पूर्व रक्षा मंत्री मुलायम सिंह यादव ने औचक चीनी हमले के प्रति लोकसभा का ध्यान खींचकर सही किया। आजकल 1962 में चीनी हमले से पहले की तरह के हालात पैदा हो रहे हैं। भारत अपनी सुरक्षा जोखिम में डालकर ही चेतावनी संकेतों की अवहेलना कर सकता है। वास्तव में, चीन-पाकिस्तान सामरिक गठबंधन मजबूत हो रहा है और ऐसे में भारत को अपनी रक्षा तैयारियां जंग के दोहरे मोर्चे के आधार पर पुख्ता करनी चाहिए। हमें पर्याप्त शक्ति जुटा लेनी चाहिए ताकि हमले का मुंहतोड़ जवाब दिया जा सके। ऐसे समय में जब चीन हिमालय क्षेत्र में दबंगई पर उतारू है और अन्य मोर्चो पर भी दबाव बढ़ा रहा है, भारत के विदेश मंत्री एसएम कृष्णा कूटनीतिक रूप से कंगाल नजर आ रहे हैं। वह चीन से बार-बार गुजारिश कर रहे हैं कि वह जम्मू-कश्मीर के निवासियों के लिए अलग से स्टेपल्ड वीजा जारी करना बंद करे। हाल ही में, चीन ने फिर से उन्हें झिड़क दिया है कि इस बारे में उसकी नीति में कोई परिवर्तन नहीं होगा। एस.एम. कृष्णा कूटनीति के मूलभूत सिद्धांत भी नहीं जानते। कभी भी कोई किसी को बिना मतलब या दबाव के कुछ नहीं देता। अगर नई दिल्ली बीजिंग के गलत वीजा व्यवहार को रोकना चाहती है, तो उसे चीन की भाषा में ही जवाब देना होगा।
अगर चीन जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग मानते हुए इसके लोगों को अलग शीट पर वीजा जारी करता है, तो भारत को भी तिब्बत को अलग मानते हुए वहां के निवासियों को अलग शीट पर स्टेपल्ड वीजा जारी करना चाहिए। इसमें उन सभी तिब्बतियों को भी शामिल करना चाहिए, जो अब तक तिब्बत को चीन का अंग नहीं मानते हैं। इसके अलावा, हान जाति के वे सभी लोग भी इसी दायरे में आने चाहिए जो 1951 में तिब्बत पर चीन के विस्तार से पहले तिब्बत में नहीं बसे थे। चीन ने आधे से अधिक तिब्बत को किनघाई, सिचुआन, युनान और गानसु प्रांतों में मिला लिया है। कृष्णा इस तथ्य से बेखबर नहीं हो सकते कि चीन ने स्वतंत्र तिब्बत के लोगों से जंग कर उस पर जबरन कब्जा किया था, जबकि जम्मू-कश्मीर उन्हीं वैधानिक सिद्धांतों पर स्वेच्छा से भारतीय संघ में शामिल हुआ था, जिन पर ब्रिटिश राज के खात्मे के बाद स्वतंत्र भारत की अन्य रियासतें मिली थीं। तिब्बत के साथ सांस्कृतिक संबंधों और पूर्व में इसके साथ आत्मीय रिश्तों के आधार पर भारत का हक बनता है कि वह वीजा जारी करने में तिब्बत को स्वतंत्र इकाई माने। अगर भारत ऐसी वीजा नीति लागू कर देता है तो आप शर्त लगा सकते हैं कि बीजिंग खुद भारत से समझौते की पहल करेगा। विदेश मामलों में कूटनीतिक लाभ उठाने की नीति हमेशा फायदेमंद होती है। अब कृष्णा की इससे भी भारी भूल पर ध्यान दें। हालिया रूस-भारत-चीन (आरआइसी) की चीन के वुहान शहर में हुई त्रिपक्षीय वार्ता में विदेश मंत्री ने चीनी समकक्ष को बताया कि जम्मू-कश्मीर भारत के लिए उसी प्रकार अहम राष्ट्रीय मुद्दा है, जिस प्रकार चीन के लिए तिब्बत और ताईवान। इस संदर्भ में उन्होंने चीन से कहा कि जम्मू-कश्मीर को लेकर भारतीय चिंता की संवेदनशीलता को समझना चाहिए, किंतु इस पर भी चीन के कानों पर जूं नहीं रेंगी।
