Tuesday, August 9, 2011

आइएसआइ का कश्मीर एजेंडा

जगमोहन

अगर गुलाम नबी फई के खिलाफ एफबीआइ के आरोपपत्र को पढ़ा जाए तो इस बात के पर्याप्त सबूत मिल जाएंगे कि कश्मीरी-अमेरिकन काउंसिल का कार्यकारी निदेशक वस्तुत: मई 1989 से आइएसआइ की अमेरिकी शाखा के प्रमुख के तौर पर कार्य कर रहा था। एफबीआइ की शिकायत के साथ संलग्न अनेक ई-मेल और अन्य दस्तावेजों से पता चलता है कि परिषद के संचालन और वित्तीय प्रबंधन पर आइएसआइ का कड़ा अंकुश था। परिषद का प्रत्येक कदम आइएसआइ के दिशा-निर्देशों के अनुरूप उठाया जाता था। यहां तक कि सम्मेलनों में बुलाए जाने वाले भारतीय और पाकिस्तानी पत्रकारों की सूची भी आइएसआइ द्वारा उपलब्ध कराई जाती थी। फई के सम्मेलनों में भाग लेने वाले कुछ पत्रकारों और बुद्धिजीवियों की मीडिया में आलोचना हो रही है। इसके जवाब में उन्होंने दलील दी है कि वे परिषद और आइएसआइ के संबंधों के बारे में अनजान थे। यह दलील भारतीयों के गले नहीं उतर रही है। उनका कहना है कि यह कैसे संभव है कि सार्वजनिक जीवन के व्यापक अनुभव वाले पत्रकार और बुद्धिजीवी इन निमंत्रणों का मंतव्य न जानते हों? यह कहना मुश्किल है कि बिजनेस क्लास में अमेरिका आने-जाने, पंचतारा होटलों में ठहरने और फई की मेहमाननवाजी का लुत्फ उठाने वाले भारतीय पत्रकारों और बुद्धिजीवियों के मन में क्या चल रहा था, किंतु एक बात बिल्कुल साफ है कि कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों, खास तौर पर कश्मीर संबंधी मुद्दों पर इन बुद्धिजीवियों और पत्रकारों का वही दृष्टिकोण था जो आइएसआइ और अन्य पाक एजेंसियों का है। यह कुत्सित प्रचार आइएसआइ की उस योजना का एक हिस्सा था जिसके तहत वह कश्मीर में आतंक फैलाकर उसे हड़पना चाहती थी। ऐसे में यह जरूरी था कि इसका विरोध कर रहे लोगों में भ्रम फैलाकर उन्हें खलनायक के रूप में पेश किया जाए। 1989-90 में कश्मीरी पंडितों को खदेड़ने के मामले से इस बात की पुष्टि हो जाती है। इस समग्र योजना का एक उद्देश्य था घाटी से तमाम कथित काफिरों और भारत के एजेंटों को खदेड़ दिया जाए। एक वर्ग के तौर पर कश्मीरी पंडित पहला निशाना बने। कश्मीरी पंडित घाटी में भारतीय किले के सबसे मजबूत स्तंभ माने जाते थे। शेख अब्दुल्ला ने अपनी आत्मकथा आतिश-ए-चिनार में इन्हें दिल्ली के पांचवें स्तंभकार और जासूस कहकर संबोधित किया था। एक कश्मीरी पंडित को मारने और एक हजार को भयाक्रांत कर वहां से भगाने की रणनीति बनाई गई। पंडित समुदाय के प्रमुख सदस्यों का विशेषतौर पर नरसंहार किया गया। 14 सितंबर, 1989 को भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष टिक्का लाल टपलू को श्रीनगर में उनके घर के सामने दिनदहाड़े मार दिया गया। इसके तुरंत बाद 4 नवंबर को जज एनके गंजू को हरिसिंह मार्ग पर मार दिया गया। एनके गंजू ने 1966 और 1975 में आतंकी कार्रवाइयों के आरोपी मकबूल बट्ट के मामले की सुनवाई की थी। इसके पश्चात 28 दिसंबर, 1989 को पत्रकार पीएन भट्ट की नृशंस हत्या कर दी गई। उनकी रिपोर्ट अलगाववादियों और आतंकवादियों को हजम नहीं हो रही थी। छोटे कस्बों और दूरदराज के इलाकों में भी अनेक कश्मीरी पंडितों का यही हश्र हुआ। 