Tuesday, July 26, 2011

अलगाववादी जमात का हिस्सा बनते बुद्धिजीवी

प्रमोद भार्गव
अतिरिक्त उदारता और छद्म धर्मनिरपेक्ष चेहरा बनाए रखने की दृष्टि से कुछ भारतीय बुद्धिजीवी अलगाववादी जमात का हिस्सा बनते जा रहे हैं। कश्मीर जैसे ज्वलंत मुद्दे पर कथित बुद्धिजीवियों की यह स्थिति और मानसिकता राष्ट्र की संप्रभुता व अखण्डता के लिए खतरे का संकेत है। हालांकि कश्मीर समस्या के तीसरे विकल्प, मसलन स्वतंत्र कश्मीर की आधार भूमि तैयार करने में लगे इस विकल्प के प्रमुख पैरवीकार सैयद गुलाम नबी फई के चेहरे से नकाब उतर गया है। बेपर्दा वे बुद्धिजीवी भी हो गए हैं, जो पृथकतावादी फई की संस्था ‘कश्मीर अमेरिका काउंसिल’ (केएसी) के प्रववत्ता बनकर कश्मीरियों के बुनियादी अधिकारों की रक्षा की दृष्टि से अंतरराष्ट्रीय समुदाय का ध्यान कश्मीर की ओर खींचने के उपक्रम में लगे थे। फई की संस्था के धन से विदेशों की सैर और पंचतारा सुविधाओं के रसमय माहौल में इन बौद्धिकों का राष्ट्रबोध तो विलीन हो गया, किंतु कश्मीरी अलगाव व उग्रवाद के हित इनकी प्राथमिकता में रहे।
दृष्टिसंपन्न माने जाने वाले इन बुद्धिजीवियों की आंखें यहां पथरा गई थीं क्योंकि उन पर माया और वैभव की चकाचौंध का पर्दा जो पड़ गया था। वरना दीवारभेदी पत्रकारों और मानवाधिकार के पैरोकार पत्रकारों को यह भनक न लग जाती कि इन चर्चा-परिचर्चाओं के लिए फई धन कहां से जुटाता है?
भारत को कश्मीर से हड़पने की ये वार्ताएं पाकिस्तान की रणनीति का हिस्सा तो नहीं? कश्मीरियों के ‘आत्मनिर्णय’ की पृष्ठभूमि में वे नाम क्यों हैं जो भारत में राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में शामिल हैं? इन बौद्धिक मानी जाने वाली गोष्ठियों में तटस्यता की पड़ताल भी इनके ज्ञान चक्षुओं का हिस्सा बननी थी? विस्थापितों के पुनर्वास और कश्मीर के धर्मनिरपेक्ष चरित्र बहाली की बात किसी कोण से उठ रही है अथवा नहीं? क्या वे खुद इस तथ्य को उठा पा रहे हैं? यदि सर्वसमावेशी ये चर्चाएं गोष्ठी का हिस्सा नहीं थीं तो इन कथित बौद्धिकों की अंचर्चेतना में यह विचार क्यों नहीं कौंधा कि विदेशी धरती पर अलगाव की इस मुहिम में अंतरराष्ट्रीय मंच का वे हिस्सा बन कहीं इस्तेमाल तो नहीं हो रहा?
हकीकत तो ये है कि कश्मीर के मुद्दे पर हमारी नीति, दृष्टिकोण और पहल पिछड़ते जा रहे हैं। बौद्धिकों को वार्ता का हिस्सा सरकारी स्तर पर इसलिए बनाया गया था, जिससे इस मसले पर निर्भीक, निष्पक्ष और दो टूक राय सामने आए। लेकिन एक लॉबिस्ट की मेहमाननवाजी के सुखसम्मोहन ने इन बौद्धिकों की प्रज्ञा ही हर ली। वरना क्या दिलीप पडगांवकर, कुलदीप नैयर, वेद भसीन और मनोज जोशी जैसे प्रखर पत्रकार, न्यायमूर्ति राजेन्द्र सच्चर, वामपंथी सामाजिक कार्यकर्ता गौतम नवलखा और प्राध्यापक कमल मित्र जैसे दृष्टि संपन्न बौद्धिकों को इन परिचचाओं में संशय का भान नहीं होता?
