Wednesday, September 28, 2011

अंदरूनी आतंक बड़ा खतरा


केवल कृष्ण पनगोत्रा

वफा की फिक्र कर ऐ नादान, मुसीबत आने वाली है। तेरी बर्बादियों के मशिबरे हैं आसमानों में। न संभलोगे तो मिट जाओगे ऐ हिन्दोसतां वालो, तुम्हारी दास्तां भी न होगी दास्तानों में। ऐसे चिंताजनक शब्द किसी देश या समाज के सभ्य तबके में तब ही उभरते हैं जब उसे देश के काल की गति में आतंक की भयावहता और इरा आसुरी प्रवृत्ति को देश के भीतर से ही सत्ता और समाज विरोधियों का परोक्ष समर्थन मिले। कभी सियासत और कभी कुर्सी के लिए।

देश की राजधानी दिल्ली में हाइकोर्ट के बाहर आतंकी हमले के बाद आगरा में हुए विस्फोट ने देश के अंदर पनप रहे आतंक को लेकर चिंता को और ज्यादा गंभीर बना दिया है। आखिर क्यों समाज के कुछ लोग आतंक की राह पर चल निकले हैं? इस चिंता की स्वीकारोक्ति हाल ही में गृहमंत्री पी. चिदंबरम भी कर चुके हैं। भारत में इस तरह के खूनी आतंकी हमलों की सूची काफी लंबी है। कल का इतिहास देश के अंदरूनी भागों में इस खूनी खेल का सबसे बड़ा गवाह होगा जो हमारे आज के शासकों की राष्ट्र के प्रति कमजोर जिम्मेदारियों और आतंक के प्रति अनिच्छा का ही परिचायक होगा।

गृहमंत्री का यह कहना उचित ही है कि लगभग तीस साल से आतंकवाद से जूझने के बावजूद भारत इससे निपटने के लिए पूरी तरह तैयार नहीं है। गृहमंत्री पी. चिदंबरम की इस स्वीकारोक्ति को जम्मू-कश्मीर में फैले आतंकवाद के संदर्भ में भी लिया जा सकता है। जिस तरह देश के अनेक भागों में हुए विस्फोटों के तार कई बार जम्मू-कश्मीर से आकर जुड़ते हैं उससे यह कहना गलत होगा कि राज्य में आतंकवाद समाप्त हो चुका है। दिल्ली विस्फोट के संबंध में किश्तवाड़ से विद्यार्थियों की गिरफ्तारी हैरान कर देने वाली है। लगता है कि इस राज्य में देश विरोधी तत्वों की पकड़ आतंकवाद से ग्रस्त रहने वाले क्षेत्रों में स्कूलों पर भी है, जहां से आतंकी जब चाहें अबोध किशोरों का भी इस्तेमाल कर सकते हैं। आतंकवादी आतंक की शैली बदलते हैं आतंक की मानसिकता नहीं।

किश्तवाड़ से दो स्कूली छात्रों की गिरफ्तारी देशविरोधी और आतंकी मानसिकता का ही परिचायक है। जब आतंक और देश विरोध की मानसिकता वाले लोग राज्य में प्रचुर संख्या में मौजूद रहेंगे, तब तक शांति और आतंकवाद के राज्य से खात्मे का कोई भी दावा भरमाने वाला ही होगा। वस्तुत: यह राज्य आतंकवाद का जनक है। यहां सदैव आतंकवाद और अलगाववाद को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष समर्थन हासिल है। इस संरक्षण और समर्थन के कारण सियासी और मजहबी भी हो सकते हैं। सियासत की यह सूरतेहाल ही आतंक को पैदा करने और पालने वाली है।

