दयासागर
आज देश में आतंकी हमलों जैसे विषयों पर भी राजनीति होने लगी है। कुछ कश्मीरी नेताओं का कहना है कि अगर भारतीय संसद पर हमले के आरोपी अफजल गुरु को मौत की सजा दी गई तो वातावरण बिगड़ सकता है। क्या ऐसे लोग वोट के लिए धर्म की राजनीति नहीं कर रहे हैं? 26 नवंबर 2008 को मुम्बई पर हुए आतंकी हमले में जिंदा पकड़े गए आरोपी कसाब की सजा भी आज चर्चा का विषय बनी हुई है। इसके साथ ही अफजल और पंजाब के आतंकी भुल्लर भी स्व. राजीव गांधी की हत्या की साजिश के आरोपियों एलटीटीइ के कैडरों मुरूगन, संथान और पेरारीवलन के साथ चर्चा में हैं। तमिलनाडु विधानसभा में भी राजीव गांधी के हत्यारों की मौत की सजा के बारे में एक प्रस्ताव पारित किया गया है।
जम्मू-कश्मीर विधानसभा में एक निजी सदस्य का प्रस्ताव भी अफजल की फांसी के बारे में आया है। राज्य के मुख्यमंत्री ने भी कुछ दिन पहले अफजल को फांसी देने के बारे में विचार करने की सलाह दी है। वोट के सौदागर तो दूर कुछ चिंतकों, विचारकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भी मौत की सजा खत्म करने की चर्चा छेड़ दी है। देशद्रोहियों और देश के दुश्मनों को दिया जाने वाला दंड एक आम चोर, डाकू, सामाजिक अपराधी से अलग होना चाहिए। जो नेता कसाब, राजीव गांधी के हत्यारों और अफजल को मौत की सजा नहीं देने की वकालत करते हैं, पहले अपनी सुरक्षा में लगे सैन्य शूटरों, कमांडों को क्यों नहीं हटाते हैं? वे ऐसा इसलिए नहीं करते कि अगर उन पर कोई आतंकी या जानलेवा हमला हुआ तो उनके सुरक्षागार्ड आधुनिक हथियारों से हमलावरों को मार डालेंगे। इसलिए ऐसे नेता अफजल और कसाब जैसे लोगों को भी मौत की सजा नहीं देना चाहते।
उनकी सोच के अनुसार सुरक्षागार्ड द्वारा किसी हमलावर को बिना उसकी मंशा पूछे मार देना गलत है। इसलिए ऐसे नेता लाठी वाले बॉडीगार्ड क्यों नहीं रखते? क्या इस पर सोचने की जरूरत नहीं है? क्या एक कातिल और देश पर हमला करने वालों के बीच अंतर नहीं होना चाहिए? आज बिगड़े हालात को देखते हुए आम नागरिक और सामाजिक संस्थाओं पर दूसरों की पीड़ा की चिंता करने का दायित्व कुछ ज्यादा हो गया है। भारत कभी दूसरों को जीना सिखाता था, लेकिन लगता है अब भारतवासियों को अमेरिका से शिक्षा लेनी होगी कि सब देशवासियों का राष्ट्रधर्म एक होता है, तभी अमेरिका ने 11 सितंबर के बाद आज तक अपने देश में किसी आम नागरिक का खून नहीं बहने दिया।
भारतीय गणतंत्र व्यवस्था के तहत जिन लोगों के हाथों में देश की व्यवस्था दी गई है, लगता है अब आम आदमी को उनके कर्तव्य का बोध कराना ही होगा। यह सच है कि कर्तव्यविहीन व्यवस्था किसी से छुपी नहीं है, पर यह भी सच है कि आज तक भारतीय मतदाता सबकुछ जानते हुए भी जाति मसलों पर अधिक ध्यान देता रहा है। समाज के प्रति अपने कर्तव्य को भूल चुके सरकारी कर्मचारी और राजनेता इसी का लाभ उठाते रहे हैं। हम कब तक अपनों का खून बहता देखते रहेंगे। हम कब तक आम आदमी द्वारा दिए गए टैक्स को सरकारी कर्मचारियों, भ्रष्ट राजनेताओं, आर्थिक और सामाजिक अपराधियों के हाथों लूटते देखते रहेंगे। भ्रष्टाचार ही आम आदमी की जानमाल की सुरक्षा और राष्ट्र की सुरक्षा करने वाले संकल्पों और तंत्र को कमजोर करता है। आतंकवाद भी ऐसी ही भ्रष्ट व्यवस्था में पलता है। लेकिन लगता है कि अब आम नागरिक और मतदाता जाति लाभ के साथ-साथ समाज के बारे में भी सोचने लगा है।
