Saturday, November 26, 2011

डोगरा प्रमाणपत्र पर राजनीति

दयासागर 

वर्ष 2011 में नेशनल कांफ्रेंस के नेतृत्व वाली सरकार ने कश्मीर घाटी के बाहर राज्य के लोगों के कल्याण के लिए डोगरा प्रमाणपत्र की योजना प्रस्तुत की थी। जम्मू-कश्मीर के राजस्व मंत्री रमण भल्ला ने बयान दिया था कि जम्मू संभाग के रहने वाले सभी लोग जाति, धर्म, भाषा, जिला व क्षेत्र के बारे में बिना विचार किए डोगरा हैं, इसलिए उन्हें डोगरा प्रमाणपत्र मिलना चाहिए। यह एक सराहनीय कदम था। कश्मीर घाटी के अलगाववादी तत्वों पर विशेष ध्यान देने के बावजूद राज्य सरकार ने सभी राजनीतिक मजबूरियों को नजर अंदाज कर इस प्रकार अपना स्पष्टीकरण दिया।

कश्मीर घाटी के अलगाववादी और सांप्रदायिक आधार पर राज्य के लोगों को बांटने का प्रयास करने वाले सरकार के इस कदम पर कि जम्मू संभाग के सभी लोग डोगरा हैं, पूरी तरह हिल गए थे। लेकिन जम्मू संभाग के नेताओं ने डोगरा प्रमाणपत्र की मांग पर एकजुट होकर तार्किक ढंग से काम नहीं किया। इसलिए डोगरा प्रमाणपत्र के मुद्दे पर कश्मीर घाटी के बाहर उमर अब्दुल्ला को कोई राजनीतिक मदद नहीं मिली। अगर ऐसा नहीं होता तो उमर अलगाववादियों के दबाव और राज्य सरकार द्वारा दी गई डोगरा की परिभाषा से व्यथित लोगों के खिलाफ उठ खड़े होते। हालांकि जम्मू संभाग के डोगरों की परिभाषा को वापस नहीं लिया गया है।

28 अप्रैल को डोगरा प्रमाणपत्र के खिलाफ आंदोलन का श्रेय लेने का दावा करते हुए हुर्रियत कांफ्रेंस (एम) के अध्यक्ष मीरवाइज उमर फारूक ने कहा था कि राज्य सरकार जेएंडके को कई हिस्सों में बांटना चाहती है। उमर फारूक के इरादों का उस समय भंडाफोड़ हो गया जब उन्होंने परोक्ष रूप से जम्मू संभाग के लोगों के लिए जारी डोगरा प्रमाणपत्र के मुद्दे से यह निष्कर्ष निकाला कि सरकार यह संदेश देना चाहती है कि कश्मीर में आजादी की मांग करने वाले बहुत कम हैं। उमर फारूक ने आरोप लगाया कि मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियां राज्य में बहुसंख्यक आबादी के खिलाफ रणनीति बनाने के लिए सदन का एक मंच के रूप में इस्तेमाल कर रही हैं। निश्चित रूप से उनके लिए बहुसंख्यक आबादी का मतलब मुस्लिमों से था।

अलगाववादी नेताओं के सांप्रदायिक मकसदों को जानने के बाद केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त वार्ताकार हतोत्साहित होकर उनसे कुछ मिनट बात करना चाहते थे, जिसका खुलासा हो गया। पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती भी इसमें टांग अड़ाने से पीछे नहीं रहीं। उन्होंने दावा किया कि राज्य में हर किसी की इच्छा है कि डोगरा प्रमाणपत्र आदेश को रद्द किया जाए। जबकि जम्मू संभाग के लिए यह आदेश प्रासंगिक था और राजौरी, पुंछ, ऊधमपुर, डोडा, कठुआ, किश्तवाड़ में किसी ने भी इसका विरोध नहीं किया।

महबूबा का भी भंडा फूट चुका था। कारण, उनके लिए जेएंडके के हरेक व्यक्ति का मतलब सिर्फ उन लोगों से था जो कश्मीर घाटी में रहते हैं। विधायक लंगेट, इंजीनियर रशीद ने डोगरा प्रमाणपत्र आदेश के निरस्तीकरण को कश्मीरियों की जीत बताया। उनके मुताबिक डोगरा प्रमाणपत्र आदेश के निरस्तीकरण का मतलब कश्मीरियों की जायज आकांक्षाओं के समक्ष सरकार का आत्मसमर्पण करना है। क्या उनके कहने का यह अर्थ है कि कश्मीरियों की आकांक्षाएं जम्मू संभाग (डोगरों) के लोगों के कल्याण और पहचान के खिलाफ है? कश्मीर घाटी के आम लोगों के लिए समय आ गया है कि वे ऐसे नेताओं के खिलाफ उठ खड़े हों, जो सिर्फ विभाजनकारी नीतियों में विश्वास रखते हैं।

