Thursday, September 29, 2011

अफ़ज़ल मसले पर विधानसभा के बाहर हंगामा

गुरुवार, 29 सितंबर, 2011       
संसद पर हमले के मामले में दोषी ठहराए गए अफ़ज़ल गुरु की फाँसी की सज़ा माफ़ करने से जुड़े प्रस्ताव को लेकर जम्मू-कश्मीर विधानसभा के बाहर प्रदर्शन हुए हैं.

निर्दलीय विधायक इंजीनियर राशीद और उनके समर्थकों ने सदन के बाहर प्रदर्शन किया जिसके बाद उन्हें हिरासत में ले लिया गया. बाद में उन्हें छोड़ दिया गया था.ये लोग विधानसभा में अफ़ज़ल गुरु की सज़ा माफ़ी के प्रस्ताव पर चर्चा न होने से नाराज़ थे.

बुधवार से ही अफ़ज़ल गुरु के मुद्दे को लेकर हंगामा हो रहा है. उनकी मौत की सज़ा माफ़ करने संबंधी प्रस्ताव पर बुधवार को विधानसभा में चर्चा होनी थी.

लेकिन कांग्रेस और भाजपा सदस्यों के बीच कहासुनी के कारण सदन की कार्यवाही नहीं हो सकी. इंजीनियर रशीद ने कुछ दिन पहले विधानसभा में ये प्रस्ताव रखा था कि अफ़ज़ल गुरु को मानवीय आधार पर माफ़ किया जाना चाहिए.

इंजीनियर रशीद का आरोप है कि सब पार्टियों ने मिलकर जानबूझकर ऐसा किया ताकि प्रस्ताव पर चर्चा न हो सके. अब इस प्रस्ताव पर अगले सत्र में ही चर्चा हो सकेगी. मुख्य विपक्षी पार्टी पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ने प्रस्ताव का समर्थन किया है.

वर्ष 2004 में सुप्रीम कोर्ट ने अफ़ज़ल गुरु को संसद पर हमले के आरोप में मौत की सज़ा सुनाई थी. 20 अक्तूबर 2006 को उन्हें सज़ा दी जानी थी. लेकिन उनकी पत्नी ने माफ़ी की अपील की थी जिसके बाद सज़ा टाल दी गई थी ताकि तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम अपील पर निर्णय ले सकें.

इसके बाद नवंबर 2006 में अफ़ज़ल गुरू ने ख़ुद राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम से क्षमादान की अपील की थी. ये याचिका गृह मंत्रालय को बढ़ा दी गई. 2011 में पाँच साल बाद गृह मंत्रालय ने राष्ट्रपति को अनुशंसा दी कि अफ़ज़ल गुरु की अपील ठुकरा दी जाए.
(Courtesy : www.bbc.co.uk/hindi)

Wednesday, September 28, 2011

प्रेमनाथ डोगरा ने दिलायी जम्मू-कश्मीर को नई पहचान


गोपाल सच्चर
स्वर्गीय पंडित प्रेमनाथ डोगरा महान थे। उनके व्यक्तित्व के कई पक्ष उल्लेखनीय थे। विद्यार्थी जीवन में वह एक माने हुए फुटबाल खिलाड़ी थे। एक सरकारी अधिकारी के रूप में योग्य प्रशासक थे। सामाजिक जीवन में कुरीतियों तथा छुआछूत के विरुद्ध एक बड़े सुधारक थे। किन्त राजनीतिक जीवन में जम्मू-कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग बनाने के लिए कड़ा संघर्ष किया तथा जम्मू को एक पहचान दिलायी। आज उस बहुमुखी व्यक्तित्व का 128वां जन्मदिन उनके अनुयायियों द्वारा मनाया जा रहा है। लगभग 160 वर्ष पूर्व महाराजा गुलाब सिंह ने अपनी वीरता तथा सामरिक रणनीति के आधार पर जम्मू-कश्मीर जैसे बड़े राज्य का निर्माण किया। देश की सीमाओं चीन, रूस, तजाकिस्तान और अफगानिस्तान तक बढ़ाया किन्तु कई कारणों से राजाओं के सौ से अधिक शासनकाल में उनका केंद्र बिंदु कश्मीर घाटी ही रहा। यद्यपि मूलरूप से उनका संबंध जम्मू से था और वह प्राय: डोगरा राज्य की संज्ञा के नाम से जाने जाते थे। 1947 में जब देश का विभाजन हुआ तो परिस्थितियों तथा एक राष्ट्रवादी सोच के अंतर्गत महाराजा हरिसिंह ने अपने कानूनी अधिकारों का प्रयोग करते हुए भारत के साथ विलय का प्रस्ताव रखा किन्तु देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू यह शर्त लगा दी कि विलय के साथ महाराजा को सत्ता उनके मित्र तथा नेशनल कान्फ्रेंस के नेता शेख अब्दुल्ला को सौंपना होगा। 
सत्ता संभालने से पूर्व एक राजनीतिक पत्र के रूप में पहले तो शेख मुहम्मद अब्दुल्ला ने महाराजा को अपने लिखित पत्र में उनका राजभक्त रहने का आश्वासन दिया किन्तु कुछ ही समय पश्चात् न केवल महाराजा को राज्य से बाहर निकालने के लिए षड्यंत्र रचना शुरू कर दिया किन्तु कई डोगरा नेताओं को पकड़कर जेल में डाल दिया तथा कई राष्ट्रवादियों को राज्य से बाहर का रास्ता दिखा दिया। जिन लोगों को जेल में डाला गया उनमें पंडित प्रेमनाथ डोगरा प्रमुख थे और बाहर निकाले जाने वालों में केदारनाथ साहनी तथा कई अन्य भी थे। उन्हीं दिनों भारत का संविधान बन रहा था जिसमें जम्मू-कश्मीर से शेख अब्दुल्ला के साथ उनके तीन बड़े साथी भी भारत के संविधान के निर्माण में भागीदार बने। जम्मू के विरुद्ध नेशनल कान्फ्रेंस की घृणा इसलिए भी थी कि महाराजा मूलरूप से जम्मू के थे तथा कश्मीर के नेता उन्हें डोगरा मानकर डोगरों कश्मीर छोड़ दोके नारे उसी प्रकार लगाते थे जिस प्रकार शेष भारत में अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलनचलता था। अत: भारत के संविधान निर्माण के समय चतुरता से नाम लेते हुए राज्य के इन प्रतिनिधियों ने जम्मू, कश्मीर, लद्दाख, गिलगित के स्थान पर अपने राज्य का नाम केवल कश्मीर दर्ज करवा दिया किन्तु दूरदर्शी बंगाल तथा कुछ अन्य भागों के प्रतिनिधियों के हस्तक्षेप से संशोधन हुआ तथा इस राज्य को संविधान में जम्मू-कश्मीर का नाम मिला, लद्दाख और गिलगित का नाम समाप्त हो गया। इसी के साथ नेशनल कान्फ्रेंस तथा कांग्रेस ने संविधान की आठवीं सूची में केवल कश्मीरी भाषा को ही शामिल करवाया अपितु देश की भाषाओं की इस सूची में डोगरी को कोई स्थान नहीं मिल सका। कई वर्षों के संघर्ष के पश्चात् डोगरों को उनकी भाषा की पहचान 2003 में जाकर भाजपा-नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के शासनकाल में प्राप्त हुई। जम्मू के साथ भेदभाव को समाप्त करवाने तथा इस राज्य और शेष भारत के बीच अलगाववाद की दीवारों को समाप्त करवाने के लिए स्वर्गीय पंडित प्रेमनाथ डोगरा के नेतृत्व में राज्य प्रजा परिषद का गठन हुआ। राष्ट्रवादियों के इस संगठन ने एक कड़े संघर्ष का रास्ता अपनाया जिसमें पंडित डोगरा को कई बार जेल यातनाओं को सहन करना पड़ा, कई आंदोलन हुए, कई युवक पुलिस की गोलियों का निशान बने।