वास्तव में, भारतीय चिंताओं के प्रति चीन का उपेक्षापूर्ण रवैया इस बात से रेखांकित हो जाता है कि चीन के प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ अगले माह की भारत यात्रा के दौरान पाकिस्तान में भी रुकेंगे। जम्मू-कश्मीर को तिब्बत के साथ रखकर कृष्णा भारत के कश्मीर पर आधिपत्य को उसी तरह सही ठहरा रहे थे, जैसे चीन तिब्बत पर अधिकार को जायज ठहराता है। भारत-चीन के बीच विवाद की जड़ तिब्बत ही है, क्योंकि चीन जिन इलाकों पर अपना दावा ठोकता है, वे सब तिब्बत से संबद्ध हैं। जम्मू-कश्मीर और चीन के ताईवान पर दावे को एक समान बताकर कृष्णा ने दो ऐसे अंगों में बेतुकी समानता स्थापित करने की कोशिश की, जिनमें से एक भारतीय संघ का हिस्सा है और स्वायत्त इकाई है, जबकि दूसरे पर स्थायी रूप से चीन का खतरा मंडरा रहा है। ताईवान भारत से काफी दूरी पर है किंतु इसका राजनीतिक भविष्य भारत के लिए मायने रखता है। जिस प्रकार बीजिंग अरुणाचल प्रदेश की 13 लाख आबादी की इच्छाओं के विपरीत इस पर अपना दावा जता रहा है, उसी प्रकार चीन ताईवान के निवासियों की इच्छा के विपरीत इसे अपने में मिलाना चाहता है। कूटनीतिक कायदे से ताईवान की भारत के लिए वही हैसियत हो सकती है, जो चीन के लिए पाकिस्तान की है। इसे नीति में क्रियान्वित करने के लिए भारत और चीन में निकट कूटनीतिक सहयोग होना चाहिए। दोनों को एकदूसरे की सुरक्षा के साझा उद्देश्यों के मद्देनजर एशिया में कूटनीतिक संतुलन कायम करना चाहिए।
वास्तव में, एशिया की सुरक्षा का भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि एक ऊर्जावान लोकतंत्र ताईवान स्वशासन में फलता-फूलता है या फिर इसे विश्व के सबसे विशाल एकल शासन तंत्र चीन द्वारा हड़प लिया जाता है। महत्वपूर्ण समुद्री मार्ग के बीच मौजूद ताईवान के पास इस बात की कुंजी है कि चीन एशिया में स्थिरता पैदा करने वाली शक्ति बनता है या फिर एशिया पर अपना दबदबा कायम करने वाला दबंग। कृष्णा ने अपनी गलत तुलना से यह साबित कर दिया कि ताईवान चीन के लिए वही है, जो भारत के लिए जम्मू-कश्मीर। वास्तव में, कृष्णा उस परंपरा का निर्वहन कर रहे हैं, जो 1950 से भारत सरकार की चीन नीति के रूप में जारी है। यहां तक कि 1962 में चीन द्वारा भारत की पीठ में छुरा भौंकने और हालिया उद्दंडता के बावजूद इन नियमों में कोई बदलाव नहीं आया है। उदाहरण के लिए 2003 में बीजिंग दौरे पर तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजयेपी ऐसे नेता नजर नहीं आए जो चीन को बराबरी के स्तर और शर्तो पर ला पाते। इसके स्थान पर वह समस्याग्रस्त तिब्बत और शांतिपूर्ण सिक्किम के बीच निंदात्मक संबंध स्थापित करने में जुटे रहे। सिक्किम का भारत में विलय 1975 में हुआ था और चीन को छोड़कर पूरा विश्व इसे मान्यता प्रदान करता है। यही नहीं तिब्बत पर उन्होंने कुख्यात उलटबांसी कर डाली और इसे चीनी गणतंत्र का हिस्सा घोषित कर दिया। अपनी पीठ थपथपाते हुए वाजपेयी ने दावा किया कि इसके बाद भारत-चीन संबंधों में सिक्किम कोई मुद्दा नहीं रह जाएगा। उसके बाद से ही चीन ने तिब्बत-सिक्किम सीमा पर अपना सैन्य दबाव बढ़ा दिया था। अब भारत ऐसे विदेश मंत्री का भार ढो रहा है, जो रहस्यमयी ढंग से चीन के हाथों में खेल रहे हैं।
(लेखक : सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)
(Courtesy : www.jagran.com, 10/12/2010)
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