नई दिल्ली (27.02.2011)। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहनराव मधुकर भागवत ने कहा कि घाटी में ससम्मान वापसी विस्थापित कश्मीरी पंडितों का अधिकार है। उन्होंने उनके विस्थापन के पीछे राजनीति को जिम्मेदार ठहराया और दावा किया कि हिंदू सम्मानित और सुरक्षित होकर अपने घर वापस लौटेंगे।
डॉ. भागवत रविवार को जम्मू-कश्मीर विचार मंच के तत्वावधान में दिल्ली के फिक्की ऑडिटोरियम में आयोजित सामूहिक शिवरात्रि (हेरथ) महोत्सव – 2011 को संबोधित कर रहे थे। इस दौरान उपस्थित कश्मीरी परिवारों और अन्य गण्यमान्य लोगों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा- “सीधी सी बात है कि कश्मीर में रहने वाले लोग कश्मीर में ही रहेंगे। इसे लेकर बेकार में भारी बवाल हो रहा है और उल्टी नीति चल रही है क्योंकि इसके पीछे राजनीति आ गई है।”
आरएसएस प्रमुख ने कहा कि स्वतंत्र भारत में कश्मीर से चार लाख हिंदू विस्थापित हो गए। अपने घर सम्मान के साथ वापस जाना उनका अधिकार है। उन्होंने कहा कि आजाद भारत में इस तरह की अराजकता हो रही है और कानून की बात आती है तो कहा जाता है वहां अनुच्छेद 370 है। उन्होंने कहा कि अगर ऐसी बात है तो अनुच्छेद 370 को हटाया क्यों नहीं जाता। उस स्थिति को बदलना चाहिए जो स्वतंत्र भारत में नागरिकों को सम्मान और सुरक्षा के साथ नहीं रहने देती।
डॉ. भागवत ने कश्मीरी पंडितों से आह्वान किया कि वे अपनी आने वाली पीढि़यों में भी देश के प्रति अगाध निष्ठा के भाव को बनाए रखें और अपने अधिकारों की लड़ाई जारी रखें। उन्होंने कहा कि जिसका धर्म नहीं है वह सदैव अपने पेट की तरफ ही देखता है। केवल स्वहित के कारण उसका स्वभाव कट्टर हो जाता है। इन कट्टरपंथियों के कारण ही लोगों को विस्थापन का दंश झेलना पड़ता है। सारे देश को इस स्थिति को समझना होगा।
उन्होंने कहा- “शिवरात्रि के अवसर पर शिव का विचार करना है। उनके जैसा बनने का संकल्प करना है। क्योंकि शिव सम्पूर्ण दुनिया को आत्मभान देते हैं। भगवान राम और कृष्ण भी शिव की ही पूजा करते थे। इसलिए हमें भी शिव से प्ररणा लेनी चाहिए।” उन्होंने बताया कि जनजागरण के निमित्त संघ के स्वयंसेवक जिन तीन बिंदुओं को लेकर घर-घर सम्पर्क कर रहे हैं उसमें कश्मीर का विषय भी शामिल है।
कार्यक्रम को भाजपा महिला मोर्चा की राष्ट्रीय अध्यक्ष स्मृति ईरानी ने भी संबोधित किया। उन्होंने कहा कि जम्मू-कश्मीर की मूल समस्या वहां की बेरोजगारी व गरीबी है। यह कार्यक्रम सभ्यता व संस्कार का महोत्सव है। उन्होंने विस्थापित कश्मीरी पंडितों की ओर संकेत करते हुए कहा कि आप लोगों ने भगवान शंकर की तरह कंठ में विष धारण किया है। मर्यादापुरुषोत्तम राम तो केवल 14 वर्ष ही वनवास में रहे लेकिन आप लोगों को वनवास हुए 22 वर्ष हो गए। उन्होंने कहा कि आप लोगों का संघर्ष ही देश का राजनीतिक दृष्टिकोण बदलेगा और हम अपनी बात मनवाकर रहेंगे।
कार्यक्रम को सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता व जम्मू-कश्मीर विचार मंच के संयोजक श्री टी.एन. राजदान ने भी संबोधित किया। कार्यक्रम का संचालन वरिष्ठ पत्रकार व लेखक अजय भारती ने किया। इससे पहले डॉ. भागवत और श्रीमति ईरानी को परंपरागत कश्मीरी वेशभूषा पहनाकर उनका सम्मान किया गया।
Monday, February 28, 2011
कश्मीर मसले पर पूरा देश एकजुट : डॉ. भागवत
नई दिल्ली (27.02.2011)। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहनराव मधुकर भागवत ने जम्मू-कश्मीर समस्या के समाधान के लिए व्यापक स्तर पर जन-जागरण की आवश्यकता पर बल दिया है। उन्होंने कहा कि कश्मीर मसले पर पूरा देश एकजुट है। केवल कश्मीर से विस्थापित लोग ही नहीं बल्कि भारत का प्रत्येक नागरिक जल्द से जल्द इस समस्या का समाधान चाहता है।
डॉ. भागवत रविवार को दिल्ली स्थित दीनदयाल शोध संस्थान में जम्मू-कश्मीर पीपल्स फोरम द्वारा आयोजित “जम्मू-कश्मीर : वर्तमान परिदृश्य” विषयक परिचर्चा को संबोधित कर रहे थे।
उन्होंने कश्मीर मसले पर सरकार की कमजोर राजनीतिक इच्छाशक्ति पर चिंता प्रकट की। उन्होंने कहा, “कश्मीर की समस्या देश की ज्वलंत समस्या है, इस बात से हम सभी भलिभांति परिचित हैं। ऐसे में यह तो तय है कि हमारी सरकार जानती है कि कैसे इस परिस्थिति से निजात पाया जा सकता है। लेकिन उनके रवैये से ऐसा प्रतीत होता है कि वे इस बारे में जानकर भी अन्जान बनने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में हमें खुद ही प्रयास करने की जरुरत है।"
उन्होंने कहा कि सरकार उल्टा काम कर रही है। प्रदेश में जिन राष्ट्रभक्त नागरिकों को सुरक्षा मिलनी चाहिए उससे इतर तथाकथित मुट्ठीभर अलगाववादियों को संरक्षण मिल रहा है।
संघ प्रमुख ने कहा कि कश्मीर समस्या का हल भारत को ध्यान में रखकर सोचना होगा। इस दौरान उन्होंने इस मसले में किसी विदेशी ताकत के हस्तक्षेप को पूरी तरह से खारिज कर दिया। डॉ. भागवत ने कहा, “जब अमेरिका एवं चीन अपने आंतरिक मामलों में किसी बाहरी को शामिल नहीं करना चाहते तो हम उन्हें इस मुद्दे पर बोलने की आजादी क्यों दें। उन दोनों देशों को हमारी ज्यादा आवश्यकता है।”
उन्होंने कश्मीर समस्या से संबंधित ऐतिहासिक तथ्यों से युक्त छोटी पुस्तिकाओं के माध्यम से सम्पर्क करने का सुझाव दिया। भागवत ने कहा कि इस पुस्तिका को लेकर हमें देशवासियों को यह बताना होगा कि कश्मीर की वास्तविकता क्या है और इससे कैसे निपटा जा सकता है।
सरसंघचालक ने कहा कि हमारे समक्ष श्रीराम-मंदिर निर्माण, कश्मीर समस्या और संघ पर बेबुनियाद दोषारोपण जैसे प्रमुख मुद्दे हैं जिन पर लोगों का ध्यान आकर्षित करने की जरुरत है। तीनों ही मुद्दों पर पूर्ण समर्थन करने वाले बहुत लोग हैं। इसके लिए हमें जनप्रतिनिधियों का चुनाव दलगत राजनीति से ऊपर उठकर करना होगा।
कार्यक्रम में उत्तराखंड उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति विनोद गुप्ता ने अध्यक्षीय भाषण में कश्मीर समस्या के लिए नये सिरे से समाधान खोजने की जरुरत पर बल दिया। उन्होंने कहा कि सरकार इसके समाधान के लिए अभी भी पंडित नेहरु की बनाई गयी नीति पर चल रही है।
इस अवसर पर वरिष्ठ पत्रकार श्री नरेन्द्र सहगल द्वारा लिखित पुस्तक ‘व्यथित कश्मीर’ के अंग्रेजी संस्करण का विमोचन भी किया गया। वरिष्ठ पत्रकार श्री जवाहर लाल कौल ने कार्यक्रम में आये लोगों के प्रति धन्यवाद ज्ञापित किया।
डॉ. भागवत रविवार को दिल्ली स्थित दीनदयाल शोध संस्थान में जम्मू-कश्मीर पीपल्स फोरम द्वारा आयोजित “जम्मू-कश्मीर : वर्तमान परिदृश्य” विषयक परिचर्चा को संबोधित कर रहे थे।
उन्होंने कश्मीर मसले पर सरकार की कमजोर राजनीतिक इच्छाशक्ति पर चिंता प्रकट की। उन्होंने कहा, “कश्मीर की समस्या देश की ज्वलंत समस्या है, इस बात से हम सभी भलिभांति परिचित हैं। ऐसे में यह तो तय है कि हमारी सरकार जानती है कि कैसे इस परिस्थिति से निजात पाया जा सकता है। लेकिन उनके रवैये से ऐसा प्रतीत होता है कि वे इस बारे में जानकर भी अन्जान बनने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में हमें खुद ही प्रयास करने की जरुरत है।"
उन्होंने कहा कि सरकार उल्टा काम कर रही है। प्रदेश में जिन राष्ट्रभक्त नागरिकों को सुरक्षा मिलनी चाहिए उससे इतर तथाकथित मुट्ठीभर अलगाववादियों को संरक्षण मिल रहा है।
संघ प्रमुख ने कहा कि कश्मीर समस्या का हल भारत को ध्यान में रखकर सोचना होगा। इस दौरान उन्होंने इस मसले में किसी विदेशी ताकत के हस्तक्षेप को पूरी तरह से खारिज कर दिया। डॉ. भागवत ने कहा, “जब अमेरिका एवं चीन अपने आंतरिक मामलों में किसी बाहरी को शामिल नहीं करना चाहते तो हम उन्हें इस मुद्दे पर बोलने की आजादी क्यों दें। उन दोनों देशों को हमारी ज्यादा आवश्यकता है।”
उन्होंने कश्मीर समस्या से संबंधित ऐतिहासिक तथ्यों से युक्त छोटी पुस्तिकाओं के माध्यम से सम्पर्क करने का सुझाव दिया। भागवत ने कहा कि इस पुस्तिका को लेकर हमें देशवासियों को यह बताना होगा कि कश्मीर की वास्तविकता क्या है और इससे कैसे निपटा जा सकता है।
सरसंघचालक ने कहा कि हमारे समक्ष श्रीराम-मंदिर निर्माण, कश्मीर समस्या और संघ पर बेबुनियाद दोषारोपण जैसे प्रमुख मुद्दे हैं जिन पर लोगों का ध्यान आकर्षित करने की जरुरत है। तीनों ही मुद्दों पर पूर्ण समर्थन करने वाले बहुत लोग हैं। इसके लिए हमें जनप्रतिनिधियों का चुनाव दलगत राजनीति से ऊपर उठकर करना होगा।
कार्यक्रम में उत्तराखंड उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति विनोद गुप्ता ने अध्यक्षीय भाषण में कश्मीर समस्या के लिए नये सिरे से समाधान खोजने की जरुरत पर बल दिया। उन्होंने कहा कि सरकार इसके समाधान के लिए अभी भी पंडित नेहरु की बनाई गयी नीति पर चल रही है।
इस अवसर पर वरिष्ठ पत्रकार श्री नरेन्द्र सहगल द्वारा लिखित पुस्तक ‘व्यथित कश्मीर’ के अंग्रेजी संस्करण का विमोचन भी किया गया। वरिष्ठ पत्रकार श्री जवाहर लाल कौल ने कार्यक्रम में आये लोगों के प्रति धन्यवाद ज्ञापित किया।
Tuesday, February 22, 2011
अलगाववादियों से मिलने की आस लिए पहुंचे वार्ताकार
जम्मू। जम्मू-कश्मीर समस्या का राजनीतिक हल तलाश रहे केंद्र के वार्ताकार अलगाववादियों से मुलाकात की आस लेकर राज्य के अपने पांचवें दौरे पर पहुंचे। पांच दिवसीय दौरे के पहले दिन वार्ताकारों ने राज्यपाल एनएन वोहरा व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला से भेंट कर उन्हें पांच माह से राजनीतिक हल तलाशने की प्रक्रिया के परिणामों के बारे में बताया। वार्ताकारों ने राज्य के नवनियुक्त चीफ सेक्रेटरी माधव लाल के साथ भी बैठक की।
अलगाववादी नेताओं को छोड़कर वार्ताकार सरकार, राज्य प्रशासन, राजनीतिक पार्टियों, सामाजिक व धार्मिक संगठनों के प्रतिनिधियों से कई बार भेंट कर चुके हैं। इस दौरे से पहले वार्ताकारों ने अलगाववादियों से भेंट करने के लिए उन्हें लिखित निमंत्रण दिया है। इसी बीच जम्मू पहुंचे वार्ताकार दिलीप पडगांवकर, राधा कुमार व एमएम अंसारी ने राजभवन में डेढ़ घंटे तक राज्यपाल से बैठक कर समस्या के समाधान के लिए तैयार किए अपने खाके के बारे में बताया। वार्ताकार अपनी रिपोर्ट केंद्र सरकार को सौंपने से पहले अलगाववादियों का पक्ष जानने के लिए बहुत आतुर हैं।
राज्यपाल से मिलने से पहले वार्ताकारों ने दोपहर को मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला से भेंट कर उन्हें राज्य में जारी बातचीत की प्रक्रिया व विभिन्न विचारधारा के लोगों की आकांक्षाओं के बारे में बताया। इस दौरान अलगाववादियों के वार्ताकारों से दूरी बनाने के मसले पर भी चर्चा हुई।
शाम को वार्ताकारों ने गेस्ट हाउस में शिक्षाविद् प्रो. हरिओम के साथ उच्च शिक्षा विभाग के सचिव तनवीर जहान से भी भेंट की। इस दौरान प्रो. हरिओम ने स्पष्ट किया कि अगर बातचीत की आड़ में जम्मू कश्मीर में अलगाववाद व सांप्रदायिकता को शह देने की कोशिश की जा रही है तो यह बिलकुल गलत है।
वार्ताकार मंगलवार को राज्य के नवनियुक्त चीफ इन्फारमेशन कमिश्नर जीएम सूफी के साथ राज्य मानवाधिकार आयोग के वरिष्ठ पदाधिकारियों से भेंट करेंगे। केंद्र का दल गुलाम कश्मीर के रिफ्यूजियों से मिलने के लिए मंगलवार दोपहर को भौर कैंप भी जाएगा।
(Courtesy : www.jagran.com, 22.02.2011)
अलगाववादी नेताओं को छोड़कर वार्ताकार सरकार, राज्य प्रशासन, राजनीतिक पार्टियों, सामाजिक व धार्मिक संगठनों के प्रतिनिधियों से कई बार भेंट कर चुके हैं। इस दौरे से पहले वार्ताकारों ने अलगाववादियों से भेंट करने के लिए उन्हें लिखित निमंत्रण दिया है। इसी बीच जम्मू पहुंचे वार्ताकार दिलीप पडगांवकर, राधा कुमार व एमएम अंसारी ने राजभवन में डेढ़ घंटे तक राज्यपाल से बैठक कर समस्या के समाधान के लिए तैयार किए अपने खाके के बारे में बताया। वार्ताकार अपनी रिपोर्ट केंद्र सरकार को सौंपने से पहले अलगाववादियों का पक्ष जानने के लिए बहुत आतुर हैं।
राज्यपाल से मिलने से पहले वार्ताकारों ने दोपहर को मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला से भेंट कर उन्हें राज्य में जारी बातचीत की प्रक्रिया व विभिन्न विचारधारा के लोगों की आकांक्षाओं के बारे में बताया। इस दौरान अलगाववादियों के वार्ताकारों से दूरी बनाने के मसले पर भी चर्चा हुई।
शाम को वार्ताकारों ने गेस्ट हाउस में शिक्षाविद् प्रो. हरिओम के साथ उच्च शिक्षा विभाग के सचिव तनवीर जहान से भी भेंट की। इस दौरान प्रो. हरिओम ने स्पष्ट किया कि अगर बातचीत की आड़ में जम्मू कश्मीर में अलगाववाद व सांप्रदायिकता को शह देने की कोशिश की जा रही है तो यह बिलकुल गलत है।
वार्ताकार मंगलवार को राज्य के नवनियुक्त चीफ इन्फारमेशन कमिश्नर जीएम सूफी के साथ राज्य मानवाधिकार आयोग के वरिष्ठ पदाधिकारियों से भेंट करेंगे। केंद्र का दल गुलाम कश्मीर के रिफ्यूजियों से मिलने के लिए मंगलवार दोपहर को भौर कैंप भी जाएगा।
(Courtesy : www.jagran.com, 22.02.2011)
भीख मांग रहे गुलाम कश्मीर से आए हिंदू
कंचन शर्मा, जम्मू देश के बंटवारे की त्रासदी में सब कुछ लुटा कर गुलाम कश्मीर से भारत आये हजारों हिंदू शरणार्थी सरकारी उदासीनता के कारण आज भी गुरबत की जिंदगी जी रहे हैं। दशकों पहले सीमा पार से आए इन विस्थापितों में से तकरीबन 200 परिवार आज भी अखनूर में दरिया चिनाब के किनारे गंदे नाले के आसपास बनी बस्ती में भीख मांग कर गुजार-बसर करने को मजबूर हैं। बुजुर्ग और अधेड़ पुरुष और महिलाएं सुबह होते ही भीख मांगने चले जाते हैं। दुख की बात यह है कि छंब नियाबत के जिला मीरपुर की तहसील भिंबर के गांव बटाला में खानाबदोश जिंदगी जी रहे इन परिवारों पर अब बाजीगर होने का लेबल भी लग गया है। विभाजन के दौरान अपनी जान बचा कर आए ये परिवार अभी भी कच्ची मिट्टी से बनी टूटी-फूटी झोपडि़यों में रहने को मजबूर हैं। किसी ने अपनी मेहनत से एकाध पक्का कमरा जरूर बना लिया है। अधिकतर लोगों का आरोप है कि वह आज भी इस बस्ती में नरक भरा जीवन जी रहे हैं।
बस्ती में न तो कोई शौचालय है और न ही साफ-सफाई की व्यवस्था। बस्ती के मोहल्ला प्रधान बिट्टू राम का कहना है कि चुनाव के दिनों में तो सभी राजनेताओं को हमारी याद आती है। सुविधाएं मुहैया करवाने के बड़े-बड़े वादे भी किए जाते हैं, लेकिन इसके बाद नतीजा वही ढाक के तीन पात। सबसे बड़ी समस्या उनके स्टेट सब्जेक्ट की है क्योंकि उनका कहीं भी रिकार्ड मौजूद नहीं है। पीओजेके डीपी फ्रंट के प्रधान कैप्टन युद्धवीर सिंह का कहना है कि गुलाम-कश्मीर रिफ्यूजियों को हर संभव सहायता देने के दावों की पोल अखनूर की रिफ्यूजी बस्ती में रहने वाले ये लोग खोलते हैं जो अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए सुबह ही भीख मांगने के लिए निकल जाते हैं। हालांकि गुलाम मोहम्मद बख्शी नेतृत्व वाली सरकार ने इन रिफ्यूजियों के पंद्रह परिवारों को चार कनाल व सात मरले की जगह खसरा नं 688-263 के अंतर्गत अलॉट भी की थी, लेकिन उसके बाद किसी ने भी उनकी सुध नहीं ली।
(Courtesy : www.jagran.com, 22.02.2011)
बस्ती में न तो कोई शौचालय है और न ही साफ-सफाई की व्यवस्था। बस्ती के मोहल्ला प्रधान बिट्टू राम का कहना है कि चुनाव के दिनों में तो सभी राजनेताओं को हमारी याद आती है। सुविधाएं मुहैया करवाने के बड़े-बड़े वादे भी किए जाते हैं, लेकिन इसके बाद नतीजा वही ढाक के तीन पात। सबसे बड़ी समस्या उनके स्टेट सब्जेक्ट की है क्योंकि उनका कहीं भी रिकार्ड मौजूद नहीं है। पीओजेके डीपी फ्रंट के प्रधान कैप्टन युद्धवीर सिंह का कहना है कि गुलाम-कश्मीर रिफ्यूजियों को हर संभव सहायता देने के दावों की पोल अखनूर की रिफ्यूजी बस्ती में रहने वाले ये लोग खोलते हैं जो अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए सुबह ही भीख मांगने के लिए निकल जाते हैं। हालांकि गुलाम मोहम्मद बख्शी नेतृत्व वाली सरकार ने इन रिफ्यूजियों के पंद्रह परिवारों को चार कनाल व सात मरले की जगह खसरा नं 688-263 के अंतर्गत अलॉट भी की थी, लेकिन उसके बाद किसी ने भी उनकी सुध नहीं ली।
(Courtesy : www.jagran.com, 22.02.2011)
Saturday, February 19, 2011
Jammu and Kashmir defers police bill to seek public opinion
Feb 19 2011
Jammu : After a deluge of protests on social networking websites against the proposed Jammu and Kashmir Police Reforms Bill that was to be tabled in the budget session, the state government has deferred the move, an official said Saturday.
