Sunday, December 5, 2010

कश्मीर की त्रासदी और हिन्दी साहित्य

शत्रुघ्न प्रसाद कश
कहते है कि श्रीनगर का अर्थ लक्ष्मी का नगर नहीं, सरस्वती का नगर है। इसके दो अर्थ हो सकते है- सौन्दर्य की नगरी और सरस्वती (पांडित्य) की नगरी। कश्मीर शब्द के भी दो अर्थ बताये गये है। प्रथम-कश्यपमीर, यानी कश्यप ऋषि की पहाड़ी। द्वितीय-काशमीर या कशमीर, यानी दो पहाड़ियों के बीच की भूमि। श्री आप्टे के संस्कृत शब्दकोश के अनुसार-शारदामठमारभ्य कुंकुमादिनटांतक, तावत्कश्मीर देश: स्यात पंचाशद्दोजनात्मक:। नीलमत पुराण के अनुसार अति प्राचीनकाल में पहाड़ों के मध्य में जल ही जल था। पहाड़ों पर नागजन रहते थे। वैदिक जन आये तो दोनों ने मिलकर घाटी के जल के निष्कासन का प्रय} किया। बारामूला के पास खनियार पत्थर को हटाकर जल को निकलने दिया। भूमि निकल आयी। लोग बसने लगे। विकास आरंभ हुआ। उसी झील का अवशेष डल झील है। उस झील को सतीसर कहा गया है। अस्तु, आठवीं सदी में सम्राट ललितादित्य ने बारामूला के पास चट्टान को हटवा कर जल को और बाहर बहने दिया। नौवीं सदी में सम्राट अवन्तिवर्मन ने अपने महान अभियंता सूया के द्वारा घाटी के जल को बाहर निकाल दिया। उसी की स्मृति में झेलम के तट पर सूयापुर बसा जो आज सोपोर कहा जाता है। पुराणों में आरंभ के तीन युगों के इतिहास को विशेष शैली में प्रस्तुत किया गया है। रामायण और महाभारत ऐतिहासिक काव्य है। कल्हण कवि ने कश्मीर के इतिहास को राजतरंगिणीमें पद्यशैली में प्रस्तुत किया है। इसमें मुख्यत: अशोक से लेकर ईसा की बारहवीं सदी का शुद्ध इतिहास वर्णित है। जोनराज ने बारहवीं से लेकर पन्द्रहवीं और श्रीवर ने पन्द्रहवीं और शुक्र ने सोलहवीं तक के इतिहास को राजतरंगिणीनाम से ही लिखा। यह चार सौ वषा का प्रामाणिक इतिहास है। केवल इतिहास ही नहीं, दर्शन, काव्य और काव्यशास्त्र में कश्मीर का अवदान महत्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय है। अठारहवीं सदी खत्म होते ही महाराज रणजीत सिंह ने पंजाब को छह सौ वषा के बाद तुर्क, मुगल और अफगान हुकूमत से मुक्त कर दिया। उनके सहयोगी जम्मू के राजा गुलाब सिंह के सहयोग से 1819 में कश्मीर भी मुक्त हो गया पांच सौ वषा की पराधीनता के बाद। महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने पंजाब पर कब्जा कर लिया। परन्तु गुलाब सिंह ने समझौता करके जम्मू-कश्मीर राज्य को संभाला। अत: 1846 से 1947 तक जम्मू और कश्मीर मुस्लिम जुल्मों से मुक्त रहा। मुस्लिम बहुल कश्मीर में शेख अब्दुल्ला ने सन 1930 से मुस्लिम कान्फ्रेंस के जरिये सियासत शुरू कर दी। उन्होंने राजा के खिलाफ आन्दोलन आरंभ कर दिया।.. 1947 के अक्टूबर में पाकिस्तान ने आक्रमण कर दिया। राजा हरि सिंह ने जम्मू- कश्मीर का भारत में विलय कर दिया।.. नये संविधान में शेख के दबाब में कश्मीर को 370 धारा की विशेष सुविधाएं मिलीं।..धारा 370 की समाप्ति के लिए छह माह तक आन्दोलन चला। तब नेहरू जी को शेख के षड्यन्त्र का पता चला और उन्हें पद से हटाया गया। सन 1990 से पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद की शुरुआत के फलस्वरूप कश्मीर के हिन्दू कश्मीरी पंडित भगा दिये गये।..भाई सन्तोख सिंह ने गुरु प्रताप सूर्यकी ब्राजभाषा हिन्दी में रचना की है। इसमें बलिदान के गौरव के साथ श्रद्धाजलि अर्पित की है। तेग बहादुर सतगुरु दे सत्रुनि उद्वेग/बेग धारि रुधहिं जतन गिरा दुष्ट पर तेग/धर्मजगत रखि लीन, तृन सम अपनी दीनि सिर/सिररु न दीनि प्रवीन, तेग बहादुर धीर सुर। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने गुरुकुलमें गुरु तेग बहादुर के बलिदान का भावपूर्ण वर्णन किया है। प्रसिद्ध कवि उदयभानु हंसने गुरुगोविन्द सिंह नामक अपने प्रबन्ध काव्य में नवम गुरु के बलिदान का मार्मिक वर्णन किया है। साहित्य अकादमी से प्रकाशित समकालीन भारतीय साहित्य का अक्टूबर-दिसम्बर, 1992 का अंक विस्थापित कश्मीरी साहित्य पर केन्द्रित है। ये कवि कश्मीरी और डोगरी में अपनी पीड़ा व्यक्त कर रहे है। कश्मीरी के साहित्यकार रतन लाल शांत ने एक लेख में लिखा है कि आतंकवाद के पहले शिकार अल्पसंख्यक (हिन्दू) बुद्धिजीवी और राजनीतिज्ञ थे क्योंकि वे अलगाववादी आतंकवाद से असहमत थे। असहमति का रक्त बह उठा। कवि तड़प उठे। श्री मोती लाल साकी ने मरसिया

