बल्कि वह सिर्फ ब्रिटिश इंडिया का था। इसके लिए अग्रेजों और मुस्लिग लीग ने पूरा प्रयास किया कि विभाजन ब्रिटिश इंडिया का हो। अब आप पूछेंगे कि आखिर ये ब्रिटिश इंडिया क्या है? तो मैं कहना चाहूंगा कि अंग्रेजों का भारत में जो सम्राज्वादी ढांचा था, उसके दो हिस्से थे- एक था ब्रिटिश इंडिया; जो कि यह मनती थी कि इंडिया में उनकी टेरिटरी है, वह प्रांतों में विभाजित था, उसको ब्रटिश इंडिया कहते थे। इसके अलावा एक और इंडिया था जिसे इंडिया ऑफ प्रिंसीपल स्टेट्स कहा जाता था। 562 प्रिंसीपल स्टेट्स थी। दस करोड़ का 1/4 जो आबादी थी वह स्टेट्स में रह रही थी। 1/3 जो इंडिया की टेरिटरी थी उसका 1/3 स्टेट्स के तहत टेरिटरी थी।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है हमारे यहां जिस ब्रिटिश इंडिया में जो स्वतंत्रता का संग्राम हुआ था उसमें कांग्रेस लीड कर रही थी। और जहां कांग्रेस लीड कर रही थी उन क्षेत्रों में ज्यादा क्रांति हुई। जो स्वतंत्रता आंदोलन भारत में 1908 से लेकर 1933 के दौरान हुआ, वह इंडिया ऑफ प्रिंसीपल स्टेट्स में ही था। मैंने आपको यह इसलिए बताया क्योंकि ये बातें अनुच्छेद-370 के साथ बहुत हद तक जुड़ी हैं।

विभाजन सिर्फ ब्रिटिश भारत का हुआ था। मुस्लिम लीग ने इंडियन मुस्लिमों के लिए मुस्लिम होमलैंड के रूप में पाकिस्तान की मांग की। ताकि इस होमलैंड का स्वतंत्र रूप से आनंद उठाया जा सके। हिंदुस्तानी मुसलमानों के लिए इस अलग स्वतंत्रता का उद्देश्य था कि जो उनकी इस्लामिक डेस्टिनी है, उसको रियलाइज कर पाएं। खैर! इसमें और आगे हम नहीं जाएंगे।

मुस्लिम लीन ने मांगे थे सिंध, नार्थ-वेस्टर्न फ्रंटियर का प्राविंस, बलोचिस्तान, पंजाब, बंगाल और छठा आसाम का प्राविंस। इनमें से आसाम को छोड़कर शेष सभी मुस्लिम बहुल राज्य था। आसाम हिंदू बहुल राज्य था। मगर कैबिनेट मिशन के बाद कुछ कारणों से ईस्ट बंगाल से बहुत जबरदस्त मुस्लिमों का विस्थापन हुआ। उस वक्त साउथ-वेस्ट आसाम को सिलहट डिविजन कहा जाता था। यह क्षेत्र बाद में आसाम से कट गया। खैर! इसकी भी चर्चा हम नहीं करेंगे।

पाकिस्तान का निर्माण एकदम सख्ती का नताजा है। पाकिस्तान को सिंध, नार्थ-वेस्टर्न फ्रंटियर, बलोचिस्तान, पंजाब और बंगाल के मुस्लिम बहुल क्षेत्र मिले। साथ ही आसाम का सिलहट डिवीजन भी मिला। मुख्य रूप से यही पाकिस्तान का प्रादेशिक परिचय है। पाकिस्तान ने इसके अलावा सारे मुस्लिम बहुल राज्यों की मांग की थी। जिनमें से सबसे बड़ा और रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण जम्मू-कश्मीर था। इसके अलावा पाकिस्तान ने मुस्लिम शासित राज्य भी मांगे थे। यानी जहां के शासक मुसलमान हैं उनकी मांग की थी। यानी जो टेरिटोरियल स्टेट्स भारत के हिस्से में आ गए हैं वो भारत के साथ विलय करें। जम्मू-कश्मीर ऐसा राज्य था जिसकी सीमा दोनों देशों से लगी थी। खैर! इसमें नहीं जाउंगा। इसके बाद पाकिस्तान का कश्मीर में छद्म युद्ध छेड़ना और नेहरू के कहने पर संयुक्त राष्ट्र का युद्ध के बीच में ही हस्तक्षेप। मैंने आपको इसलिए बताया ताकि इसके पीछे की वास्तविकता आप ठीक से समझ सकें।

