डॉ. बजरंग लाल गुप्ता
इस दो दिवसीय परिचर्चा में लगभग सभी ने किसी न किसी प्रकार से मेरे भावों को व्यक्त किया है। मैं दो दिन से यहां पर हूं। जम्मू-कश्मीर से संबंधित इतने सारे विषयों को एकसाथ समग्रता से और विशेषकर विषय ही नहीं उनके पीछे की माइंडसेट क्या है, उनके इम्पीलीकेशन्स क्या है। यहां कुछ बातों को जानने-समझने का अवसर मिला है। इसका कितना लाभ होगा; यह तो भविष्य ही बताएगा।
धरती पर चित्र बदलने के लिए एक्शन प्रोग्राम का महत्व होता है। गीता इसीलिए दुनिया में मान्य व अद्वितीय हो गई क्योंकि गीता में से अर्जुन का कर्म निकला। उपदेश वही रहता, सब मार्गों पर चर्चा हुई, यानी अद्वितीय है कि युद्ध के मैदान में इतना जबरदस्त विचार विमर्श कोई कर सकता है, उसका अद्वितीय उदाहरण है; पर कल्पना करें कि ये सब प्रकार के ज्ञानमार्ग के बाद, भक्ति मार्ग के बाद, सब प्रकार की चर्चा के बाद, तमाम तर्कों के बाद और तमाम प्रकार के ज्ञान देने के बावजूद अगर अर्जुन युद्ध के लिए तैयार न होता, तो गीता की प्रासंगिता होती क्या?
इस संबंध में पंडित दीनदयाल उपाध्याय विचार और कार्य के बीच कैसा संबंध होना चाहिए, इसको बहुत ही सरल उदाहरण से कार्यकर्ताओं के समक्ष रखते थे। इसके लिए वे कहा करते थे- विचार नमक के बराबर और काम दाल के बराबर। कभी भी इसे उलट मत देना, ऐसा वह मजाक में बोला करते थे।
तो हम जिस मनमानस से, एक्शन ग्रुप से और जिस कर्म-योजना के साथ जुड़े हुए हैं और धरती पर चित्र बदलने का संकल्प लिया हुआ है। इसमें कहीं कोई हताशा या निराशा नहीं है। हम इसके लिए प्रतिबद्ध हैं। यह केवल और केवल एकेडमिक चर्चा नहीं है, इसमें से अंततोगत्वा सबका एक टीश है। सब वक्ताओं के भाषणों में से और जिसने बीच-बीच में हस्तक्षेप किया, सबका एक टीश है। इस परिचर्चा में सभी वक्ताओं की टीश समान रूप से प्रकट हो रही थी। प्रारम्भ अपने से होता है।
हमारे सामने उदाहरण है तिब्बत को लेकर। तिब्बत की स्वाधीनता गई। दलाई लामा पूरी दुनिया में जाकर इसका रहस्य समझाये, उनसे बढ़िया कोई बता नहीं सकता था। बहुत तर्कसंगत है। तिब्बत के निर्वासित सरकार के पूर्व प्रधानमंत्री सांमदोंग रिम्पोंक्षे जो बहुत विद्वान हैं, ने तिब्बत की स्वतंत्रता क्यों चाहिए, ऐसे प्रमुख विषयों को लेकर उन्होंने दो दिवसीय परिचर्चा आयोजित की थी। इसमें जबरदस्त चर्चा हुई, तर्कसंगत बातें हुईं। उन्होंने कहा तिब्बत की स्वतंत्रता केवल तिब्बत के लिए नहीं चाहिए, दुनिया के लिए चाहिए। परिस्थिति क्या बनी, धीरे-धीरे करके वह आंदोलन डाइलुट हो गया। लगभग मृतप्राय या समाप्तप्राय है। कारण क्या है तिब्बत की धरती से जो आवाज उठनी चाहिए थी वो आवाज उठने का स्कोप समाप्त हो गया।