The bill will not be presented in the coming budget session of the state legislative assembly beginning Feb 28, government sources told IANS. "However, under the instructions of Chief Minister Omar Abdullah, it has been decided that the bill would be put on the website of the home department to invite public opinion," an official told IANS.
Abdullah is also the state home minister. According to sources, the police bill has wide ramifications for the population of the state, therefore, it has been decided to invite public comments before it is tabled in the legislature. The bill reportedly seeks to dilute the accountability of the police.
A draft of the bill would be put on the website and also published in newspapers within a week's time, the sources said. It may be recalled that there were adverse comments and calls for using Facebook, Twitter and other means to launch a campaign against the proposed bill. IANS was the first one to report it Friday.
(Courtesy : http://www.prokerala.com)
Jammu : After a deluge of protests on social networking websites against the proposed Jammu and Kashmir Police Reforms Bill that was to be tabled in the budget session, the state government has deferred the move, an official said Saturday.
The bill will not be presented in the coming budget session of the state legislative assembly beginning Feb 28, government sources told IANS. "However, under the instructions of Chief Minister Omar Abdullah, it has been decided that the bill would be put on the website of the home department to invite public opinion," an official told IANS.
Abdullah is also the state home minister. According to sources, the police bill has wide ramifications for the population of the state, therefore, it has been decided to invite public comments before it is tabled in the legislature. The bill reportedly seeks to dilute the accountability of the police.
A draft of the bill would be put on the website and also published in newspapers within a week's time, the sources said. It may be recalled that there were adverse comments and calls for using Facebook, Twitter and other means to launch a campaign against the proposed bill. IANS was the first one to report it Friday.
(Courtesy : http://www.prokerala.com)
Pakistan team to visit Jammu Sunday
Feb 19 2011
Jammu : Three Pakistani officials dealing with the Indus Water Treaty will arrive here Sunday to inspect the design and the site of a proposed artificial lake in Jammu. The lake is to be built by using the waters of river Tawi, a tributary of the Chenab, one of three rivers that flow from Jammu and Kashmir into Pakistan. The others are Jhelum and Indus.
Under the World Bank-brokered Indus Water Treaty of 1960, Pakistan can monitor the usage of the water of these rivers on the Indian side. According to official sources, the Pakistani team would be in Jammu for three days and examine all the records, the site of the proposed lake and the flow of river Tawi which passes through Jammu city.
(Courtesy : http://www.prokerala.com)
Jammu : Three Pakistani officials dealing with the Indus Water Treaty will arrive here Sunday to inspect the design and the site of a proposed artificial lake in Jammu. The lake is to be built by using the waters of river Tawi, a tributary of the Chenab, one of three rivers that flow from Jammu and Kashmir into Pakistan. The others are Jhelum and Indus.
Under the World Bank-brokered Indus Water Treaty of 1960, Pakistan can monitor the usage of the water of these rivers on the Indian side. According to official sources, the Pakistani team would be in Jammu for three days and examine all the records, the site of the proposed lake and the flow of river Tawi which passes through Jammu city.
(Courtesy : http://www.prokerala.com)
Pak violates ceasefire for the third time in 2011
TNN, Feb 18, 2011
JAMMU: In yet another incident of ceasefire violation along the Line of Control (LoC), Pak troops opened fire on Indian forward locations and used rocket projectile grenades (RPGs) in Poonch district of Jammu and Kashmir.
"Pak troops violated ceasefire. They fired indiscriminately on Indian posts in Balnoi forward area in Krishnaghati sector of Poonch district around 7.30pm on Thursday," said an Officer of the 16 Corps. He said the firing continued for five minutes. The Indian troops exercised restraint initially but later retaliated to the firing.
The Pakistani army fired some RPG rounds and used automatic weapons to target forward Indian posts in the KG sector, the officer said. He also added that the vigil along the LoC has been enhanced further as Pak firing may be a cover to push militants into the Indian side.
This is the third time that the Pak troops have violated the ceasefire in the Poonch sector. The first and the second incidents of ceasefire violation this year were reported on January 2 and January 13 in which an Indian Army soldier was injured in Pak firing in Shahpur area along the Line of Control (LoC) in Jammu and Kashmir's Poonch sector.
The ceasefire came into effect in November 2003 but Pakistan has violated it many times since then. Meanwhile, one army jawan was injured while he stepped on a landmine accidently in Nangi Tekri area in a forward location. The army jawan identified as Naik Satbir has been shifted to military hospital in Poonch.
(Courtesy : http://timesofindia.indiatimes.com)
JAMMU: In yet another incident of ceasefire violation along the Line of Control (LoC), Pak troops opened fire on Indian forward locations and used rocket projectile grenades (RPGs) in Poonch district of Jammu and Kashmir.
"Pak troops violated ceasefire. They fired indiscriminately on Indian posts in Balnoi forward area in Krishnaghati sector of Poonch district around 7.30pm on Thursday," said an Officer of the 16 Corps. He said the firing continued for five minutes. The Indian troops exercised restraint initially but later retaliated to the firing.
The Pakistani army fired some RPG rounds and used automatic weapons to target forward Indian posts in the KG sector, the officer said. He also added that the vigil along the LoC has been enhanced further as Pak firing may be a cover to push militants into the Indian side.
This is the third time that the Pak troops have violated the ceasefire in the Poonch sector. The first and the second incidents of ceasefire violation this year were reported on January 2 and January 13 in which an Indian Army soldier was injured in Pak firing in Shahpur area along the Line of Control (LoC) in Jammu and Kashmir's Poonch sector.
The ceasefire came into effect in November 2003 but Pakistan has violated it many times since then. Meanwhile, one army jawan was injured while he stepped on a landmine accidently in Nangi Tekri area in a forward location. The army jawan identified as Naik Satbir has been shifted to military hospital in Poonch.
(Courtesy : http://timesofindia.indiatimes.com)
Refugees from Pakistani Kashmir threaten to occupy flats
Jammu, Feb 18 (IANS) Protesting what it calls double standards towards refugees, an organisation of refugees from the Pakistan- administered Kashmir, SOS International, Friday threatened to occupy the residential blocks constructed for Kashmiri migrants.
More than 4,000 flats with all facilities have been constructed for Kashmiri migrants at Jagti, a town near Jammu, and the complex is likely to be inaugurated by Prime Minister Manmohan Singh during his forthcoming visit to Jammu early March.
Rajiv Chuni, chairman of SOS International, in a statement sought the allotment of the flats as per the ratio of population of refugees from across the Line of Control, which he claimed is 1.2 million, and Kashmiri migrants, who are about 200,000.
'Otherwise, we would be forced to occupy these flats,' he said.
Chuni alleged that the central and the state governments had been discriminating against refugees from Pakistan-administered Kashmir who are living in 79 camps for the past 63 years, while Kashmiri migrants were being given monthly relief, free ration and now residential flats.
'Why this discrimination?' he asked and pointed out: 'We are as much residents of Jammu and Kashmir as the migrants from the valley.'
Chuni termed it as an 'absurd' idea that the government would reclaim the territory of the state under the occupation of Pakistan and restore refugees to their homes in that part of Kashmir, while it was setting up residential colonies for migrants from the Kashmir Valley.
He said he suspected that this is being done to 'keep Kashmiri migrants permanently out of the valley and make them to stay permanently in Jammu.'
Although the refugees from Pakistan-administered Kashmir and migrants from Doda, Rajouri and hilly parts of Udhampur have been demanding the facilities being extended to Kashmiri migrants, nothing has been done to bridge the gap, he noted.
(Courtesy : http://www.sify.com)
More than 4,000 flats with all facilities have been constructed for Kashmiri migrants at Jagti, a town near Jammu, and the complex is likely to be inaugurated by Prime Minister Manmohan Singh during his forthcoming visit to Jammu early March.
Rajiv Chuni, chairman of SOS International, in a statement sought the allotment of the flats as per the ratio of population of refugees from across the Line of Control, which he claimed is 1.2 million, and Kashmiri migrants, who are about 200,000.
'Otherwise, we would be forced to occupy these flats,' he said.
Chuni alleged that the central and the state governments had been discriminating against refugees from Pakistan-administered Kashmir who are living in 79 camps for the past 63 years, while Kashmiri migrants were being given monthly relief, free ration and now residential flats.
'Why this discrimination?' he asked and pointed out: 'We are as much residents of Jammu and Kashmir as the migrants from the valley.'
Chuni termed it as an 'absurd' idea that the government would reclaim the territory of the state under the occupation of Pakistan and restore refugees to their homes in that part of Kashmir, while it was setting up residential colonies for migrants from the Kashmir Valley.
He said he suspected that this is being done to 'keep Kashmiri migrants permanently out of the valley and make them to stay permanently in Jammu.'
Although the refugees from Pakistan-administered Kashmir and migrants from Doda, Rajouri and hilly parts of Udhampur have been demanding the facilities being extended to Kashmiri migrants, nothing has been done to bridge the gap, he noted.
(Courtesy : http://www.sify.com)
AK Antony's statement on revoking J&K armed forces act unfortunate: PDP
Feb 18, 2011
Srinagar : Opposition PDP today termed "unfortunate" the statement of defence minister AK Antony about revocation of Armed Forces Special Powers Act (AFSPA) from the state, saying Kashmiris cannot be held hostageto "unilateral opinion" of security agencies.
"Security forces have done their job in the civilian domain of the state and it was time to relieve them of this additional burden," party president Mehbooba Mufti said in a statement today.
The union defence minister had yesterday dismissed demands for the withdrawal of AFSPA from Jammu and Kashmir, saying infiltration attempts were still continuing and militants could not be given any "opportunity to succeed".
Mehbooba said the AFSPA was enacted at a time when the state was "bristling with armed fighters", whereas all government agencies are now unanimous that only a few hundred militants are operating in the state.
"Nothing could be more unfortunate and antithetical to our democratic system than Antony's rejection of even a public debate on this subject of life and death for residents of the state," she said. The PDP leader said the civil society and democratic institutions must be strengthened to take care of the daily lives of people.
"Forces must take care of borders only," she said. Mehbooba said Chinese incursions in Ladakh were going "unchallenged" even as the defence minister has expressed apprehensions on continued attempts at infiltration.
(Courtesy : http://www.dnaindia.com)
Srinagar : Opposition PDP today termed "unfortunate" the statement of defence minister AK Antony about revocation of Armed Forces Special Powers Act (AFSPA) from the state, saying Kashmiris cannot be held hostageto "unilateral opinion" of security agencies.
"Security forces have done their job in the civilian domain of the state and it was time to relieve them of this additional burden," party president Mehbooba Mufti said in a statement today.
The union defence minister had yesterday dismissed demands for the withdrawal of AFSPA from Jammu and Kashmir, saying infiltration attempts were still continuing and militants could not be given any "opportunity to succeed".
Mehbooba said the AFSPA was enacted at a time when the state was "bristling with armed fighters", whereas all government agencies are now unanimous that only a few hundred militants are operating in the state.
"Nothing could be more unfortunate and antithetical to our democratic system than Antony's rejection of even a public debate on this subject of life and death for residents of the state," she said. The PDP leader said the civil society and democratic institutions must be strengthened to take care of the daily lives of people.
"Forces must take care of borders only," she said. Mehbooba said Chinese incursions in Ladakh were going "unchallenged" even as the defence minister has expressed apprehensions on continued attempts at infiltration.
(Courtesy : http://www.dnaindia.com)
Pak troops fire on Indian posts along LoC
Press Trust Of India
Jammu, February 18, 2011
In an incident of ceasefire violation along the LoC, Pakistani troops today opened fire on Indian posts and launched Rocket Projectile Grenades (RPGs) in Poonch district of Jammu and Kashmir. "Pak troops violated ceasefire.
They fired RPGs and opened indiscriminate firing on Indian posts in Balnoi forward area in Krishnaghati sector of Poonch district around 1930 hours tonight," a senior Army Officer of 16 Corps said. They continued indiscriminate firing for five minutes, he said, adding, Indian troops retaliated to the act.
"It later stopped. There was no casualty or injury to anyone in the Pakistani firing and grenade attacks," he said. Indian Army has registered a strong protest with their Pakistani counterpart over ceasefire violation via hotline, the officer added.
(Courtesy : http://www.hindustantimes.com)
Jammu, February 18, 2011
In an incident of ceasefire violation along the LoC, Pakistani troops today opened fire on Indian posts and launched Rocket Projectile Grenades (RPGs) in Poonch district of Jammu and Kashmir. "Pak troops violated ceasefire.
They fired RPGs and opened indiscriminate firing on Indian posts in Balnoi forward area in Krishnaghati sector of Poonch district around 1930 hours tonight," a senior Army Officer of 16 Corps said. They continued indiscriminate firing for five minutes, he said, adding, Indian troops retaliated to the act.
"It later stopped. There was no casualty or injury to anyone in the Pakistani firing and grenade attacks," he said. Indian Army has registered a strong protest with their Pakistani counterpart over ceasefire violation via hotline, the officer added.