26 अक्टूबर 1947 को जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय हुआ। सच्ची बात यह है कि नेशनल कांफ्रेस के अधिकांश नेता सितम्बर के मध्य तक और उनका नेतृत्व सितम्बर के अंतिम तक यानी शक्ति के हस्तांतरण के डेढ़ महीने बाद तक जेल में थे। शेख अब्दुल्ला को 29 सितम्बर 1947 को रिहा किया गया। शेख 1 या 2 अक्टूबर को श्रीगर पहुंचे। 3 अक्टूबर को उन्होंने अपने पार्टी की कार्यकारिणी की बैठक बुलाई। इस बैठक में उन्होंने विलय का समर्थन करने का फैसला लिया। दरअसल, यह जनता की राय थी लेकिन इस बात को उन्होंने उजागर नहीं किया। कुछ दिन बाद मौलाना इफ्तिखारुद्दीन श्रीनगर आए। यह उनकी कई वर्षों बाद की श्रीनगर यात्रा थी। उनके साथ शेख अब्दुल्ला चुपचाप लाहौर चले गए। संभावना व्यक्त की गई कि वे लाहौर में जिन्ना के साथ कोई बातचीत करेंगे। हालांकि शेख और जिन्ना के बीच क्या क्या बातचीत हुई, यह सारी बातें गुप्त रखी गईं। मैं आपको यह बताना चाह रहा हूं कि पीठ के पीछे क्या हो रहा था, यह जानना मुश्किल था। 21 अक्टूबर को छद्म पाकिस्तानी सैनिकों ने जम्मू-कश्मीर पर हमला बोल दिया। भारत की अंतरिम सरकार के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने लगातार पांच दिन तक इन आक्रमणकारियों के खिलाफ कोई निर्णय नहीं लिया, चुपचाप बैठे रहे।

उन दिनों मुजफ्फराबाद से श्रीनगर तक रास्ता आवागमन की दृष्टि से बिल्कुल साफ था। उस रास्ते गाड़ी आ जा सकती थी। उस वक्त मुजफ्फराबाद से श्रीनगर आने में करीब 14-15 घंटे का समय लगता था। 22 तारीख को सुबह पांच बजे पाकिस्तानी सेना पूरे मुजफ्फराबाद में फैल चुकी थी। वह शाम या दूसरे दिन सुबह तक श्रीनगर पहुंचे होते। लेकिन भारत सरकार ने हमेशा यही कहा है कि इसकी सूचना उसे 26 तारीख को मिली। जबकि 22 तारीख को 10.30 बजे प्रधानमंत्री के टेबल पर पाकिस्तानी सेना के दाखिले की लिखित सूचना पहुंच चुकी थी। लेकिन प्रधानमंत्री की हिम्मत नहीं थी कि वो गवर्नर जनरल से बातचीत करें। दूसरे दिन लंच मीटिंग पर ऐसे ही बातचीत हुई। इस आक्रमण में 38 हजार हिंदू, सिख और अंग्रेज मारे गए। यह मेरे किताबों में पहली बार आया। यह आंकड़ा आप लोगों ने पहली बार सुना होगा। यानी इस आक्रमण के खिलाफ प्रधानमंत्री नेहरू ने फैसला लेने में पांच दिन लगा दिए। इन पांच दिनों में 38 हजार लोग मारे गए। आप कल्पना कर लीजिए, यह कोई छोटी बात नहीं है।

महाराजा हरिसिंह ने 26 अक्टूबर 1947 को सभी राज्यों की तरह ही विलय पत्र पर हस्ताक्षर किए थे। अन्य राज्यों से यह किसी भी तरह भिन्न नहीं था। नेशनल कांफ्रेस के कोई भी नेता को विलय की ठीक से जानकारी नहीं थी। शेख अब्दुल्ला उस वक्त दिल्ली में थे, नेहरू से मिले, उनके जान के लाले पड़े हुए थे। शेख ने कहा कि किसी भी तरह से आप सेना भेज दीजिए, विलय जैसे भी करना है आप कर दें, लेकिन जल्दी सेना भेजें, नहीं तो बहुत लोग मारे जाएंगे। इसके बावजूद नेशनल कांफ्रेंस इस बात को बार-बार दुहरा रही है कि सशर्त विलय हुआ था। उनका यह दावा सरासर झूठ है। इसकी तो बात ही नहीं हुई थी उस वक्त।