कुल मिलाकर ऐसे तमाम चित्रों को बदलने की यदि इच्छा रखते हैं और वह चित्र बदला जाना है तो दोनों प्रकार की चीजों का हमको मेल बैठाना पड़ेगा। ये भी सच है कि हम एक्शन प्रोग्राम पर चले जाएं और हमारे पास कोई कान्सेप्चुअल फ्रेमवर्क (वैचारिक ढांचा) ही न हो, जो सवाल व मुद्दे हमारे विरोधी हमारे खिलाफ खड़े करते हैं उनका जवाब देने लायक ताकत ही नहीं है हमारे पास में, तो आपका ये एक्शन बिखर जाएगा, डायलूट हो जाएगा, निराशा आ जाएगी, दिशाविहीन हो जाएगी। इसलिए दोनों का मेल कैसा बिठा सकते हैं; इसके बारे में गंभीरता से विचार करना पड़ेगा और आप लोग विचार कर ही रहे हैं।
जम्मू-कश्मीर में अनेक लोगों से व्यक्तिगत रूप से औऱ समूह से भी मिलना हुआ है। डॉ. हरिओम जी से पुरानी मित्रता है इसलिए उनके साथ भी कई बार चर्चा हुई है। प्राथमिक दौर पर दो तीन बातें मैं आपसे कहना चाहूंगा। हम सब मिलकर कैसा कर सकते हैं जब ऐसा आंदोलन लड़ा जाता है, तो दो काम करना होता है। अपने लिए कोई केंद्रीय थीम तय करना पड़ता है। उसके ईर्द-गिर्द तमाम चीजें चाहिए। यानी जिनको आज जिनके साथ लड़ाई लड़ना है उन्होंने सेंट्रल थीम तय की हुई है। हम चाहे उनको सेपरिटिस्ट कहते होंगे, पर सेपरिटिस्ट उनकी सेंट्रल थीम है। कोई ऑटोनामी के नाम से बोलता होगा, कोई आजादी के नाम से बोलता होगा, कोई हमारे साथ ज्यादती हुई है; इस नाम से बोलता होगा। कोई हमारी बात सुनता नहीं है; इस नाम से बोलता होगा। लोकतांत्रिक रूप से वे हमको रोने का ही अधिकार नहीं देते। पुलिस आ रही है, सेना आ रही है उसके आयाम और तौर तरीके भिन्न-भिन्न प्रकार से तमाम चीजों के लिए .........। राजनीतिक दल भी ऐसी बातें बोल रहे हैं। बाकी एक सेंट्रल थीम होती है जिसके ईर्द गिर्द तमाम तरह के तर्क भी गढ़ना पड़ता है और तमाम प्रकार के आंदोलन भी चलाने पड़ते हैं।
कुल मिलाकर ऐसी लड़ाई हमारी थीम के पाले में होनी चाहिए। डिस्टर्शन औऱ टिबेट का डिस्कोर्स बदलना है तो वह हमारी थीम के अंतर्गत चलना चाहिए, तब जाकर डिस्टोर्शन और डिस्कोर्स को बदलने की क्षमता हम निर्माण कर सकेंगे। अभी हम जवाब दे रहे हैं तो जवाब उनसे लेने के लिए काम करना पड़ेगा, एक सेंट्रल थीम इसके लिए तय करना पड़ेगा। कभी-कभी लोगों से बातचीत होती है तो लगता है कि कुछ न कुछ भ्रम भी है। कन्फ्यूजन होने पर लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती।
मैं फिर गीता पर आना चाहता हूं। अर्जुन सोचता है कि मेरी ऐसी स्थिति क्यों बन गई है। इतना क्षमतावान, योग्यता में किसी भी प्रकार की कमी नहीं है; फिर भी मेरी ऐसी स्थिति क्यों बन गई है।................ अब मैं अपनी स्थिति में पहुंच गया हूं। अपने में स्थित हो गया हूं। तमाम प्रकार की अनिर्णय की स्थिति से अपने को मुक्त कर लिया है। अब मेरे मन में कोई संदेह नहीं है। इसलिए हे केशव! अब मैं आपकी बात मानकर लड़ने के लिए तैयार हूं।
