Monday, August 29, 2011

अनावश्यक हस्तक्षेप


प्रो. हरिओम
 
कोई भी धर्मनिरपेक्ष और सूझ-बूझ वाला व्यक्ति प्रो. कमल मित्रा के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं कर सकता। उनका सुझाव भारत के बाल्कनीकरण के अलावा कुछ नहीं है वाशिंगटन डीसी में पाकिस्तानी एजेंट गुलाम नबी फई द्वारा प्रायोजित भारत विरोधी सेमिनारों में जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर कमल मित्रा चिनॉय ने भाग लेकर कश्मीर समस्या के समाधान के लिए एक नया सुझाव दिया है। चिनॉय भारत और भारतीय राजनीतिक पद्धति पर विवादास्पद विचारों के लिए जाने जाते हैं। वह माओवाद समर्थक भी हैं। चिनॉय के सुझाव का प्रभावी भाग धारा 370 का मूल रूप और नियंत्रण रेखा के एक छोर से दूसरे छोर तक कश्मीर काउंसिल का गठन समस्या का संभावित समाधान है। इस काउंसिल में सीमा के दोनों ओर के कश्मीरियों को शामिल कर प्रत्येक को उसका अधिकार देना और दोनों देशों में इसकी संप्रभुता अक्षुण्ण बनाए रखना है। इसके तहत नियंत्रण रेखा नरम होनी चाहिए। कारण, जब कभी संभव हो तो कश्मीरियों के आर-पार के लिए इसे सुलभ बनाया जा सके। 

नियंत्रण रेखा का विसैन्यीकरण होना चाहिए और पाकिस्तानी रेंजर्स व भारतीय सीमा सुरक्षा बल को यहां पेट्रोलिंग करनी चाहिए। सीमा से दस किलोमीटर दूर सेना की तैनाती होनी चाहिए। यदि किसी तरह का उल्लंघन हो तो सेना को तत्काल उपस्थित होने की अनुमति मिलनी चाहिए। उनका कहना है कि कश्मीरी काउंसिल का अधिकार विषम हो सकता है, लेकिन यह दोनों तरफ के कश्मीरियों की एकता के लिए प्रभावी कदम होगा। चिनॉय ने जोर देकर कहा है कि सभी प्रमुख सुझावों में यह सबसे अधिक कारगर प्रतीत होता है। भारतीय पक्ष को यह महसूस नहीं होना चाहिए कि वे बहुत कुछ दे रहे हैं। आखिर धारा 370 भारतीय संविधान का ही हिस्सा है। उस समय जब इसे दिया गया तो निश्चित रूप से अब भी मिल सकता है। सीमा के दोनों तरफ रहने वाले सभी शांतिप्रिय और समृद्ध लोग भारतीय, पाकिस्तानी और कश्मीरी हैं, जो अच्छे पड़ोसी के रूप में रह सकते हैं। इस संघर्ष में बहुत खून बह चुका है। यह समय शांति स्थापित करने और दोनों देशों द्वारा गलत ढंग से हथियारों की खरीदारी को प्राथमिकता न देने के लिए कारगर उपायों को ढूंढना होगा। जैसा कि हमने कुछ निश्चित सिद्धांतों पर आधारित शांति और समझौते को निर्धारित किया है, कश्मीर समस्या के समाधान के लिए सिर्फ यही मार्ग बचा है। चिनॉय राज्य में जनमत संग्रह को खारिज करते हैं। उनका कहना है कि पाकिस्तान की स्थिति और विभिन्न कश्मीरी समूहों का मानना कि संयुक्त राष्ट्र का जनमत संग्रह वास्तविकता से परे है। नेहरू ने जब जनमत संग्रह को व्यापक रूप से प्रसारित किया था, उस समय और आज की स्थिति में काफी बदलाव आ चुका है। वर्ष 1972 में पाकिस्तान और भारत के बीच शिमला समझौते में यह तय हुआ था कि कश्मीर द्विपक्षीय मामला है। 