वर्ष 1952 व 53 के बड़े संघर्ष में देश के विरोधी पक्ष के महान नेता डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को भी अपने जीवन की आहुति देनी पड़ी। अत: इस प्रकार पंडित डोगरा के नेतृत्व में कई संघर्ष किये गये। कुछ बडे़ इतिहासकारों का कहना है कि अगर महाराजा गुलाब सिंह ने इस राज्य का निर्माण किया था तो पंडित डोगरा ने देश की स्वतंत्रता के पश्चात् इसे भारत का अभिन्न अंग बनाये रखने तथा जम्मू की पहचान दिलाने में अपना बहुत बड़ा योगदान दिया था। किन्तु भेदभाव का अध्याय अभी भी समाप्त नहीं हुआ है जिसके लिये राष्ट्रवादी शक्तियां अभी भी प्रयत्नशील हैं।

एक बार एक बड़े पत्रकार ने पंडित डोगरा को एक गुलदश्ता की संज्ञा दी थी। अपने लेख में उस पत्रकार ने पंडित डोगरा के जीवन के बहुपक्षीय होने की चर्चा की थी। उन्हें अजातशत्रु भी कहकर यह स्पष्ट किया था कि पंडित डोगरा ने एक ऐसी जीवनशैली को अपनाया था कि उनके विरोधी भी अन्तत: उनकी स्पष्टता का लोहा मानने लगे। उन्होंने कभी सिद्धांतों के साथ समझौता नहीं किया। उनका कहना था कि सम्प्रदाय के आधार पर कोई बंटवारा नहीं होना चाहिए। इससे मानवता के लिए दुखों के सिवाय कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता। पंडित डोगरा के जीवन संबंधी चर्चा के कुछ ऐसे पक्ष भी हैं जिनका बहुत ही कम उल्लेख हुआ है किन्तु आज की वंशवाद की राजनीति तथा राजनेता बनकर सम्पत्ति जुटाने का क्रम पंडित डोगरा के त्याग को और भी महान बना देता है। वह सरकार प्रशासन के उच्च पदों पर रहे। महाराजा के काल में उनकी प्रजा सभा के सदस्य चुने गये और फिर 1957 से लेकर 1972 तक तीन बार राज्य विधानसभा के सदस्य भी रहे किन्तु उन्होंने कोई सम्पत्ति नहीं जुटाई और अपने जीवन के अंतिम दिनों में आर्थिक कठिनाइयों का भी सामना करना पड़ा। अपित अपने निवास स्थान का बड़ा भाग अपने राजनीतिक संगठन को अर्पित कर दी। यहां आज भी प्रदेश भाजपा का मुख्य कार्यालय बना है।

(लेखक : जम्मू-कश्मीर के वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

नेहरू द्वारा शेख को प्रोत्साहन से क्षुब्ध थे महाराजा


दयासागर
बात उस समय की है जब पंडित नेहरू ने नेशनल कान्फ्रेंस की एक परिषद द्वारा ब्रिटिश कैबिनेट प्रतिनिधिमंडल को भेजे गये एक ज्ञापन का भी अप्रत्यक्ष समर्थन किया था जिसमें 16 मार्च 1846 के अमृतसर समझौते का प्रश्न उठाया गया था और मांग की गयी थी कि अंग्रेज चले जायें तो इस समझौते को निरस्त कर दिया जाये और कश्मीर को वहां की जनता को दे दिया जाये ताकि महाराजा नहीं जनता ही वहां का शासन करे और कश्मीर/बाद में जम्मू-कश्मीर राज्य का भविष्य निर्धारित करे।

अंग्रेज भारत में कांग्रेस नेतृत्व के हाथों में सत्ता सौंपने वाले थे। अत: 1846 के समझौते को निरस्त होने के साथ ही महाराजा की सरकार को भी शेख की नेशनल कान्फ्रेंस को सत्ता सौंप देनी चाहिए। शेख की इस नीति (1946) से शेख-नेहरू गुट और हरि सिंह के बीच तनाव बढ़ गया। अब्दुल्ला ने कांग्रेस की राय लिये बिना ही कश्मीर छोड़ो आंदोलन शुरू किया था और उनकी पीठ पर नेहरू का हाथ था इसलिये महाराजा नाराज थे। उनके मन में विकल्प के रूप में धुंधला ही सही स्वतंत्र राष्ट्र का विचार आया जिससे उनके समर्थक अपनी बात रख सकें। निश्चय ही इस कारण से महाराजा हरि सिंह भारत में विलय के प्रपत्र पर हस्ताक्षर करने को उत्सुक नहीं थे यद्यपि पाकिस्तान को वे बिल्कुल पसंद नहीं करते थे।

अमृतसर समझौते के अनुसार, ईस्ट इंडीज के मामलों को निर्देशित और नियंत्रित किया जायेगा, जिसमें ब्रिटिश सरकार एक पक्ष और जम्मू के महाराजा गुलाब सिंह दूसरा पक्ष थे, ब्रिटिश सरकार की तरफ से ब्रिटेन की महारानी के अत्यंत सम्मानित प्रिवी काउंसिलों में से एक, सर हेनरी हार्डिंग, जी.सी.बी., जो ईस्ट इंडिया कंपनी की सम्पत्तियों के गवर्नर जनरल हैं, के आदेशानुसार फ्रेडरिक करी एस्क्वायर, ब्रिवेट मेजर हेनरी मॉन्टगोमेरी लॉरेंस और महाराजा गुलाब सिंह ने स्वयं निष्पादित किया (1846)।

26 मई 1946 को पंडित नेहरू ने स्वयं कहा था कि हालांकि ऑल इंडिया स्टेट पीपुल्स कान्फ्रेंस की यह नीति रही है कि सभी रियासतों में महाराजा जो कि उस राज्य का संवैधानिक प्रमुख हो, के संरक्षण में पूरी तरह से जिम्मेदार लोकप्रिय सरकार की मांग करे। परन्तु जम्मू व कश्मीर (शेख और कश्मीर) के मामले में उन्होंने आरोप लगाया कि राज्य प्रशासन प्रस्तावित लोकप्रिय आंदोलन को लेकर सीधे उत्पीड़न की नीति अपना रहा है। बाद में दिसम्बर 1948 में पंडित नेहरू इस बात के लिए तैयार हो गये कि महाराजा मैसूर के मॉडल पर जम्मू-कश्मीर में अंतरिम सरकार बनाने के लिए अधिसूचना जारी करें लेकिन बाद में वे इससे मुकर गये। इससे शेख की धुंधली योजनाओं को बल मिला।

नेहरू ने तो यह भी मानलिया था कि शेख ने स्वयं ही जो नयी नीति (कश्मीर छोड़ो) लोगों के सामने रखी है वह कांग्रेस और ऑल इंडिया स्टेट पीपुल्स कान्फ्रेंस की नीतियों से बिल्कुल अलग है और इस नीति को इन संगठनों के साथ अच्छी तरह से सोच विचार किये बिना लोगों के सामने नहीं रखना चाहिये था।

पंडित नेहरू ने आगे कहा कि वे स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि ऑल इंडिया स्टेट पीपुल्स कान्फ्रेंस की नीति हमेशा से वही है जो महेशा से थी। अर्थात रियासत के महाराजा के संरक्षण में एक जिम्मेदार सरकार परन्तु ऐसे वक्तव्य भी नेहरू ने बहुत देर से दिये और शेख को रोकने या सुधारने का उन्होंने कोई प्रयत्न नहीं किया। छ: दशकों बाद भी भारत इसका मूल्य चुका रहा है। यह तथ्य इसे प्रमाणित करते हैं कि कांग्रेस 1940 के दशक में शेख के पक्ष कुछ अधिक ही थी जबकि उसे सही समय पर जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय या अन्य विकल्पों पर बल देना चाहिए था। इसमें संदेह नहीं है कि भारत या पाकिस्तान में विलय या अन्य विकल्पों के बारे में फैसला करने का अधिकार केवल महाराज को था।
(लेखक जम्मू-कश्मीर मामलों के अधेयता हैं।)