(Courtesy : http://www.hindustantimes.com)
Thursday, February 17, 2011
पीडीपी के नए पैंतरे के खतरे
विष्णु गुप्त
पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी यानी पीडीपी जैसी राष्ट्रविरोधी राजनीतिक प्रक्रिया का दमन क्यों नही होना चाहिए? क्या भारतीय सत्ता पीडीपी की राष्ट्रविराधी हरकतों पर अंकुश लगाएगी? अगर नहीं तो फिर भारतीय संप्रभुता इसी तरह लहूलुहान और संकटग्रस्त होती रहेगी? इसका लाभ दुश्मन देश उठाते रहेंगे और हम अपने दुश्मन देश के नापाक इरादों और साजिशों का शिकार होते रहेंगे। भारतीय सत्ता की उदासीनता और कमजोरी का परिणाम ही है कि परहित साधने और परसंप्रभुता को खुश करने की मानसिकता लहलहाती है। पीडीपी की राष्ट्रविरोधी प्रक्रिया पर हमें आइएसआइ-पाकिस्तान की साजिशों को पूरी तरह खंगालना होगा। पीडीपी की पृष्ठभूमि और इसके एजेंडे को देखते हुए कहा जा सकता है कि यह पार्टी आइएसआइ और पाकिस्तान की मोहरा है। कश्मीर पर अंतरराष्ट्रीय दबाव कायम कराना पाकिस्तान की कूटनीति रही है। पीडीपी की यह कोई पहली राष्ट्रविरोधी हरकत नहीं है। पीडीपी ने देश के अविभाज्य अंग की महत्वपूर्ण चोटियों और भूभाग को चीन और पाकिस्तान का अंग दिखा दिया। पीडीपी के अध्यक्ष मुफ्ती मोहम्मद सईद और उनकी बेटी महबूबा सईद की पूरी राजनीतिक संरचना और मानसिकता भारत विरोधी है। देश का नेतृत्व करने वाली पार्टी कांग्रेस की उदासीनता की वजह से पीडीपी की राष्ट्रविरोधी हरकतों को प्रोत्साहन मिलता है। यकीन मान लीजिए, अगर इन बाप-बेटी पर भारतीय कानूनों का सोटा चलता तो इनकी राष्ट्रविरेाधी हरकतों हदें नहीं पार करती। जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और भारतीय संसद ने चीन और पाकिस्तान द्वारा अतिक्रमण किए गए जम्मू-कश्मीर के हिस्से को वापस लेने का संकल्प दर्शाया था। इसलिए भारतीय सत्ता को कर्तव्यबोध होना चाहिए कि इस तरह की राष्ट्रविरोधी हरकतें हमारी संप्रभुता को न केवल संकट में डालती हैं, बल्कि इससे दुश्मन देशों के मंसूबों को भी खाद-पानी मिलता है। जाहिर तौर पर चीन और पाकिस्तान हमारे दुश्मन देश हैं और दोनों देशों ने सामरिक रूप से महत्वपूर्ण हमारी चोटियों और भूभाग पर गैरकानूनी कब्जा कर रखा है। राष्ट की एकता और अखंडता को अक्षुण्ण रखने के लिए जरूरी है कि परराष्ट्रहित साधने वाली नीतियों पर कानून का बुलडोजर चले और सीमाओं पर हमारी सेना दबावरहित होकर अपनी भूमिका निभा सके।
जम्मू-कश्मीर के प्रसंग में यह कहना सही होगा कि भारतीय सत्ता की उदासीनता और गंभीर नीतियों के अभाव में आतंकवादी संगठन और इसके समर्थक पाकिस्तान के मंसूबों को पूरा करते हैं। पाकिस्तान कभी भी शांति का समर्थक हो ही नही सकता है। उसकी पूरी सक्रियता और संरचना भारत विरोधी है। इस यथार्थ को समझने की हमने कभी कोशिश ही नहीं की है। जहां तक चीन का सवाल है तो उसने न सिर्फ जम्मू-कश्मीर, बल्कि पूर्वोत्तर क्षेत्र में हमारे सामरिक भूभागों पर कब्जे करने की कुदृष्टि लगाई हुई है। सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश पर वह हमेशा अपना अधिकार जताता रहता है। पीडीपी और महबूबा जैसों की पैंतरेबाजी से सबसे ज्यादा चीन और पाकिस्तान का ही हित सधेगा। पीडीपी की इस हरकत का यथार्थ क्या है? इस प्रश्न का जवाब भी ढूढ़ना चाहिए कि आखिर भारतीय कश्मीर के महत्वपूर्ण भूभागों को पाकिस्तान और चीन का हिस्सा बताने की जरूरत क्यों पड़ी? क्या इसमें आइएसआइ की कोई भूमिका है? क्या पीडीपी फिर से जम्मू-कश्मीर की राजनीति में उफान पैदा करना और आतंक को फिर से बल देना चाहती है? सही तो यह है कि पीडीपी जैसी राष्ट्रविरोधी राजनीतिक संरचना और सक्रियता का यथार्थ से परे कोई कदम हो ही नहीं सकता है। इस तथ्य पर भी हमें गौर करने की जरूरत है कि जम्मू-कश्मीर की सत्ता से दूर होने के बाद पीडीपी की कोई अहमियत नहीं रही। जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस के सत्ता आने के साथ ही पीडीपी व मुफ्ती मोहम्मद सईद और महबूबा मुफ्ती की हैसियत घट गई। उनकी नीतियों से जम्मू-कश्मीर की जनता भी असहमत हुई है और उफान की राजनीति से तौबा करने लगी है। पीडीपी का आधार सीमावर्ती भूभाग तक ही सिमट कर रह गया है। भारतीय सत्ता ने कश्मीर की समस्या के लिए जो मैप तैयार किया है और जिस नीति पर चलकर भारतीय सत्ता घाटी के लोगों का विश्वास जीतना चाहती है, उसमें भी पीडीपी की निर्णायक भूमिका नहीं है।
घाटी की समस्या का समाधान करने के लिए वातावरण तैयार करने और सलाह देने के लिए नियुक्त वार्ताकार जम्मू-कश्मीर की संपूर्ण राजनीतिक-सामाजिक प्रक्रिया को कसौटी पर रखकर चल रहे हैं। इस कारण जम्मू-कश्मीर में सकारात्मक वातावरण भी तैयार हुआ है। ऐसे में पीडीपी खुद को राजनीतिक रूप से अलग-थलग मान रही है और वह इस नीति पल चल पड़ी है कि कश्मीर पर कोई भी निर्णय लेने के पहले पीडीपी की अहमियत स्वीकार की जाए तथा उसकी राजनीतिक शक्ति को सम्मान दिया जाए। फारुख अब्दुल्ला परिवार के प्रति जम्मू-कश्मीर की जनता विशेष लगाव रखती है। फारुख अब्दुल्ला के बाद उनके बेटे उमर अब्दुल्ला ने राज्य के अन्य राजनीतिक दलों की शक्तिविहीन करने और उन्हें आवाम की ताकत से अलग करने में भूमिका निभाई है। हालांकि राज्य के अन्य राजनीतिक दलों को कमजोर करने के लिए उमर अब्दुल्ला भी अपने बयानों व नीतियों में राष्ट्र की संप्रभुता के प्रतिकूल प्रक्रिया चलाते रहे हैं। पत्थरबाजी के पीछे भी पीडीपी का हाथ था। पत्थरबाजी में पीडीपी के कई पार्टी पदाधिकारी गिरफ्तार हुए हैं, पर यह सही है कि मुफ्ती मोहम्मद सईद और महबूबा यह कहते रहे हैं कि उन्होंने पत्थरबाजी को हवा नहीं दिए हैं। पत्थरबाजी आतंकवादी संगठनों की एक खूनी और उफान वाली राजनीतिक साजिश थी। इस साजिश की नींव भी आयातित थी। बेशक आइएसआइ ने घाटी में पत्थरबाजी को हथियार बनाया था।
आइएसआइ के मंसूबों को पूरा करने में पीडीपी की ताकत लगी हुई थी। पत्थरबाजी ने घाटी में कैसे हालात पैदा किए थे, यह भी जगजाहिर है। इसके लिए आतंकवादी संगठनों ने हथियार की जगह करेंसी खर्च किए थे। करोड़ों रुपये बांटकर पत्थरबाजी को खतरनाक स्थिति में पहुंचाया और भारतीय सत्ता पर आरोप मढे़ गए। कहा गया कि घाटी में भारतीय सेना निर्दोष जनता का खून बहा रही है, जबकि असलियत यह थी कि भारतीय सेना ने कठिन परिस्थितियों में भी पत्थरबाजों से धैर्य और अहिंसक ढंग से काम लिया था। फिर भी भारतीय सेना को बदनाम करने के लिए राजनीतिक साजिश रची गई। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत और भारतीय सेना की छवि खराब की गई। मुस्लिम देशों के संगठनों ने कश्मीर में भारतीय सेना को मुस्लिम समुदाय का संहार करने जैसे आरोप भी लगाए। इसका परिणाम यह हुआ कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मिथ्या प्रचारों से भारतीय सत्ता प्रभावित हो गई और आतंकवादी संगठनों के नापाक मंसूबों के जाल में फंस गई। बहरहाल, आइएसआइ और पाकिस्तान की पूरी कूटनीति और मंसूबों को समझा जाना चाहिए।
भारत और पाकिस्तान के बीच संपूर्ण वार्ता का दौर जारी है। अटकी हुई वार्ताएं फिर से शुरू हो चुकी हैं। भारत और पाकिस्तान के विदेश सचिव संपूर्ण वार्ता का एक पड़ाव हाल ही में तय कर चुके हैं। आइएसआइ की चाल यह हो सकती है कि वार्ता में भारत का पक्ष कमजोर करने और भारत की कूटनीतिक घेरेबंदी के लिए कश्मीर में भारत विरोधी भावनाएं भड़काई जाएं। ऐसा राजनीतिक माहौल बनाया जाए कि आवाम को लगे कि कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं है। इससे पाकिस्तान के पक्ष को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समर्थन मिलेगा। विडंबना है कि भारतीय लोकतंत्र की खूबियों के चलते सत्ता की मलाई खा चुकी पीडीपी पाकिस्तान और आइएसआइ के सुर में सुर मिला रही है। चीन और पाकिस्तान की जुगलबंदी से हमारी संप्रभुता लहूलुहान होती रही है। 1962 में चीन ने हमला कर हमारी लाखों एकड़ भूमि हथिया ली है। पाकिस्तान ने गुलाम कश्मीर का एक बड़ा भूभाग चीन को सौंप दिया है। पीडीपी की इस राजनीतिक साजिश से चीन और पाकिस्तान की खुशी ही बढ़ी होगी। भारतीय सत्ता को पीडीपी जैसे राष्ट्रविरोधी दलों और तत्वों का दमन करना होगा।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
(Courtesy : दैनिक जागरण, राष्ट्रीय संस्करण, 17 फरवरी 2011)
पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी यानी पीडीपी जैसी राष्ट्रविरोधी राजनीतिक प्रक्रिया का दमन क्यों नही होना चाहिए? क्या भारतीय सत्ता पीडीपी की राष्ट्रविराधी हरकतों पर अंकुश लगाएगी? अगर नहीं तो फिर भारतीय संप्रभुता इसी तरह लहूलुहान और संकटग्रस्त होती रहेगी? इसका लाभ दुश्मन देश उठाते रहेंगे और हम अपने दुश्मन देश के नापाक इरादों और साजिशों का शिकार होते रहेंगे। भारतीय सत्ता की उदासीनता और कमजोरी का परिणाम ही है कि परहित साधने और परसंप्रभुता को खुश करने की मानसिकता लहलहाती है। पीडीपी की राष्ट्रविरोधी प्रक्रिया पर हमें आइएसआइ-पाकिस्तान की साजिशों को पूरी तरह खंगालना होगा। पीडीपी की पृष्ठभूमि और इसके एजेंडे को देखते हुए कहा जा सकता है कि यह पार्टी आइएसआइ और पाकिस्तान की मोहरा है। कश्मीर पर अंतरराष्ट्रीय दबाव कायम कराना पाकिस्तान की कूटनीति रही है। पीडीपी की यह कोई पहली राष्ट्रविरोधी हरकत नहीं है। पीडीपी ने देश के अविभाज्य अंग की महत्वपूर्ण चोटियों और भूभाग को चीन और पाकिस्तान का अंग दिखा दिया। पीडीपी के अध्यक्ष मुफ्ती मोहम्मद सईद और उनकी बेटी महबूबा सईद की पूरी राजनीतिक संरचना और मानसिकता भारत विरोधी है। देश का नेतृत्व करने वाली पार्टी कांग्रेस की उदासीनता की वजह से पीडीपी की राष्ट्रविरोधी हरकतों को प्रोत्साहन मिलता है। यकीन मान लीजिए, अगर इन बाप-बेटी पर भारतीय कानूनों का सोटा चलता तो इनकी राष्ट्रविरेाधी हरकतों हदें नहीं पार करती। जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और भारतीय संसद ने चीन और पाकिस्तान द्वारा अतिक्रमण किए गए जम्मू-कश्मीर के हिस्से को वापस लेने का संकल्प दर्शाया था। इसलिए भारतीय सत्ता को कर्तव्यबोध होना चाहिए कि इस तरह की राष्ट्रविरोधी हरकतें हमारी संप्रभुता को न केवल संकट में डालती हैं, बल्कि इससे दुश्मन देशों के मंसूबों को भी खाद-पानी मिलता है। जाहिर तौर पर चीन और पाकिस्तान हमारे दुश्मन देश हैं और दोनों देशों ने सामरिक रूप से महत्वपूर्ण हमारी चोटियों और भूभाग पर गैरकानूनी कब्जा कर रखा है। राष्ट की एकता और अखंडता को अक्षुण्ण रखने के लिए जरूरी है कि परराष्ट्रहित साधने वाली नीतियों पर कानून का बुलडोजर चले और सीमाओं पर हमारी सेना दबावरहित होकर अपनी भूमिका निभा सके।
जम्मू-कश्मीर के प्रसंग में यह कहना सही होगा कि भारतीय सत्ता की उदासीनता और गंभीर नीतियों के अभाव में आतंकवादी संगठन और इसके समर्थक पाकिस्तान के मंसूबों को पूरा करते हैं। पाकिस्तान कभी भी शांति का समर्थक हो ही नही सकता है। उसकी पूरी सक्रियता और संरचना भारत विरोधी है। इस यथार्थ को समझने की हमने कभी कोशिश ही नहीं की है। जहां तक चीन का सवाल है तो उसने न सिर्फ जम्मू-कश्मीर, बल्कि पूर्वोत्तर क्षेत्र में हमारे सामरिक भूभागों पर कब्जे करने की कुदृष्टि लगाई हुई है। सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश पर वह हमेशा अपना अधिकार जताता रहता है। पीडीपी और महबूबा जैसों की पैंतरेबाजी से सबसे ज्यादा चीन और पाकिस्तान का ही हित सधेगा। पीडीपी की इस हरकत का यथार्थ क्या है? इस प्रश्न का जवाब भी ढूढ़ना चाहिए कि आखिर भारतीय कश्मीर के महत्वपूर्ण भूभागों को पाकिस्तान और चीन का हिस्सा बताने की जरूरत क्यों पड़ी? क्या इसमें आइएसआइ की कोई भूमिका है? क्या पीडीपी फिर से जम्मू-कश्मीर की राजनीति में उफान पैदा करना और आतंक को फिर से बल देना चाहती है? सही तो यह है कि पीडीपी जैसी राष्ट्रविरोधी राजनीतिक संरचना और सक्रियता का यथार्थ से परे कोई कदम हो ही नहीं सकता है। इस तथ्य पर भी हमें गौर करने की जरूरत है कि जम्मू-कश्मीर की सत्ता से दूर होने के बाद पीडीपी की कोई अहमियत नहीं रही। जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस के सत्ता आने के साथ ही पीडीपी व मुफ्ती मोहम्मद सईद और महबूबा मुफ्ती की हैसियत घट गई। उनकी नीतियों से जम्मू-कश्मीर की जनता भी असहमत हुई है और उफान की राजनीति से तौबा करने लगी है। पीडीपी का आधार सीमावर्ती भूभाग तक ही सिमट कर रह गया है। भारतीय सत्ता ने कश्मीर की समस्या के लिए जो मैप तैयार किया है और जिस नीति पर चलकर भारतीय सत्ता घाटी के लोगों का विश्वास जीतना चाहती है, उसमें भी पीडीपी की निर्णायक भूमिका नहीं है।
घाटी की समस्या का समाधान करने के लिए वातावरण तैयार करने और सलाह देने के लिए नियुक्त वार्ताकार जम्मू-कश्मीर की संपूर्ण राजनीतिक-सामाजिक प्रक्रिया को कसौटी पर रखकर चल रहे हैं। इस कारण जम्मू-कश्मीर में सकारात्मक वातावरण भी तैयार हुआ है। ऐसे में पीडीपी खुद को राजनीतिक रूप से अलग-थलग मान रही है और वह इस नीति पल चल पड़ी है कि कश्मीर पर कोई भी निर्णय लेने के पहले पीडीपी की अहमियत स्वीकार की जाए तथा उसकी राजनीतिक शक्ति को सम्मान दिया जाए। फारुख अब्दुल्ला परिवार के प्रति जम्मू-कश्मीर की जनता विशेष लगाव रखती है। फारुख अब्दुल्ला के बाद उनके बेटे उमर अब्दुल्ला ने राज्य के अन्य राजनीतिक दलों की शक्तिविहीन करने और उन्हें आवाम की ताकत से अलग करने में भूमिका निभाई है। हालांकि राज्य के अन्य राजनीतिक दलों को कमजोर करने के लिए उमर अब्दुल्ला भी अपने बयानों व नीतियों में राष्ट्र की संप्रभुता के प्रतिकूल प्रक्रिया चलाते रहे हैं। पत्थरबाजी के पीछे भी पीडीपी का हाथ था। पत्थरबाजी में पीडीपी के कई पार्टी पदाधिकारी गिरफ्तार हुए हैं, पर यह सही है कि मुफ्ती मोहम्मद सईद और महबूबा यह कहते रहे हैं कि उन्होंने पत्थरबाजी को हवा नहीं दिए हैं। पत्थरबाजी आतंकवादी संगठनों की एक खूनी और उफान वाली राजनीतिक साजिश थी। इस साजिश की नींव भी आयातित थी। बेशक आइएसआइ ने घाटी में पत्थरबाजी को हथियार बनाया था।
