Sunday, January 23, 2011

राष्ट्र सर्वोपरि, सियासी रसूख खुदगर्जी नहीं

भरतचंद्र नायक
जम्मू कश्मीर की राजधानी श्रीनगर के ऐतिहासिक लालचौक पर राष्ट्रीय ध्वज फहराये जाने के संकल्प की घोषणा के साथ मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला खबरों के मानचित्र पर आ गये हैं। दो घोषणाएं देश की जनता में चर्चा का विषय बन चुकी हैं। 12 जनवरी को पं. बंगाल के कोलकता नगर में तिरंगा ध्वज भेंट करते हुए जब भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने ठाकुर रविंद्रनाथ टैगोर, बंकिम चंद चंटर्जी और डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के उत्कट राष्ट्रप्रेम की सरिता प्रवाहित की, राष्ट्रीय एकता यात्रा का लक्ष्य स्पष्ट हो गया कि संकल्प यात्रा का राजनीतिक उद्देश्य नहीं है। यह भारतीयता और राष्ट्रीय एकता का प्रतीक है। राष्ट्रीय अखण्डता का उद्धोष है। जम्म -कश्मीर में अलगाववादियों ने देश की अखण्डता को खंडित करने का जो मंसूबा बांधा है, उसका माकूल जवाब राष्ट्रीय एकता का उद्धोष ही हो सकता है। दूसरी खबर राष्ट्रीय एकता यात्रा के जम्मू कश्मीर में प्रवेश पर प्रतिबंध के फरमान को केंद्र सरकार की मौन सहमति कौतुहल का विषय रही।