राष्ट्रीय एकता में बाधक है अनुच्छेद 370


जगमोहन  
जैसा कि मैंने अपनी पुस्तक माई फ्रोजेन टरब्यूलेंस इन कश्मीर’ (अगस्त, 1986) में भारत की कश्मीर-नीति व प्रशासन में आमूल-चूल परिवर्तन के लिए यह संकेत दिया था कि अनुच्छेद 370 कुछ और नहीं, बल्कि जन्नत के हृदय में जोकों का चरागाह है। यह गरीबों की खाल खिंचती है, उन्हें मृगतृष्णा दिखाकर धोखे में रखती है तथा नए सुल्तानों के अहंको हवा देती है।सारतत्तव यह है कि यह अन्याय की जमीन तैयार करती है, जो विरोधाभासों व कच्चेपन से भरी है। यह नाटकीय, दुरंगेपन व धोखे की राजनीति को पोषित करती है। यह विध्‍वंस के जीव पैदा करती है। यह द्वि-राष्ट्रवाद की अरुचिकर विरासत को जीवित रखती है। यह हिंदुस्तान के अस्तित्व को नकारती है और कश्मीर से कन्याकुमारी तक की महान सामाजिक व सांस्कृतिक धरती के हर विचार को धुंधला करती है। यह घाटी स्थित ऐसे हिंसात्मक भूकंप का केंद्र बिंदु है, जिसका कंपन अप्रत्याशित नतीजों के साथ देश के हर कोने में महसूस होगा।

बाद की घटनाओं ने यह दर्शा दिया कि मेरी शंकाएं कितनी सही थी। पिछले 20 सालों से पूरा जम्मू-कश्मीर हिंसा की चपेट में है और इसके हिंसात्मक नतीजों से देश के अन्य भाग भी प्रभावित हैं।

अनुच्छेद 370 का सार यह है कि संघीय संसद रक्षा, विदेशी व संचार मामलों के अलावा संघ व समवर्ती सूची में शामिल विषयों पर कानून बना सकती है लेकिन वह भी राज्य सरकार की सहमति से। इस अनुच्छेद के बारे में बहुत पहले 7 अगस्त 1952 को डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने ठीक ही कहा था, ‘आप जो करने जा रहे हैं, वह भारत को विखंडित कर देगा। यह उन लोगों को मजबूत कर सकता है, जो यह विश्वास रखते हैं कि भारत एक देश नहीं है, बल्कि कई भिन्न राष्ट्रों का समूह है।

पृष्ठभूमि 27 अक्टूबर 1947 को इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेसनके कार्यान्वयन होने तथा 26 जनवरी 1950 को संविधान लागू होने पर जम्मू और कश्मीर राज्य भारत के क्षेत्रीय और संवैधानिक क्षेत्राधिकार में आया। अनुच्छेद 370 एक विशेष संबंध स्थापित करती है, जिसे स्वयं जवाहर लाल नेहरू ने अस्थाईकहा था। 24 जुलाई 1952 को संसद में दिल्ली समझौते पर बोलते हुए उन्होंने कहा, ‘धीरे-धीरे विधिक व संवैधानिक संबंधों के विकास के लिए हम सभी विभिन्न कारणों की वजह से इसे अस्थिर अवस्था में छोड़ देना चाहते थे। इसकी वजह से अब अनुच्छेद 370 में अस्थाई, परिवर्ती प्रावधान है।

अन्य रजवाड़े पड़ोसी राज्यों के साथ मिला दिए गए और उनके क्षेत्रों को वही संवैधानिक दर्जा मिला, जो संघ के अन्य राज्यों को मिला था। उनके नागरिकों को वहीं अधिकार मिले, जो अन्य राज्यों के नागरिकों को मिले थे। लेकिन दूसरे रजवाड़ों को मिलाने में जो संकल्प और दूर-दृष्टि दिखाई पड़ी थी, वह जम्मू-कश्मीर के मामले में नदारद थी।

गद्दी पाने के तुरंत बाद शेख अब्दुल्ला अपनी महत्वाकांक्षा को सींचने लगे। वे राज्य के लिए और अधिकार की मांग करने लगे। लंबी बहस के बाद एक सहमति बनी, जिसे दिल्ली समझौता (जुलाई 1952) कहा जाता है। वंशानुगत शासनाधिकार खत्म कर दिया गया। अवशिष्ट और समवर्ती शक्तियां राज्य के अधीन रहीं, विशेष नागरिकता अधिकार राज्य का विषय बना रहा। राष्ट्रीय झंडे के साथ राज्य के लिए एक अलग झंडे के फहरने की एक बेहद पृथक व्यवस्थाथी।

डॉ. मुखर्जी की चेतावनी
डॉ. मुखर्जी ने शेख अब्दुल्ला के त्रि-राष्ट्रीय सिद्धांत को विकसित करने की मंशा को भांप लिया। बाद में चलकर इस सिद्धांत को थर्ड ऑप्शनके रूप में पुन: बल मिला। मृत्यु के लगभग चार महीने पहले उन्होंने एक पत्र में अब्दुल्ला को लिखा, ‘आप त्रि-राष्ट्रीय सिद्धांत को विकसित कर रहे हैं और तीसरा कश्मीर राष्ट्र है। यह एक खतरनाक लक्षण है, जो आपके राज्य और संपूर्ण भारत के लिए भी बुरा है।

21 मई 1952 को डॉ. मुखर्जी ने संसद में अपनी विशिष्ट निष्पक्षता के साथ नेहरू से एक उपयुक्त प्रश्न पूछा, ‘क्या कश्मीरी पहले भारतीय हैं और बाद में कश्मीरी या पहले कश्मीरी हैं और बाद में भारतीय?’ इसका कोई स्पष्ट जवाब नहीं था।

7 अगस्त 1952 को डॉ. मुखर्जी ने प्रधानमंत्री से पुन: प्रश्न पूछा, ‘क्या शेख अब्दुल्ला भारतीय गणराज्य के अंग नहीं हैं। क्या वे इस संविधान को लगभग 500 रजवाड़ों समेत शेष भारत की तरह स्वीकार नहीं करते। यदि यह सभी के लिए अच्छा है, तो कश्मीर में उनके लिए क्यों नहीं अच्छा है?’ विस्तार करते हुए उन्होंने कहा, ‘कश्मीर के संबंध में जैसा आप सोच रहे हैं, यदि वहीं मांग अन्य राज्य करने लगे तो क्या आप वह मांग पूरी करने के लिए सहमत होंगे? आप वैसा नहीं करेंगे क्योंकि उससे भारत नष्ट हो जाएगा।
शेख अब्दुल्ला की अलग झंडे की जिद पर मुखर्जी ने कहा, ‘आप निष्ठा को नहीं बांट सकते। यह कोई आधा-आधा वाला मामला नहीं है। यह कोई बराबरी का प्रश्न नहीं है।

डॉ. मुखर्जी ने संसद को सावधान किया, ‘यदि आप हवा के साथ खेलना चाहते हैं और कहते हैं कि हम लाचार हैं, तो शेख अब्दुल्ला जो चाहते हैं उसे करने दीजिए और समझिए कश्मीर हाथ से गया। मैं काफी सोच विचार कर कह रहा हूं कि कश्मीर को हम खो देंगे।दुर्भाग्यवश, संसद ने ध्‍यान नहीं दिया और तत्कालीन प्रधानमंत्री को वही करने दिया, जो भविष्य की समस्याओं का बीज बना।

संवैधानिक प्रावधानों का विस्तारबक्सी गुलाम मुहम्मद को जम्मू व कश्मीर सरकार के मुखिया बनने के बाद ही राज्य के लिए भारतीय संविधान के कुछ प्रावधानों का विस्तार शुरू हुआ। भारत के राष्ट्रपति द्वारा संविधान आदेश 1954 (Application to Jammu and Kashmir) की घोषणा की गई। आदेश समय-समय पर संशोधित किया गया। भारतीय संविधान के कुछ प्रावधानों का विस्तार राज्य को किया गया। 1954 के राष्ट्रपति आदेश से वित्तीय एकीकरण हुआ और सीमा शुल्क, सेंट्रल एक्साइज, डाक और टेलीग्राफ तथा नागरिक उड्डयन के क्षेत्राधिकार का विस्तार हुआ। 1958 में नियंत्रक और महालेखा परीक्षक के क्षेत्राधिकार का विस्तार किया गया। 1960 में जम्मू-कश्मीर के निर्णयों पर सुप्रीम कोर्ट को ‘Special leave to appeal’ का अधिकार मिला। भारत के चुनाव आयोग की निगरानी को स्वीकार किया गया, हालांकि राज्य में चुनाव राज्य कानून के दायरे में होते रहे। 1964 में भारतीय संविधान के अनुच्छेद 356 और 357 का विस्तार किया गया और 1965 में कुछ केंद्रीय श्रम कानूनों का भी विस्तार किया गया।
सन् 1968 में संघ सूची के उन प्रावधानों का विस्तार हुआ, जो हाई कोर्ट द्वारा चुनाव याचिकाओं पर दिए गए निर्णय के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील करने की अनुमति देता है।