आज भ्रष्टाचार के विरोध में जो आवाज सुनी जा रही है वह उन लोगों की ओर से भी उठ रही है, जिनके पास इस बढ़ती महंगाई में खाने-पीने और रहने के लिए धन की कमी नहीं है। ऐसा नहीं है कि पूरा सरकारी तंत्र भ्रष्ट हो चुका है। पर इस बात को भी नहीं झूठलाया जा सकता कि सरकारी तंत्र में भ्रष्ट कर्मियों या भ्रष्टाचारियों के आगे अवरोध नहीं खड़े करने वालों की संख्या अधिक है। चोरों को न पकड़ने, कातिलों का गवाहों पर भारी पड़ने, आम आदमी का सड़क पर डरते हुए चलने, आंखों के सामने सरकारी धन का गलियों, सड़कों और निर्माण कार्यो में दुरुपयोग करने, सरकारी शिक्षा विभाग के निदेशक, कर्मचारियों का अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में न भेजने, सरकारी अस्पतालों से लोगों का विश्वास उठने, हजारों करोड़ रुपये टैक्स चुराने पर राजनेताओं का दामन थामना भ्रष्टतंत्र और जनता को संगठित होकर विरोध न करने की प्रवृत्ति को दर्शाता है।
अब तो आतंकी घटनाओं में बम विस्फोट की गिनती करना मुश्किल हो गया है। आतंकी घटनाओं में शामिल अपराधियों को सजा दी गई हो, ऐसे संदेशों का लेखा-जोखा रखने वाले पन्ने खाली पड़े हैं। कोर्ट ने कुछ आतंकियों और राष्ट्र विरोधी घटनाओं में लिप्त अपराधियों को वर्षो बाद सजा भी सुनाई है तो वे मामले वर्षों तक बिना सजा दिए लटके रहते हैं। कुछ अपराधी क्षमायाचना या सजा देने के लिए राष्ट्रपति से प्रार्थना करते हैं, लेकिन सरकार वर्षों तक उनकी फाइलें राष्ट्रपति के पास नहीं भेजती है। इसके पीछे कोई विवेकशील तर्क नहीं हो सकता सिवाय इसके कि राजनेता कुछ मामलों को वोट की राजनीति से जोड़कर देखते हैं। यहां तक कि देश विरोधी तत्वों को भी कई सालों तक सजा नहीं दी जाती है।
आतंकी वारदातों के बाद राष्ट्रहित और आम आदमी की जानमाल की सुरक्षा के लिए सरकारी सेवा में लगे अधिकारियों को भी जवाबदेह बनाना होगा। देश में शांति बनाए रखने के लिए हमें उन लोगों को अपना कर्तव्य याद दिलाना होगा, जिनको हमने सरकार चलाने और फैसला लेने के लिए रखा है। इस सामाजिक लड़ाई में तलवार और बंदूक की जगह देशवासियों का हथियार हिंदू-मुस्लिम संगठन और राष्ट्र प्रेम होना चाहिए। जिस तरह सामाजिक अपराधी और आतंकवादी पिछले कई वर्षों से सजा से बचते आ रहे हैं, चिंता का विषय है।
केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने दिल्ली हाईकोर्ट के गेट पर हुए विस्फोट के एक दिन बाद कहा कि उन्होंने खुफिया इनपुट्स के बारे में जो कुछ कहा था, गलत नहीं है। जबकि दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नर और मुख्यमंत्री ने ऐसी किसी जानकारी से इंकार कर दिया। इस संदर्भ में कहा जा सकता है कि आज राजनेता समझते हैं कि सरकारें सांसदों व विधायकों की संख्या पर चलती है न कि समाज के प्रति प्रतिबद्धता से।
(लेखक जम्मू-कश्मीर मामलों के अध्येता हैं।)
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