आइएसआइ के मंसूबों को पूरा करने में पीडीपी की ताकत लगी हुई थी। पत्थरबाजी ने घाटी में कैसे हालात पैदा किए थे, यह भी जगजाहिर है। इसके लिए आतंकवादी संगठनों ने हथियार की जगह करेंसी खर्च किए थे। करोड़ों रुपये बांटकर पत्थरबाजी को खतरनाक स्थिति में पहुंचाया और भारतीय सत्ता पर आरोप मढे़ गए। कहा गया कि घाटी में भारतीय सेना निर्दोष जनता का खून बहा रही है, जबकि असलियत यह थी कि भारतीय सेना ने कठिन परिस्थितियों में भी पत्थरबाजों से धैर्य और अहिंसक ढंग से काम लिया था। फिर भी भारतीय सेना को बदनाम करने के लिए राजनीतिक साजिश रची गई। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत और भारतीय सेना की छवि खराब की गई। मुस्लिम देशों के संगठनों ने कश्मीर में भारतीय सेना को मुस्लिम समुदाय का संहार करने जैसे आरोप भी लगाए। इसका परिणाम यह हुआ कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मिथ्या प्रचारों से भारतीय सत्ता प्रभावित हो गई और आतंकवादी संगठनों के नापाक मंसूबों के जाल में फंस गई। बहरहाल, आइएसआइ और पाकिस्तान की पूरी कूटनीति और मंसूबों को समझा जाना चाहिए।
भारत और पाकिस्तान के बीच संपूर्ण वार्ता का दौर जारी है। अटकी हुई वार्ताएं फिर से शुरू हो चुकी हैं। भारत और पाकिस्तान के विदेश सचिव संपूर्ण वार्ता का एक पड़ाव हाल ही में तय कर चुके हैं। आइएसआइ की चाल यह हो सकती है कि वार्ता में भारत का पक्ष कमजोर करने और भारत की कूटनीतिक घेरेबंदी के लिए कश्मीर में भारत विरोधी भावनाएं भड़काई जाएं। ऐसा राजनीतिक माहौल बनाया जाए कि आवाम को लगे कि कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं है। इससे पाकिस्तान के पक्ष को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समर्थन मिलेगा। विडंबना है कि भारतीय लोकतंत्र की खूबियों के चलते सत्ता की मलाई खा चुकी पीडीपी पाकिस्तान और आइएसआइ के सुर में सुर मिला रही है। चीन और पाकिस्तान की जुगलबंदी से हमारी संप्रभुता लहूलुहान होती रही है। 1962 में चीन ने हमला कर हमारी लाखों एकड़ भूमि हथिया ली है। पाकिस्तान ने गुलाम कश्मीर का एक बड़ा भूभाग चीन को सौंप दिया है। पीडीपी की इस राजनीतिक साजिश से चीन और पाकिस्तान की खुशी ही बढ़ी होगी। भारतीय सत्ता को पीडीपी जैसे राष्ट्रविरोधी दलों और तत्वों का दमन करना होगा।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
(Courtesy : दैनिक जागरण, राष्ट्रीय संस्करण, 17 फरवरी 2011)
Monday, February 14, 2011
जम्मू के भेदभाव को कब समझेंगे मनमोहन
बालमुकुन्द द्विवेदी
जम्मू-कश्मीर रियासत का भारत में विलय 26 अक्तूबर 1947 को हुआ था, वह आज के वर्तमान भारत द्वारा शासित जम्मू-कश्मीर राज्य से कहीं अधिक था। यहाँ के महाराजा हरिसिंह ने भारत वर्ष में जम्मू-कश्मीर का विलय उसी वैधानिक विलय पत्र के आधार पर किया, जिनके आधार पर शेष सभी रजवाड़ों का भारत में विलय हुआ था। वर्तमान परिस्थति के अनुसार जम्मू-कश्मीर रियासत के निम्न हिस्सें हैं । जिनमें से जम्मू का क्षेत्रफल कुल 36315 वर्ग कि.मी. है जिसमें से आज हमारे पास लगभग 26 हजार वर्ग कि.मी. है। वर्तमान में अधिकांश जनसंख्या मुसलमानों की है, लगभग 4 लाख हिन्दू वर्तमान में कश्मीर घाटी से विस्थापित हैं।
पिछले 63 वर्षों से पूरा क्षेत्र विस्थापन की मार झेल रहा है। आज जम्मू क्षेत्र की लगभग 60 लाख जनसंख्या है जिसमें 42 लाख हिन्दुओं में लगभग 15 लाख विस्थापित समाज है। समान अधिकार एवं समान अवसर का आश्वासन देने वाले भारत के संविधान के लागू होने के 60 वर्ष पश्चात भी ये विस्थापित अपना जुर्म पूछ रहे हैं, उनकी तड़प है कि हमें और कितने दिन गुलामों एवं भिखारियों का जीवन जीना है। पाक अधिकृत जम्मू-कश्मीर से 1947 में लगभग 50 हजार परिवार विस्थापित होकर आये, आज यह संख्या लगभग 12 लाख है, जो पूरे देश में बिखरे हुये हैं। जम्मू क्षेत्र में इनकी संख्या लगभग 8 लाख है।
जम्मू क्षेत्र के 26 हजार वर्ग कि.मी. क्षेत्र में 2002 की गणनानुसार 30,59,986 मतदाता थे। आज भी 2/3 क्षेत्र पहाड़ी, दुष्कर और सड़क संपर्क से कटा हुआ है, इसके बाद भी यहाँ 37 विधानसभा व 2 लोकसभा क्षेत्र हैं। जबकि उसी समय कश्मीर घाटी में 15953 वर्ग किमी. क्षेत्रफल में 29 लाख मतदाता हैं। यहाँ का अधिकांश भाग मैदानी क्षेत्र एवं पूरी तरह से एक-दूसरे से जुडा है, पर विधानसभा में 47 प्रतिनिधि एवं लोकसभा में तीन क्षेत्र हैं। 2008 में राज्य को प्रति व्यक्ति केन्द्रीय सहायता 9754 रूपये थी और बिहार जैसे पिछड़े राज्य को 876 रूपये प्रति व्यक्ति थी। इसमें से 90 प्रतिशत अनुदान होता है और 10 प्रतिशत वापिस करना होता है, जबकि शेष राज्य को तो 70 प्रतिशत वापिस करना होता है।
जनसंख्या में धांधली – 2001 की जनगणना में कश्मीर घाटी की जनसंख्या 54,76,970 दिखाई गई, जबकि वोटर 29 लाख थे और जम्मू क्षेत्र की जनसंख्या 44,30,191 दिखाई गई जबकि वोटर 30.59 लाख हैं।
उच्च शिक्षा में धांधली – उच्च शिक्षा में भी यहाँ धांधली है, आतंकवाद के कारण कश्मीर घाटी की शिक्षा व्यवस्था चरमरा गई, पर प्रतियोगी परीक्षाओं में उनका सफलता का प्रतिशत बढ़ता है। मेडिकल की पढ़ाई के लिए एमबीबीएस दाखिलों में जम्मू का 1990 में 60 प्रतिशत हिस्सा था जो 1995 से 2010 के बीच घटकर, हर बार 17-21 प्रतिशत रह गया है। सामान्य श्रेणी में तो यह प्रतिशत 10 से भी कम है।
जम्मू-कश्मीर में आंदोलन-संभावनायें – 2005-2006 में अपनी मुस्लिमवोट की राजनीति और अंतर्राष्ट्रीय दबाव में मनमोहन सरकार ने पाकिस्तान से गुपचुप वार्ता प्रारंभ की। इसका खुलासा करते हुये पिछले दिनों लंदन में मुशर्रफ ने कहा कि टन्ेक्रा कूटनीति में हम एक समझौते पर पहुँच गये थे। वास्वत में परवेज, कियानी -मुशर्रफ की जोड़ी एवं मनमोहन सिंह के नेतृत्व में दोनों पक्ष एक निर्णायक समझौते पर पहुँच गये थे। परस्पर सहमति का आधार था, नियंत्रण रेखा (एलओसी) को ही अंतर्राष्ट्रीय सीमा मान लेना। बंधन एवं नियंत्रण युक्त सीमा, विसैन्यीकरण, सांझा नियंत्रण, अधिकतम स्वायत्ताता (दोनों क्षेत्रों को) इस सहमति को क्रियान्वित करते हुये, कुछ निर्णय दोनो देशों द्वारा लागू किये गये -1. पाकिस्तान ने उत्तरी क्षेत्रों (गिलगित-बाल्टिस्तान) का विलय पाकिस्तान में कर अपना प्रांत घोषित कर दिया। वहां चुनी हुई विधानसभा, पाकिस्तान द्वारा नियुक्त राज्यपाल आदि व्यवस्था लागू हो गई। कुल पाक अधिकृत जम्मू-कश्मीर का यह 65,000 वर्ग कि.मी. क्षेत्रफल है। भारत ने केवल प्रतीकात्मक विरोध किया और इन विषयों को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर उठाकर पाकिस्तान को अलग-थलग करने की कोई कोशिश नहीं की। 2. भारत ने जम्मू-कश्मीर में 30 हजार सैन्य बल एवं 10 हजार अर्धसैनिक बलों की कटौती की घोषणा की। 3. दो क्षेत्रों में परस्पर आवागमन के लिये पाँच मार्ग प्रारंभ किये गये, जिन पर राज्य के नागरिकों के लिए वीजा आदि की व्यवस्था समाप्त कर दी गई। 4. कर मुक्त व्यापार दो स्थानों पर प्रारंभ किया गया। पहली बार 60 वर्षों में जम्मू-कश्मीर के इतिहास में प्रदेश के सभी राजनैतिक दलों और सामाजिक समूहों को साथ लेकर स्थायी समाधान का प्रयास किया गया और विभिन्न विषयों पर विचार करने के लिये पाँच कार्य समूहों की घोषणा की गई। इन कार्यसमूहों में तीनों क्षेत्रों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व था, हर समूह में सामाजिक नेतृत्व भाजपा, पैंथर्स, जम्मू स्टेट र्मोर्चा और शरणार्थी नेता भी थे। 24 अप्रैल 2007 को दिल्ली में आयोजित तीसरे गोलमेज सम्मेलन में जब 4 कार्यसमूहों ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की तो सभी जम्मू, लध्दााख के उपस्थित नेता व शरणार्थी नेता हैरान रह गये कि उनके सुझावों एवं मुद्दों पर कोई अनुशंसा नहीं की गई। उपस्थित कश्मीर के नेताओं ने तुरंत सभी अनुशंसाओं का समर्थन कर लागू करने की माँग की, क्योंकि यह उनकी इच्छाओं एवं आकांक्षाओं के अनुसार था। कार्य समूहों इन रिर्पोटों से यह स्पष्ट हो गया कि अलगाववादी, आतंकवादी समूहों और उनके आकाओं से जो समझौते पहले से हो चुके थे, उन्हीं को वैधानिकता की चादर ओढ़ाने के लिए ये सब नाटक किये गये थे।
बैठक के अंत में गृहमंत्री शिवराज पाटिल ने पहले से तैयार वक्तव्य हस्ताक्षर के लिए प्रस्तुत किया, जिसमें केन्द्र सरकार से इन समूहों की रिपोर्टों को लागू करने के लिए उपस्थित सभी प्रतिनिधियों द्वारा आग्रह किया गया था। भाजपा, पैंथर्स, बसपा, लद्दाख यूटी फ्रंट, पनुन कश्मीर एवं अनेक सामाजिक नेताओं ने यह दो टूक कहा कि यह सारी घोषणाएं उनको प्रसन्न करने के लिए हैं, जो भारत राष्ट्र को खंडित एवं नष्ट करने में जुटी हुई हैं। यह भारत विरोधी, जम्मू-लद्दाख के देशभक्तों को कमजोर करने वाली, पीओके, पश्चिम पाक शरणार्थी विरोधी एवं कश्मीर के देशभक्त समाज की भावनाओं एवं आकांक्षाओं को चोट पहुँचाने वाली हैं। बाद में सगीर अहमद के नेतृत्व वाले पाँचवे समूह ने अचानक नवम्बर 2009 में अपनी रिपोर्ट दी तो यह और पक्का हो गया कि केन्द्र राज्य के संबंध की पुर्नरचना का निर्णय पहले से ही हुआ था। रिपोर्ट प्रस्तुत करने से पहले संबंधित सदस्यों को ही विश्वास में नहीं लिया गया। इन पाँच समूहों की मुख्य अनुशंसाएं निम्नानुसार थीं -1. एम. हमीद अंसारी (वर्तमान में उपराष्ट्रपति) की अध्यक्षता में विभिन्न तबकों में विश्वास बहाली के उपायों के अंतर्गत उन्होंने सुझाव दिये कि कानून व्यवस्था को सामान्य कानूनों से संभाला जाये। उपद्रवग्रस्त क्षेत्र विशेषाधिकार कानून एवं सशस्त्रबल विशेषाधिकार अधिनियम को हटाया जाये। 2. पूर्व आतंकियों का पुनर्वास एवं समर्पण करने पर सम्मान पूर्वक जीवन की गांरटी दी जाए। 3. राज्य मानवाधिकार आयोग को मजूबत करना। 4. आतंकवाद पीड़ितों के लिए घोषित पैकेज को मारे गये आतंकियों के परिवारों के लिए भी क्रियान्वित करना। 5. फर्जी मुठभेड़ों को रोकना। 6. पाक अधिकृत कश्मीर में पिछले बीस वर्षों से रह रहे आतंकवादियों को वापिस आने पर स्थायी पुनर्वास एवं आम माफी। 7. इसके अतिरिक्त कश्मीरी पंडितों के लिए एसआरओ-43 लागू करना, उनका स्थायी पुनर्वास।
उमर अब्दुल्ला कहते हैं कि जम्मू-कश्मीर की समस्या आर्थिक व रोजगार के पैकेज से हल होने वाली नहीं है। यह एक राजनैतिक समस्या है और समाधान भी राजनैतिक ही होगा। जम्मू कश्मीर का भारत में बाकी राज्यों की तरह पूर्ण विलय नहीं हुआ। विलय की कुछ शर्तें थीं, जिन्हें भारत ने पूरा नहीं किया। जम्मू-कश्मीर दो देशों (भारत एवं पाकिस्तान) के बीच की समस्या है, जिसमें पिछले 63 वर्षों से जम्मू-कश्मीर पिस रहा है। स्वयत्तता ही एकमात्र हल है। 1953 के पूर्व की स्थिति बहाल करनी चाहिए। पी. चिदंबरम भी कहते हैं कि जम्मू-कश्मीर एक राजनीतिक समस्या है। जम्मू-कश्मीर का एक विशिष्ट इतिहास एवं भूगोल है, इसलिए शेष भारत से अलग इसका समाधान भी विशिष्ट ही होगा। समस्या का समाधान जम्मू व कश्मीर के अधिकतम लोगों की इच्छा के अनुसार ही होगा। गुपचुप वार्ता होगी, कूटनीति होगी और समाधान होने पर सबको पता लग जायेगा। हमने 1953, 1975 और 1986 में कुछ वादे किये थे, उन्हें पूरा तो करना ही होगा। विलय कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में हुआ था, यह बाकि राज्यों से अलग था, उमर ने विधानसभा के भाषण में विलय पर बोलते हुये कुछ भी गलत नहीं कहा। स्वायत्ताता पर वार्ता होगी और उस पर विचार किया जा सकता है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी राजनैतिक समाधान की आवश्यकता, सशस्त्रबल विशेषाधिकार अधिनिययम को नरम करना, कुछ क्षेत्रों से हटाना, सबकी सहमति होने पर स्वायत्ताता के प्रस्ताव को लागू करना आदि संकेत देकर वातावरण बनाने की कोशिश की और प्रधानमंत्री द्वारा घोषित वार्ताकारों के समूह दिलीप पेडगेवांकर, राधा कुमार, एम.एम. अंसारी ने तो ऐसा वातावरण बना दिया कि शायद जल्द से जल्द कुछ ठीक (अलगाववादियों की इच्छानुसार) निर्णय होने जा रहे हैं। उन्होंने जम्मू-कश्मीर समस्या के लिए पाकिस्तान से वार्ता को बल दिया। उन्होंने आश्वासन दिया, आजादी का रोडमेप बनाओ, उस पर चर्चा करेंगे। हमारा एक खूबसूरत संविधान है, जिसमें सबकी भावनाओं को समाहित किया जा सकता है, 400 बार संशोधन हुआ है, आजादी के लिए भी रास्ता निकल सकता है।
वर्तमान आंदोलन :- पाक समर्थित वर्तमान आंदोलन अमरीका के पैसे से चल रहा है। आंदोलन को कट्टरवादी मजहबी संगठन अहले-हदीस (जिसके कश्मीर में 120 मदरसे, 600 मस्जिदें हैं) एवं आत्मसमर्पण किये हुये आतंकवादियों के गुट के द्वारा हुर्रियत (गिलानीगुट) के नाम पर चला रहे हैं। वास्तव में यह आंदोलन राज्य एवं केन्द्र सरकार की सहमति से चल रहा है। देश में एक वातावरण बनाया जा रहा है कि कश्मीर समस्या का समाधान बिना कुछ दिये नहीं होगा। कश्मीर के लोगों में वातावरण बन रहा है कि अंतिम निर्णय का समय आ रहा है।