संविधान प्रावधानों के विस्तार व उनके अमल में आने के कारण सदर-ए-रियासत और जम्मू-कश्मीर के प्रधानमंत्री का पदनाम, उनकी नियुक्ति की प्रक्रिया, उनके कार्य तथा उनका दर्जा अप्रासंगिक हो गया। ऐसा महसूस किया जाने लगा कि सदर-ए-रियासत और प्रधानमंत्री का पदनाम और नियुक्ति की प्रक्रिया में बदलाव होना चाहिए। इस संबंध में जरूरी बदलाव 1966 में हुए, जब स्वयं राज्य विधानसभा ने जम्मू-कश्मीर के संविधान में संशोधन किया। यह उस दौरान हुआ, जब राज्य सरकार के मुखिया जी.एम. सादिक थे।

इस रूपांतरण में क्या गलत है? वे किस तरह आम कश्मीरी के हितों, उनकी पहचान, संस्कृति, उनकी भाषा और उनकी अपेक्षाओं को नुकसान पहुंचाते हैं। इससे मात्र संवैधानिक, प्रशासनिक व वित्तीय प्रबंध की स्थापना हुई। यह रूपांतरण राज्य सरकार की पूर्ण सहमति से हुआ। शेख अब्दुल्ला के परिदृश्य से अनुपस्थिति के दौरान हुए परिवर्तनों में जो लोग खामियां निकालते हैं, वे यह भूल जाते हैं कि यह इनमें कोई व्यक्ति नहीं, बल्कि केंद्र तथा राज्य सरकार प्रासंगिक हैं।
जो भी कुछ हो, अभी भी विषय क्षेत्र ऐसे हैं, जो राज्य के क्षेत्राधिकार में आते हैं। इसमें समवर्ती सूची का एक बड़ा भाग और अवशिष्ट शक्तियां शामिल हैं। भारत का नागरिक जम्मू-कश्मीर का वास्तविक नागरिक नहीं है।
जम्मू-कश्मीर में कई वर्षों तक रहने के बावजूद उन्हें यह अधिकार नहीं है कि वे वहां के स्थाई निवासी बन सकें और वहां की प्रापर्टी खरीद सकें। उन्हें राज्य विधान सभा, स्थानीय या पंचायत के चुनावों में मतदान करने का अधिकार नहीं है। सबसे बुरी बात यह है कि यदि जम्मू-कश्मीर की कोई महिला किसी दूसरे राज्य के पुरुष से शादी रचाती है, तो प्रापर्टी समेत उसके सभी अधिकार खत्म हो जाएंगे। जम्मू-कश्मीर में वित्तीय आपात की घोषणा नहीं हो सकती, क्योंकि भारतीय संविधान की धारा 360 जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं होती। धारा 365 भी जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं होती। जैसा कि हम जानते हैं कि धारा 365 के तहत भारत का राष्ट्रपति संघ की कार्यकारी शक्तियों के संबंध में राज्य को निर्देश देता है।
कश्मीर समझौताबांग्लादेश युध्द के बाद बदली हुई परिस्थितियों में शेख अब्दुल्ला के प्रतिनिधिायों और श्रीमती इंदिरा गांधी के बीच वार्ताएं हुईं। वार्ताओं के परिणामस्वरूप फरवरी 1975 में कश्मीर समझौते पर दस्तखत हुए।
वास्तव में, कश्मीर समझौते से संघ और राज्य के बीच संवैधानिक संबंधों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। इसका मुख्य मकसद शेख अब्दुल्ला को हुकुमत में वापस लाना और यह दर्शाना था कि स्वायत्तता संबंधी कुछ पहलुओं की पुनर्समीक्षा होगी।
न तो शेख अब्दुल्ला की सरकार और न ही डॉ. फारूख अब्दुल्ला ने किसी ऐसे प्रस्ताव का निर्माण किया या ऐसे ही प्रस्ताव को भारत सरकार के पास भेजा, जिसमें अगस्त 1953 से लेकर फरवरी 1975 तक बीच विस्तारित संविधान प्रावधानों व कानूनों के हटाने की बात कही गई हो।
राज्य सभा में मेरे अतारांकित प्रश्न संख्या 1871 के जबाव में भारत सरकार दिसंबर 14, 1995 में कहती है, ‘राज्य सरकार ने किसी भी ऐसे संवैधानिक या कानूनों को वापस करने का प्रस्ताव नहीं किया गया, जो 1975 से पहले राज्य को विस्तारित हुए।
स्वायत्तता का हौवाकश्मीर समझौते में स्वायत्तता संबंधी प्रावधानों के बावजूद किसी परिवर्तन का प्रयास नहीं हुआ, क्योंकि जो संवैधानिक प्रावधान अगस्त 1953 से फरवरी 1975 के बीच राज्य को विस्तारित हुए, वे व्यावहारिक जरूरतों की उपज थे और राज्य के आम लोगों के हितों के अनुरूप भी।
उदाहरण के लिए चुनाव आयोग, सुप्रीम कोर्ट या नियंत्रक व लेखा परीक्षक के क्षेत्राधिकार के विस्तार का क्यों विरोध हो, जब इनके विस्तार से बेहतर न्याय और बेहतर लेखा परीक्षण उपलब्ध होता हो। श्रम कल्याण कानूनों में क्या खामियां हो सकती हैं? सच्चाई यह है कि कश्मीर की स्वायत्तता के खतरे का जो हौवा शेख अब्दुल्ला ने खड़ा किया, वह कुछ और नहीं, बल्कि कश्मीरी जनता की संविधान संबंधी प्रावधानों के प्रति अनभिज्ञता को शोषण करने का एक विलाप था। ताकि वह अपने आपको कश्मीरी हितों का चैंपियन साबित कर सकें।