विलय पत्र का मसौदा तैयार करने में किसी अंग्रेज की भूमिका नहीं थी बल्कि स्टेट्स मंत्रालय ने तैयार किया था और सरदार पटेल इस मंत्रालय के प्रमुख थे। अंतरिम सरकार के प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने इस मंत्रालय को राज्यों के विलय का विशेष जिम्मा सौंपा था। भारत सरकार ने शेख के जाने के पहले ही विलय की फाइल को बंद कर दिया। विलय का यही मसौदा वी.के. कृष्णमेनन और माउंटबेटन को सौंपा गया था। सरदार पटेल को भी इन सारी बातों की जानकारी थी। उस मसौदे में दूरसंचार, विदेश मामले और आंतरिक रक्षा भारत सरकार के जिम्मे था। साथ ही हर राज्य को अपना अलग संविधान बनाने का अधिकार दिया गय़ा था। कश्मीर को कोई विशेष रियायत नहीं दी गई थी। यही इंस्ट्रमेंट ऑफ एक्सेशन महाराजा हरिंसिंह ने भी साइन किया था। एक्सेशन के साइन होने में नेशनल कांफ्रेंस के नेताओं की कोई भूमिका नहीं थी। साथ ही उस समय के प्रजा मंडल के सदस्यों की भी कोई भूमिका नहीं थी। यही सभी राज्यों के साथ था। नेशनल कांन्फ्रेंस के नेता सशर्त विलय की बात करके सरासर झूठ बोल रहे हैं, उसमें कोई सच्चाई नहीं है। केवल एक प्रोपेगंडा भर है।

मैंने जम्मू-कश्मीर और भारत के अभिलेखागार का 20 वर्षों तक गहन अध्ययन किया है। एक-एक कागज मैंने देखा है, जिसके आधार पर ये बातें बोल रहा हूँ। नेशनल कान्फ्रेंस की सारी बातें झूठ हैं। अब क्या हुआ, कहानी अब शुरू हो जाती है। भारती की संविधान सभा संविधान निर्माण में जुटी थी। कुछ राज्यों के बारे में समस्या थी जिसको हम सैल्युट्स स्टेट्स कहते थे। बाकी छोटे-छोटे राज्य थे।

1949 के मध्य में भारत की संविधान सभा ने अपना कार्य लगभग पूर्ण कर लिया था। उस समय यह समस्या उठ खड़ी हुई कि राज्यों का क्या किया जाए। जम्मू-कश्मीर को छोड़कर राज्यों के विलय का जो मसला है वो अभी पूरा ही नहीं हुआ था। केवल तीन राज्यों में ही संविधान सभा का निर्माण हो सका था- त्रावणकोर कोचीन, सौराष्ट्र स्टेट्स यूनियन और मैसूर।

जम्मू-कश्मीर सहित इन सभी राज्यों की दिल्ली में अप्रैल 1949 में बैठक हुई। इन राज्यों का कहना था कि यदि यही कहा जाता रहा कि विलय की प्रक्रिया पूरी हो उसके बाद संविधानसभा बने तो इसमें तो दस साल लगेंगे। इस बैठक में इन राज्यों ने एक ऐतिहासिक निर्णय लेते हुए भारत सरकार को संविधान बनाने का अधिकार दे दिया। और यह निर्णय हुआ कि उन राज्यों के शासक घोषणापत्र के जरिए इस निर्णय पर अपनी मुहर लगाएं। असल में झगड़ा अब शुरू हुआ।

भारत के हर राज्य के शासकों ने यह निर्णय स्वीकार किया कि भारत की संविधान सभा जो संविधान बनाएगी वो हमे मंजूर होगा। उन शासकों में महाराजा हरिसिंह भी थे जिन्होंने ऐसी घोषणा की कि भारतीय संविधान सभा के द्वारा बनाया गया संविधान उन्हें मंजूर होगा। ये सारी बातें भारतीय अभिलेखागार में मौजूद हैं। नेशनल कान्फ्रेंस के लोगों ने यहां पर रोड़ा अटकाया। नेशनल कांफ्रेंस के नेताओं ने कहा कि नहीं साहब, यह निर्णय हमें मंजूर नहीं हैं। हम अपनी संविधान सभा में अपना संविधान बनाएंगे।