सुरक्षाबलों को न्यूनतम बल प्रयोग करने का आदेश है। 3500 से अधिक सुरक्षा बल घायल हो गये, सुरक्षा चौकियों पर हमले किये गये, आंदोलनकारी जब बंद करते थे तो सरकार कर्फ्यू लगा देती थी, उनके बंद खोलने पर कर्फ्यू हटा देते थे। अलगाववादियों के आह्वान पर रविवार को भी स्कूल, बैंक खुले।
वास्तविकता यह है कि पूरा आंदोलन जम्मू-कश्मीर की केवल कश्मीर घाटी (14 प्रतिशत क्षेत्रफल) के दस में से केवल 4 जिलों बारामुला, श्रीनगर, पुलवामा, अनंतनाग और शोपियां नगर तक ही सीमित था। गुज्जर, शिया, पहाड़ी, राष्ट्रवादी मुसलमान, कश्मीरी सिख व पंडित, लद्दाख, शरणार्थी समूह, डोगरे, बौध्दा कोई भी इस आंदोलन में शामिल नहीं हुआ, पर वातावरण ऐसा बना दिया गया जैसे पूरा जम्मू-कश्मीर भारत से अलग होने और आजादी के नारे लगा रहा है। उमर अब्दुल्ला द्वारा बार-बार जम्मू-कश्मीर के भारत में पूर्ण विलय को नकारना, जम्मू-कश्मीर को विवादित मानना, वार्ताकारों के समूह द्वारा भी ऐसा ही वातावरण बनाना, केन्द्र सरकार एवं कांग्रेस के नेताओं का मौन समर्थन इस बात का सूचक है कि अलगाववादी, राज्य एवं केन्द्र सरकार किसी समझौते पर पहुँच चुके हैं, उपयुक्त समय एवं वातावरण बनाने की कोशिश एवं प्रतीक्षा हो रही है। ओबामा का इस विषय पर कुछ ना बोलना इसका यह निहितार्थ नहीं है कि अमरीका ने कश्मीर पर भारत के दावे को मान लिया है। बार-बार अमरीका एवं यूरोपीय दूतावासों के प्रतिनिधियों का कश्मीर आकर अलगावादी नेताओं से मिलना उनकी रूचि एवं भूमिका को ही दर्शाता है।
पिछले दिनों राष्ट्रवादी शक्तियों, भारतीय सेना एवं देशभक्त केन्द्रीय कार्यपालिका का दबाव नहीं बना होता तो यह सब घोषणाएँ कभी की हो जातीं। गत दो वर्षों में केन्द्रीय सरकार द्वारा सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम को हटाने, जेल में बंद आतंकियों एवं अलगाववादियों की एकमुश्त रिहाई के असफल प्रयास कई बार हो चुके हैं।
(Courtesy : www.pravakta.com)
जम्मू-कश्मीर रियासत का भारत में विलय 26 अक्तूबर 1947 को हुआ था, वह आज के वर्तमान भारत द्वारा शासित जम्मू-कश्मीर राज्य से कहीं अधिक था। यहाँ के महाराजा हरिसिंह ने भारत वर्ष में जम्मू-कश्मीर का विलय उसी वैधानिक विलय पत्र के आधार पर किया, जिनके आधार पर शेष सभी रजवाड़ों का भारत में विलय हुआ था। वर्तमान परिस्थति के अनुसार जम्मू-कश्मीर रियासत के निम्न हिस्सें हैं । जिनमें से जम्मू का क्षेत्रफल कुल 36315 वर्ग कि.मी. है जिसमें से आज हमारे पास लगभग 26 हजार वर्ग कि.मी. है। वर्तमान में अधिकांश जनसंख्या मुसलमानों की है, लगभग 4 लाख हिन्दू वर्तमान में कश्मीर घाटी से विस्थापित हैं।
पिछले 63 वर्षों से पूरा क्षेत्र विस्थापन की मार झेल रहा है। आज जम्मू क्षेत्र की लगभग 60 लाख जनसंख्या है जिसमें 42 लाख हिन्दुओं में लगभग 15 लाख विस्थापित समाज है। समान अधिकार एवं समान अवसर का आश्वासन देने वाले भारत के संविधान के लागू होने के 60 वर्ष पश्चात भी ये विस्थापित अपना जुर्म पूछ रहे हैं, उनकी तड़प है कि हमें और कितने दिन गुलामों एवं भिखारियों का जीवन जीना है। पाक अधिकृत जम्मू-कश्मीर से 1947 में लगभग 50 हजार परिवार विस्थापित होकर आये, आज यह संख्या लगभग 12 लाख है, जो पूरे देश में बिखरे हुये हैं। जम्मू क्षेत्र में इनकी संख्या लगभग 8 लाख है।
जम्मू क्षेत्र के 26 हजार वर्ग कि.मी. क्षेत्र में 2002 की गणनानुसार 30,59,986 मतदाता थे। आज भी 2/3 क्षेत्र पहाड़ी, दुष्कर और सड़क संपर्क से कटा हुआ है, इसके बाद भी यहाँ 37 विधानसभा व 2 लोकसभा क्षेत्र हैं। जबकि उसी समय कश्मीर घाटी में 15953 वर्ग किमी. क्षेत्रफल में 29 लाख मतदाता हैं। यहाँ का अधिकांश भाग मैदानी क्षेत्र एवं पूरी तरह से एक-दूसरे से जुडा है, पर विधानसभा में 47 प्रतिनिधि एवं लोकसभा में तीन क्षेत्र हैं। 2008 में राज्य को प्रति व्यक्ति केन्द्रीय सहायता 9754 रूपये थी और बिहार जैसे पिछड़े राज्य को 876 रूपये प्रति व्यक्ति थी। इसमें से 90 प्रतिशत अनुदान होता है और 10 प्रतिशत वापिस करना होता है, जबकि शेष राज्य को तो 70 प्रतिशत वापिस करना होता है।
जनसंख्या में धांधली – 2001 की जनगणना में कश्मीर घाटी की जनसंख्या 54,76,970 दिखाई गई, जबकि वोटर 29 लाख थे और जम्मू क्षेत्र की जनसंख्या 44,30,191 दिखाई गई जबकि वोटर 30.59 लाख हैं।
उच्च शिक्षा में धांधली – उच्च शिक्षा में भी यहाँ धांधली है, आतंकवाद के कारण कश्मीर घाटी की शिक्षा व्यवस्था चरमरा गई, पर प्रतियोगी परीक्षाओं में उनका सफलता का प्रतिशत बढ़ता है। मेडिकल की पढ़ाई के लिए एमबीबीएस दाखिलों में जम्मू का 1990 में 60 प्रतिशत हिस्सा था जो 1995 से 2010 के बीच घटकर, हर बार 17-21 प्रतिशत रह गया है। सामान्य श्रेणी में तो यह प्रतिशत 10 से भी कम है।
जम्मू-कश्मीर में आंदोलन-संभावनायें – 2005-2006 में अपनी मुस्लिमवोट की राजनीति और अंतर्राष्ट्रीय दबाव में मनमोहन सरकार ने पाकिस्तान से गुपचुप वार्ता प्रारंभ की। इसका खुलासा करते हुये पिछले दिनों लंदन में मुशर्रफ ने कहा कि टन्ेक्रा कूटनीति में हम एक समझौते पर पहुँच गये थे। वास्वत में परवेज, कियानी -मुशर्रफ की जोड़ी एवं मनमोहन सिंह के नेतृत्व में दोनों पक्ष एक निर्णायक समझौते पर पहुँच गये थे। परस्पर सहमति का आधार था, नियंत्रण रेखा (एलओसी) को ही अंतर्राष्ट्रीय सीमा मान लेना। बंधन एवं नियंत्रण युक्त सीमा, विसैन्यीकरण, सांझा नियंत्रण, अधिकतम स्वायत्ताता (दोनों क्षेत्रों को) इस सहमति को क्रियान्वित करते हुये, कुछ निर्णय दोनो देशों द्वारा लागू किये गये -1. पाकिस्तान ने उत्तरी क्षेत्रों (गिलगित-बाल्टिस्तान) का विलय पाकिस्तान में कर अपना प्रांत घोषित कर दिया। वहां चुनी हुई विधानसभा, पाकिस्तान द्वारा नियुक्त राज्यपाल आदि व्यवस्था लागू हो गई। कुल पाक अधिकृत जम्मू-कश्मीर का यह 65,000 वर्ग कि.मी. क्षेत्रफल है। भारत ने केवल प्रतीकात्मक विरोध किया और इन विषयों को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर उठाकर पाकिस्तान को अलग-थलग करने की कोई कोशिश नहीं की। 2. भारत ने जम्मू-कश्मीर में 30 हजार सैन्य बल एवं 10 हजार अर्धसैनिक बलों की कटौती की घोषणा की। 3. दो क्षेत्रों में परस्पर आवागमन के लिये पाँच मार्ग प्रारंभ किये गये, जिन पर राज्य के नागरिकों के लिए वीजा आदि की व्यवस्था समाप्त कर दी गई। 4. कर मुक्त व्यापार दो स्थानों पर प्रारंभ किया गया। पहली बार 60 वर्षों में जम्मू-कश्मीर के इतिहास में प्रदेश के सभी राजनैतिक दलों और सामाजिक समूहों को साथ लेकर स्थायी समाधान का प्रयास किया गया और विभिन्न विषयों पर विचार करने के लिये पाँच कार्य समूहों की घोषणा की गई। इन कार्यसमूहों में तीनों क्षेत्रों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व था, हर समूह में सामाजिक नेतृत्व भाजपा, पैंथर्स, जम्मू स्टेट र्मोर्चा और शरणार्थी नेता भी थे। 24 अप्रैल 2007 को दिल्ली में आयोजित तीसरे गोलमेज सम्मेलन में जब 4 कार्यसमूहों ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की तो सभी जम्मू, लध्दााख के उपस्थित नेता व शरणार्थी नेता हैरान रह गये कि उनके सुझावों एवं मुद्दों पर कोई अनुशंसा नहीं की गई। उपस्थित कश्मीर के नेताओं ने तुरंत सभी अनुशंसाओं का समर्थन कर लागू करने की माँग की, क्योंकि यह उनकी इच्छाओं एवं आकांक्षाओं के अनुसार था। कार्य समूहों इन रिर्पोटों से यह स्पष्ट हो गया कि अलगाववादी, आतंकवादी समूहों और उनके आकाओं से जो समझौते पहले से हो चुके थे, उन्हीं को वैधानिकता की चादर ओढ़ाने के लिए ये सब नाटक किये गये थे।
बैठक के अंत में गृहमंत्री शिवराज पाटिल ने पहले से तैयार वक्तव्य हस्ताक्षर के लिए प्रस्तुत किया, जिसमें केन्द्र सरकार से इन समूहों की रिपोर्टों को लागू करने के लिए उपस्थित सभी प्रतिनिधियों द्वारा आग्रह किया गया था। भाजपा, पैंथर्स, बसपा, लद्दाख यूटी फ्रंट, पनुन कश्मीर एवं अनेक सामाजिक नेताओं ने यह दो टूक कहा कि यह सारी घोषणाएं उनको प्रसन्न करने के लिए हैं, जो भारत राष्ट्र को खंडित एवं नष्ट करने में जुटी हुई हैं। यह भारत विरोधी, जम्मू-लद्दाख के देशभक्तों को कमजोर करने वाली, पीओके, पश्चिम पाक शरणार्थी विरोधी एवं कश्मीर के देशभक्त समाज की भावनाओं एवं आकांक्षाओं को चोट पहुँचाने वाली हैं। बाद में सगीर अहमद के नेतृत्व वाले पाँचवे समूह ने अचानक नवम्बर 2009 में अपनी रिपोर्ट दी तो यह और पक्का हो गया कि केन्द्र राज्य के संबंध की पुर्नरचना का निर्णय पहले से ही हुआ था। रिपोर्ट प्रस्तुत करने से पहले संबंधित सदस्यों को ही विश्वास में नहीं लिया गया। इन पाँच समूहों की मुख्य अनुशंसाएं निम्नानुसार थीं -1. एम. हमीद अंसारी (वर्तमान में उपराष्ट्रपति) की अध्यक्षता में विभिन्न तबकों में विश्वास बहाली के उपायों के अंतर्गत उन्होंने सुझाव दिये कि कानून व्यवस्था को सामान्य कानूनों से संभाला जाये। उपद्रवग्रस्त क्षेत्र विशेषाधिकार कानून एवं सशस्त्रबल विशेषाधिकार अधिनियम को हटाया जाये। 2. पूर्व आतंकियों का पुनर्वास एवं समर्पण करने पर सम्मान पूर्वक जीवन की गांरटी दी जाए। 3. राज्य मानवाधिकार आयोग को मजूबत करना। 4. आतंकवाद पीड़ितों के लिए घोषित पैकेज को मारे गये आतंकियों के परिवारों के लिए भी क्रियान्वित करना। 5. फर्जी मुठभेड़ों को रोकना। 6. पाक अधिकृत कश्मीर में पिछले बीस वर्षों से रह रहे आतंकवादियों को वापिस आने पर स्थायी पुनर्वास एवं आम माफी। 7. इसके अतिरिक्त कश्मीरी पंडितों के लिए एसआरओ-43 लागू करना, उनका स्थायी पुनर्वास।
उमर अब्दुल्ला कहते हैं कि जम्मू-कश्मीर की समस्या आर्थिक व रोजगार के पैकेज से हल होने वाली नहीं है। यह एक राजनैतिक समस्या है और समाधान भी राजनैतिक ही होगा। जम्मू कश्मीर का भारत में बाकी राज्यों की तरह पूर्ण विलय नहीं हुआ। विलय की कुछ शर्तें थीं, जिन्हें भारत ने पूरा नहीं किया। जम्मू-कश्मीर दो देशों (भारत एवं पाकिस्तान) के बीच की समस्या है, जिसमें पिछले 63 वर्षों से जम्मू-कश्मीर पिस रहा है। स्वयत्तता ही एकमात्र हल है। 1953 के पूर्व की स्थिति बहाल करनी चाहिए। पी. चिदंबरम भी कहते हैं कि जम्मू-कश्मीर एक राजनीतिक समस्या है। जम्मू-कश्मीर का एक विशिष्ट इतिहास एवं भूगोल है, इसलिए शेष भारत से अलग इसका समाधान भी विशिष्ट ही होगा। समस्या का समाधान जम्मू व कश्मीर के अधिकतम लोगों की इच्छा के अनुसार ही होगा। गुपचुप वार्ता होगी, कूटनीति होगी और समाधान होने पर सबको पता लग जायेगा। हमने 1953, 1975 और 1986 में कुछ वादे किये थे, उन्हें पूरा तो करना ही होगा। विलय कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में हुआ था, यह बाकि राज्यों से अलग था, उमर ने विधानसभा के भाषण में विलय पर बोलते हुये कुछ भी गलत नहीं कहा। स्वायत्ताता पर वार्ता होगी और उस पर विचार किया जा सकता है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी राजनैतिक समाधान की आवश्यकता, सशस्त्रबल विशेषाधिकार अधिनिययम को नरम करना, कुछ क्षेत्रों से हटाना, सबकी सहमति होने पर स्वायत्ताता के प्रस्ताव को लागू करना आदि संकेत देकर वातावरण बनाने की कोशिश की और प्रधानमंत्री द्वारा घोषित वार्ताकारों के समूह दिलीप पेडगेवांकर, राधा कुमार, एम.एम. अंसारी ने तो ऐसा वातावरण बना दिया कि शायद जल्द से जल्द कुछ ठीक (अलगाववादियों की इच्छानुसार) निर्णय होने जा रहे हैं। उन्होंने जम्मू-कश्मीर समस्या के लिए पाकिस्तान से वार्ता को बल दिया। उन्होंने आश्वासन दिया, आजादी का रोडमेप बनाओ, उस पर चर्चा करेंगे। हमारा एक खूबसूरत संविधान है, जिसमें सबकी भावनाओं को समाहित किया जा सकता है, 400 बार संशोधन हुआ है, आजादी के लिए भी रास्ता निकल सकता है।
वर्तमान आंदोलन :- पाक समर्थित वर्तमान आंदोलन अमरीका के पैसे से चल रहा है। आंदोलन को कट्टरवादी मजहबी संगठन अहले-हदीस (जिसके कश्मीर में 120 मदरसे, 600 मस्जिदें हैं) एवं आत्मसमर्पण किये हुये आतंकवादियों के गुट के द्वारा हुर्रियत (गिलानीगुट) के नाम पर चला रहे हैं। वास्तव में यह आंदोलन राज्य एवं केन्द्र सरकार की सहमति से चल रहा है। देश में एक वातावरण बनाया जा रहा है कि कश्मीर समस्या का समाधान बिना कुछ दिये नहीं होगा। कश्मीर के लोगों में वातावरण बन रहा है कि अंतिम निर्णय का समय आ रहा है।
सुरक्षाबलों को न्यूनतम बल प्रयोग करने का आदेश है। 3500 से अधिक सुरक्षा बल घायल हो गये, सुरक्षा चौकियों पर हमले किये गये, आंदोलनकारी जब बंद करते थे तो सरकार कर्फ्यू लगा देती थी, उनके बंद खोलने पर कर्फ्यू हटा देते थे। अलगाववादियों के आह्वान पर रविवार को भी स्कूल, बैंक खुले।
वास्तविकता यह है कि पूरा आंदोलन जम्मू-कश्मीर की केवल कश्मीर घाटी (14 प्रतिशत क्षेत्रफल) के दस में से केवल 4 जिलों बारामुला, श्रीनगर, पुलवामा, अनंतनाग और शोपियां नगर तक ही सीमित था। गुज्जर, शिया, पहाड़ी, राष्ट्रवादी मुसलमान, कश्मीरी सिख व पंडित, लद्दाख, शरणार्थी समूह, डोगरे, बौध्दा कोई भी इस आंदोलन में शामिल नहीं हुआ, पर वातावरण ऐसा बना दिया गया जैसे पूरा जम्मू-कश्मीर भारत से अलग होने और आजादी के नारे लगा रहा है। उमर अब्दुल्ला द्वारा बार-बार जम्मू-कश्मीर के भारत में पूर्ण विलय को नकारना, जम्मू-कश्मीर को विवादित मानना, वार्ताकारों के समूह द्वारा भी ऐसा ही वातावरण बनाना, केन्द्र सरकार एवं कांग्रेस के नेताओं का मौन समर्थन इस बात का सूचक है कि अलगाववादी, राज्य एवं केन्द्र सरकार किसी समझौते पर पहुँच चुके हैं, उपयुक्त समय एवं वातावरण बनाने की कोशिश एवं प्रतीक्षा हो रही है। ओबामा का इस विषय पर कुछ ना बोलना इसका यह निहितार्थ नहीं है कि अमरीका ने कश्मीर पर भारत के दावे को मान लिया है। बार-बार अमरीका एवं यूरोपीय दूतावासों के प्रतिनिधियों का कश्मीर आकर अलगावादी नेताओं से मिलना उनकी रूचि एवं भूमिका को ही दर्शाता है।