ठोस सवालजो लोग 1952-53 के पहले की स्थिति बहाल करना चाहते हैं या जम्मू-कश्मीर के लिए अधिकतम स्वायत्तता की मांग करते हैं, वे मूल प्रश्नों पर ध्‍यान नहीं देते। वे आज भी अस्पष्ट हैं और अपनी मांग की व्यावहारिकता पर जरा भी ख्याल नहीं करते। उदाहरण के तौर पर वे इस तथ्य को दबाते हैं कि संघ के साथ पूर्ण वित्तीय एकीकरण के बिना जम्मू-कश्मीर के विकास के लिए कोई स्रोत उपलब्धा नहीं होगा। यह संघ ही है, जो राज्य की पंचवर्षीय योजना का सारा धन मुहैया कराता है और गैर-योजना खर्च के एक बड़े हिस्से को भी वहन करता है। इस उदाहरण से बात पूरी तरह से स्पष्ट हो जाएगी। संघ की तरफ से बिहार को प्रति व्यक्ति के हिसाब से 876 रुपये की मदद मिलती है, जबकि कश्मीर को मिलते हैं, 9,753 रुपये। यह बिहार को मिलने वाली धनराशि का 11 गुना है, जबकि बिहार देश के सबसे गरीब राज्यों में से एक है। इतना ही नहीं, जम्मू-कश्मीर को मिलने वाली धनराशि में 90 प्रतिशत सहायता के रूप में होती है और शेष 10 प्रतिशत ऋण के रूप में। जबकि दूसरे राज्यों में 70 प्रतिशत ऋण होता है और 30 प्रतिशत सहायता। यह इस बात का सबूत है कि संघ से वित्तीय एकीकरण के कारण जम्मू-कश्मीर को काफी धन मिलता है। क्या होगा, जब यह लिंक टूट जाएगा? कौन इसकी भरपाई करेगा?
इसी तरह धारा 356 के विस्तार का उदाहरण लीजिए। भारतीय संविधान की धारा 356 भारत के राष्ट्रपति को यह अधिकार देती है कि वह किसी राज्य में संघ का शासन लागू कर सके। प्राय: यह कहा जाता है कि इसके विस्तार से राज्यों की स्वायत्तता में अतिक्रमण होता है। यदि राज्य में संवैधानिक व्यवस्था असफल हो जाती है, या राज्य रक्षा, विदेश, संचार संबंधी किसी निर्देश को मानने से इनकार कर देता है, तो धारा 356 के अधीन राष्ट्रपति की शक्तियों की अनुपस्थिति में क्या होगा? कल्पना कीजिए, यदि राज्यपाल के संगत शक्तियां (corresponding power) हैं, तो इसका अर्थ यह होगा कि राष्ट्रपति अपने ही द्वारा नियुक्त राज्यपाल के निर्णयों को मानने पर विवश होगा।
फिर भी मान लें कि यदि राज्यपाल को सदर-ए-रियासत बना दिया जाय, जिसका चुनाव राज्य विधान सभा करेगी, तब क्या सदर-ए-रियासत को अंतिम निर्णायक बनाना केंद्र को राज्य के अधीन करना न होगा? और यदि राष्ट्रपति सदर-ए-रियासत की मान्यता खत्म कर देता है, परंतु राज्य विधान सभा उसे फिर से चुनती है, तो क्या इससे संवैधानिक संकट नहीं खड़ा होगा?
यदि संघ से धन उसी पैमाने पर कश्मीर को मिलता है, जैसा कि इस समय मिल रहा है और रक्षा, विदेश और संचार के अलावा अन्य विषयों पर राज्य का फैसला ही अंतिम है, तो पाकिस्तान की तर्ज पर यहां भी इस्लामी सिविल और क्रीमिनल कानूनों का निर्माण संभव है और शरियत कोर्ट की स्थापना भी हो सकती है, जो इसे धार्मिक राज्य में तब्दील कर देगी। क्या यह हमारे संविधान की मूल भावना के विपरीत नहीं है।
विस्तृत शक्तियांजम्मू कश्मीर की समस्या शक्तियों का अभाव नहीं, बल्कि शक्तियों की अधिकता है। उदाहरण के तौर पर 1977-78 में शेख अब्दुल्ला ने राज्य में एक तरह से तानाशाही की स्थापना की। उन्होंने राजा की तरह शासन चलाया। उन्होंने अल-फतह, प्लेबिसाइट फ्रंट और दूसरे विध्‍वंसात्मक संगठनों के कट्टर समर्थकों की नियुक्ति पुलिस जैसे संवेदनशील संगठनों में किया। निश्चित तौर पर यह कार्य राज्य की सुरक्षा और स्थाईत्व के लिए गंभीर खतरा था। फिर भी वे बेरोक-टोक (राज्य के राज्यपाल और संघ की सरकार द्वारा) आगे बढ़ते रहे।
पुनर्वास कानून, जो शेख अब्दुल्ला के समय 1982 में बना और डॉ. फारूख अब्दुल्ला के शासन काल में औपचारिक रूप से लागू हुआ, इस बात का प्रमाण है कि राज्य सरकार के पास विस्तृत शक्तियां थीं। दरअसल, स्वायत्तता में ह्रास नहीं, बल्कि ईमानदारी और उत्साह में कमी थी, जिससे कश्मीर की तमाम समस्याओं को जन्म दिया। सच तो यह है कि राज्य नेतृत्व के पास पर्याप्त शक्तियां हैं, लेकिन उन्होंने इसका उपयोग राज्य की सेवा के लिए नहीं, बल्कि खुद की सेवा में लगाया।
स्वायत्तता की राग अलापने वाले नेताओं से कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न पूछने की जरूरत है? क्या उन्हें और अधिक स्वायत्तता की जरूरत है ताकि वे ऐसे कानूनों का निर्माण कर सकें, जैसा कि ऊपर में उल्लिखित है? किन शक्तियों के अभाव में राज्य के कल्याणकारी व विकास कार्य प्रभावित होते हैं? कौन सा कानून, कार्यकारी आदेश या न्यायपालिका का फैसला कश्मीर की पहचान का प्रभावित किया या वहां की सांस्कृतिक धरातल को बदला? संघ द्वारा दिए जाने वाले धन की अनुपस्थिति में क्या होगा? यदि इस धन का प्रवाह निरंतर बना रहा तो यह कैसे सुनिश्चित होगा कि यह धन धर्मांधों के हाथों में नहीं जाएगा और उनके हाथ नहीं मजबूत करेगा? और राज्य के कट्टरपंथियों की समस्या से कैसे निपटेंगे?
लोगों को गुमराह करने की कोशिशयदि हम गौरपूर्वक विचार करें तो पाएंगे कि ज्यादा स्वायत्तता या 1952-53 से पूर्व स्थिति की बहाली की मांग लोगों को गुमराह करने वाली है और उनके मस्तिष्क में अव्यावहारिक तथा असमर्थनीय धारणा को जन्म देने वाली है। वे जानबूझ या अनजानवश उन शक्तियों के हाथ मजबूत कर रहे हैं, जो 1948 के बाद छिपे या प्रत्यक्ष रूप से अलगाववाद को प्रोत्साहन दे रहे हैं। लेकिन आज की ज्यादा स्वायत्तताका मतलब है, कल की स्वतंत्रता। दरअसल, इस तरह की मांग के गंभीर व भयानक परिणाम होंगे और देश अंतत: कई टुकड़ों में बंट जाएगा।
(लेखक जम्‍मू-कश्‍मीर के राज्‍यपाल रहे हैं)