ऐसे में बरबस इतिहास के धुंधले पृष्ठ सामने आते हैं। भारत की स्वतंत्रता के साथ अहम सवाल देशी रियायतों के विलीनीकरण का था। यह प्रश्न रियासतों के राजा, महाराजा की इच्छा पर निर्भर कर दिया गया था। वे जहां चाहे विलय कर लें। जम्मू कश्मीर के महाराजा हरीसिंह की भारत में विलय की इच्छा के बावजूद कुछ झिझक थी। पं.जवाहरलाल नेहरू चाहते थे कि शेख अब्दुल्ला को रिहा कर उन्हें जम्मू कश्मीर के प्रमुख की मान्यता दे दी जाए। इसके लिए महाराजा हरीसिंह रजामंद नहीं थे। इस दुविधा का लाभ पाकिस्तान के हुक्मरान उठाने के लिए तत्पर देखे गए और उन्होंने अक्टूबर 1947 के पहले हमले में ही सामूहिक हमला कर अराजकता फैलाने और कब्जा करने की योजना बना ली। उनका मकसद दुनिया को यह दिखाना था कि राजा के विरूद्ध बगाबत हो रही है। जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रवादी शक्तियां यह भांप चुकी थीं। कबायली हमले के वेश में पाकिस्तान की सेना के हमले की जानकारी, षड्यंत्रों की सूचना रियासत के दीवान मेहर चंद महाजन को दी गई। स्वयंसेवकों ने साहसिक करतब दिया। इसी का नतीजा था कि महाराजा हरीसिंह के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गयी। उन्हें तत्कालीन स्वराष्ट्र मंत्री वल्लभभाई पटेल की तासीर और तदबीर पता थी। सरदार पटेल से हरीसिंह ने सारी परिस्थिति पर चर्चा की। सरदार पटेल को पता था कि हरीसिंह और गुरु गोलवलकर में सैध्दांतिक घनिष्ठता है। इस घनिष्ठता का आधार सियासत नहीं राष्ट्रवाद का जबा था। पटेल ने सोचा कि लाभ उठाया जा सकता है। मेहरचंद महाजन को सरदार पटेल ने गुरुजी और हरीसिंह की तत्काल भेंट कराने का मिशन सौंपा और विशेष विमान का प्रबंध किया गया। 17 अक्टूबर को गुरुजी श्रीनगर पहुंचे। गुरुजी और महाराजा हरिसिंह के बीच बैठक हुई। इस बैठक में मेहरचंद के अलावा कोई चौथा व्यक्ति था तो राजकुमार कर्ण सिंह थे, जो पैर में प्लास्टर बांधे पड़े थे। मुद्दे की बात यह थी कि हरीसिंह ने आशंका जतायी थी कि पं.नेहरू की जिद शेख अब्दुल्ला को रिहाकर शासक की मान्यता दिलाने की है। लेकिन इससे प्रजा के दुखी होने और भारत विरोधी गतिविधियां आरंभ होने की आशंका बनी रहेगी। गुरुजी ने तब उनकी चिंता से साक्षात्कार करते हुए भरोसा दिलाया कि विलय के बाद सरदार पटेल पूरा बंदोबस्त करेंगे। प्रजा रंजन में कोई कमी नहीं रखी जावेगी। गुरुजी ने हरीसिंह को सलाह दी कि उनकी हिफाजत की दृष्टि से वे जम्मू पहुंचें, जहां स्वयंसेवक भी उनकी सुरक्षा में प्राण न्यौछावर कर देंगे। गुरुजी 19 अक्टूबर, को विशेष विमान से दिल्ली लौटे और सरदार पटेल को विवरण के साथ आश्वस्त कर दिया। विलीनीकरण की प्रक्रिया पूरी करने के लिए सरदार पटेल ने स्वराष्ट्र मंत्रालय के सचिव वी पी मेनन को भेजा। 26 अक्टूबर, 1947 को विलय पत्र पर हस्ताक्षर हो गए। साधिकार विलय होने की बात शेख अब्दुल्ला ने संविधान सभा में तस्तीक भी की थी। शेख अब्दुल्ला के पोते उमर अब्दुल्ला यह भी भूल रहे हैं कि 1975 में जब शेख अब्दुल्ला और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बीच समझौता हुआ था, वर्तमान संवैधानिक प्रावधानों पर शेख अब्दुल्ला ने स्वीकृति की मोहर लगायी थी। सभी प्रावधान पुन: स्वीकार किये गये थे। उमर अब्दुल्ला अब अलगाववादियों के प्रवक्ता बनकर खुद संवैधानिक पद पर बने रहने का संवैधानिक अधिकार गवां रहे हैं। विलय पर उमर का सवाल हरीसिंह की दूरदर्शी की याद दिलाता है।

जम्मू कश्मीर के मामले में शेख अब्दुल्ला खानदान की चाल, चरित्र और चेहरा हमेशा बदलता रहा है। जब वहां दो निशान, दो विधान, दो प्रधान की व्यवस्था पर डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने ऐतराज उठाया, कमोबेश कांग्रेस की स्थिति आज की तरह शतुर्मुर्ग की तरह ही थी। डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने भारतीय जनसंघ का नेतृत्व करते हुए जम्मू-कश्मीर में प्रवेश परमिट व्यवस्था का विरोध किया। 1953 में डॉ. मुखर्जी ने बिना परमिट के प्रवेश के आंदोलन की अगुवाई की। शेख अब्दुल्ला सरकार ने उन्हें जम्मू-कश्मीर सीमा पर ऐसे स्थान पर गिरफ्तार किया, जहां भारत के न्यायालय का क्षेत्राधिकार नहीं था। डॉ. मुखर्जी ने भारतीय अखण्डता के लिए प्राणों का उत्सर्ग कर दिया। तब जम्मू कश्मीर के प्रधानमंत्री शेख की निर्ममता ने डॉ. मुखर्जी का बलिदान ले लिया। तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने जब डॉ. मुखर्जी के परिवार को शोक संवेदना भेजी, तब डॉ. मुखर्जी की माता जी ने एक ही मांग की थी कि डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की मौत की संदिध परिस्थिति की जांच के लिए न्यायिक आयोग बनाए, जो कभी नहीं बना। ऐसा क्यों नहीं किया गया, यह प्रश्न आज भी अनुत्तरित बना है। उनके बलिदान की वजह से दो प्रधान, दो निशान की व्यवस्था बदल गयी। प्रवेश परमिट की अनिवार्यता समाप्त हुई। आज जम्मू-कश्मीर भारत का अंग है, तो उन राष्ट्रवादियों की वजह से है आज जिन्हें श्रीनगर के लाल चौक पर ध्वजारोहण करने से रोका जा रहा है। इसकी वजह अलगाववादियों का विरोध है, जिसे शह पाकिस्तान से और समर्थन नेशनल कांफ्रेंस तथा कांग्रेस से मिल रहा है।

