Saturday, November 5, 2011

अफस्पा पर अप्रिय बोल


दयासागर
जम्मू-कश्मीर के कुछ नेताओं का कहना है कि सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (अफस्पा) को हटाने की मांग लोगों की तरफ से आ रही है और इसे हटाकर राजनीतिक पार्टियां अपने वादे पूरे करेंगी। उनसे कोई पूछे कि अफस्पा को हटाना क्या नौकरी देने या सड़क बनाने जैसा है? अफस्पा तो सुरक्षा बलों को देश की सीमाओं, आंतरिक शांति और आम नागरिक की जटिल स्थितियों में देश के भीतर और बाहर बैठे शत्रुओं से बिना कानूनी जटिलताएं और समय नष्ट किए रक्षा करने के लिए एक अंतरिम प्रावधान जैसा है।

जम्मू-कश्मीर में जिस तरह अफस्पा को प्रोजेक्ट किया जा रहा है, उससे लगता है कि केंद्र सरकार के इरादों पर आपराधिक दोष मढ़े जा रहे हैं। कुछ समालोचक इस बात को नजरअंदाज कर रहे हैं कि कुछ अशांत क्षेत्रों में परिस्थितियां सुरक्षाबलों की तैनाती के लिए बाध्य कर रही हैं। अफस्पा हटाने की बात करने वाले पूरी तरह गलत हैं। यह कानून कुछ संशोधनों के साथ यहां लागू रहना चाहिए ताकि इसके दुरुपयोग को कम किया जा सके। साथ ही यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि नागरिक क्षेत्रों में अस्थायी ड्यूटी के दौरान सशस्त्र बलों की अवमानना न हो।

भारतीय सशस्त्र बलों का पहला कर्तव्य देश की सीमाओं को दुश्मनों के हमले से बचाना है। इसलिए उनके मनोबल को ऊंचा बनाए रखना होगा। नि:संदेह नागरिक प्रशासन को भी स्थानीय लोगों की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए काम करने की जरूरत है ताकि शत्रुओं और विद्रोहियों को स्थानीय मदद न मिल सके और आंतरिक कानून व्यवस्था उस हद तक न बिगड़े कि राज्य पुलिस और सामान्य कानून शांति बनाए रखने के लिए पर्याप्त न रहे।

सेना और सुरक्षा बलों में भर्ती की मांग उठने लगी है। समस्या जटिल होती जा रही है, क्योंकि बाहरी शत्रु आंतरिक सुरक्षा और अंतरराष्ट्रीय सीमाओं को अशांत करने पर तुले हैं। इन स्थितियों में सीमाओं पर सुरक्षाबलों के लिए दुश्मनों के काडरों और बुनियादी संरचनाओं को ध्वस्त करने की जरूरत है। कारण, नागरिक क्षेत्रों में इनके फलने-फूलने का संदेह है। कुछ समय तक उनसे स्थानीय अपराधियों की तरह नहीं बल्कि शत्रुओं की तरह व्यवहार किया गया है। इसलिए सेना और सुरक्षाबलों को अपनी नीतियों में संशोधन की जरूरत है।

केंद्र द्वारा जम्मू-कश्मीर के लिए नियुक्त वार्ताकारों की टीम, जिसकी अध्यक्षता दिलीप पडगांवकर करते हैं, ने 12 अक्टूबर 2011 को केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम को अपनी रिपोर्ट सौंप दी है। इसके बाद अफस्पा-1990 पर फिर चर्चा शुरू हो गई है। कुछ दिन पहले 25 सितंबर को दिल्ली के एक वकील प्रशांत भूषण ने बनारस में मीडिया से बातचीत करते हुए कहा था कि कश्मीर से अफस्पा और सुरक्षाबलों को हटा देना चाहिए ताकि मानवाधिकार का हनन न हो। कश्मीर में जनमत संग्रह कराना चाहिए और यदि वहां के लोग भारत के साथ नहीं रहना चाहते हैं तो उनको अलग होने देना चाहिए। 12 अक्टूबर को उनके चैंबर में हुई अप्रिय घटना के बाद उनके इस बयान को टीवी चैनलों पर खूब दिखाया गया।