कातिल और आतंकी में फर्क


दयासागर
आज देश में आतंकी हमलों जैसे विषयों पर भी राजनीति होने लगी है। कुछ कश्मीरी नेताओं का कहना है कि अगर भारतीय संसद पर हमले के आरोपी अफजल गुरु को मौत की सजा दी गई तो वातावरण बिगड़ सकता है। क्या ऐसे लोग वोट के लिए धर्म की राजनीति नहीं कर रहे हैं? 26 नवंबर 2008 को मुम्बई पर हुए आतंकी हमले में जिंदा पकड़े गए आरोपी कसाब की सजा भी आज चर्चा का विषय बनी हुई है। इसके साथ ही अफजल और पंजाब के आतंकी भुल्लर भी स्व. राजीव गांधी की हत्या की साजिश के आरोपियों एलटीटीइ के कैडरों मुरूगन, संथान और पेरारीवलन के साथ चर्चा में हैं। तमिलनाडु विधानसभा में भी राजीव गांधी के हत्यारों की मौत की सजा के बारे में एक प्रस्ताव पारित किया गया है।
जम्मू-कश्मीर विधानसभा में एक निजी सदस्य का प्रस्ताव भी अफजल की फांसी के बारे में आया है। राज्य के मुख्यमंत्री ने भी कुछ दिन पहले अफजल को फांसी देने के बारे में विचार करने की सलाह दी है। वोट के सौदागर तो दूर कुछ चिंतकों, विचारकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भी मौत की सजा खत्म करने की चर्चा छेड़ दी है। देशद्रोहियों और देश के दुश्मनों को दिया जाने वाला दंड एक आम चोर, डाकू, सामाजिक अपराधी से अलग होना चाहिए। जो नेता कसाब, राजीव गांधी के हत्यारों और अफजल को मौत की सजा नहीं देने की वकालत करते हैं, पहले अपनी सुरक्षा में लगे सैन्य शूटरों, कमांडों को क्यों नहीं हटाते हैं? वे ऐसा इसलिए नहीं करते कि अगर उन पर कोई आतंकी या जानलेवा हमला हुआ तो उनके सुरक्षागार्ड आधुनिक हथियारों से हमलावरों को मार डालेंगे। इसलिए ऐसे नेता अफजल और कसाब जैसे लोगों को भी मौत की सजा नहीं देना चाहते।
उनकी सोच के अनुसार सुरक्षागार्ड द्वारा किसी हमलावर को बिना उसकी मंशा पूछे मार देना गलत है। इसलिए ऐसे नेता लाठी वाले बॉडीगार्ड क्यों नहीं रखते? क्या इस पर सोचने की जरूरत नहीं है? क्या एक कातिल और देश पर हमला करने वालों के बीच अंतर नहीं होना चाहिए? आज बिगड़े हालात को देखते हुए आम नागरिक और सामाजिक संस्थाओं पर दूसरों की पीड़ा की चिंता करने का दायित्व कुछ ज्यादा हो गया है। भारत कभी दूसरों को जीना सिखाता था, लेकिन लगता है अब भारतवासियों को अमेरिका से शिक्षा लेनी होगी कि सब देशवासियों का राष्ट्रधर्म एक होता है, तभी अमेरिका ने 11 सितंबर के बाद आज तक अपने देश में किसी आम नागरिक का खून नहीं बहने दिया।
भारतीय गणतंत्र व्यवस्था के तहत जिन लोगों के हाथों में देश की व्यवस्था दी गई है, लगता है अब आम आदमी को उनके कर्तव्य का बोध कराना ही होगा। यह सच है कि कर्तव्यविहीन व्यवस्था किसी से छुपी नहीं है, पर यह भी सच है कि आज तक भारतीय मतदाता सबकुछ जानते हुए भी जाति मसलों पर अधिक ध्यान देता रहा है। समाज के प्रति अपने कर्तव्य को भूल चुके सरकारी कर्मचारी और राजनेता इसी का लाभ उठाते रहे हैं। हम कब तक अपनों का खून बहता देखते रहेंगे। हम कब तक आम आदमी द्वारा दिए गए टैक्स को सरकारी कर्मचारियों, भ्रष्ट राजनेताओं, आर्थिक और सामाजिक अपराधियों के हाथों लूटते देखते रहेंगे। भ्रष्टाचार ही आम आदमी की जानमाल की सुरक्षा और राष्ट्र की सुरक्षा करने वाले संकल्पों और तंत्र को कमजोर करता है। आतंकवाद भी ऐसी ही भ्रष्ट व्यवस्था में पलता है। लेकिन लगता है कि अब आम नागरिक और मतदाता जाति लाभ के साथ-साथ समाज के बारे में भी सोचने लगा है।
आज भ्रष्टाचार के विरोध में जो आवाज सुनी जा रही है वह उन लोगों की ओर से भी उठ रही है, जिनके पास इस बढ़ती महंगाई में खाने-पीने और रहने के लिए धन की कमी नहीं है। ऐसा नहीं है कि पूरा सरकारी तंत्र भ्रष्ट हो चुका है। पर इस बात को भी नहीं झूठलाया जा सकता कि सरकारी तंत्र में भ्रष्ट कर्मियों या भ्रष्टाचारियों के आगे अवरोध नहीं खड़े करने वालों की संख्या अधिक है। चोरों को न पकड़ने, कातिलों का गवाहों पर भारी पड़ने, आम आदमी का सड़क पर डरते हुए चलने, आंखों के सामने सरकारी धन का गलियों, सड़कों और निर्माण कार्यो में दुरुपयोग करने, सरकारी शिक्षा विभाग के निदेशक, कर्मचारियों का अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में न भेजने, सरकारी अस्पतालों से लोगों का विश्वास उठने, हजारों करोड़ रुपये टैक्स चुराने पर राजनेताओं का दामन थामना भ्रष्टतंत्र और जनता को संगठित होकर विरोध न करने की प्रवृत्ति को दर्शाता है।
अब तो आतंकी घटनाओं में बम विस्फोट की गिनती करना मुश्किल हो गया है। आतंकी घटनाओं में शामिल अपराधियों को सजा दी गई हो, ऐसे संदेशों का लेखा-जोखा रखने वाले पन्ने खाली पड़े हैं। कोर्ट ने कुछ आतंकियों और राष्ट्र विरोधी घटनाओं में लिप्त अपराधियों को वर्षो बाद सजा भी सुनाई है तो वे मामले वर्षों तक बिना सजा दिए लटके रहते हैं। कुछ अपराधी क्षमायाचना या सजा देने के लिए राष्ट्रपति से प्रार्थना करते हैं, लेकिन सरकार वर्षों तक उनकी फाइलें राष्ट्रपति के पास नहीं भेजती है। इसके पीछे कोई विवेकशील तर्क नहीं हो सकता सिवाय इसके कि राजनेता कुछ मामलों को वोट की राजनीति से जोड़कर देखते हैं। यहां तक कि देश विरोधी तत्वों को भी कई सालों तक सजा नहीं दी जाती है।
आतंकी वारदातों के बाद राष्ट्रहित और आम आदमी की जानमाल की सुरक्षा के लिए सरकारी सेवा में लगे अधिकारियों को भी जवाबदेह बनाना होगा। देश में शांति बनाए रखने के लिए हमें उन लोगों को अपना कर्तव्य याद दिलाना होगा, जिनको हमने सरकार चलाने और फैसला लेने के लिए रखा है। इस सामाजिक लड़ाई में तलवार और बंदूक की जगह देशवासियों का हथियार हिंदू-मुस्लिम संगठन और राष्ट्र प्रेम होना चाहिए। जिस तरह सामाजिक अपराधी और आतंकवादी पिछले कई वर्षों से सजा से बचते आ रहे हैं, चिंता का विषय है।
केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने दिल्ली हाईकोर्ट के गेट पर हुए विस्फोट के एक दिन बाद कहा कि उन्होंने खुफिया इनपुट्स के बारे में जो कुछ कहा था, गलत नहीं है। जबकि दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नर और मुख्यमंत्री ने ऐसी किसी जानकारी से इंकार कर दिया। इस संदर्भ में कहा जा सकता है कि आज राजनेता समझते हैं कि सरकारें सांसदों व विधायकों की संख्या पर चलती है न कि समाज के प्रति प्रतिबद्धता से।
(लेखक जम्मू-कश्मीर मामलों के अध्येता हैं।)

अंदरूनी आतंक बड़ा खतरा


केवल कृष्ण पनगोत्रा

वफा की फिक्र कर ऐ नादान, मुसीबत आने वाली है। तेरी बर्बादियों के मशिबरे हैं आसमानों में। न संभलोगे तो मिट जाओगे ऐ हिन्दोसतां वालो, तुम्हारी दास्तां भी न होगी दास्तानों में। ऐसे चिंताजनक शब्द किसी देश या समाज के सभ्य तबके में तब ही उभरते हैं जब उसे देश के काल की गति में आतंक की भयावहता और इरा आसुरी प्रवृत्ति को देश के भीतर से ही सत्ता और समाज विरोधियों का परोक्ष समर्थन मिले। कभी सियासत और कभी कुर्सी के लिए।

देश की राजधानी दिल्ली में हाइकोर्ट के बाहर आतंकी हमले के बाद आगरा में हुए विस्फोट ने देश के अंदर पनप रहे आतंक को लेकर चिंता को और ज्यादा गंभीर बना दिया है। आखिर क्यों समाज के कुछ लोग आतंक की राह पर चल निकले हैं? इस चिंता की स्वीकारोक्ति हाल ही में गृहमंत्री पी. चिदंबरम भी कर चुके हैं। भारत में इस तरह के खूनी आतंकी हमलों की सूची काफी लंबी है। कल का इतिहास देश के अंदरूनी भागों में इस खूनी खेल का सबसे बड़ा गवाह होगा जो हमारे आज के शासकों की राष्ट्र के प्रति कमजोर जिम्मेदारियों और आतंक के प्रति अनिच्छा का ही परिचायक होगा।

गृहमंत्री का यह कहना उचित ही है कि लगभग तीस साल से आतंकवाद से जूझने के बावजूद भारत इससे निपटने के लिए पूरी तरह तैयार नहीं है। गृहमंत्री पी. चिदंबरम की इस स्वीकारोक्ति को जम्मू-कश्मीर में फैले आतंकवाद के संदर्भ में भी लिया जा सकता है। जिस तरह देश के अनेक भागों में हुए विस्फोटों के तार कई बार जम्मू-कश्मीर से आकर जुड़ते हैं उससे यह कहना गलत होगा कि राज्य में आतंकवाद समाप्त हो चुका है। दिल्ली विस्फोट के संबंध में किश्तवाड़ से विद्यार्थियों की गिरफ्तारी हैरान कर देने वाली है। लगता है कि इस राज्य में देश विरोधी तत्वों की पकड़ आतंकवाद से ग्रस्त रहने वाले क्षेत्रों में स्कूलों पर भी है, जहां से आतंकी जब चाहें अबोध किशोरों का भी इस्तेमाल कर सकते हैं। आतंकवादी आतंक की शैली बदलते हैं आतंक की मानसिकता नहीं।

किश्तवाड़ से दो स्कूली छात्रों की गिरफ्तारी देशविरोधी और आतंकी मानसिकता का ही परिचायक है। जब आतंक और देश विरोध की मानसिकता वाले लोग राज्य में प्रचुर संख्या में मौजूद रहेंगे, तब तक शांति और आतंकवाद के राज्य से खात्मे का कोई भी दावा भरमाने वाला ही होगा। वस्तुत: यह राज्य आतंकवाद का जनक है। यहां सदैव आतंकवाद और अलगाववाद को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष समर्थन हासिल है। इस संरक्षण और समर्थन के कारण सियासी और मजहबी भी हो सकते हैं। सियासत की यह सूरतेहाल ही आतंक को पैदा करने और पालने वाली है।