दरअसल कश्मीर में कांटे बोये गये और घटनाओं के वस्तुनिष्ठ लेखन का कार्य नहीं होने दिया गया। महाराजा हरीसिंह को गलत पेश किया गया कि वे विलय के हिमायती नहीं थे। वास्तविकता यह है कि शेख अब्दुल्ला और पं.नेहरू को हरी सिंह से चिढ़ थी। क्योंकि हरीसिंह ने शेख अब्दुल्ला की विश्वसनीयता पर सवाल उठाये थे। हरीसिंह की राष्ट्रीयता को चुनौती नहीं दी जा सकती है। उन्होंने 1930 में लंदन में गोल मेज कांफ्रेंस में कहा था कि वह पहले भारतीय हैं और बाद में महाराज हैं। तत्कालीन गर्वनर जनरल माउंट वेटन और पं.नेहरू ही कश्मीर के भारत में विलय के हिमायती नहीं थे। तत्कालीन घटनाएं इसकी पुष्टि करती हैं। लेकिन यह भी सही है कि जो विलय पत्र हस्तातरित हुआ है।
और वह सभी रियायतों जैसा है। उस पर कोई प्रश्न नहीं उठाया जा सकता है। यदि जे.के. का विलय अधूरा है, तो अविभाजित भारत की सभी रियासतों का विलय अधूरा है। आज के संदर्भ में उमर अब्दुल्ला ने जो बयान दिया है, वे यह बताना चाहते हैं कि रिश्ते अस्थायी हैं। उनका भारत के साथ संवैधानिक रिश्ता विवादित है। गोया खानदानी पैंतरा भयादोहन का जारी है। कांग्रेस मसूमियत का लबाया ओढे है। राहुल गांधी और उमर अब्दुल्ला की जुगलबंदी ने राष्ट्र की अखण्डता को हल्के पन से लेकर साबित कर दिया है कि राष्ट्र, राष्ट्रीयता और उसकी कीमत चुकाने के लिए उत्सर्ग के मायने उनके लिए कुछ भी नहीं है। सत्ता की अपरिहार्यता उनके लिए अहम बात है।