में इस अथाह व्यथा को व्यक्त किया है। कवि सोमनाथ की लेखनी ने भी आह भरी है। श्री अजरुन देव मजबूरआग और शीतलता में आशा करते है कि आग और द्वेष के वातावरण से मनुष्यता कभी सिर उठा सकेगी।.. कश्मीरी मूल की सुप्रसिद्ध लेखिका क्षमा कौल ने अपने एक आलेख में मजहबी दहशतगर्दी के जुल्मोसितम के शिकार कश्मीरी पंडितों के पलायन, संत्रास, शरणार्थी शिविरों की यातना और शेष भारतीयों की अकल्पनीय उदासीनता पर रोष प्रकट करते हुए लिखा है कि विस्थापन का दर्द विस्थापितों की लेखनी से अभिव्यक्त हो रहा है। क्षमा कौल ने अपने गंभीर आलेख में रचनाओं के कुछ उदाहरणों से विस्थापितों के दर्द, चिंता, आशा, मानवता और राष्ट्रीय भावना को स्पष्ट किया है, रेखांकित किया है। गजब की बात है कि कश्मीर में इस सारी विभीषिका का पूर्वाभास भी पहले ही साहित्य में विद्यमान था। 

कवि दीनानाथ नादिम की पंक्तियां कहती है- होश में रहिए भाई, होश रखिए/धान के भंडारों में पड़ोसी/भर रहे है हथियार/मौत के सौदागर फिर करने आयेंगे बमबार/फिर बलिदान की बोली लगेगी/क्या बहेगी फिर से रक्त की धार। एकाकीपन और उपेक्षा ने विस्थापित लेखक को और सरफरोश होने का दम दिया। कवि संतोष की पंक्तियां है- आकाश में सूराख/कर देने वाले नारों/बदन में छेद कर देने/वाली गोलियों और गालियों के बीच/जिंदा रहा हूं मै, पूरी सभ्यता के साथ/यही मेरी संघर्ष गाथा है। कवि महाराज कृष्ण भरत की कविता में दर्द और स्मृति के दर्शन होते है- कंकड़ीली जमीन के बिस्तर पर/अपनी बाजू के तकिए/का सहारा लेती मेरी मां/रात के सन्नाटे में/बदलती रहती है/जब करवट पर करवट/मुझे कश्मीर की याद बहुत सताती है। कश्मीरी कवि प्रेमनाथ शाद की रचना में पलायन की मनोदशा देखिएघ र त्यागा/ और भागा/ठाकुरद्वारे पर नमन किया/शिव पर अश्रुधार बहाई/ भागा/भय, आतंक, निस्सहायता/ पागलपन/छाती को पाषाण बनाया/ भागा। हिन्दी के कुछ उपन्यासकारों ने इस पीड़ा के अहसास के बाद उपन्यासों की रचना की है। तीन में दो तो कश्मीरी मूल की लेखिकाएं है। चन्द्रकान्ता ने 2001 में कथा सतीसरकी रचना की। 1990 में विस्थापित होकर जम्मू में रहकर क्षमा कौल ने 2004 में दर्दपुरको लिखा। इन पंक्तियों के लेखक ने 2002 में चौदहवीं सदी के संघर्ष एवं पराजय पर अपना उपन्यास प्रस्तुत किया। पद्मा सचदेव ने भी जम्मू की पृष्ठभूमि के उपन्यास में कश्मीर घाटी की पीड़ा को व्यक्त किया है। चन्द्रकान्ता ने कथा सतीसरमें प्राचीन कश्मीर की पृष्ठभूमि की चर्चा करते हुए सन 1930 से लेकर सन् 1990 तक की राजनीतिक-सामाजिक जीवन की उथल-पुथल का वर्णन कर कश्मीरी पंडित समुदाय के दर्द को शब्द दे दिया है। कभी वहां के बहुसंख्यक मुस्लिम समुदाय और अल्पसंख्यक हिन्दू मिल कर रहते थे। पर मजहबी सियासत ने इस सम्बन्ध में फर्क डाल दिया। इस पृष्ठभूमि में उन्होंने कश्मीरी पंडित अयोध्यानाथ के परिवार की तीन पीढ़ियों के वर्णन के साथ पाकिस्तान प्रेरित आंतकवाद के बढ़ते कदम को चित्रित किया है। 