राज्य में एक राष्ट्रीय सियासी पार्टी के नेता का अफजल गुरु की फांसी के प्रस्ताव पर भ्रमित करने वाले बयान की भरमाने वाली भाषा देखें। बयान है- हमारा एक राष्ट्रीय दल है। हम अपने नीतिगत निर्णय पूरे देश को ध्यान में रखकर करते हैं। यानि न सीधी हां और न ही सीधी ना। राज्य में कुछ सियासी पार्टियां इस मुद्दे पर बोलने से परहेज कर रही हैं। राज्य की सत्ता कब्जाने को आतुर एक क्षेत्रीय दल की फिलवक्त भावना यह लग रही है कि अफजल की सजाए मौत को माफ करना राज्य में कश्मीर समस्या के समाधान लायक माहौल बनाना है। वस्तुत: माफी का प्रस्ताव सरकार के गले की फांस बनता जा रहा है।

नेकां और कांग्रेस का हाल यह है कि अगर घाटी के वोट को देखें तो जम्मू और लद्दाख का वोट हाथ से निकल जाता है। सवाल यह भी है कि आखिर वह कौन सी मजबूरियां हैं जिनका रोना आतंकवाद और भ्रष्टाचार जैसी राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान के मुद्दों पर रोया जाता है? 21 साल पूर्व आतंकवाद के चरमोत्कर्ष पर पहुंचते ही कश्मीर घाटी से कश्मीरी पंडित समुदाय को जम्मू और देश के दूसरे भागों में विस्थापन झेलना पड़ रहा है। इसी आशंका के चलते ही विस्थापित पंडित राज्य में एक अलग होमलैंड की मांग करते आए हैं जहां विशुद्ध तौर पर भारतीय संविधान लागू हो। गृहमंत्री की स्वीकारोक्ति से यह भी जाहिर है कि अगर तीस साल पूर्व हमारे राजनेताओं में आतंकवाद से निपटने की अनिच्छा और बहानेबाजी की प्रवृत्ति की जगह मजबूत इच्छाशक्ति और सशक्त राष्ट्रवाद की भावना होती तो आज भारत में जगह-जगह खूनी खेल का निरंतर सिलसिला न चलता।

यह बात हैरान कर देने वाली है कि एक ओर गृह मंत्रालय संसद पर हमले के आरोपों से घिरे अफजल गुरु के मुद्दे पर सख्ती दर्शाता नजर आ रहा है वहीं जम्मू-कश्मीर विधानसभा में उसकी माफी के प्रस्ताव पर चर्चा होगी। 1947 में पाकिस्तान द्वारा कबाइली हमले के बाद पाक अधिकृत कश्मीर को पाक के कब्जे से मुक्त कराने वाले, इसे जम्मू-कश्मीर का हिस्सा बनाने वाले प्रस्ताव पर चर्चा नहीं हो सकती। मालूम हो कि भारतीय संसद में इस आशय का एक प्रस्ताव पहले ही पारित हो चुका है। ऐसे में यह सवाल भी है कि कश्मीर समस्या और आतंकवाद को लेकर हमारी रणनीति क्या है?

इस समय आतंकवाद राष्ट्रीय सुरक्षा को भारी चुनौती दे रहा है। कश्मीर ही देश में आतंकवाद का बड़ा जनक है। यह बात अब भारत सरकार को समझ लेनी चाहिए। न ही केंद्र और न ही राज्य सरकार अपनी जिम्मेदारी को समझ रही। आखिर हमारे राजनेता कब तक सीमापारीय आतंकवाद और घुसपैठ को जिम्मेदार ठहराकर अपने नैतिक और राष्ट्रीय कर्तव्य से मुंह मोड़ते रहेंगे। जबकि सच्चाई यह भी है कि देश को इस समय सबसे ज्यादा खतरा अंदरूनी आतंकवाद से है। आए दिन हो रहे आतंकी हमलों से यह जाहिर है कि घरेलू आतंकी संगठन देश में एक बड़ा नेटवर्क रखते हैं। आखिर हमारे राजनेता आतंकवाद से निपटने में अमेरिका से भी कुछ क्यों नहीं सीखते? वहां भी तो लोकतंत्र ही है। आखिर हम इतने कमजोर क्यों हैं?

(लेखक : जेएंडके के सामाजिक विषयों के अध्येता हैं)