पिछले दिनों राष्ट्रवादी शक्तियों, भारतीय सेना एवं देशभक्त केन्द्रीय कार्यपालिका का दबाव नहीं बना होता तो यह सब घोषणाएँ कभी की हो जातीं। गत दो वर्षों में केन्द्रीय सरकार द्वारा सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम को हटाने, जेल में बंद आतंकियों एवं अलगाववादियों की एकमुश्त रिहाई के असफल प्रयास कई बार हो चुके हैं।
(Courtesy : www.pravakta.com)
Friday, February 11, 2011
मानसिक तनाव के शिकार हैं 72 प्रतिशत पत्थरबाज
श्रीनगर। सुरक्षाबलों पर पथराव कर हिंसा भड़काने वाले 72 प्रतिशत पत्थरबाज मानसिक तनाव का शिकार होते हैं। अपने इस तनाव को कम करने के लिए ही वह पथराव व तोड़फोड़ पर उतर आते हैं।
यह कहना है एसएसपी श्रीनगर आशिक बुखारी का। बुधवार को संवाददाता सम्मेलन में एसएसपी ने बताया कि वर्ष 2010 में जून महीने से वादी में स्थिति को सामान्य बनाने के लिए पुलिस ने 1000 से अधिक पत्थरबाजों को गिरफ्तार किया। पूछताछ के दौरान इनमें से लगभग 72 प्रतिशत ऐसे युवक थे, जो या तो बेरोजगारी, नशाखोरी या फिर घरेलू समस्याओं के कारण मानसिक तनाव का शिकार थे। इस तनाव को कम करने के लिए वह पथराव व तोड़फोड़ करते थे।
पुलिस वाहनों की तोड़फोड़ या आगजनी में संलिप्त अधिकांश युवकों से पूछताछ के बाद यह बात सामने आई कि वह नशाखोरी का शिकार थे। नशे की हालत में वह अपने आप पर संयम न रख पुलिस व सैन्य वाहनों पर चढ़कर उनकी तोड़फोड़ करते थे। इन युवकों के पुनर्वास के लिए हम प्रयास कर रहे हैं। इन्हें नशाखोरी व अन्य बुरी आदतों से मुक्त कराने के लिए हमने कई ड्रग एडिक्शन सेंटर खोल रखे हैं, जहां इन युवकों की काउंसलिंग की जाती है। साथ ही इन युवकों के पुनर्वास के लिए और भी कई कदम उठाएं गए हैं। बुखारी ने फिर दोहराया कि स्थिति बिगाड़ने की किसी को भी इजाजत नहीं दी जाएगी।
(Courtesy : www.jagran.com)
यह कहना है एसएसपी श्रीनगर आशिक बुखारी का। बुधवार को संवाददाता सम्मेलन में एसएसपी ने बताया कि वर्ष 2010 में जून महीने से वादी में स्थिति को सामान्य बनाने के लिए पुलिस ने 1000 से अधिक पत्थरबाजों को गिरफ्तार किया। पूछताछ के दौरान इनमें से लगभग 72 प्रतिशत ऐसे युवक थे, जो या तो बेरोजगारी, नशाखोरी या फिर घरेलू समस्याओं के कारण मानसिक तनाव का शिकार थे। इस तनाव को कम करने के लिए वह पथराव व तोड़फोड़ करते थे।
पुलिस वाहनों की तोड़फोड़ या आगजनी में संलिप्त अधिकांश युवकों से पूछताछ के बाद यह बात सामने आई कि वह नशाखोरी का शिकार थे। नशे की हालत में वह अपने आप पर संयम न रख पुलिस व सैन्य वाहनों पर चढ़कर उनकी तोड़फोड़ करते थे। इन युवकों के पुनर्वास के लिए हम प्रयास कर रहे हैं। इन्हें नशाखोरी व अन्य बुरी आदतों से मुक्त कराने के लिए हमने कई ड्रग एडिक्शन सेंटर खोल रखे हैं, जहां इन युवकों की काउंसलिंग की जाती है। साथ ही इन युवकों के पुनर्वास के लिए और भी कई कदम उठाएं गए हैं। बुखारी ने फिर दोहराया कि स्थिति बिगाड़ने की किसी को भी इजाजत नहीं दी जाएगी।
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जनगणना के दूसरे चरण का श्रीगणेश
Feb 10, 2011
जम्मू, जागरण संवाददाता : देश के अन्य राज्यों के साथ ही जम्मू-कश्मीर में भी जनगणना का दूसरा चरण शुरू हो गया। इसका शुभारंभ राज्यपाल एनएन वोहरा से किया गया।
बुधवार को अधिकारियों सहित करीब 28 हजार कर्मचारी इस अभियान को सिरे चढ़ाने के लिए मैदान में उतरे। राज्यपाल एनएन वोहरा के साथ उनकी धर्मपत्नी प्रथम महिला उषा वोहरा का जनगणना फार्म भी भरवाया गया। जनगणना निदेशक फारूक अहमद फख्तू ने यह फार्म भरवाए। राज्यपाल ने लोगों से जनगणना कर्मियों का सहयोग कर प्रक्रिया को सफल बनाकर देश की प्रगति में हिस्सेदारी की अपील की। जनगणना निदेशक ने राज्यपाल को स्मृति चिह्न, सेंसेस डायरी और पहले चरण के उद्घाटन का फोटो भी भेंट किया।
वहीं, दोपहर बाद मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला से अभियान की शुरुआत की गई। मुख्यमंत्री ने अधिकारियों को निर्देश दिए कि वह प्रगति में मील का पत्थर साबित होने वाली जनगणना में हरेक की भागीदारी को सुनिश्चित कराएं। बाद में कर्मचारियों ने अधिकारियों के साथ जनगणना प्रक्रिया को आगे शुरू किया। विभिन्न जिला मुख्यालयों से जनगणना कर्मियों ने इसकी शुरुआत करते हुए लोगों के बीच पहुंचना शुरू कर दिया। 28 फरवरी तक चलने वाले जनगणना के इस दूसरे चरण में डिप्टी कमिश्नर्स के अलावा जम्मू तथा श्रीनगर के म्यूनिसिपल कमिश्नर्स को प्रिंसिपल सेंसेस ऑफिसर बनाया गया। राज्य में कुल 24 प्रिंसिपल सेंसेस ऑफिसर तैनात होंगे, जबकि सभी तहसीलदारों व नगर निगमों व म्यूनिसिपल कमेटियों के कार्यकारी अधिकारियों को इंचार्ज ऑफिसर नियुक्त किया गया, जिनकी संख्या 172 है। विभिन्न विभागों के करीब चार हजार सुपरवाइजर और करीब 23,500 इन्युमिरेटर नियुक्त किए गए हैं।
गौरतलब है कि जनगणना का पहला चरण 15 मई से 30 जून तक चला था जिसमें घर-घर जाकर फार्म भरे गए। हाउस नंबरिंग तथा घर के मालिकों व सदस्यों की गिनती की उस प्रक्रिया को इस चरण में पूरा किया जाना है।
वर्ष 2001 की जनगणना पर आधारित जिलों की जनसंख्या
अनंतनाग : 1170013
बडगाम : 632338
बारामूला : 1166722
डोडा : 690474
जम्मू : 1571911
कारगिल : 115227
कठुआ : 544206
कुपवाड़ा : 640013
लद्दाख : 117637
पुलवामा : 648760
पुंछ : 371561
राजौरी : 478595
श्रीनगर : 1188493
ऊधमपुर : 738965
------
जम्मू जिले की जनसंख्या पर एक नजर
वर्ष 1961: 513151
वर्ष 1971: 7,31,743
वर्ष 1981: 9,43,395
वर्ष 1991: 12,07,996
वर्ष 2001: 15,71,911
------
वर्ष 1981 की जनगणना के अनुसार जम्मू कश्मीर की जनसंख्या 59,87,389 थी। वर्ष 1991 में यह बढ़कर 78,37,051 हो गई, जबकि वर्ष 2001 में 1,01,43,700 हो गई।
(Courtesy : www.jagran.com)
जम्मू, जागरण संवाददाता : देश के अन्य राज्यों के साथ ही जम्मू-कश्मीर में भी जनगणना का दूसरा चरण शुरू हो गया। इसका शुभारंभ राज्यपाल एनएन वोहरा से किया गया।
बुधवार को अधिकारियों सहित करीब 28 हजार कर्मचारी इस अभियान को सिरे चढ़ाने के लिए मैदान में उतरे। राज्यपाल एनएन वोहरा के साथ उनकी धर्मपत्नी प्रथम महिला उषा वोहरा का जनगणना फार्म भी भरवाया गया। जनगणना निदेशक फारूक अहमद फख्तू ने यह फार्म भरवाए। राज्यपाल ने लोगों से जनगणना कर्मियों का सहयोग कर प्रक्रिया को सफल बनाकर देश की प्रगति में हिस्सेदारी की अपील की। जनगणना निदेशक ने राज्यपाल को स्मृति चिह्न, सेंसेस डायरी और पहले चरण के उद्घाटन का फोटो भी भेंट किया।
वहीं, दोपहर बाद मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला से अभियान की शुरुआत की गई। मुख्यमंत्री ने अधिकारियों को निर्देश दिए कि वह प्रगति में मील का पत्थर साबित होने वाली जनगणना में हरेक की भागीदारी को सुनिश्चित कराएं। बाद में कर्मचारियों ने अधिकारियों के साथ जनगणना प्रक्रिया को आगे शुरू किया। विभिन्न जिला मुख्यालयों से जनगणना कर्मियों ने इसकी शुरुआत करते हुए लोगों के बीच पहुंचना शुरू कर दिया। 28 फरवरी तक चलने वाले जनगणना के इस दूसरे चरण में डिप्टी कमिश्नर्स के अलावा जम्मू तथा श्रीनगर के म्यूनिसिपल कमिश्नर्स को प्रिंसिपल सेंसेस ऑफिसर बनाया गया। राज्य में कुल 24 प्रिंसिपल सेंसेस ऑफिसर तैनात होंगे, जबकि सभी तहसीलदारों व नगर निगमों व म्यूनिसिपल कमेटियों के कार्यकारी अधिकारियों को इंचार्ज ऑफिसर नियुक्त किया गया, जिनकी संख्या 172 है। विभिन्न विभागों के करीब चार हजार सुपरवाइजर और करीब 23,500 इन्युमिरेटर नियुक्त किए गए हैं।
गौरतलब है कि जनगणना का पहला चरण 15 मई से 30 जून तक चला था जिसमें घर-घर जाकर फार्म भरे गए। हाउस नंबरिंग तथा घर के मालिकों व सदस्यों की गिनती की उस प्रक्रिया को इस चरण में पूरा किया जाना है।
वर्ष 2001 की जनगणना पर आधारित जिलों की जनसंख्या
अनंतनाग : 1170013
बडगाम : 632338
बारामूला : 1166722
डोडा : 690474
जम्मू : 1571911
कारगिल : 115227
कठुआ : 544206
कुपवाड़ा : 640013
लद्दाख : 117637
पुलवामा : 648760
पुंछ : 371561
राजौरी : 478595
श्रीनगर : 1188493
ऊधमपुर : 738965
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जम्मू जिले की जनसंख्या पर एक नजर
वर्ष 1961: 513151
वर्ष 1971: 7,31,743
वर्ष 1981: 9,43,395
वर्ष 1991: 12,07,996
वर्ष 2001: 15,71,911
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वर्ष 1981 की जनगणना के अनुसार जम्मू कश्मीर की जनसंख्या 59,87,389 थी। वर्ष 1991 में यह बढ़कर 78,37,051 हो गई, जबकि वर्ष 2001 में 1,01,43,700 हो गई।
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कश्मीरी अलगाववादियों को वार्ताकारों का निमंत्रण
11Feb. 2011
जम्मू। जम्मू एवं कश्मीर पर केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त तीन वार्ताकारों ने पहली बार कश्मीर के चार अलगाववादी नेताओं को बातचीत का औपचारिक निमंत्रण भेजा है।
समाचार पत्र 'ग्रेटर कश्मीर' ने वार्ताकार दिलीप पडगांवकर के हवाले से कहा है कि अलगाववादियों को वार्ता का निमंत्रण भेज दिया गया है, ताकि उनके विचार उस रिपोर्ट में शामिल किए जा सकें, जो रिपोर्ट केंद्र सरकार को सौंपी जानी है। जम्मू एवं श्रीनगर से एक साथ प्रकाशित होने वाले अखबार 'ग्रेटर कश्मीर' ने पडगांवकर के हवाले से कहा है कि अभी तक हमने सार्वजनिक चर्चाओं में अलगाववादियों के साथ बातचीत के मुद्दे को उठाया है, अब हमने सैयद अली शाह गिलानी, मीरवाइज उमर फारुख, यासीन मलिक और शब्बीर शाह को निमंत्रण पत्र भेजा है। पडगांवकर ने कहा कि वे 10 दिनों तक अलगाववादी नेताओं के जवाब का इंतजार करेगे।
ज्ञात हो कि मीरवाइज के नेतृत्व वाले हुर्रियत कांफ्रेंस के नरमपंथी धड़े ने बुधवार को कहा था कि कश्मीर समस्या के समधान के लिए अर्थपूर्ण बातचीत का समय आ गया है। संगठन ने एक बयान में कहा था कि हम एक ऐसे मंच पर पहुंच गए हैं, जहां हमें राजनीतिक संबद्धताओं से ऊपर उठने और राजनीतिक प्रक्रिया शुरू करने का राजनीतिक कौशल दिखाने की जरूरत है।
संगठन ने कहा था कि अंततोगत्वा मारे कश्मीरी ही जा रहे है और इसलिए आपसी राय-मशविरा के जरिए इस जटिल समस्या का समाधान निकालने के लिए कश्मीरियों को ही आगे आना होगा। एक सरकारी सूत्र ने बताया कि वार्ताकार अलगाववादियों को छोड़कर बाकी सभी इंकार करने वालों से मिल चुके है, लेकिन अलगाववादियों के विचार बहुत महत्वपूर्ण है।
(Courtesy : www.jagran.com)
जम्मू। जम्मू एवं कश्मीर पर केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त तीन वार्ताकारों ने पहली बार कश्मीर के चार अलगाववादी नेताओं को बातचीत का औपचारिक निमंत्रण भेजा है।
समाचार पत्र 'ग्रेटर कश्मीर' ने वार्ताकार दिलीप पडगांवकर के हवाले से कहा है कि अलगाववादियों को वार्ता का निमंत्रण भेज दिया गया है, ताकि उनके विचार उस रिपोर्ट में शामिल किए जा सकें, जो रिपोर्ट केंद्र सरकार को सौंपी जानी है। जम्मू एवं श्रीनगर से एक साथ प्रकाशित होने वाले अखबार 'ग्रेटर कश्मीर' ने पडगांवकर के हवाले से कहा है कि अभी तक हमने सार्वजनिक चर्चाओं में अलगाववादियों के साथ बातचीत के मुद्दे को उठाया है, अब हमने सैयद अली शाह गिलानी, मीरवाइज उमर फारुख, यासीन मलिक और शब्बीर शाह को निमंत्रण पत्र भेजा है। पडगांवकर ने कहा कि वे 10 दिनों तक अलगाववादी नेताओं के जवाब का इंतजार करेगे।
ज्ञात हो कि मीरवाइज के नेतृत्व वाले हुर्रियत कांफ्रेंस के नरमपंथी धड़े ने बुधवार को कहा था कि कश्मीर समस्या के समधान के लिए अर्थपूर्ण बातचीत का समय आ गया है। संगठन ने एक बयान में कहा था कि हम एक ऐसे मंच पर पहुंच गए हैं, जहां हमें राजनीतिक संबद्धताओं से ऊपर उठने और राजनीतिक प्रक्रिया शुरू करने का राजनीतिक कौशल दिखाने की जरूरत है।
संगठन ने कहा था कि अंततोगत्वा मारे कश्मीरी ही जा रहे है और इसलिए आपसी राय-मशविरा के जरिए इस जटिल समस्या का समाधान निकालने के लिए कश्मीरियों को ही आगे आना होगा। एक सरकारी सूत्र ने बताया कि वार्ताकार अलगाववादियों को छोड़कर बाकी सभी इंकार करने वालों से मिल चुके है, लेकिन अलगाववादियों के विचार बहुत महत्वपूर्ण है।
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Thursday, February 10, 2011
हमारी विजय निश्चित है
डॉ. बजरंग लाल गुप्ता
इस दो दिवसीय परिचर्चा में लगभग सभी ने किसी न किसी प्रकार से मेरे भावों को व्यक्त किया है। मैं दो दिन से यहां पर हूं। जम्मू-कश्मीर से संबंधित इतने सारे विषयों को एकसाथ समग्रता से और विशेषकर विषय ही नहीं उनके पीछे की माइंडसेट क्या है, उनके इम्पीलीकेशन्स क्या है। यहां कुछ बातों को जानने-समझने का अवसर मिला है। इसका कितना लाभ होगा; यह तो भविष्य ही बताएगा।
धरती पर चित्र बदलने के लिए एक्शन प्रोग्राम का महत्व होता है। गीता इसीलिए दुनिया में मान्य व अद्वितीय हो गई क्योंकि गीता में से अर्जुन का कर्म निकला। उपदेश वही रहता, सब मार्गों पर चर्चा हुई, यानी अद्वितीय है कि युद्ध के मैदान में इतना जबरदस्त विचार विमर्श कोई कर सकता है, उसका अद्वितीय उदाहरण है; पर कल्पना करें कि ये सब प्रकार के ज्ञानमार्ग के बाद, भक्ति मार्ग के बाद, सब प्रकार की चर्चा के बाद, तमाम तर्कों के बाद और तमाम प्रकार के ज्ञान देने के बावजूद अगर अर्जुन युद्ध के लिए तैयार न होता, तो गीता की प्रासंगिता होती क्या?