यहां यह सवाल खड़ा नहीं होता कि व्यक्ति व संस्था की वास्तविक क्रियाकलापों की जानकारी लिए बिना आपको किसी सम्मेलन में शिरकत की जरूरत क्यों आन पड़ी? दिलीप पडगांवकर तो वैसे भी कश्मीर विवाद पर सरकार की तरफ से नियुक्त किए तीन सदस्यीय समिति के सदस्य हैं। ऐसे में आपकी जिम्मेवारी और ब़ढ़ जाती है कि आप जो भी कदम उठाएं वह कहीं कीचड़ में न धंस जाए।
कश्मीर पर अमेरिका और पाकिस्तान एक दूसरे के हित साधक बने हुए हैं। अमेरिका उसे जो भी इमदाद दे रहा है, उसकी पृष्ठभूमि में उसके अपने स्वार्थ अंतर्निहित हैं। क्योंकि शीतयुद्ध के दौरान पाकिस्तान अमेरिकी जरूरतों को पूरा करने में लगा रहा। अमेरिका की सेना को उसने अपनी जमीन पर सैन्य गतिविधियों के संचालन को जगह भी दी। अमेरिका की मंशा है कि पाकिस्तानी सेना अफगान सीमा पर अमेरिका को नुकसान पहुंचाने की ताक में बैठे आतंकियों को ठिकाने लगाती रहे। पाकिस्तान इन मंशाओं को किसी हद तक साधने में लगा भी है। लेकिन इधर दोनों मित्र देशों के बीच कुछ गांठें भी लगती जा रही हैं। फलस्वरूप पाकिस्तान ने सीआईए के कुछ एजेंटों को वीसा देने से मना कर दिया और कुछ को तत्काल पाकिस्तान छोड़ देने का हुक्म दिया।
इस स्थिति से रूबरू होने के बाद तय था कि अमेरिका आंखें तरेरेगा। यही उसने किया भी। जिस फई की अमेरिकी संसद में तूती बोलती थी, जो पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी की आर्थिक सहायता से इन सांसदों के दिलोदिमाग बदलने में करीब डेढ़ दशक से लगा रहकर भारत की छवि धूमिल करने में लगा था उस कश्मीरी अलगाववादी गुलाब नबी फई को एकाएक हिरासत में ले लिया गया। उसपर आरोप है कि उसकी संस्था केएसी ने अवैध रूप से कश्मीर मुद्दे को हवा देने के लिए आईएसआई से 40 लाख अमेरिकी डॉलर लिए और पाकिस्तान के सियासी मंसूबे साधने के लिए लॉबिंग की।
वैसे तो अमेरिका मे किसी भी देश को लॉबिंग की छूट है। लेकिन प्रशासन की सहमति अनिवार्य है। यहां हैरानी में डालने वाली बात है कि अमेरिका की सरजमीं पर कोई लॉबिस्ट डेढ़ दशक तक बिना अनुमति के लॉबिंग करते कैसे रह सकता है? और फिर एकाएक उसे आरोपी बना दिया गया। पाकिस्तान की करतूत की पोल खोल दी गई। दरअसल ये कार्रवाइयां अमेरिकी कूटनीति का हिस्सा हैं। वरना ऐसा कैसे संभव था कि फई की नाजायज गतिविधियों पर अमेरिकी खुफिया एजेंसी (एफबीआई) की नजर न पड़ती? हालांकि पाकिस्तान ने इस गिरफ्तारी पर पलटवार करते हुए कहा है कि अमेरिका पाकिस्तान के खिलाफ निंदात्मक अभियान चला रहा है।
सच्चाई तो यह है कि कश्मीर मुद्दे पर राजनीतिक दृष्टिकोण और बौद्धिक प्रतिबद्धता मुखर प्रतिक्रियात्मक आयाम कभी ले ही नहीं पाए। इसलिए कश्मीर को इस्लामी राज्य बनाने का दायरा लगातार ब़ढ़ता जा रहा है। 1931 में जिस ‘मुसलिम कॉन्फ्रेंस’ की बुनियाद कश्मीर के डोगरा राजवंश को समाप्त करने के लिए रखी गई थी, वह स्वतंत्र भारत में भी विस्तार पाती जा रही है। नतीजतन 1990 में शुरू हुए पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के चलते घाटी से कश्मीर के मूल सांस्कृतिक चरित्र के प्रतीक कश्मीरी पंडितों को बेदखल करने की सुनियोजित साजिश रची गई। इस्लामी कट्टरपंथियों का मूल मकसद घाटी को हिंदुओं से विहीन कर देना था। इस मंशापूर्ति में वे कमोबेस सफल भी रहे। देखते-देखते वादी से हिंदुओं का पलायन शुरू हो गया और वे अपने ही पुश्तैनी राज्य में शरणार्थी बना दिए गए। क्या भारतीय बुद्धिजीवियों ने मानवाधिकार हनन के इस मुद्दे को फई की प्रायोजित परिचर्चाओं में उठाया? यदि उठाया है तो वे उन भाषणों को सार्वजनिक करें जो उन्होंने अमेरिका की धरती पर दिए?