कहा जाता है कि इतिहास अपने को दोहराता है। पं. नेहरू ने लम्हे मे जो खता की उसकी सजा साठ वर्षों से देशवासी भुगत रहे हैं। जम्मू-कश्मीर पुराणों में सरस्वती प्रदेश कहा गया। नब्बे प्रतिशत वित्तीय पोषण देश के करदाताओं के पैसे से हो रहा है। उमर अब्दुल्ला ने यह कह कर भारत की अवाम के चेहरे पर चिंता की लकीरें खींच दी है कि वे न तो भारतीय संघ की कठपुतली हैं और भीख का कटोरा लिए दिल्ली जाते हैं। जब पाकिस्तान की शह पर जम्मू कश्मीर से अल्पसंख्यकों को खदेड़ा जा रहा है, विशेष सशस्त्र बल विशेष अधिकार कानून को समाप्त करने, स्वायत्तता 1953 पूर्व की देन, फौज में कटौती करने के लिए षड्यंत्र रचे जा रहे है। पाकिस्तान झंडा फहराया जाना आम रिवाज बन रहा है। किसी भी राष्ट्र भक्त, जमात ने साहस तो किया कि जम्मू कश्मीर के अवाम को बताये कि पूरा देश उनके साथ है। पाक परस्त अलगाववादी समूचे जम्मू कश्मीर को हांक नहीं सकते हैं। इस राष्ट्रीय एकता यात्रा से उमर अब्दुल्ला को खौफजदा होने की आवश्यकता नहीं रही है। लेकिन उमर अब्दुल्ला तो अलगाववादियों के प्रवक्ता की तरह राष्ट्रवादियों के साथ अलगाववादियों की तरह बर्ताव कर रहे हैं। जिसे इतिहास माफ नहीं करेगा। कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस की असलियत से पूरा देश वाकिफ हो रहा है. इन्हें राष्ट्रीय अखण्डता, देश की सुरक्षा सर्वोपरि नहीं है। ये निरे राजनीति में रसूख पालने और खुदगर्जी की फसल काटने के तलफगार है। राजनीति में वंश परंपरा के गुणदोष नहीं आने दिये जाए, इसलिए ही दुनिया ने लोकतंत्र का वरण किया है। राजशाही को समाप्त किया है, इसे एक विंडवना ही कहा जाएगा कि महाराजा हरीसिंह ने जिन घटनाओं की पूर्व कल्पना कर अपनी आशंका व्यक्त की थी, ये चित्र पट की तरह घटित हुई है। हरीसिंह का जो विरोध तब शेख अब्दुल्ला कर रहे थे आज भी राष्ट्रवादी ही जम्मू कश्मीर के शासक दल नेशनल कांफ्रेंस के निशाने पर हैं। कांग्रेस के राडार पर राष्ट्रीय अखण्डता से अधिक सियासत रही है, जो आज भी है।
(Courtesy : pravakta.com)


टकराव की राजनीति
संजय गुप्त
पिछले लगभग दो-तीन माह से भाजपा और कांग्रेस जिस तरह एक-दूसरे से टकरा रही हैं उससे आने वाले दिनों में भी देश का राजनीतिक माहौल तनावपूर्ण होता दिख रहा है। इन दोनों राष्ट्रीय दलों का टकराव संसद के पिछले सत्र में तब शुरू हुआ जब प्रमुख विपक्षी दल होने के नाते भाजपा ने 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति के गठन की मांग की और जिसे सरकार लगातार ठुकराती रही। इस तनातनी के कारण संसद का शीतकालीन सत्र एक दिन भी नहीं चल पाया। इसे जहां भाजपा ने अपनी जीत की तरह लिया वहीं संप्रग और केंद्र सरकार का नेतृत्व कर रही कांग्रेस ने खुद को असहज महसूस किया। वैसे तो शीतकालीन सत्र के पहले भी महंगाई पैर पसार रही थी और विपक्षी दल उसे मुद्दा बनाए हुए थे, लेकिन प्याज और अन्य सब्जियों के दाम जिस तरह आसमान छूने लगे उससे भाजपा को सरकार के विरुद्ध तीखी टिप्पणियां करने तथा उसे और असहज करने का अवसर मिला। शायद इसी का नतीजा था कि केंद्र सरकार मंत्रिमंडल में फेरबदल करने के लिए विवश हुई। चूंकि इस फेरबदल से पहले यह साफ दिख रहा था कि सरकार को महंगाई से कराहती जनता को राहत देने के कोई उपाय नहीं सूझ रहे इसलिए प्रधानमंत्री के पास इसके अलावा और कोई चारा नहीं था कि वह उन मंत्रियों के मंत्रालय बदलें जो किसी न किसी स्तर पर महंगाई के लिए उत्तरदायी थे। उन्होंने शरद पवार से खाद्य आपूर्ति मंत्रालय ले लिया और मुरली देवड़ा से पेट्रोलियम। बावजूद इसके ऐसे आसार नहीं कि सरकार आलोचना का शिकार होने से बच पाएगी।