इस संबंध में पंडित दीनदयाल उपाध्याय विचार और कार्य के बीच कैसा संबंध होना चाहिए, इसको बहुत ही सरल उदाहरण से कार्यकर्ताओं के समक्ष रखते थे। इसके लिए वे कहा करते थे- विचार नमक के बराबर और काम दाल के बराबर। कभी भी इसे उलट मत देना, ऐसा वह मजाक में बोला करते थे।
तो हम जिस मनमानस से, एक्शन ग्रुप से और जिस कर्म-योजना के साथ जुड़े हुए हैं और धरती पर चित्र बदलने का संकल्प लिया हुआ है। इसमें कहीं कोई हताशा या निराशा नहीं है। हम इसके लिए प्रतिबद्ध हैं। यह केवल और केवल एकेडमिक चर्चा नहीं है, इसमें से अंततोगत्वा सबका एक टीश है। सब वक्ताओं के भाषणों में से और जिसने बीच-बीच में हस्तक्षेप किया, सबका एक टीश है। इस परिचर्चा में सभी वक्ताओं की टीश समान रूप से प्रकट हो रही थी। प्रारम्भ अपने से होता है।
हमारे सामने उदाहरण है तिब्बत को लेकर। तिब्बत की स्वाधीनता गई। दलाई लामा पूरी दुनिया में जाकर इसका रहस्य समझाये, उनसे बढ़िया कोई बता नहीं सकता था। बहुत तर्कसंगत है। तिब्बत के निर्वासित सरकार के पूर्व प्रधानमंत्री सांमदोंग रिम्पोंक्षे जो बहुत विद्वान हैं, ने तिब्बत की स्वतंत्रता क्यों चाहिए, ऐसे प्रमुख विषयों को लेकर उन्होंने दो दिवसीय परिचर्चा आयोजित की थी। इसमें जबरदस्त चर्चा हुई, तर्कसंगत बातें हुईं। उन्होंने कहा तिब्बत की स्वतंत्रता केवल तिब्बत के लिए नहीं चाहिए, दुनिया के लिए चाहिए। परिस्थिति क्या बनी, धीरे-धीरे करके वह आंदोलन डाइलुट हो गया। लगभग मृतप्राय या समाप्तप्राय है। कारण क्या है तिब्बत की धरती से जो आवाज उठनी चाहिए थी वो आवाज उठने का स्कोप समाप्त हो गया।
कुल मिलाकर ऐसे तमाम चित्रों को बदलने की यदि इच्छा रखते हैं और वह चित्र बदला जाना है तो दोनों प्रकार की चीजों का हमको मेल बैठाना पड़ेगा। ये भी सच है कि हम एक्शन प्रोग्राम पर चले जाएं और हमारे पास कोई कान्सेप्चुअल फ्रेमवर्क (वैचारिक ढांचा) ही न हो, जो सवाल व मुद्दे हमारे विरोधी हमारे खिलाफ खड़े करते हैं उनका जवाब देने लायक ताकत ही नहीं है हमारे पास में, तो आपका ये एक्शन बिखर जाएगा, डायलूट हो जाएगा, निराशा आ जाएगी, दिशाविहीन हो जाएगी। इसलिए दोनों का मेल कैसा बिठा सकते हैं; इसके बारे में गंभीरता से विचार करना पड़ेगा और आप लोग विचार कर ही रहे हैं।
जम्मू-कश्मीर में अनेक लोगों से व्यक्तिगत रूप से औऱ समूह से भी मिलना हुआ है। डॉ. हरिओम जी से पुरानी मित्रता है इसलिए उनके साथ भी कई बार चर्चा हुई है। प्राथमिक दौर पर दो तीन बातें मैं आपसे कहना चाहूंगा। हम सब मिलकर कैसा कर सकते हैं जब ऐसा आंदोलन लड़ा जाता है, तो दो काम करना होता है। अपने लिए कोई केंद्रीय थीम तय करना पड़ता है। उसके ईर्द-गिर्द तमाम चीजें चाहिए। यानी जिनको आज जिनके साथ लड़ाई लड़ना है उन्होंने सेंट्रल थीम तय की हुई है। हम चाहे उनको सेपरिटिस्ट कहते होंगे, पर सेपरिटिस्ट उनकी सेंट्रल थीम है। कोई ऑटोनामी के नाम से बोलता होगा, कोई आजादी के नाम से बोलता होगा, कोई हमारे साथ ज्यादती हुई है; इस नाम से बोलता होगा। कोई हमारी बात सुनता नहीं है; इस नाम से बोलता होगा। लोकतांत्रिक रूप से वे हमको रोने का ही अधिकार नहीं देते। पुलिस आ रही है, सेना आ रही है उसके आयाम और तौर तरीके भिन्न-भिन्न प्रकार से तमाम चीजों के लिए .........। राजनीतिक दल भी ऐसी बातें बोल रहे हैं। बाकी एक सेंट्रल थीम होती है जिसके ईर्द गिर्द तमाम तरह के तर्क भी गढ़ना पड़ता है और तमाम प्रकार के आंदोलन भी चलाने पड़ते हैं।
कुल मिलाकर ऐसी लड़ाई हमारी थीम के पाले में होनी चाहिए। डिस्टर्शन औऱ टिबेट का डिस्कोर्स बदलना है तो वह हमारी थीम के अंतर्गत चलना चाहिए, तब जाकर डिस्टोर्शन और डिस्कोर्स को बदलने की क्षमता हम निर्माण कर सकेंगे। अभी हम जवाब दे रहे हैं तो जवाब उनसे लेने के लिए काम करना पड़ेगा, एक सेंट्रल थीम इसके लिए तय करना पड़ेगा। कभी-कभी लोगों से बातचीत होती है तो लगता है कि कुछ न कुछ भ्रम भी है। कन्फ्यूजन होने पर लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती।
मैं फिर गीता पर आना चाहता हूं। अर्जुन सोचता है कि मेरी ऐसी स्थिति क्यों बन गई है। इतना क्षमतावान, योग्यता में किसी भी प्रकार की कमी नहीं है; फिर भी मेरी ऐसी स्थिति क्यों बन गई है।................ अब मैं अपनी स्थिति में पहुंच गया हूं। अपने में स्थित हो गया हूं। तमाम प्रकार की अनिर्णय की स्थिति से अपने को मुक्त कर लिया है। अब मेरे मन में कोई संदेह नहीं है। इसलिए हे केशव! अब मैं आपकी बात मानकर लड़ने के लिए तैयार हूं।
तमाम तरह के आंदोलन सदैव होते रहते हैं। जब आप इन आंदोलनों का इतिहास चाहे वह अपने देश की हो या दुनिया की ही क्यों न हो, पढ़ेंगे तो आप पाएंगे कि यह असफल तब होता है जब आंदोलन के नेतृत्वकर्ताओं के मन में किसी भी प्रकार का भ्रम उत्पन्न हो जाता है। यह भ्रम की स्थिति संघर्ष का कारण बनती है। एक दूसरे पर दोषारोपण शुरू हो जाता है। तकरार की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। अमुक व्यक्ति ने ऐसा नहीं किया इसलिए गड़बड़ हो रहा है। जब भ्रम की स्थिति नहीं रहती है तो फिर दिशा तय रहती है। सभी मिलकर चलते हैं। तब जाकर विजय प्राप्त होती है।
कुल मिलाकर मेरा निवेदन है कि कार्ययोजना बनाते समय हमारी मनःस्थिति क्या है, हम कैसा करना चाहते हैं। हम जो करना चाहते हैं उसके बारे में कैसा सोचते हैं। जो मनःस्थिति है वही हमसे काम करवाती है। तो इस दृष्टिकोण के बारे में कुल मिलाकर जम्मू-कश्मीर के संबंध में हमारा जितना वश; राजनीतिक व गैर-राजनीतिक रूप से चल सकता है, चाहे वह मीडिया हो या ब्यूरोक्रैसी; हम उसका उपयोग करेंगे। हमको पच्चास तरह के रास्ते तलाशने पड़ेंगे। उसमें से टोटल माइंडसेट या दृष्टिकोण बदलने का प्रयत्न करना पड़ेगा।
इस संबंध में मैं रणनीतिक रूप से दिल्ली में कई अधिकारियों से व्यक्तिगत रूप से मिलता रहता हूं। ध्यान में आता है कि उनका माइंडसेट ही भिन्न है। आप लोगों ने जिन बातों की चर्चा की, वे उन तमाम चीजों को उस दृष्टिकोण से देखते ही नहीं, समझने के लिए ही तैयार नहीं है। उनका स्टैंड प्वाइंट ही सबसे भिन्न है। इसलिए उस माइंडसेट के लिए ही हमको अनेक स्तरों पर काम करना पड़ेगा। हमें इस दृष्टि से भी विचार करना पड़ेगा।
भिन्न-भिन्न चर्चाओं में ये बात आई है कि हमको दो स्तरों पर काम करना पड़ेगा। दोनों स्तरों के बीच में एक संबंध रखना पडे़गा। एक जम्मू-कश्मीर के लोगों का और दूसरा शेष भारत के लोगों के साथ। ऐसा संभव नहीं है कि केवल जम्मू-कश्मीर के स्तर पर काम करें और शेष भारत निश्चिंत रहे। यह भी संभव नहीं कि राज्य की धरती पर तो काम ही न हो और शेष भारत में काम हो।....... दोनों जगह पर काम होना चाहिए। इस काम की विभिन्न स्तरों पर समकालिक रूप से समन्वय बनाना पड़ेगा।
मैं जब जम्मू-कश्मीर बोलता हूं तो यह बोलते समय भी तीन रिजन्स हैं....... इन तीनों की अलग-अलग प्रकार के एक्शन प्लान और अलग-अलग रणनीति बनानी पड़ेगी। तीनों में समान रणनीति नहीं हो सकती। क्योंकि तीनों के इमोशनल अटैचमेंट भी अलग हैं। तीनों के कान्सेप्ट को अलग एड्रेस करना पड़ेगा। कुल मिलाकर लक्ष्य एक ही है; पर इस कान्सेप्ट को एड्रेस करने की रणनीति अलग-अलग बनानी पडे़गी।
यह सभी जानते हैं कि जम्मू के लोगों ने भिन्न-भिन्न अवसरों पर बहुत काम किया है। आज भी जो कुछ काम हो रहा है, यहीं हो रहा है। मेरी ज्यादा चिंता कश्मीर घाटी को लेकर है। वहां किसी न किसी प्रकार से हमको समझदारी से दस्तक देते रहने की योजना बनानी पड़ेगी।
जिस प्रकार अमरनाथ आंदोलन हुआ, इस पर विचार करने के लिए हम लोग बैठे थे उसके पीछे एक आयाम यह भी था........... यह यात्रा एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा हम कश्मीर की धरती पर देश भर के लाखों हिंदुओं को हम पहुंचाते रहते हैं। इस यात्रा के दौरान यहां एक भिन्न प्रकार का वातावरण रहता है। अगर यह यात्रा न होती तो यह अन्य क्षेत्रों से असंबंध हो जाता। इसी प्रकार से हम क्या दो-चार ऐसे स्थानों के बारे में विचार कर सकते हैं क्या। भिन्न-भिन्न प्रकार से उनको रिवाइव कर सकते हैं क्या। वहां कोई वार्षिक मेला लगाने की बात सोच सकते हैं क्या।....... किसी न किसी प्रकार से कश्मीर घाटी में शेष देश की उपस्थिति दर्ज होनी चाहिए।
इसके लिए व्यापक योजना बनाने की आवश्यकता है। कुल मिलाकर काम के आयाम की जो चर्चा हुई उनमें चार बिंदु ध्यान में आते हैं। उनमें से पहला- प्रबोधन। इसके दो हिस्से हैं। एक मीडिया और दूसरा एकेडमिक। एकेडमिक में रिसर्च, पेपर्स, पब्लिकेशन, दस्तावेजी कार्य और कॉलेजों व विश्वविद्यालयों में आयोजित होने वाली चर्चा व परिचर्चाएं इत्यादि। ये सब करना पड़ेगा। प्रबोधन के लिए व्यावहारिक योजना बनानी पड़ेगी।
दूसरा- व्यापक जनजागरण का विषय है। लोकतंत्र में संख्या का बहुत महत्व है। आम आदमी को साथ लिए बिना कोई भी आंदोलन लंबे समय तक नहीं चल सकता। बिना जनजागरण के माहौल नहीं बदल सकता। अमरनाथ आंदोलन की सफलता का एक कारण यह भी था कि इससे सम्पूर्ण शहर जुड़ गया था। उस आंदोलन में जनजागरण, जनसहभागिता, जनसमर्थन और जनसहयोग की दृष्टि से व्यापकता बन गई थी।
तीसरा- इसके लिए रचनाएं बनानी पड़ेगी। बिना रचना का कोई काम नहीं होता। मेरा कहना है कि इसके लिए व्यापक और व्यावहारिक रचना बनानी पड़ेगी। इसका गंभीरता से विचार करना पड़ेगा। इस रचना को ही संगठन कहते हैं। सभी रचनाओं के लिए कार्य का विभाजन भी महत्वपूर्ण है।
चौथा- स्थिति बदलने के लिए संघर्षशील मानसिकता बनाना, इसके लिए संघर्ष करना ही पडे़गा।...........इन चारों चीजों के बारे में विचार करते हुए जब हम सभी विषयों के बारे में सोचेंगे, तो ऐसा लगता है कि स्थिति तो बदल ही जाएगी। केवल निराशा, हताशा, समस्याओं की गहराई, भयावहता और उसका वर्णन कर डर कर बैठने से संघर्ष नहीं हो सकता है। हम उस संगठन के कार्यकर्ता हैं जो परिस्थितियों से डर कर भागते नहीं हैं; बल्कि उसका सामना करते हैं। इसलिए मुझे विश्वास है कि स्थितियां बदलेंगी। मुझे लगता है कि इससे अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है। धन्यवाद!
(यह आलेख डॉ. बजरंग लाल गुप्ता द्वारा “जम्मू-कश्मीर : तथ्य, समस्याएं और समाधान” विषयक सेमीनार में दिए गए अध्यक्षीय उद्बोधन का सम्पादित अंश है। सेमीनार का आयोजन 25 व 26 जनवरी, 2011 को “जम्मू-कश्मीर अध्ययन केंद्र” ने जम्मू के अंबफला स्थित कारगिल भवन में किया था।)
इस दो दिवसीय परिचर्चा में लगभग सभी ने किसी न किसी प्रकार से मेरे भावों को व्यक्त किया है। मैं दो दिन से यहां पर हूं। जम्मू-कश्मीर से संबंधित इतने सारे विषयों को एकसाथ समग्रता से और विशेषकर विषय ही नहीं उनके पीछे की माइंडसेट क्या है, उनके इम्पीलीकेशन्स क्या है। यहां कुछ बातों को जानने-समझने का अवसर मिला है। इसका कितना लाभ होगा; यह तो भविष्य ही बताएगा।
धरती पर चित्र बदलने के लिए एक्शन प्रोग्राम का महत्व होता है। गीता इसीलिए दुनिया में मान्य व अद्वितीय हो गई क्योंकि गीता में से अर्जुन का कर्म निकला। उपदेश वही रहता, सब मार्गों पर चर्चा हुई, यानी अद्वितीय है कि युद्ध के मैदान में इतना जबरदस्त विचार विमर्श कोई कर सकता है, उसका अद्वितीय उदाहरण है; पर कल्पना करें कि ये सब प्रकार के ज्ञानमार्ग के बाद, भक्ति मार्ग के बाद, सब प्रकार की चर्चा के बाद, तमाम तर्कों के बाद और तमाम प्रकार के ज्ञान देने के बावजूद अगर अर्जुन युद्ध के लिए तैयार न होता, तो गीता की प्रासंगिता होती क्या?