तमाम तरह के आंदोलन सदैव होते रहते हैं। जब आप इन आंदोलनों का इतिहास चाहे वह अपने देश की हो या दुनिया की ही क्यों न हो, पढ़ेंगे तो आप पाएंगे कि यह असफल तब होता है जब आंदोलन के नेतृत्वकर्ताओं के मन में किसी भी प्रकार का भ्रम उत्पन्न हो जाता है। यह भ्रम की स्थिति संघर्ष का कारण बनती है। एक दूसरे पर दोषारोपण शुरू हो जाता है। तकरार की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। अमुक व्यक्ति ने ऐसा नहीं किया इसलिए गड़बड़ हो रहा है। जब भ्रम की स्थिति नहीं रहती है तो फिर दिशा तय रहती है। सभी मिलकर चलते हैं। तब जाकर विजय प्राप्त होती है।
कुल मिलाकर मेरा निवेदन है कि कार्ययोजना बनाते समय हमारी मनःस्थिति क्या है, हम कैसा करना चाहते हैं। हम जो करना चाहते हैं उसके बारे में कैसा सोचते हैं। जो मनःस्थिति है वही हमसे काम करवाती है। तो इस दृष्टिकोण के बारे में कुल मिलाकर जम्मू-कश्मीर के संबंध में हमारा जितना वश; राजनीतिक व गैर-राजनीतिक रूप से चल सकता है, चाहे वह मीडिया हो या ब्यूरोक्रैसी; हम उसका उपयोग करेंगे। हमको पच्चास तरह के रास्ते तलाशने पड़ेंगे। उसमें से टोटल माइंडसेट या दृष्टिकोण बदलने का प्रयत्न करना पड़ेगा।
इस संबंध में मैं रणनीतिक रूप से दिल्ली में कई अधिकारियों से व्यक्तिगत रूप से मिलता रहता हूं। ध्यान में आता है कि उनका माइंडसेट ही भिन्न है। आप लोगों ने जिन बातों की चर्चा की, वे उन तमाम चीजों को उस दृष्टिकोण से देखते ही नहीं, समझने के लिए ही तैयार नहीं है। उनका स्टैंड प्वाइंट ही सबसे भिन्न है। इसलिए उस माइंडसेट के लिए ही हमको अनेक स्तरों पर काम करना पड़ेगा। हमें इस दृष्टि से भी विचार करना पड़ेगा।
भिन्न-भिन्न चर्चाओं में ये बात आई है कि हमको दो स्तरों पर काम करना पड़ेगा। दोनों स्तरों के बीच में एक संबंध रखना पडे़गा। एक जम्मू-कश्मीर के लोगों का और दूसरा शेष भारत के लोगों के साथ। ऐसा संभव नहीं है कि केवल जम्मू-कश्मीर के स्तर पर काम करें और शेष भारत निश्चिंत रहे। यह भी संभव नहीं कि राज्य की धरती पर तो काम ही न हो और शेष भारत में काम हो।....... दोनों जगह पर काम होना चाहिए। इस काम की विभिन्न स्तरों पर समकालिक रूप से समन्वय बनाना पड़ेगा।
मैं जब जम्मू-कश्मीर बोलता हूं तो यह बोलते समय भी तीन रिजन्स हैं....... इन तीनों की अलग-अलग प्रकार के एक्शन प्लान और अलग-अलग रणनीति बनानी पड़ेगी। तीनों में समान रणनीति नहीं हो सकती। क्योंकि तीनों के इमोशनल अटैचमेंट भी अलग हैं। तीनों के कान्सेप्ट को अलग एड्रेस करना पड़ेगा। कुल मिलाकर लक्ष्य एक ही है; पर इस कान्सेप्ट को एड्रेस करने की रणनीति अलग-अलग बनानी पडे़गी।
यह सभी जानते हैं कि जम्मू के लोगों ने भिन्न-भिन्न अवसरों पर बहुत काम किया है। आज भी जो कुछ काम हो रहा है, यहीं हो रहा है। मेरी ज्यादा चिंता कश्मीर घाटी को लेकर है। वहां किसी न किसी प्रकार से हमको समझदारी से दस्तक देते रहने की योजना बनानी पड़ेगी।
