Wednesday, September 28, 2011

नेहरू द्वारा शेख को प्रोत्साहन से क्षुब्ध थे महाराजा


दयासागर
बात उस समय की है जब पंडित नेहरू ने नेशनल कान्फ्रेंस की एक परिषद द्वारा ब्रिटिश कैबिनेट प्रतिनिधिमंडल को भेजे गये एक ज्ञापन का भी अप्रत्यक्ष समर्थन किया था जिसमें 16 मार्च 1846 के अमृतसर समझौते का प्रश्न उठाया गया था और मांग की गयी थी कि अंग्रेज चले जायें तो इस समझौते को निरस्त कर दिया जाये और कश्मीर को वहां की जनता को दे दिया जाये ताकि महाराजा नहीं जनता ही वहां का शासन करे और कश्मीर/बाद में जम्मू-कश्मीर राज्य का भविष्य निर्धारित करे।

अंग्रेज भारत में कांग्रेस नेतृत्व के हाथों में सत्ता सौंपने वाले थे। अत: 1846 के समझौते को निरस्त होने के साथ ही महाराजा की सरकार को भी शेख की नेशनल कान्फ्रेंस को सत्ता सौंप देनी चाहिए। शेख की इस नीति (1946) से शेख-नेहरू गुट और हरि सिंह के बीच तनाव बढ़ गया। अब्दुल्ला ने कांग्रेस की राय लिये बिना ही कश्मीर छोड़ो आंदोलन शुरू किया था और उनकी पीठ पर नेहरू का हाथ था इसलिये महाराजा नाराज थे। उनके मन में विकल्प के रूप में धुंधला ही सही स्वतंत्र राष्ट्र का विचार आया जिससे उनके समर्थक अपनी बात रख सकें। निश्चय ही इस कारण से महाराजा हरि सिंह भारत में विलय के प्रपत्र पर हस्ताक्षर करने को उत्सुक नहीं थे यद्यपि पाकिस्तान को वे बिल्कुल पसंद नहीं करते थे।

अमृतसर समझौते के अनुसार, ईस्ट इंडीज के मामलों को निर्देशित और नियंत्रित किया जायेगा, जिसमें ब्रिटिश सरकार एक पक्ष और जम्मू के महाराजा गुलाब सिंह दूसरा पक्ष थे, ब्रिटिश सरकार की तरफ से ब्रिटेन की महारानी के अत्यंत सम्मानित प्रिवी काउंसिलों में से एक, सर हेनरी हार्डिंग, जी.सी.बी., जो ईस्ट इंडिया कंपनी की सम्पत्तियों के गवर्नर जनरल हैं, के आदेशानुसार फ्रेडरिक करी एस्क्वायर, ब्रिवेट मेजर हेनरी मॉन्टगोमेरी लॉरेंस और महाराजा गुलाब सिंह ने स्वयं निष्पादित किया (1846)।

26 मई 1946 को पंडित नेहरू ने स्वयं कहा था कि हालांकि ऑल इंडिया स्टेट पीपुल्स कान्फ्रेंस की यह नीति रही है कि सभी रियासतों में महाराजा जो कि उस राज्य का संवैधानिक प्रमुख हो, के संरक्षण में पूरी तरह से जिम्मेदार लोकप्रिय सरकार की मांग करे। परन्तु जम्मू व कश्मीर (शेख और कश्मीर) के मामले में उन्होंने आरोप लगाया कि राज्य प्रशासन प्रस्तावित लोकप्रिय आंदोलन को लेकर सीधे उत्पीड़न की नीति अपना रहा है। बाद में दिसम्बर 1948 में पंडित नेहरू इस बात के लिए तैयार हो गये कि महाराजा मैसूर के मॉडल पर जम्मू-कश्मीर में अंतरिम सरकार बनाने के लिए अधिसूचना जारी करें लेकिन बाद में वे इससे मुकर गये। इससे शेख की धुंधली योजनाओं को बल मिला।

नेहरू ने तो यह भी मानलिया था कि शेख ने स्वयं ही जो नयी नीति (कश्मीर छोड़ो) लोगों के सामने रखी है वह कांग्रेस और ऑल इंडिया स्टेट पीपुल्स कान्फ्रेंस की नीतियों से बिल्कुल अलग है और इस नीति को इन संगठनों के साथ अच्छी तरह से सोच विचार किये बिना लोगों के सामने नहीं रखना चाहिये था।

पंडित नेहरू ने आगे कहा कि वे स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि ऑल इंडिया स्टेट पीपुल्स कान्फ्रेंस की नीति हमेशा से वही है जो महेशा से थी। अर्थात रियासत के महाराजा के संरक्षण में एक जिम्मेदार सरकार परन्तु ऐसे वक्तव्य भी नेहरू ने बहुत देर से दिये और शेख को रोकने या सुधारने का उन्होंने कोई प्रयत्न नहीं किया। छ: दशकों बाद भी भारत इसका मूल्य चुका रहा है। यह तथ्य इसे प्रमाणित करते हैं कि कांग्रेस 1940 के दशक में शेख के पक्ष कुछ अधिक ही थी जबकि उसे सही समय पर जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय या अन्य विकल्पों पर बल देना चाहिए था। इसमें संदेह नहीं है कि भारत या पाकिस्तान में विलय या अन्य विकल्पों के बारे में फैसला करने का अधिकार केवल महाराज को था।
(लेखक जम्मू-कश्मीर मामलों के अधेयता हैं।)

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