कुछ लोगों को संदेह है कि वार्ताकारों ने अपनी रिपोर्ट में अफस्पा के बारे में कुछ कहा होगा। चूंकि दिलीप पडगांवकर की टीम पूरे एक साल तक राज्य में घूमती रही है, इसलिए उम्मीद की जाती है कि यदि वे अफस्पा के बारे में कुछ बोले होते तो निश्चित रूप से उनको नागरिक क्षेत्रों की पहचान हो गई होती, जहां राज्य सरकार को सुरक्षा बलों की जरूरत नहीं है। प्रशांत भूषण (25 सितंबर 2011 को बनारस में) और मेधा पाटेकर (16 अक्टूबर को श्रीनगर के प्रताप पार्क) की टीम ने जिस तरह सुरक्षा बलों और अफस्पा के बारे में बात की है, निश्चित रूप से सराहनीय नहीं है।

अफस्पा पर अनौपचारिक ढंग से दिए गए बयानों के कारण कुछ लोगों को इस विषय पर बात करने और विरोध प्रकट करने का मौका मिल गया है। इस प्रकार के सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा सुरक्षाबलों पर आरोप लगाना, चाहे वह गलत ही हो, पूरी दुनिया में फैलती है। इसलिए केंद्र और राज्य सरकार को तत्काल इसका स्पष्टीकरण देना चाहिए। ऐसे लोगों को जेएंडके के लोगों के बीच अविश्वास का माहौल पैदा करने की अनुमति नहीं मिलनी चाहिए। अगर नागरिक अधिकारी यह महसूस करते हैं कि विदेशी मुल्कों से कोई हस्तक्षेप नहीं हो रहा है और नागरिक पुलिस स्थानीय गड़बडि़यों का निपटारा कर सकती है तो सशस्त्र बलों को लौटने के लिए कहा जा सकता है। इस स्थिति में अफस्पा की जरूरत नहीं होगी।

लेफ्टिनेंट जनरल अरविंद शर्मा (3.1.2005 को कोलकाता प्रेस कांफ्रेंस) ने याचना की थी कि देश में विद्रोह से निपटने के लिए अफस्पा जैसे कानून की सख्त जरूरत है। उनके आकलन के मुताबिक, अफस्पा के बिना सेना बगावत की स्थिति में ठीक से काम नहीं कर सकेगी। अफस्पा के बिना सेना सिर्फ एक प्रतिक्रियावादी बल बनकर रह जाएगी। इसी प्रकार पीटीआई ने सेना के उत्तरी कमान प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल बीएस जसवाल को उद्धृत करते हुए 5.9.2010 को कहा कि विशेष परिस्थितियों के लिए आपको विशेष कानून की जरूरत होती है। जम्मू-कश्मीर में विशेष परिस्थितियां हैं और इससे निपटने के लिए विशेष कानून की जरूरत है।

भारतीय सेना दुनिया में सबसे अच्छी है और यह जो कुछ करती है, वह नेक इरादे से करती है। यदि अच्छे इरादों के बारे में बार-बार सवाल उठाए गए तो सेना का काम कठिन हो जाएगा। यह महत्वपूर्ण है कि हमारे पास अफस्पा जैसे कानून हैं। कुछ लोग अफस्पा के प्रावधानों को कठोर मानते हैं। मैं यह कहना चाहूंगा कि यदि आप गर्मी महसूस करना चाहते हैं तो आपको गर्म चीजों में हाथ डालना ही होगा। जब आप विशेष परिस्थितियों में काम करते हैं तो महसूस करेंगे कि सही परिचालन के लिए इन कानूनों को लागू करना आवश्यक है। एक निश्चित मात्रा में प्रतिरक्षा आवश्यक है।

अगर सेना को सर्च ऑपरेशन चलाना पड़ा और हमारे पास प्रतिरक्षा के लिए यह औजार उपलब्ध नहीं हुए तो कौन कार्रवाई करेगा? ऐसे वरिष्ठ लोगों के विचारों और अनुभवों को राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के लिए अनौपचारिक ढंग से किनारे नहीं किया जा सकता। एक स्थानीय दैनिक समाचारपत्र ने 21 अक्टूबर 2011 को जीवन में पुलिस स्मरणोत्सव दिवस पर मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के संबोधन को यह कहते हुए उद्धृत किया कि सुरक्षा स्थिति में धीरे-धीरे सुधार होने और राज्य में शांति बहाली के बाद सभी काले कानूनों (डीएए और अफस्पा) को कुछ क्षेत्रों से हटाया जा सकता है। अफस्पा को काला कानून कहना उचित नहीं है। कारण, सभी शांतिप्रिय देशों में इस तरह के कानून की जरूरत होती है।
(लेखक : जम्मू-कश्मीर मामलों के अध्येता हैं।) 

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