सबसे महत्वपूर्ण यह है कि भारतीय प्रशासित कश्मीर का एक बहुत बड़ा हिस्सा पाकिस्तान के साथ विलय का पक्षधर नहीं है। इनमें से अधिकांश लोग विभिन्न तरीके से आजादी की वकालत करते हैं। ऐसी स्थिति में जनमत संग्रह से उन कश्मीरियों को कोई प्रतिनिधित्व नहीं मिलेगा जो एक अलग कश्मीर चाहते हैं। चिनॉय की टिप्पणी है कि उनके सुझाव से दक्षिण एशिया में धीरे-धीरे शांति बहाल होगी। साथ ही अलग-थलग पड़े कश्मीरियों की आहत भावनाओं पर मरहम भी लगेगा। अब समय आ गया है कि धारा 370 फिर अपनी मूल स्थिति में बहाल हो। भारतीय संविधान की धारा 370 से जम्मू-कश्मीर राज्य को बहुत अधिकार मिला था। इसके तहत राष्ट्रीय सूची में सिर्फ चार विस्तृत क्षेत्रों में आरक्षण की बात कही गई थी। इसमें सुरक्षा, विदेशी मामलों, करंसी और दूरसंचार को शामिल किया गया था। लेकिन राजनीतिक चालबाजी से सूची हल्की पड़ गई और कश्मीर को जो मूल स्वायत्तता मिली थी वह तेजी से कम होती चली गई। यदि घाटी में कश्मीरियों और केंद्र सरकार के बीच कोई समझौता होता तो जम्मू-कश्मीर को पहले की तुलना में अधिक वृहत्तर स्वायत्तता मिली होती। वास्तव में सभी केंद्रीय अधिकार, सुरक्षा, करंसी और विदेशी मामले अधिक महत्वपूर्ण हैं। उनकी राय है कि दूरसंचार जिसका सबसे अधिक निजीकरण हुआ है, कश्मीर पर नियंत्रण के लिए महत्वपूर्ण नहीं है। उनके तर्को का निष्कर्ष भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव का मुख्य कारण कश्मीर की मौजूदा अस्थिरता है। इसके अलावा मुद्दे के समाधान के लिए केंद्र द्वारा कश्मीरियों की आकांक्षाओं के बारे में विचार न करना, पाकिस्तानी चिंताओं, कुशासन और कश्मीरियों का मानवाधिकार हनन है। इससे पता चलता है कि चिनॉय ने अन्य भारतीय ट्रैक-2 के परिचालनों की तरह दक्षिण एशिया में सभी कठिनाइयों के लिए भारत को जिम्मेदार ठहराया है। उनका मानना है कि जम्मू-कश्मीर विभाजन योजना का हिस्सा है। उनका मानना है कि पाकिस्तान और कश्मीरी मुस्लिम दो प्रमुख दावेदार हैं। कारण, उनके लंबे निबंध में जम्मू और लद्दाख का कोई उल्लेख नहीं है। 

उन्होंने सिर्फ कश्मीरियों के अलगाव के बारे में बात कही है। चिनॉय ने उन लोगों के बारे में कुछ नहीं कहा है जो वर्ष 1990 से पहले शारीरिक हमले या राष्ट्रवाद के समर्थकों के रोष से बचने के लिए घाटी छोड़ दिए थे। कोई भी धर्मनिरपेक्ष और सूझ-बूझ वाला व्यक्ति उनके इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं कर सकता। उनका सुझाव भारत के बाल्कनीकरण के अलावा कुछ नहीं है। जम्मू और लद्दाख को तो छोड़ ही दें, क्योंकि इसे हर किसी ने त्याग दिया है। चिनॉय की इच्छा है कि भारत, पाकिस्तान और कश्मीरियों की चिंताओं पर गौर करे और कश्मीर में भारत के खिलाफ लड़ने वालों की वित्तीय जरूरतों को पूरा करे। स्मरण रहे चिनॉय यह कहकर कि विलय की शर्ते केंद्र के क्षेत्राधिकार सुरक्षा, विदेशी मामलों, करंसी और दूरसंचार को सीमित करती है, इतिहास को तोड़-मरोड़ कर पेश करते हैं। वह जम्मू-कश्मीर और इसकी जनसांख्यिकी के बारे में अंजान हैं। यहां सिर्फ राज्य की आधी आबादी रहती है। कश्मीर की आबादी लंबवत रूप से पांच मुख्य समूहों में विभाजित है जिसमें स्वायत्तता की मांग, पाकिस्तान, स्वतंत्रता, स्वशासन और कश्मीर का दो भागों में विभाजन शामिल है ताकि वहां विस्थापित कश्मीरी हिंदुओं के लिए अलग से होमलैंड स्थापित किया जा सके। उनके लिए बेहतर होगा कि वह जम्मू-कश्मीर के मामलों में हस्तक्षेप करने से परहेज करें।

(लेखक जम्मू विवि के इतिहास विभाग के पूर्व अध्यक्ष हैं।)

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