इन बातों को मैं कुछ अन्य तथ्यों को रखने के बाद बाद में बताउंगा; ताकि आप आसानी से समझ सकें। उस दौरान भारत सरकार इन राज्यों को सीधे डील नहीं करती थी बल्कि इसके लिए एक समिति बनाई गई थी, वही डील करती थी। (Negotiation Commettee) इस समिति ने 14 मई 1949 को नेशनल कान्फ्रेंस की लीडरशिप को दिल्ली बुलाया। इस समिति ने कहा कि विलय के मुताबिक तो आपको भारतीय संविधान की मूलभूत बातें स्वीकार करनी होगी। क्योंकि विलय का काम पूर्ण हो चुका है। नेशनल कान्फ्रेंस ने कहा कि हमें भारतीय संविधान की एक बातें भी स्वीकार नहीं होंगी। समिति ने कहा कि ठीक है आप मत स्वीकार करें, अपना अलग संविधान बनाएं। समिति ने कहा कि इन्सट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन के कारण जम्मू-कश्मीर भारत का अंग बन चुका है। स्टेट्स मंत्रालय ने राज्यों के लिए अलग संविधान सभा की वकालत तो की ही थी साथ ही उस इन्सट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन में राज्यों के विलय कर लेने के बाद भारतीय संविधान की मूलभूत बातें स्वीकार करना प्रमुख रूप से शामिल था। झगड़ा यहां शुरू हुआ।

संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद द्वारा पारित प्रस्ताव में जनतम संग्रह की बात कही गई थी। जबकि नेशनल कान्फ्रेंस के नेता यह समझ रहे थे कि उनके पास कश्मीर को पाकिस्तान या भारत में ले जाने के लिए अभी कुछ विकल्प बचा है। इसी घटना ने नेशनल कान्फ्रेंस के नेताओं की भारतीय यूनिटी के बारे में 1947 से लेकर जनवरी 1949 तक जो दृष्टिकोण था उसको बदल दिया।

जब आप कश्मीर सरकार, उस वक्त के नेशनल कान्फ्रेंस के रिकॉर्ड्स व उनकी चिट्ठियां और भारत सरकार के बीच पत्र-व्यवहार का अध्ययन करेंगे, जो अभिलेखागार में मौजूद है; तो स्पष्ट हो जाता है कि इन्होंने आपना दृष्टिकोण बदल दिया। यानी 1949 में अनुच्छेद-370 का झगड़ा शुरू हुआ।

14 मई 1949 की बैठक में कांग्रेस नेताओं ने नेशनल कान्फ्रेंस से कहा कि हम आपको इतनी छूट नहीं दे सकते। हम आपको अलाहिदा नहीं सकते। कम से कम आपको बेसिक स्ट्रक्चर जैसे- फंडामेंटल राइट्स, टेरिटोरियल ज्यूरिस्डिक्शन ऑफ इंडिया, सिटीजनशिप ऑफ इंडिया, डाइरेक्टिव प्रिंसीपुल्स, इंडियन जूडिशिएरी और सुप्रीम कोर्ट का ज्यूरिशडिक्शन को तो आपको स्वीकार करना ही होगा। हालांकि, इन बातों को नेशनल कान्फ्रेंस ने स्वीकार कर लिया। उसने ये बातें क्यों मानी, मेरी समझ में नहीं आ रहा है। फिर कुछ ऐसा हुआ कि बैठक के दूसरे दिन यानी 15 मई 1949 की शाम को नेहरू ने शेख अब्दुल्ला को एक पत्र भेजा। पत्र में एक वाक्य यह था कि बाद में आप कहते हैं कि डिसीजन नहीं हुआ। इसलिए मैं आपको इस बैठक में हुए निर्णयों की जानकारी देने के लिए यह पत्र आपको लिख रहा हूं। इसकी प्राप्ति का स्वीकृति पत्र नेहरू को मिल गया।