जम्मू के विधायकों की एकता

प्रो. हरिओम

21 सितंबर को जम्मू में एक महत्वपूर्ण राजनीतिक घटना घटी, लेकिन मीडिया के एक वर्ग ने इस पर उचित ध्यान दिया। यह घटना उस समय घटी जब एक के बाद एक कई घटनाएं घटित हुई थीं। ये सभी घटनाएं कश्मीर से संबंधित थीं। इनमें गुलाम कश्मीर के पूर्व प्रधानमंत्री सुल्तान महमूद चौधरी का विवादास्पद कश्मीर दौरा, वार्ताकारों का विवादित प्रेस कांफ्रेंस और 13 दिसंबर 2011 को संसद पर हमले का आरोपी अफजल गुरु को क्षमादान के लिए निजी सदस्य के बिल पर विचार-विमर्श शामिल है। 21 सितंबर को जम्मू में जो राजनीतिक घटनाएं हुई, उसकी शुरुआत चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (सीसीआइ), जम्मू ने की थी। सीसीआइ ने राजनीतिक दलों से जुड़े जम्मू आधारित विधायकों को एक मंच पर इकट्ठा किया और उनसे इस तरह विचार-विमर्श किया, जैसे जम्मू संभाग के लोगों ने उन्हें 63 साल पुराने कश्मीरी वर्चस्व को समाप्त करने के लिए नौकरी पर रखा हो। ताकि जम्मू समाज के सभी वर्गो की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक जरूरतें पूरी हो सकें। पिछले 63 वर्षो में शायद पहली बार किसी संगठन ने ऐसा प्रयास किया है, जोकि मूल रूप से व्यापारिक हितों का प्रतिनिधित्व करता है। अतीत में सीसीआइ ने कई साहसिक कदम उठाए हैं और जम्मू संभाग के लोगों के हितों के लिए लड़ा है। तथ्य यह है कि सीसीआइ, बार एसोसिएशन जम्मू (बीएजे) की तरह हमेशा जम्मू संभाग के हितों के लिए आगे रही है। दरबार मूव आंदोलन, वर्ष 1998 में छात्र आंदोलन और वर्ष 2008 में अमरनाथ भूमि आंदोलन में इसकी भूमिका सराहनीय रही है। जम्मू के हितों के लिए यह उन लोगों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ी है, जिन्होंने इन आंदोलनों को नियंत्रित किया और इस प्रक्रिया में अत्यधिक आर्थिक नुकसान झेला है। यह मुख्य बात नहीं है। न ही चैंबर्स नेतृत्व की विश्वसनीयता पर उन्हें संदेह है, जिसमें भूत और वर्तमान शामिल है। यह चुनी हुई निकाय है और विभिन्न अवसरों पर यह जनादेश की कैद से बाहर निकल कर जम्मू के हितों के लिए अपनी खास पहचान बनाई है। मूल बात यह है कि इसने दूसरे दिन जो प्रयास किया वह प्रशंसनीय है। अतीत में किसी संगठन के इस तरह के प्रयास से शायद ही कोई परिचित हो, क्योंकि इसने विभिन्न विचारधारा मानने वाले विधायकों को एक मंच पर लाने का प्रयास किया है। हां, पैंथर्स पार्टी के भीम सिंह ने विभिन्न अवसरों पर अपने संगठन के अलावा दूसरे संगठनों के लोगों को जम्मू की दशा पर विचार-विमर्श करने और जम्मू संभाग पर कश्मीरी वर्चस्व को खत्म करने की योजना बनाई है। साथ ही अधिकारियों पर राज्य को पुनर्गठित करने का दबाव बनाया है ताकि जम्मू संभाग के लोगों को उनके संभाग का मुख्यमंत्री मिल सके। लेकिन यह तथ्य है कि पैंथर्स नेतृत्व ने कभी भी ऐसा माहौल बनाने का प्रयास नहीं किया, जोकि गैर पैंथर्स विधायकों को आम न्यूनतम कार्यक्रम और आम रणनीति को बांटने का प्रलोभन देता हो और अधिकारियों को जम्मू की असंतुष्टि और उदासी की रात समाप्त करने के लिए दबाव बनाया हो। यह भी एक तथ्य है कि राज्य विधानमंडल सत्र पैंथर्स पार्टी, भाजपा और जम्मू स्टेट मोर्चा के विधायकों का गवाह बना, जो एकजुट होकर मिलीजुली सरकार के गलत कामों का भंडाफोड़ कर जम्मू संभाग के लोगों की समस्याओं को उजागर कर रहे थे। सच में बुधवार को पहली बार जम्मू संभाग में एक पृष्ठभूमि तैयार करने के लिए गंभीर और ईमानदार प्रयास हुआ है, जिससे वर्षो पुरानी शिकायतों को दूर करने और जम्मू संभाग में नुकसान झेल रहे लोगों की कठिनाइयों को कम करने का काम हुआ है। निश्चित रूप से इसका श्रेय सीसीआइ अध्यक्ष को जाता है। यह एक महत्वपूर्ण घटना है, क्योंकि वह राजनीतिक खेमे में एक प्रतिबद्ध कांग्रेसी के रूप में जाने जाते हैं। उनका प्रयास कुछ रंग लाया है। इस तथ्य से इसे समझा जा सकता है कि आठ विधायक न केवल निर्धारित समय पर जम्मू समस्या की प्रकृति पर सीसीआइ प्रायोजित विचार-विमर्श में भाग लेने के लिए पहुंचे और सुधारात्मक उपायों का सुझाव दिया बल्कि तीन घंटे तक बातचीत कर प्रश्नों का जवाब देते रहे। नि:संदेह इसमें उनकी गंभीर भागीदारी रही। इन विधायकों में हर्षदेव सिंह, बलवंत सिंह मनकोटिया व वाइपी कुंडल (पैंथर्स पार्टी), अशोक खजुरिया, जुगल किशोर शर्मा व सुखनंदन चौधरी (भाजपा), अश्विनी शर्मा (जेएसएम) और चरणजीत सिंह (निर्दलीय) शामिल थे। विधानसभा में जो लोग कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस का प्रतिनिधित्व करते हैं, इन लोगों की अनुपस्थिति पर उनका ध्यान गया। लेकिन सीसीआइ अध्यक्ष ने श्रोताओं को सूचित किया कि उनमें से अधिकतर विधायक इसमें शामिल होना चाहते थे, लेकिन वे ऐसा नहीं कर सकते। कारण, उन्हें श्रीनगर में एक पार्टी की बैठक में भाग लेना है। सीसीआइ अध्यक्ष बिल्कुल आश्वस्त हैं कि आगामी वार्ता में ये विधायक जरूरत भाग लेंगे, जोकि जल्द ही आयोजित होने वाली है। यही मनोवृत्ति होनी चाहिए। हालांकि अभी भी यह एक प्रश्न है कि क्या सभी जम्मू आधारित विधायकों जिसमें सांसद, विधायक और एमएलसी शामिल हैं, पार्टी राजनीति से ऊपर उठकर एक मंच पर आएंगे? जैसा कि आंध्र प्रदेश के तेलंगाना क्षेत्र में सभी विधायक अपने क्षेत्र के हितों के लिए आगे आए हैं और राज्य का दर्जा हासिल करने के लिए प्रयासरत हैं। हालांकि यह वांछनीय होगा यदि वे जम्मू संभाग के लोगों को सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक-आर्थिक रूप से पुनर्जीवित करने के लिए हाथ मिलाते हैं। कश्मीरी नेतृत्व को समर्थन देने की कोई जरूरत नहीं है। अगर जम्मू आधारित विधायक विधानसभा में दबाव बनाकर ऐसा माहौल बनाते हैं जिससे अधिकारियों को जम्मू संभाग के लोगों जिसमें हिंदू, मुस्लिम और सिख शामिल हैं, को न्याय देने के लिए बाध्य होना पड़े तो वे अपना लक्ष्य प्राप्त कर लेंगे। लोकसभा और विधानसभा में वे जिस निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं उसकी देखरेख करना उनका मौलिक कर्तव्य है।

(लेखक जम्मू विवि के सामाजिक विभाग के पूर्व डीन हैं)


घाटी के लोग आतंकियों के खिलाफ


श्रीनगर, 22 सितम्बर ।कातिलों को फांसी दो-फांसी दो, मौलाना शौकत की हत्या की साजिश को बेनकाब करो करते हुए बुधवार को सैकड़ों की तादाद में लोग लालचौक में एक जुलूस की शक्ल में निकले। जो भी जुलूस को देखता हैरान हो जाता, क्योंकि बीते बीस सालों में पहली बार लोग आतंकियों को फांसी की मांग करते हुए सड़क पर निकले थे। लोग किसी आतंकी संगठन या किसी आतंकी सरगना का नाम नहीं ले रहे थे, लेकिन नारे लगाने वाले और जुलूस देख रही भीड़ अच्छी तरह जानते थे कि कातिल कौन है।

जमायत-ए-अहल-ए-हदीस के कार्यकर्ता राज्य के विभिन्न हिस्सों से आज मैसूमा स्थित अपने मुख्यालय में जमा हुए और वहीं से एक जुलूस की शक्ल में निकले। जुलूस ठीक उसी जगह से शुरू हुआ, जहां लश्कर और तहरीकुल मुजाहिदीन के आतंकियों ने मिलकर मौलाना शौकत की मौत का कारण बनने वाली आइईडी लगाई थी। हदीस के अध्यक्ष गुलाम रसूल मलिक की अध्यक्षता में जुलूस में शामिल जमायत कार्यकर्ता मौलाना के कातिलों की फांसी की सजा के साथ-साथ मौलाना शौकत की उम्मीदों के अनुरूप कश्मीर में ट्रांस्व‌र्ल्ड मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना की मांग भी कर रहे थे।
गावकदल, मैसूमा और लालचौक के आस-पास के इलाकों से गुजरते हुए प्रदर्शनकारी जब बडशाह चौक पहुंचे तो सुरक्षाकर्मियों ने उन्हें रोक लिया। इस पर जमायत कार्यकर्ता वहीं धरने पर बैठ गए। जमायत प्रमुख गुलाम रसूल मलिक ने इस मौके पर वहां अपने कार्यकर्ताओं व अन्य लोगों को संबोधित करते हुए कहा कि हम चाहते हैं कि मौलाना शौकत की हत्या की साजिश को पूरी तरह बेनकाब कर उनके हत्यारों को फांसी की सजा दी जाए। हम अभी तक हुई जांच से संतुष्ट नहीं हैं।
मलिक ने कहा कि इसके साथ ही हम चाहते कि मौलाना शौकत ने जिस ट्रांस्व‌र्ल्ड मुस्लिम विश्वविद्यालय का ख्वाब देखा था, वह पूरा हो। सरकार को चाहिए कि वह इस विश्वविद्यालय की राह में रोडे़ अटकाने के बजाय इसी स्थापना के लिए ठोस पग उठाए। उन्होंने इस मौके पर सरकार को पांच अक्टूबर तक का अल्टीमेटम देते हुए कहा कि अगर हमारी मांगें पूरी नहीं हुई तो हमारे 15 लाख सदस्य, 125 स्कूल और 700 मस्जिदों से संबंधित सभी लोग सड़कों पर आ जाएंगे और इसके लिए सरकार ही जिम्मेदार होगी। यहां यह बताना असंगत नहीं होगा कि आठ अप्रैल को मैसूमा में एक मस्जिद के बाहर हुए आइईडी विस्फोट में जमायत के तत्कालीन प्रमुख मौलाना शौकत की मौत हो गई थी। पुलिस ने इस मामले की जांच करते हुए दावा किया था कि हत्या की साजिश लश्कर व तहरीकुल मुजाहिदीन नामक दो आतंकी संगठनों ने रची थी और इस सिलसिले में छह लोगों अब्दुला गनी डार उर्फ गजाली, जावेद अहमद मुंशी उर्फ बिल पापा, निसार अहमद खान उर्फ इसहाक, अब्दुल मजीद डार, गुलजार अहमद खान और रियाज अहमद शाह को हिरासत में लिया गया है।