Wednesday, September 28, 2011

प्रेमनाथ डोगरा ने दिलायी जम्मू-कश्मीर को नई पहचान


गोपाल सच्चर
स्वर्गीय पंडित प्रेमनाथ डोगरा महान थे। उनके व्यक्तित्व के कई पक्ष उल्लेखनीय थे। विद्यार्थी जीवन में वह एक माने हुए फुटबाल खिलाड़ी थे। एक सरकारी अधिकारी के रूप में योग्य प्रशासक थे। सामाजिक जीवन में कुरीतियों तथा छुआछूत के विरुद्ध एक बड़े सुधारक थे। किन्त राजनीतिक जीवन में जम्मू-कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग बनाने के लिए कड़ा संघर्ष किया तथा जम्मू को एक पहचान दिलायी। आज उस बहुमुखी व्यक्तित्व का 128वां जन्मदिन उनके अनुयायियों द्वारा मनाया जा रहा है। लगभग 160 वर्ष पूर्व महाराजा गुलाब सिंह ने अपनी वीरता तथा सामरिक रणनीति के आधार पर जम्मू-कश्मीर जैसे बड़े राज्य का निर्माण किया। देश की सीमाओं चीन, रूस, तजाकिस्तान और अफगानिस्तान तक बढ़ाया किन्तु कई कारणों से राजाओं के सौ से अधिक शासनकाल में उनका केंद्र बिंदु कश्मीर घाटी ही रहा। यद्यपि मूलरूप से उनका संबंध जम्मू से था और वह प्राय: डोगरा राज्य की संज्ञा के नाम से जाने जाते थे। 1947 में जब देश का विभाजन हुआ तो परिस्थितियों तथा एक राष्ट्रवादी सोच के अंतर्गत महाराजा हरिसिंह ने अपने कानूनी अधिकारों का प्रयोग करते हुए भारत के साथ विलय का प्रस्ताव रखा किन्तु देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू यह शर्त लगा दी कि विलय के साथ महाराजा को सत्ता उनके मित्र तथा नेशनल कान्फ्रेंस के नेता शेख अब्दुल्ला को सौंपना होगा। 
सत्ता संभालने से पूर्व एक राजनीतिक पत्र के रूप में पहले तो शेख मुहम्मद अब्दुल्ला ने महाराजा को अपने लिखित पत्र में उनका राजभक्त रहने का आश्वासन दिया किन्तु कुछ ही समय पश्चात् न केवल महाराजा को राज्य से बाहर निकालने के लिए षड्यंत्र रचना शुरू कर दिया किन्तु कई डोगरा नेताओं को पकड़कर जेल में डाल दिया तथा कई राष्ट्रवादियों को राज्य से बाहर का रास्ता दिखा दिया। जिन लोगों को जेल में डाला गया उनमें पंडित प्रेमनाथ डोगरा प्रमुख थे और बाहर निकाले जाने वालों में केदारनाथ साहनी तथा कई अन्य भी थे। उन्हीं दिनों भारत का संविधान बन रहा था जिसमें जम्मू-कश्मीर से शेख अब्दुल्ला के साथ उनके तीन बड़े साथी भी भारत के संविधान के निर्माण में भागीदार बने। जम्मू के विरुद्ध नेशनल कान्फ्रेंस की घृणा इसलिए भी थी कि महाराजा मूलरूप से जम्मू के थे तथा कश्मीर के नेता उन्हें डोगरा मानकर डोगरों कश्मीर छोड़ दोके नारे उसी प्रकार लगाते थे जिस प्रकार शेष भारत में अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलनचलता था। अत: भारत के संविधान निर्माण के समय चतुरता से नाम लेते हुए राज्य के इन प्रतिनिधियों ने जम्मू, कश्मीर, लद्दाख, गिलगित के स्थान पर अपने राज्य का नाम केवल कश्मीर दर्ज करवा दिया किन्तु दूरदर्शी बंगाल तथा कुछ अन्य भागों के प्रतिनिधियों के हस्तक्षेप से संशोधन हुआ तथा इस राज्य को संविधान में जम्मू-कश्मीर का नाम मिला, लद्दाख और गिलगित का नाम समाप्त हो गया। इसी के साथ नेशनल कान्फ्रेंस तथा कांग्रेस ने संविधान की आठवीं सूची में केवल कश्मीरी भाषा को ही शामिल करवाया अपितु देश की भाषाओं की इस सूची में डोगरी को कोई स्थान नहीं मिल सका। कई वर्षों के संघर्ष के पश्चात् डोगरों को उनकी भाषा की पहचान 2003 में जाकर भाजपा-नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के शासनकाल में प्राप्त हुई। जम्मू के साथ भेदभाव को समाप्त करवाने तथा इस राज्य और शेष भारत के बीच अलगाववाद की दीवारों को समाप्त करवाने के लिए स्वर्गीय पंडित प्रेमनाथ डोगरा के नेतृत्व में राज्य प्रजा परिषद का गठन हुआ। राष्ट्रवादियों के इस संगठन ने एक कड़े संघर्ष का रास्ता अपनाया जिसमें पंडित डोगरा को कई बार जेल यातनाओं को सहन करना पड़ा, कई आंदोलन हुए, कई युवक पुलिस की गोलियों का निशान बने।