नेशनल कान्फ्रेंस के नेता नई दिल्ली बैठक से श्रीनगर पहुंचे। उन लोगों ने इस समझौते से आहिस्ता-आहिस्ता बाहर निकलने के प्रयास शुरू कर दिए थे।

सितम्बर 1949 में भारतीय संविधान सभा ने यह निर्णय लिया कि जम्मू-कश्मीर के बारे में समझौते के अनुसार हम प्रोविजन इन्क्लुड करेंगे। उस वक्त अंतरिम सरकार में कश्मीर मामले को गोपाला स्वामी अयांगर देख रहे थे। उन्होंने इस समझौते के आधार पर एक स्ट्रक्चर बनाया और नेशनल कान्फ्रेंस को भेज दिया। नेशनल कान्फ्रेंन ने इस सिरे से ही खारिज कर दिया। गोपाला स्वामी ने उस मसौदे में वर्णित फंडामेंटल राइट्स और डाइरेक्टिव प्रिंसीपल को छोड़ कर फिर वापस नेशनल कान्फ्रेंस को भेज दिया। जबकि नेशनल कान्फ्रेंस का कहना था कि हमें कोई भी प्रोविजन स्वीकार नहीं हैं। फिर समिति ने उनको बातचीत के लिए वापस दिल्ली बुलाया। ये लोग सितम्बर में दिल्ली आ गए।

फिर बैठक हुई, इसमें सारे लोग थे- शेख, बेग, मौलाना नसीरूद्दीन और मोतीराम बेगरा साहब। ये चार लोग जम्मू-कश्मीर से भारतीय संविधान सभा के लिए चुने गए थे। इन चार लोगों के अतिरिक्त जम्मू-कश्मीर से आए कुछ अन्य लोगों ने भी इस बैठक में हिस्सा लिया था। बैठक में कांग्रेस नेताओं ने कहा कि आप हमारे साथ समझौता किए हैं। हम कौन सा मुंह दिखाएंगे 287 सदस्यीय भारतीय संविधान सभा को। शेख ने कहा कि जम्मू-कश्मीर मुस्लिम राज्य है, वहां का काई मुसलमान भारत की संविधान सभा को स्वीकार नहीं कर रहा है। नेहरू जी इस मसले पर पटेल से मिले, पटेल तो गंभीर आदमी थे। उन्होंने कहा कि ये बातें एकदम नहीं मानेंगे। बैठक में नेशनल कान्फ्रेंस के सारे नेता खड़े हो गए और कहा- We break of the Negotiation.

इन लोगों ने जम्मू-कश्मीर की अंतरिम सरकार सहित संविधान सभा से अगले दिन इस्तीफा देने की धमकी दी। और ये सभी लोग दिल्ली के पृथ्वीराज रोड स्थित जम्मू-कश्मीर भवन में आकर बैठ गए। उस वक्त यही जम्मू-कश्मीर हाउस था।

अब उस वक्त सुरक्षा परिषद में मामला इतना बिगड़ गया था कि वहां के पश्चिमी देश भारत सरकार पर दबाव बना रहे थे। ये देश कह रहे थे कि आप ने माना है कि पाकिस्तान अपनी सेना को जम्मू-कश्मीर से बाहर निकालेगा, लेकिन पाकिस्तान कुछ समस्याओं की वजह से यह नहीं कर सका है। आप एक और बात मानिए ............... इतना होने के बावजूद भी भारत की संविधान सभा के सभी सदस्य यह विश्वास कर रहे थे कि यदि जनमत संग्रह होगा तो हम उसमें विजयी होंगे और इस कदम में नेशनल कान्फ्रेंस सहित मुस्लिमों का सहयोग मिलेगा।

इसके बाद बातचीत के लिए गोपाला स्वामी गए, उन्होंने कहा कि आप कोई प्राविजन स्वीकार मत करिए लेकिन यदि आप अनुच्छेद-1 को स्वीकार नहीं करेंगे, तब कोई समझौता नहीं हो सकता। नेशनल कान्फ्रेंस के नेताओं ने कहा कि कि अनुच्छेद-1 भी स्वीकार नहीं होगा।