राज्य में एक राष्ट्रीय सियासी पार्टी के नेता का अफजल गुरु की फांसी के प्रस्ताव पर भ्रमित करने वाले बयान की भरमाने वाली भाषा देखें। बयान है- हमारा एक राष्ट्रीय दल है। हम अपने नीतिगत निर्णय पूरे देश को ध्यान में रखकर करते हैं। यानि न सीधी हां और न ही सीधी ना। राज्य में कुछ सियासी पार्टियां इस मुद्दे पर बोलने से परहेज कर रही हैं। राज्य की सत्ता कब्जाने को आतुर एक क्षेत्रीय दल की फिलवक्त भावना यह लग रही है कि अफजल की सजाए मौत को माफ करना राज्य में कश्मीर समस्या के समाधान लायक माहौल बनाना है। वस्तुत: माफी का प्रस्ताव सरकार के गले की फांस बनता जा रहा है।

नेकां और कांग्रेस का हाल यह है कि अगर घाटी के वोट को देखें तो जम्मू और लद्दाख का वोट हाथ से निकल जाता है। सवाल यह भी है कि आखिर वह कौन सी मजबूरियां हैं जिनका रोना आतंकवाद और भ्रष्टाचार जैसी राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान के मुद्दों पर रोया जाता है? 21 साल पूर्व आतंकवाद के चरमोत्कर्ष पर पहुंचते ही कश्मीर घाटी से कश्मीरी पंडित समुदाय को जम्मू और देश के दूसरे भागों में विस्थापन झेलना पड़ रहा है। इसी आशंका के चलते ही विस्थापित पंडित राज्य में एक अलग होमलैंड की मांग करते आए हैं जहां विशुद्ध तौर पर भारतीय संविधान लागू हो। गृहमंत्री की स्वीकारोक्ति से यह भी जाहिर है कि अगर तीस साल पूर्व हमारे राजनेताओं में आतंकवाद से निपटने की अनिच्छा और बहानेबाजी की प्रवृत्ति की जगह मजबूत इच्छाशक्ति और सशक्त राष्ट्रवाद की भावना होती तो आज भारत में जगह-जगह खूनी खेल का निरंतर सिलसिला न चलता।

यह बात हैरान कर देने वाली है कि एक ओर गृह मंत्रालय संसद पर हमले के आरोपों से घिरे अफजल गुरु के मुद्दे पर सख्ती दर्शाता नजर आ रहा है वहीं जम्मू-कश्मीर विधानसभा में उसकी माफी के प्रस्ताव पर चर्चा होगी। 1947 में पाकिस्तान द्वारा कबाइली हमले के बाद पाक अधिकृत कश्मीर को पाक के कब्जे से मुक्त कराने वाले, इसे जम्मू-कश्मीर का हिस्सा बनाने वाले प्रस्ताव पर चर्चा नहीं हो सकती। मालूम हो कि भारतीय संसद में इस आशय का एक प्रस्ताव पहले ही पारित हो चुका है। ऐसे में यह सवाल भी है कि कश्मीर समस्या और आतंकवाद को लेकर हमारी रणनीति क्या है?

इस समय आतंकवाद राष्ट्रीय सुरक्षा को भारी चुनौती दे रहा है। कश्मीर ही देश में आतंकवाद का बड़ा जनक है। यह बात अब भारत सरकार को समझ लेनी चाहिए। न ही केंद्र और न ही राज्य सरकार अपनी जिम्मेदारी को समझ रही। आखिर हमारे राजनेता कब तक सीमापारीय आतंकवाद और घुसपैठ को जिम्मेदार ठहराकर अपने नैतिक और राष्ट्रीय कर्तव्य से मुंह मोड़ते रहेंगे। जबकि सच्चाई यह भी है कि देश को इस समय सबसे ज्यादा खतरा अंदरूनी आतंकवाद से है। आए दिन हो रहे आतंकी हमलों से यह जाहिर है कि घरेलू आतंकी संगठन देश में एक बड़ा नेटवर्क रखते हैं। आखिर हमारे राजनेता आतंकवाद से निपटने में अमेरिका से भी कुछ क्यों नहीं सीखते? वहां भी तो लोकतंत्र ही है। आखिर हम इतने कमजोर क्यों हैं?

(लेखक : जेएंडके के सामाजिक विषयों के अध्येता हैं)

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