जिस प्रकार अमरनाथ आंदोलन हुआ, इस पर विचार करने के लिए हम लोग बैठे थे उसके पीछे एक आयाम यह भी था........... यह यात्रा एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा हम कश्मीर की धरती पर देश भर के लाखों हिंदुओं को हम पहुंचाते रहते हैं। इस यात्रा के दौरान यहां एक भिन्न प्रकार का वातावरण रहता है। अगर यह यात्रा न होती तो यह अन्य क्षेत्रों से असंबंध हो जाता। इसी प्रकार से हम क्या दो-चार ऐसे स्थानों के बारे में विचार कर सकते हैं क्या। भिन्न-भिन्न प्रकार से उनको रिवाइव कर सकते हैं क्या। वहां कोई वार्षिक मेला लगाने की बात सोच सकते हैं क्या।....... किसी न किसी प्रकार से कश्मीर घाटी में शेष देश की उपस्थिति दर्ज होनी चाहिए।
इसके लिए व्यापक योजना बनाने की आवश्यकता है। कुल मिलाकर काम के आयाम की जो चर्चा हुई उनमें चार बिंदु ध्यान में आते हैं। उनमें से पहला- प्रबोधन। इसके दो हिस्से हैं। एक मीडिया और दूसरा एकेडमिक। एकेडमिक में रिसर्च, पेपर्स, पब्लिकेशन, दस्तावेजी कार्य और कॉलेजों व विश्वविद्यालयों में आयोजित होने वाली चर्चा व परिचर्चाएं इत्यादि। ये सब करना पड़ेगा। प्रबोधन के लिए व्यावहारिक योजना बनानी पड़ेगी।
दूसरा- व्यापक जनजागरण का विषय है। लोकतंत्र में संख्या का बहुत महत्व है। आम आदमी को साथ लिए बिना कोई भी आंदोलन लंबे समय तक नहीं चल सकता। बिना जनजागरण के माहौल नहीं बदल सकता। अमरनाथ आंदोलन की सफलता का एक कारण यह भी था कि इससे सम्पूर्ण शहर जुड़ गया था। उस आंदोलन में जनजागरण, जनसहभागिता, जनसमर्थन और जनसहयोग की दृष्टि से व्यापकता बन गई थी।
तीसरा- इसके लिए रचनाएं बनानी पड़ेगी। बिना रचना का कोई काम नहीं होता। मेरा कहना है कि इसके लिए व्यापक और व्यावहारिक रचना बनानी पड़ेगी। इसका गंभीरता से विचार करना पड़ेगा। इस रचना को ही संगठन कहते हैं। सभी रचनाओं के लिए कार्य का विभाजन भी महत्वपूर्ण है।
चौथा- स्थिति बदलने के लिए संघर्षशील मानसिकता बनाना, इसके लिए संघर्ष करना ही पडे़गा।...........इन चारों चीजों के बारे में विचार करते हुए जब हम सभी विषयों के बारे में सोचेंगे, तो ऐसा लगता है कि स्थिति तो बदल ही जाएगी। केवल निराशा, हताशा, समस्याओं की गहराई, भयावहता और उसका वर्णन कर डर कर बैठने से संघर्ष नहीं हो सकता है। हम उस संगठन के कार्यकर्ता हैं जो परिस्थितियों से डर कर भागते नहीं हैं; बल्कि उसका सामना करते हैं। इसलिए मुझे विश्वास है कि स्थितियां बदलेंगी। मुझे लगता है कि इससे अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है। धन्यवाद!
(यह आलेख डॉ. बजरंग लाल गुप्ता द्वारा “जम्मू-कश्मीर : तथ्य, समस्याएं और समाधान” विषयक सेमीनार में दिए गए अध्यक्षीय उद्बोधन का सम्पादित अंश है। सेमीनार का आयोजन 25 व 26 जनवरी, 2011 को “जम्मू-कश्मीर अध्ययन केंद्र” ने जम्मू के अंबफला स्थित कारगिल भवन में किया था।)
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