स्वामी अयांगर ने इसी प्राविजन को एक शक्ल दे दी जिसको अनुच्छेद-306(A) कहा गया। इसके अनुसार केवल अनुच्छेद-1 ही जेएंडके पर लागू होगा बाकी कोई भी लागू नहीं होगा। इसमें सारा विवरण टेरिटरी का था। अनुच्छेद-306(A) को ही बाद में अनुच्छेद-370 कहा गया।

संविधान सभा में जिस दिन 306(A) बहस के लिए आया तो इसमें राज्य सरकार के बारे में थोड़ी सी हेराफेरी की गई। और जिस दिन अनुच्छेद-370 स्वीकार किया गया, उस दिन नेशनल कान्फ्रेंस ने संविधान सभा की बहस में हिस्सा ही नहीं लिया। उसने इस बैठक का बहिष्कार कर दिया। यह किसी को मालूम नहीं है। ये बात छिपाई गई है। जम्मू-कश्मीर के सभी अपेक्षित लोग आए थे लेकिन लॉबी में बैठे रहे।

आयंगर के भाषण का ¾ हिस्सा समाप्त हो जाने तक ये लोग अंदर नहीं आए। फिर इन लोगों ने सोचा कि अंदर देखें क्या होता है। बेग ने आयंगर को धमकी दी कि मैं संशोधन पेश करुंगा, संविधान सभा के सदस्य घबरा गए थे कि यदि इन लोगों ने संशोधन लाया तो इसका असर बहुत बुरा होगा। शायद ये लोग सुरक्षा परिषद के फैसले के कारण ही अंदर गए थे और वह भी दो-ढ़ाई घंटे बाद जब अधिकांश बहस समाप्त हो चुकी थी। उस वक्त संविधान सभा के अध्यक्ष ने इनकी तरफ देखकर बार-बार यह दुहराते हुए कहा कि यदि जम्मू-कश्मीर के प्रतिनिधि कुछ अपनी बात रखना चाहते हैं तो आपका स्वागत है, आप अपने मत रखें। लेकिन इन लोगों ने कुछ भी नहीं बोला और चुपचाप बैठे रहे। यानी अनुच्छेद-370 इनके बिना सहयोग के ही पास हो गया। इनको छोड़कर शेष सभी सदस्यों ने सर्वसम्मति से पास किया।

इसके बाद शेख अब्दुला और बेग बाहर आ गए। इन लोगों ने आयंगर को एक पत्र दिया जिसमें लिखा था कि यदि आप पुनर्विचार नहीं करते तो हम राज्य की अंतरिम सरकार व भारतीय संविधान सभा से इस्तीफा दे देंगे। संयोग देखिए, उस वक्त नेहरू अमेरिका में थे। आयंगर इतना घबरा गये थे, ये बातें मैं किन शब्दों में आपको बताऊं। इसके बाद आयंगर ने यह पत्र शेख को वापस भेज दिया। जैसे एक निःसहाय आदमी किसी के सामने हाथ जोड़कर रो पड़ता है, आयंगर ने कहा- “मैंने आपका क्या बिगाड़ा है। आप इस्तीफे की बाद तब तक न करें जब तक कि नेहरू वापस न आ जाएं।” आयंगर नेशनल कान्फ्रेंस के नेताओं के समक्ष एकदम गिड़गिड़ा रहा था। यानी उनके ऊपर इतनी घबराहट और इतना दबाव था। इन लोगों ने इस्तीफा तो नहीं दिया मगर उसी वक्त यह फैसला हुआ कि अनुच्छेद-370 को जो संविधान सभा ने स्वीकार किया है उसको कमजोर (अंडरमाइन) करना है। सिड्यूल-1 में जिसमें जम्मू-कश्मीर को शामिल किया गया था इसको खत्म कर दिया गया। अगर आयंगर ने ये बाते नहीं मानी होतीं तो भारत और उनके ऊपर कोई पहाड़ नहीं टूट पड़ता। पता नहीं क्यों वे घबरा गए थे, यह समझ से परे है।

(यह आलेख डॉ. मोहन कृष्ण टेंग द्वारा “जम्मू-कश्मीर : तथ्य, समस्याएं और समाधान” विषयक सेमीनार में दिए गए व्याख्यान का सम्पादित अंश है। सेमीनार का आयोजन 25 व 26 जनवरी, 2011 को “जम्मू-कश्मीर अध्ययन केंद्र” ने जम्मू के अंबफला स्थित कारगिल भवन में किया था।)

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