इस मजहबी आतंकवाद के क्रूर प्रहार से ताड़ित-त्रासित कश्मीरी पंडितों को पलायित होना पड़ा। अपने ही देश में बने शरणार्थी-विस्थापित की पीड़ा को शब्दायित करना लेखिका का प्रयोजन है। वैसे अन्त में आशा की किरण भी झलकती है। क्षमा कौल ने अपनी विशिष्ट कथावस्तु, पात्रों के गठन तथा मार्मिक वर्णन शैली से कश्मीर की त्रासदी को प्रत्यक्ष कर दिया है। यह उपन्यास सचमुच में दर्द की घाटी का यथार्थपूर्ण मर्मस्पर्शी आख्यान है। कश्मीर की बेटीमें चौदहवीं सदी के कश्मीर की त्रासदी को सम्पूर्ण सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक संघर्ष के मध्य दिखाने का प्रय} किया गया है। अफगान शाहमीर सन 1319-1320 में कश्मीर में आकर राजा सहदेव से शरण पा गया। जलकदर खां-तातार दस्यु के आक्रमण से कश्मीर उजड़ गया। पारस्परिक मतभेद, सामाजिक विषमता, भोट रिंचेन के उपद्रव, शाहमीर के षडयंत्र तथा राजनीतिक उथल-पुथल से कश्मीर कमजोर हो गया। कोटादेवी ने आनन्द भिक्षु भट्ट के सहयोग से सबल शासन स्थापित किया। पर शाहमीर ने छल से भट्ट को मार कर कोटादेवी को दुर्बल करने की कोशिश की। अकाल क्षेत्र में कोटादेवी के जाने पर उसने श्रीनगर पर कब्जा कर लिया। युद्ध में कोटादेवी हार गयी। बन्दिनी रानी कोटा की आत्महत्या के बाद शाहमीर 1339 ई. में कश्मीर का शासक बन गया। कश्मीर के गौरवपूर्ण इतिहास की इस त्रासदी का परिणाम ही आज का भयावह संकट है। वैसे कोटादेवी, चांदनी और आनन्द भिक्षु भट्ट के चरित्र हमें प्रभावित करते है। पर अन्य राजा, सामन्त और मंत्री तो लोभी और व्यक्ति केन्द्रित है। शाहमीर का चरित्र अपने निरन्तर षड्यन्त्र और छल-बल से मजहबी सियासत का कूटनीतिज्ञ ही सिद्ध होता है। ये तीनों उपन्यास हमारे राष्ट्रीय जीवन के मर्मान्तक यथार्थ को रखने में समर्थ हुए है। वामपंथी उपन्यासकार तो इस यथार्थ की उपेक्षा करते रहे है पर इतिहास और वर्तमान का यथार्थ उपयरुक्त तीनों उपन्यासों में विचित्र होकर हिन्दी के उपन्यास साहित्य को समृद्ध कर रहा है। सबका ध्यान अपने स्वर्णकिरीट कश्मीर की त्रासदी की ओर जाने लगा है। कवि तथा कथाकार-दोनों की ष्टि भारत के जीवन के यथार्थ पर केन्द्रित हुई है।

(Courtesy : 'Chintan Srijan' edited excerpts)

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