कश्मीर की प्राचीन महिला शासक ‘कोटा रानी’ पर लिखे मदनमोहन शर्मा ‘शाही’ के ऐतिहासिक उपन्यास पर गौर करें तो कश्मीर में कई धर्म बिना किसी अतिरिक्त आहट के शांति और सद्भाव के वातावरण में विकसित हुए। प्राचीन काल में कश्मीर संस्कृत, सनातन धर्म और बौद्ध शिक्षा का उत्कृष्ट केन्द्र था। ऐसा इसलिए संभव हुआ, क्योंकि यहां नवाचारी बौद्धिकों और शिक्षाविदों को सरकारी स्तर पर प्रश्रय प्राप्त था। ‘नीलमत पुराण’ और कल्हण रचित ‘राजतरंगिणी’ में कश्मीर के उद्भव के भी किस्से हैं। कश्यप ऋषि ने इस सुंदर वादी की खोजकर मानवबसाहटों का सिलसिला शुरू किया था।
कश्यप पुत्र नील इस प्रांत के पहले राजा था। कश्मीर में यहीं से अनुशासित शासन व्यवस्था और सभ्यता के विकास का सिलसिला शुरू हुआ। 14वीं सदी तक यहां शैव और बौद्ध मतों ने प्रभाव जमाए रखा। इस समय तक कश्मीर को काशी, नालंदा और पाटिलीपुत्र के बाद विद्यार्जन का प्रमुख केंद्र माना जाता था। कश्मीरी पंडितों में ऋषि परंपरा और सूफी संप्रदाय का प्रभाव साथ-साथ परवान चढ़े। दुर्भाग्य से यही वह संक्रमण काल था जब इस्लाम कश्मीर का प्रमुख धर्म बन गया और बलात इस्लामीकरण का सिलसिला शुरू हुआ। डोगरा राज का खात्मा और हिंदुओं का कश्मीर से विस्थापन इसी कड़ी का हिस्सा हैं।
उमर अब्दुल्ला सरकार जिस तरह से उग्रवादियों की कश्मीर में पुनर्वास की पैरवी करने में लगी है, उससे लगता है, हिंदुओं का पुनर्वास उनकी प्राथमिकता में नहीं है। उन हिंदू शरणार्थियों को भी मताधिकार नहीं दिया जा रहा है जो बंटवारे के बाद पाकिस्तान से आए थे। विस्थापित हिंदुओं के पुनर्वास और शरणार्थी हिंदुओं के मताधिकार की पहल आजाद भारत में कश्मीर की किसी भी सरकार ने नहीं की, यह राजनीतिज्ञों का एक राजनीतिक हित साधने का चालाक पहलू हो सकता है, लेकिन बुद्धिजीवी भी अंतरराष्ट्रीय मंचों से इस मुद्दे को उठाने से कतराएं, आयोजक अलगाववादियों के चारण बने रहें, तो लगता है न उनका कोई मजबूत राष्ट्रीय नजरिया है और न ही धर्मनिरपक्ष सर्वसमावेशी मानसिकता? यदि देश के बुद्धिजीवी भी अलगाववादी जमातों का हिस्सा बनने लगेंगे तो लगता है कालांतर में जम्मू-कश्मीर में इस्लामीकरण के विस्तार का अंदेशा बना ही रहेगा। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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