वर्ष 1952 व 53 के बड़े संघर्ष में देश के विरोधी पक्ष के महान नेता डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को भी अपने जीवन की आहुति देनी पड़ी। अत: इस प्रकार पंडित डोगरा के नेतृत्व में कई संघर्ष किये गये। कुछ बडे़ इतिहासकारों का कहना है कि अगर महाराजा गुलाब सिंह ने इस राज्य का निर्माण किया था तो पंडित डोगरा ने देश की स्वतंत्रता के पश्चात् इसे भारत का अभिन्न अंग बनाये रखने तथा जम्मू की पहचान दिलाने में अपना बहुत बड़ा योगदान दिया था। किन्तु भेदभाव का अध्याय अभी भी समाप्त नहीं हुआ है जिसके लिये राष्ट्रवादी शक्तियां अभी भी प्रयत्नशील हैं।

एक बार एक बड़े पत्रकार ने पंडित डोगरा को एक गुलदश्ता की संज्ञा दी थी। अपने लेख में उस पत्रकार ने पंडित डोगरा के जीवन के बहुपक्षीय होने की चर्चा की थी। उन्हें अजातशत्रु भी कहकर यह स्पष्ट किया था कि पंडित डोगरा ने एक ऐसी जीवनशैली को अपनाया था कि उनके विरोधी भी अन्तत: उनकी स्पष्टता का लोहा मानने लगे। उन्होंने कभी सिद्धांतों के साथ समझौता नहीं किया। उनका कहना था कि सम्प्रदाय के आधार पर कोई बंटवारा नहीं होना चाहिए। इससे मानवता के लिए दुखों के सिवाय कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता। पंडित डोगरा के जीवन संबंधी चर्चा के कुछ ऐसे पक्ष भी हैं जिनका बहुत ही कम उल्लेख हुआ है किन्तु आज की वंशवाद की राजनीति तथा राजनेता बनकर सम्पत्ति जुटाने का क्रम पंडित डोगरा के त्याग को और भी महान बना देता है। वह सरकार प्रशासन के उच्च पदों पर रहे। महाराजा के काल में उनकी प्रजा सभा के सदस्य चुने गये और फिर 1957 से लेकर 1972 तक तीन बार राज्य विधानसभा के सदस्य भी रहे किन्तु उन्होंने कोई सम्पत्ति नहीं जुटाई और अपने जीवन के अंतिम दिनों में आर्थिक कठिनाइयों का भी सामना करना पड़ा। अपित अपने निवास स्थान का बड़ा भाग अपने राजनीतिक संगठन को अर्पित कर दी। यहां आज भी प्रदेश भाजपा का मुख्य कार्यालय बना है।

(लेखक : जम्मू-कश्मीर के वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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