इसी प्रकार नेशनल कांफ्रेंस नेता और सांसद डॉ. महबूब बेग, पीडीपी के वरिष्ठ नेता मुजफ्फर हुसैन बेग व वरिष्ठ सलाहकार जफर शाह ने डोगरा प्रमाणपत्र जारी करने के मुद्दे को राजनीति से प्रेरित बताया। पहले यह आवाज उठी थी कि डोगरा प्रमाणपत्र मिलने के बाद लोगों को सुरक्षा बलों में नौकरी पाने में वरीयता मिलेगी। बाद में जब कश्मीरी अलगाववादियों और कुछ घाटी केंद्रित नेताओं ने विरोध जताया तो सरकार यह स्पष्टीकरण देने में बिल्कुल समय नहीं गंवाई कि डोगरा प्रमाणपत्र जम्मू संभाग के लोगों को सुरक्षाबलों में भर्ती के लिए शारीरिक मापदंड में कुछ छूट देने का अधिकार प्रदान करती है। बाद में रमण भल्ला और ताराचंद ने डोगरा प्रमाणपत्र आदेश को जारी करने के पीछे के उद्देश्य को दूसरा रूप देते हुए उद्धृत किया।

सशस्त्र बलों में भर्ती के लिए कश्मीर और लद्दाख के लोगों को पहले से ही विशेष छूट मिली हुई है। कश्मीरी नेता इस मुद्दे पर गंभीरतापूर्वक विचार कर रहे हैं, जबकि जम्मू के नेताओं ने इस पर उतना ध्यान नहीं दिया है। रमण भल्ला ने जम्मू के नेतृत्व को यह संदेश दिया है कि जो लोग चिनाब घाटी/पीर पंजाल के बारे में बात करते हैं, वह जम्मू क्षेत्र में पड़ता है। स्थानीय नेता इस मुद्दे को थामे रखने में विफल साबित हुए हैं। इसलिए, उमर सरकार पर सैयद अली शाह गिलानी के समक्ष घुटने टेकने का आरोप सही नहीं है। कश्मीरी नेताओं ने सुविचारित रणनीति अपनाई है, लेकिन मालूम होता है कि जम्मू के नेताओं ने इसे हल्के में लिया है।

जम्मू संभाग (डोडा, किश्तवाड़, पुंछ, ऊधमपुर, रामबन, राजौरी, कठुआ आदि) के पिछड़े क्षेत्रों के सामाजिक, आर्थिक और प्रशासनिक रूप से उपेक्षित मुद्दों को डोगरियत के झंडे तले एक इकाई के रूप में बेहतर ढंग से उठाया जा सकता है। रमण भल्ला द्वारा निर्धारित डोगरा की परिभाषा से संकीर्ण मनोदशा वाले कश्मीरी परेशान हो गए हैं। भल्ला ने साफ शब्दों में कश्मीरियत के समानांतर डोगरियत की परिभाषा निर्धारित की है। निश्चित रूप से इससे सांप्रदायिक आधार पर जम्मू संभाग के लोगों को बांटने के लिए काम करने वालों के बुरे इरादे कमजोर होंगे। बाहरी दुनिया के लिए डोगरा प्रमाणपत्र विवाद बंद हो चुका है। राज्य का एक बड़ा हिस्सा डोगरा क्षेत्र के रूप में जाना जाता है, जोकि जम्मू संभाग के कठुआ से डोडा जिले तक फैला हुआ है।

डोगरा प्रमाणपत्र से डोगरों को रोजगार में कोई अतिरिक्त लाभ नहीं मिलेगा। जम्मू संभाग के किसी भी भाग से डोगरा प्रमाणपत्र के मुद्दे पर कोई आपत्ति दर्ज नहीं की गई है। सवाल उठता है कि डोगरा प्रमाणपत्र में ऐसा क्या है, जिससे घाटी के नेता परेशान हो गए? कश्मीर केंद्रित तत्व जब राज्य को सिर्फ कश्मीरियत की नजर से देखते हैं तो उन्हें राज्य की अखंडता पर कोई खतरा नहीं दिखता है, लेकिन जब रमण भल्ला पूरे जम्मू क्षेत्र की पहचान डोगरा क्षेत्र के रूप में करते हैं तो उन्हें राज्य पर खतरा नजर आने लगता है। इससे न सिर्फ सैयद अली शाह गिलानी परेशान हो गए बल्कि सभी कश्मीर केंद्रित नेता उद्वेलित हो गए। डोगरियत की परिभाषा जो कश्मीरियत के समानांतर और उमर सरकार द्वारा जारी आदेश से उभरा है। 
(लेखक जम्मू-कश्मीर मामलों के अध्येता हैं।)

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