16 जनवरी, 1990 को अखिल भारतीय कश्मीरी पंडित सम्मेलन के एक प्रतिनिधिमंडल ने तत्कालीन राज्यपाल केवी कृष्णा राव को ज्ञापन सौंपा, जिसमें कहा गया था-आज घाटी में सरकार के बजाय उग्रवादियों का शासन चल रहा है। घाटी का घटनाक्रम अल्पसंख्यकों पर कट्टरपंथियों के सुनियोजित हमलों का संकेतक है। सरकार की निष्कि्रयता बढ़ती ही जा रही है। अल्पसंख्यक नेताओं की हत्या करने वाला एक भी हत्यारे की पहचान तक नहीं की जा सकी है। स्पष्ट है कि फारुक अब्दुल्ला सरकार के इस्तीफे के बाद राज्य में राष्ट्रपति शासन लगने और 19 जनवरी को राज्यपाल के पद पर मेरी नियुक्ति के समय तक आतंकवादी, अलगाववादी और अन्य पाकिस्तान समर्थक तत्वों ने घाटी को पूरी तरह अपने जबड़ों में दबोच लिया था। इससे पहले कि वे अपने जबड़े बंद करके घाटी को हड़प पाते, सिलसिलेवार उपायों के जरिये इसे उनके जबड़ों से बाहर खींच लिया गया। कश्मीरी पंडितों के घाटी से पलायन को रोकने और घाटी से बाहर चले गए पंडितों को वापस बुलाने के लिए अनेक उपाय किए गए। सरकार ने यह प्रेस नोट जारी करके पंडितों को वापस बुलाने की अपील की-जगमोहन पंडित समुदाय के उन सभी सदस्यों से वापस घाटी में आने की अपील करते हैं जो यहां से अस्थायी तौर पर जम्मू पलायन कर गए हैं। वह चार स्थानों पर-श्रीनगर, अनंतनाग, बारामूला और कुपवाड़ा में चार अस्थायी शिविरों की स्थापना की पेशकश कर रहे हैं, जहां पंडितों को अस्थायी रूप से बसाया जाएगा। मेरी बहुआयामी नीति से आइएसआइ और आतंकवादी व अलगाववादी शक्तियों की कुटिल चालें विफल हुईं। इसके पश्चात इन तत्वों ने मेरी छवि को कलंकित करने के पुरजोर प्रयास शुरू कर दिए। जबकि 1984 से 1989 के दौरान मैंने कश्मीर घाटी में अनेक विकास और कल्याणकारी योजनाओं को लागू किया था। उन्होंने मेरे खिलाफ कुप्रचार शुरू कर दिया। मेरे खिलाफ अनेक मनगढ़ंत बातें फैलाई जाने लगीं। खासतौर पर यह प्रचारित किया गया कि कश्मीरी पंडितों के घाटी से पलायन के लिए मैं ही जिम्मेदार हूं। यह कुप्रचार आइएसआइ तंत्र द्वारा किया गया, किंतु इससे भी अधिक निंदनीय यह था कि कुछ प्रमुख पत्रकार भी इस कुप्रचार में बढ़चढ़ कर हिस्सा ले रहे थे। ये वही प्रमुख पत्रकार थे जो फई की परिषद द्वारा चुनी हुई सूची में अब पाए गए हैं। उन्होंने तमाम दस्तावेजों और अकाट्य साक्ष्यों की अनदेखी की और चेतावनी जारी करते हुए ऐसे नोटिस भी कश्मीर के प्रमुख समाचार पत्रों में छपवाए, जिनमें कश्मीरी पंडितों को 48 घंटों के भीतर घाटी छोड़ने की चेतावनी दी गई थी। इसके बाद उन्हें जान से मारने की धमकी दी गई थी। यह सब आइएसआइ की शह पर हुआ। इन तथ्यों के आलोक में, हम उन पत्रकारों और बुद्धिजीवियों की मंशा के बारे में सवाल क्यों न उठाएं जो फई के सम्मेलनों में आइएसआइ की भाषा बोलते थे। क्या उनके विचारों और आइएसआइ के विचारों में साम्यता को महज एक संयोग कहा जा सकता है? या इसके पीछे कुछ निहित स्वार्थ थे? इसका कोई सीधा जवाब नहीं दिया जा सकता, किंतु यह संबंध हमें संकेत जरूर दे रहा है कि हम सावधान और सचेत हो जाएं।

(लेखक जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल हैं)


(Courtesy : Dainik Jagran/ 10 Aug. 2011)

No comments:

Post a Comment