जब विपक्ष भ्रष्टाचार के बड़े मामले यानी 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच जेपीसी से कराने के लिए सरकार पर यह दबाव बना रहा है तब मानव संसाधन विकास के साथ दूरसंचार मंत्रालय भी देख रहे कपिल सिब्बल ने नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) की रपट पर ही सवालिया निशान खड़ा कर दिया। इससे बात बनी नहीं, क्योंकि उच्चतम न्यायालय के कारण न केवल उन्हें मुंह की खानी पड़ी, बल्कि सरकार की भी किरकिरी हुई। उच्चतम न्यायालय ने जिस तरह सीबीआइ को यह निर्देश दिया कि वह कपिल सिब्बल की टिप्पणी को नजरअंदाज कर अपनी जांच जारी रखे उससे विपक्ष को सरकार पर और हमलावर होने का अवसर मिलेगा। विपक्ष ने यह एलान भी किया हुआ है कि यदि स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच के लिए जेपीसी गठित नहीं हुई तो वह बजट सत्र भी नहीं चलने देगा। स्पष्ट है कि कांग्रेस और केंद्र सरकार के लिए स्थितियां और विकट होने जा रही हैं। यदि कांग्रेस के रणनीतिकारों ने केंद्र सरकार को असहज होने से बचाने के लिए ही सीएजी की रिपोर्ट पर सवालिया निशान लगाने की रणनीति अपनाई थी तो वह नाकाम रही। ऐसा लगता है कि बढ़ते दबाव को भाजपा की तरफ ढकेलने के लिए मालेगांव विस्फोट मामले में गिरफ्तार हिंदू अतिवादी स्वामी असीमानंद के कथित कबूलनामे को मीडिया के एक हिस्से में सार्वजनिक किया गया।

इस कबूलनामे के जरिये कांग्रेसी नेताओं ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को जिस तरह कठघरे में खड़ा किया उससे भाजपा तिलमिलाई हुई है। यह भी लगता है कि भाजपा को और अधिक चोट पहुंचाने की रणनीति के तहत ही कर्नाटक के राज्यपाल हंसराज भारद्वाज ने अपने सगे-संबंधियों को अनुचित लाभ पहुंचाने के आरोपों से घिरे मुख्यमंत्री येद्दयुरप्पा के खिलाफ मुकदमा चलाने के आदेश दिए। यह सर्वविदित है कि भारद्वाज कांग्रेस के नजदीकी हैं। यह भी ध्यान रहे कि भ्रष्टाचार को लेकर भाजपा ने जब-जब कांग्रेस को कठघरे में खड़ा किया, कांग्रेस ने तब-तब भाजपा को येद्दयुरप्पा के भ्रष्टाचार की याद दिलाई। पिछले दिनों जब एक अभूतपूर्व घटनाक्रम के तहत आयकर न्यायाधिकरण ने यह आदेश दिया कि बोफोर्स तोप सौदे में विन चड्ढा के साथ ओट्टावियो क्वात्रोची ने भी दलाली खाई थी तो इससे गांधी परिवार और कांग्रेस की किरकिरी हुई। वैसे तो भारद्वाज द्वारा येद्दयुरप्पा पर मुकदमा चलाने के आदेश देने और 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले तथा बोफोर्स मामले में कहीं कोई संबंध नहीं दिखता, लेकिन भाजपा मान रही है कि चूंकि इन दोनों मामलों के कारण केंद्र सरकार की किरकिरी हो रही थी इसलिए उसकी ओर से भारद्वाज के जरिये बदले की कार्रवाई की गई। कांग्रेस चाहे जो सफाई दे, भारद्वाज का निर्णय जल्दबाजी और बदले की भावना से भरा नजर आता है। ध्यान रहे कि न जाने कितने ऐसे मुख्यमंत्री हैं जो अपने विवेकाधीन अधिकार के तहत सगे संबंधियों को लाभ पहुंचाते रहते हैं। नि:संदेह यह भी एक किस्म का भ्रष्टाचार है, लेकिन हंसराज भारद्वाज तो एक नई परिपाटी शुरू कर रहे हैं। यह परिपाटी केंद्र-राज्य संबंधों को प्रभावित करने वाली है।

यदि देश में भ्रष्टाचार रोकना है तो इसके लिए ठोस नियम-कानून बनाने पड़ेंगे और लोकपाल सरीखी संस्थाओं का गठन करना होगा। ऐसी संस्थाओं के पास ऐसे अधिकार होने चाहिए कि वे स्वेच्छा से भ्रष्टाचार के किसी मामले की खुद जांच कर सकें। केंद्र सरकार की ओर से भ्रष्टाचार रोकने के लिए लोकपाल विध्ेायक लाने की चर्चा चल रही है। शायद सरकार संसद के अगले सत्र में इस विधेयक को पेश करेगी, लेकिन उसके मसौदे से यह लगता है कि वह अपने लक्ष्य से भटक रही है। यह निराशाजनक है कि संप्रग सरकार अपनी दूसरी पारी के प्रारंभ से ही मुसीबतों से घिरी है। कांग्रेस के लिए स्थितियां असहज होती जा रही हैं। इस वर्ष पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं और अगले वर्ष उत्तर प्रदेश जैसे प्रमुख राज्य में चुनाव हैं। भाजपा लगातार कांग्रेस और केंद्र पर दबाव बनाए हुए है। शायद दबाव की इसी राजनीति के तहत भाजपा ने श्रीनगर के लाल चौक पर 26 जनवरी को झंडा फहराने का कार्यक्रम रखा है। यह कार्यक्रम कांग्रेस के लिए एक नई मुसीबत बन रहा है। जब श्रीनगर भारत का अभिन्न अंग है तब वहां किसी को भी झंडा फहराने का अधिकार है, लेकिन अलगाववादियों और कश्मीर के विपक्षी दलों के दबाव के चलते उमर अब्दुल्ला भाजपा को ऐसा कदापि नहीं करने देना चाहते। अब तक केंद्र इस मसले पर चुप बैठा हुआ था, लेकिन अब वह जम्मू-कश्मीर में और सुरक्षाबल भेजकर भाजपा की मुहिम को विफल करने के संकेत दे रहा है। यदि ऐसा हुआ तो कांग्रेस और भाजपा में टकराव और बढ़ना तय है।

इन दोनों राष्ट्रीय दलों में पहले भी अनेक मुद्दों पर टकराव होता रहा है, लेकिन संसदीय कामकाज में भाजपा ने कांग्रेस को सकारात्मक सहयोग दिया है। संपग सरकार के पहले कार्यकाल में यह सहयोग दिखा भी है। संसद के बजट सत्र में अब देर नहीं। बजट सत्र के पहले कांग्रेस-भाजपा में बढ़ते तनाव को देखते हुए आशंका है कि कहीं संसद का एक और सत्र हंगामें की भेंट न चढ़ जाए। अगर ऐसा हुआ तो देश का राजनीतिक माहौल और अधिक तनावपूर्ण हो जाएगा और सरकार के लिए और असहज स्थिति उत्पन्न होने लगेगी। भाजपा के तीखे तेवर जैसे-जैसे केंद्र सरकार को असहज करेंगे, कांग्रेस भी भाजपा पर पलटवार करती जाएगी। विपक्षी दलों के दबाव और साथ ही घटक दलों से सांमजस्य के अभाव के चलते केंद्र सरकार की मुसीबतें और बढ़ सकती हैं।

(लेखक : “दैनिक जागरण” के प्रधान सम्पादक हैं)

(Courtesy : jagran.com, 23.01.2011)

No comments:

Post a Comment