इस संबंध में पंडित दीनदयाल उपाध्याय विचार और कार्य के बीच कैसा संबंध होना चाहिए, इसको बहुत ही सरल उदाहरण से कार्यकर्ताओं के समक्ष रखते थे। इसके लिए वे कहा करते थे- विचार नमक के बराबर और काम दाल के बराबर। कभी भी इसे उलट मत देना, ऐसा वह मजाक में बोला करते थे।
तो हम जिस मनमानस से, एक्शन ग्रुप से और जिस कर्म-योजना के साथ जुड़े हुए हैं और धरती पर चित्र बदलने का संकल्प लिया हुआ है। इसमें कहीं कोई हताशा या निराशा नहीं है। हम इसके लिए प्रतिबद्ध हैं। यह केवल और केवल एकेडमिक चर्चा नहीं है, इसमें से अंततोगत्वा सबका एक टीश है। सब वक्ताओं के भाषणों में से और जिसने बीच-बीच में हस्तक्षेप किया, सबका एक टीश है। इस परिचर्चा में सभी वक्ताओं की टीश समान रूप से प्रकट हो रही थी। प्रारम्भ अपने से होता है।
हमारे सामने उदाहरण है तिब्बत को लेकर। तिब्बत की स्वाधीनता गई। दलाई लामा पूरी दुनिया में जाकर इसका रहस्य समझाये, उनसे बढ़िया कोई बता नहीं सकता था। बहुत तर्कसंगत है। तिब्बत के निर्वासित सरकार के पूर्व प्रधानमंत्री सांमदोंग रिम्पोंक्षे जो बहुत विद्वान हैं, ने तिब्बत की स्वतंत्रता क्यों चाहिए, ऐसे प्रमुख विषयों को लेकर उन्होंने दो दिवसीय परिचर्चा आयोजित की थी। इसमें जबरदस्त चर्चा हुई, तर्कसंगत बातें हुईं। उन्होंने कहा तिब्बत की स्वतंत्रता केवल तिब्बत के लिए नहीं चाहिए, दुनिया के लिए चाहिए। परिस्थिति क्या बनी, धीरे-धीरे करके वह आंदोलन डाइलुट हो गया। लगभग मृतप्राय या समाप्तप्राय है। कारण क्या है तिब्बत की धरती से जो आवाज उठनी चाहिए थी वो आवाज उठने का स्कोप समाप्त हो गया।
कुल मिलाकर ऐसे तमाम चित्रों को बदलने की यदि इच्छा रखते हैं और वह चित्र बदला जाना है तो दोनों प्रकार की चीजों का हमको मेल बैठाना पड़ेगा। ये भी सच है कि हम एक्शन प्रोग्राम पर चले जाएं और हमारे पास कोई कान्सेप्चुअल फ्रेमवर्क (वैचारिक ढांचा) ही न हो, जो सवाल व मुद्दे हमारे विरोधी हमारे खिलाफ खड़े करते हैं उनका जवाब देने लायक ताकत ही नहीं है हमारे पास में, तो आपका ये एक्शन बिखर जाएगा, डायलूट हो जाएगा, निराशा आ जाएगी, दिशाविहीन हो जाएगी। इसलिए दोनों का मेल कैसा बिठा सकते हैं; इसके बारे में गंभीरता से विचार करना पड़ेगा और आप लोग विचार कर ही रहे हैं।
जम्मू-कश्मीर में अनेक लोगों से व्यक्तिगत रूप से औऱ समूह से भी मिलना हुआ है। डॉ. हरिओम जी से पुरानी मित्रता है इसलिए उनके साथ भी कई बार चर्चा हुई है। प्राथमिक दौर पर दो तीन बातें मैं आपसे कहना चाहूंगा। हम सब मिलकर कैसा कर सकते हैं जब ऐसा आंदोलन लड़ा जाता है, तो दो काम करना होता है। अपने लिए कोई केंद्रीय थीम तय करना पड़ता है। उसके ईर्द-गिर्द तमाम चीजें चाहिए। यानी जिनको आज जिनके साथ लड़ाई लड़ना है उन्होंने सेंट्रल थीम तय की हुई है। हम चाहे उनको सेपरिटिस्ट कहते होंगे, पर सेपरिटिस्ट उनकी सेंट्रल थीम है। कोई ऑटोनामी के नाम से बोलता होगा, कोई आजादी के नाम से बोलता होगा, कोई हमारे साथ ज्यादती हुई है; इस नाम से बोलता होगा। कोई हमारी बात सुनता नहीं है; इस नाम से बोलता होगा। लोकतांत्रिक रूप से वे हमको रोने का ही अधिकार नहीं देते। पुलिस आ रही है, सेना आ रही है उसके आयाम और तौर तरीके भिन्न-भिन्न प्रकार से तमाम चीजों के लिए .........। राजनीतिक दल भी ऐसी बातें बोल रहे हैं। बाकी एक सेंट्रल थीम होती है जिसके ईर्द गिर्द तमाम तरह के तर्क भी गढ़ना पड़ता है और तमाम प्रकार के आंदोलन भी चलाने पड़ते हैं।
कुल मिलाकर ऐसी लड़ाई हमारी थीम के पाले में होनी चाहिए। डिस्टर्शन औऱ टिबेट का डिस्कोर्स बदलना है तो वह हमारी थीम के अंतर्गत चलना चाहिए, तब जाकर डिस्टोर्शन और डिस्कोर्स को बदलने की क्षमता हम निर्माण कर सकेंगे। अभी हम जवाब दे रहे हैं तो जवाब उनसे लेने के लिए काम करना पड़ेगा, एक सेंट्रल थीम इसके लिए तय करना पड़ेगा। कभी-कभी लोगों से बातचीत होती है तो लगता है कि कुछ न कुछ भ्रम भी है। कन्फ्यूजन होने पर लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती।
मैं फिर गीता पर आना चाहता हूं। अर्जुन सोचता है कि मेरी ऐसी स्थिति क्यों बन गई है। इतना क्षमतावान, योग्यता में किसी भी प्रकार की कमी नहीं है; फिर भी मेरी ऐसी स्थिति क्यों बन गई है।................ अब मैं अपनी स्थिति में पहुंच गया हूं। अपने में स्थित हो गया हूं। तमाम प्रकार की अनिर्णय की स्थिति से अपने को मुक्त कर लिया है। अब मेरे मन में कोई संदेह नहीं है। इसलिए हे केशव! अब मैं आपकी बात मानकर लड़ने के लिए तैयार हूं।
तमाम तरह के आंदोलन सदैव होते रहते हैं। जब आप इन आंदोलनों का इतिहास चाहे वह अपने देश की हो या दुनिया की ही क्यों न हो, पढ़ेंगे तो आप पाएंगे कि यह असफल तब होता है जब आंदोलन के नेतृत्वकर्ताओं के मन में किसी भी प्रकार का भ्रम उत्पन्न हो जाता है। यह भ्रम की स्थिति संघर्ष का कारण बनती है। एक दूसरे पर दोषारोपण शुरू हो जाता है। तकरार की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। अमुक व्यक्ति ने ऐसा नहीं किया इसलिए गड़बड़ हो रहा है। जब भ्रम की स्थिति नहीं रहती है तो फिर दिशा तय रहती है। सभी मिलकर चलते हैं। तब जाकर विजय प्राप्त होती है।
कुल मिलाकर मेरा निवेदन है कि कार्ययोजना बनाते समय हमारी मनःस्थिति क्या है, हम कैसा करना चाहते हैं। हम जो करना चाहते हैं उसके बारे में कैसा सोचते हैं। जो मनःस्थिति है वही हमसे काम करवाती है। तो इस दृष्टिकोण के बारे में कुल मिलाकर जम्मू-कश्मीर के संबंध में हमारा जितना वश; राजनीतिक व गैर-राजनीतिक रूप से चल सकता है, चाहे वह मीडिया हो या ब्यूरोक्रैसी; हम उसका उपयोग करेंगे। हमको पच्चास तरह के रास्ते तलाशने पड़ेंगे। उसमें से टोटल माइंडसेट या दृष्टिकोण बदलने का प्रयत्न करना पड़ेगा।
इस संबंध में मैं रणनीतिक रूप से दिल्ली में कई अधिकारियों से व्यक्तिगत रूप से मिलता रहता हूं। ध्यान में आता है कि उनका माइंडसेट ही भिन्न है। आप लोगों ने जिन बातों की चर्चा की, वे उन तमाम चीजों को उस दृष्टिकोण से देखते ही नहीं, समझने के लिए ही तैयार नहीं है। उनका स्टैंड प्वाइंट ही सबसे भिन्न है। इसलिए उस माइंडसेट के लिए ही हमको अनेक स्तरों पर काम करना पड़ेगा। हमें इस दृष्टि से भी विचार करना पड़ेगा।
भिन्न-भिन्न चर्चाओं में ये बात आई है कि हमको दो स्तरों पर काम करना पड़ेगा। दोनों स्तरों के बीच में एक संबंध रखना पडे़गा। एक जम्मू-कश्मीर के लोगों का और दूसरा शेष भारत के लोगों के साथ। ऐसा संभव नहीं है कि केवल जम्मू-कश्मीर के स्तर पर काम करें और शेष भारत निश्चिंत रहे। यह भी संभव नहीं कि राज्य की धरती पर तो काम ही न हो और शेष भारत में काम हो।....... दोनों जगह पर काम होना चाहिए। इस काम की विभिन्न स्तरों पर समकालिक रूप से समन्वय बनाना पड़ेगा।
मैं जब जम्मू-कश्मीर बोलता हूं तो यह बोलते समय भी तीन रिजन्स हैं....... इन तीनों की अलग-अलग प्रकार के एक्शन प्लान और अलग-अलग रणनीति बनानी पड़ेगी। तीनों में समान रणनीति नहीं हो सकती। क्योंकि तीनों के इमोशनल अटैचमेंट भी अलग हैं। तीनों के कान्सेप्ट को अलग एड्रेस करना पड़ेगा। कुल मिलाकर लक्ष्य एक ही है; पर इस कान्सेप्ट को एड्रेस करने की रणनीति अलग-अलग बनानी पडे़गी।
यह सभी जानते हैं कि जम्मू के लोगों ने भिन्न-भिन्न अवसरों पर बहुत काम किया है। आज भी जो कुछ काम हो रहा है, यहीं हो रहा है। मेरी ज्यादा चिंता कश्मीर घाटी को लेकर है। वहां किसी न किसी प्रकार से हमको समझदारी से दस्तक देते रहने की योजना बनानी पड़ेगी।
जिस प्रकार अमरनाथ आंदोलन हुआ, इस पर विचार करने के लिए हम लोग बैठे थे उसके पीछे एक आयाम यह भी था........... यह यात्रा एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा हम कश्मीर की धरती पर देश भर के लाखों हिंदुओं को हम पहुंचाते रहते हैं। इस यात्रा के दौरान यहां एक भिन्न प्रकार का वातावरण रहता है। अगर यह यात्रा न होती तो यह अन्य क्षेत्रों से असंबंध हो जाता। इसी प्रकार से हम क्या दो-चार ऐसे स्थानों के बारे में विचार कर सकते हैं क्या। भिन्न-भिन्न प्रकार से उनको रिवाइव कर सकते हैं क्या। वहां कोई वार्षिक मेला लगाने की बात सोच सकते हैं क्या।....... किसी न किसी प्रकार से कश्मीर घाटी में शेष देश की उपस्थिति दर्ज होनी चाहिए।
इसके लिए व्यापक योजना बनाने की आवश्यकता है। कुल मिलाकर काम के आयाम की जो चर्चा हुई उनमें चार बिंदु ध्यान में आते हैं। उनमें से पहला- प्रबोधन। इसके दो हिस्से हैं। एक मीडिया और दूसरा एकेडमिक। एकेडमिक में रिसर्च, पेपर्स, पब्लिकेशन, दस्तावेजी कार्य और कॉलेजों व विश्वविद्यालयों में आयोजित होने वाली चर्चा व परिचर्चाएं इत्यादि। ये सब करना पड़ेगा। प्रबोधन के लिए व्यावहारिक योजना बनानी पड़ेगी।
दूसरा- व्यापक जनजागरण का विषय है। लोकतंत्र में संख्या का बहुत महत्व है। आम आदमी को साथ लिए बिना कोई भी आंदोलन लंबे समय तक नहीं चल सकता। बिना जनजागरण के माहौल नहीं बदल सकता। अमरनाथ आंदोलन की सफलता का एक कारण यह भी था कि इससे सम्पूर्ण शहर जुड़ गया था। उस आंदोलन में जनजागरण, जनसहभागिता, जनसमर्थन और जनसहयोग की दृष्टि से व्यापकता बन गई थी।
तीसरा- इसके लिए रचनाएं बनानी पड़ेगी। बिना रचना का कोई काम नहीं होता। मेरा कहना है कि इसके लिए व्यापक और व्यावहारिक रचना बनानी पड़ेगी। इसका गंभीरता से विचार करना पड़ेगा। इस रचना को ही संगठन कहते हैं। सभी रचनाओं के लिए कार्य का विभाजन भी महत्वपूर्ण है।
चौथा- स्थिति बदलने के लिए संघर्षशील मानसिकता बनाना, इसके लिए संघर्ष करना ही पडे़गा।...........इन चारों चीजों के बारे में विचार करते हुए जब हम सभी विषयों के बारे में सोचेंगे, तो ऐसा लगता है कि स्थिति तो बदल ही जाएगी। केवल निराशा, हताशा, समस्याओं की गहराई, भयावहता और उसका वर्णन कर डर कर बैठने से संघर्ष नहीं हो सकता है। हम उस संगठन के कार्यकर्ता हैं जो परिस्थितियों से डर कर भागते नहीं हैं; बल्कि उसका सामना करते हैं। इसलिए मुझे विश्वास है कि स्थितियां बदलेंगी। मुझे लगता है कि इससे अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है। धन्यवाद!
(यह आलेख डॉ. बजरंग लाल गुप्ता द्वारा “जम्मू-कश्मीर : तथ्य, समस्याएं और समाधान” विषयक सेमीनार में दिए गए अध्यक्षीय उद्बोधन का सम्पादित अंश है। सेमीनार का आयोजन 25 व 26 जनवरी, 2011 को “जम्मू-कश्मीर अध्ययन केंद्र” ने जम्मू के अंबफला स्थित कारगिल भवन में किया था।)
Tuesday, February 1, 2011
The State And The Nation
Arun Jaitley
Jammu & Kashmir is strategically located on the border of Pakistan. One-third of the state's territory is under Pakistani occupation. Kashmir is part of Pakistan's unfinished agenda since the partition of India. Pakistan, after initially snatching away a part of our territory, has consistently attempted to internationalise the issue. Its initial strategy of conventional war to occupy larger territory has failed. India's military strength was superior.
For two decades Pakistan resorted to proxy war through cross-border terrorism. The world started frowning upon terror tactics. India gained strength both in intelligence and security operations to crush terror. Pakistan's strategy did not work beyond a point. Through separatists in Kashmir it is now resorting to a strategy of stone-pelting while arguing that it is a peaceful protest.
Violence has always been the separatists' strategy. It invites police and security action. In clashes that follow, many innocents suffer. This results in curfews, hartals and disruption of normal life. Homes are searched and human dignity is compromised. Separatists feel, by adopting this strategy, they can create a wedge between the people and the Indian state. In a peaceful Kashmir, separatist leaders are reduced to becoming Friday speakers. In a stormy Kashmir they become mass leaders. Violence and disruption of life suits them, not the Indian state.
How did we reach this stage? Three historical mistakes were committed by our government immediately after independence. Firstly, when a natural migration after the partition was taking place, the then government did not allow resettlement of any refugee in J&K. Refugees who migrated from the PoK region have not been accorded the status of state subject till today. Secondly, Nehru's insistence on ascertaining the wishes of the people - a principle not adopted anywhere else in the country - resulted in the plebiscite resolution, the UN's resolution and the internationalisation of the issue.
Thirdly, grant of special status prevented J&K's economic development. It created a psychological barrier between the state and the rest of India. The state's political merger was complete with the signing of the instrument of accession. Accession to Indian law, however, was incomplete because of Article 370. The six-decade journey of separate status has not been towards fuller integration but towards separatism. Separate status created a faint hope of azadi in the minds of some. It prevented investments in the state. Even with its huge human resource potential and natural beauty, the state could never realise its economic potential. It did not gain from economic development in the last two decades.
Pakistan has aided separatists and terrorists. Violence, terrorism coupled with security actions harassed the Indian state and the people of J&K. The faint hope of azadi at times culminated in a realisable reality in the minds of separatists. None amongst Kashmir's people has considered whether azadi is realistically possible. Azadi's political content and the prospect of an 'azad' state's survival have never been seriously analysed. It was an idea of protest against India.
If separate status gave birth to this faint hope of azadi, mainstream parties, by advocating autonomy, pre-1953 status, self-rule and dual currency, aided and abetted this.
Under our constitutional scheme, J&K enjoys more executive and legislative powers than any other state in India. The Centre's jurisdiction is confined to security, defence, currency, foreign affairs, telecommunication and the jurisdiction of the Supreme Court and Election Commission. None of the above-mentioned jurisdictions can ever be transferred to the state. J&K's current problems are due to the environment being created by separatists, terrorists and our western neighbour. The problems may be economic, employment-centric or those of regional imbalances. None has anything to do with inadequacy of power being vested in the state legislature or state government.
The whole object of some political parties is to weaken the political and constitutional relationship between the state and the nation. Special status already started this, with a relationship of modest strength. Autonomy, self-rule and azadi are all intended to weaken this relationship even more. It is for this reason symbols of India's national identity are objected to by the votaries of separatism. There was an objection to the army's presence in the state. Army cantonments are objected to. If yatris visit the Amarnath shrine, grant of land for basic toilet or lodging amenities was objected to. If a national political party endeavours to fly the national flag at a prominent market place in the state capital, it is considered provocative.
The tragedy of J&K is that the Nehruvian policy of this loose political and constitutional relationship between the state and the Centre was flawed. Votaries of this policy never accepted its disastrous consequences. They wish to further pursue it to loosen the relationship. Hence the present dichotomy. If somebody advocates segregation of the state from the Indian nation, it is free speech; if you fly the national flag, you will be arrested for breach of peace.
It is time governments and policy makers realise the consequences of what they have pursued for over six decades. Unquestionably to eliminate separatism we need to have the people of J&K on our side. Our policy has to be people-friendly, but not separatist-friendly. The state needs peace, prosperity, jobs and security. It does not need moves which strengthen the separatist psyche. Regrettably, the move to consider the unfurling of the national flag by the BJP youth wing representatives in the Valley as a possible breach of peace was psychological surrender to the psyche of the separatists.
(The writer is a leader of the opposition in the Rajya Sabha.)
(Courtesy : Times of India)
BJP should focus on Kashmiris’ real problems
Iftikhar Gilani (Columnist)
More national flags are hoisted in the Kashmir valley than elsewhere in India. Instead of dull symbolism, the BJP would do well to launch programmes to highlight the corruption and nepotism of the Omar Government
The country’s principal Opposition party’s Ekta Yatra to hoist the national flag at Lal Chowk in Srinagar resembled a march to conquer enemy territory, giving all the impression that Tricolour is normally not allowed to be unfurled in Jammu and Kashmir even on occasions like Republic Day. The fact is that the Kashmir valley hosts the highest number of the national flag ceremonies on Republic and Independence Days each year than any other district in India.
People in Delhi and elsewhere would be surprised to know that no less than 450 such flag hoisting ceremonies are organised in the 10 districts that fall within the Valley region. Besides the famous Lal Chowk of Srinagar, where the BJP’s Yuva Morcha activists were heading in climax to their torturous expedition, there are more than 10 spots in the city alone where the national flags ceremoniously hoisted on the two national days. As for Lal Chowk, flag raising was done every year by the paramilitary forces, BSF and CRPF, until 2007 when their commandant-headed bunker moved out.
Other places in Srinagar that regularly have the Tricolour hoisted on R-Day and Independence Day include Palladium Cinema Chowk, Needous Hotel, Radio Kashmir, TV Station, Telephone Exchange and almost near all the bunkers and posts of the paramilitary forces. In every district, tehsil and block headquarters, the state ministers, district magistrates or tehsildars hoist flags in addition to Army organising their own functions separately at brigade and section headquarters.
So ordinary Kashmiris find it hard to understand why the BJP was up to so much fuss. People wondered if the saffronites were not up to their old rhetoric-oriented politics. The party had vowed to address the issue of Kashmir within the framework of “humanity,” when Atal Bihari Vajpayee visited Srinagar in 2000. It was an imaginative and bold promise which paved the way for a peace process with the separatists. Later, on April 18, 2003, he also announced a “fresh hand of friendship with Pakistan” from Srinagar.
It is high time the national Opposition party stops looking at the Kashmir issue though a telescope erected on the soil of Hindu majority Jammu and Kathaua where it has considerable support. A solution to the Kashmir issue is necessary for regional peace as well as progress of the country. While on the one hand, BJP leaders vow to ensure the unity of the State, on the other they stoke the flames of division along communal lines by raising the issue of “discrimination” against Jammu and Ladakh. In the 2008 elections, as a fallout of the Amarnath land row, the BJP won 11 seats in the State Assembly, mostly in Jammu, Kathua and Samba districts; up from just one seat it got in the 2002 election.
The party’s discrimination theory was punctured by the State Finance Commission (SFC)’s latest findings, which has concluded that Jammu, Kathua and Samba were among the most developed districts of the State. Actually they are more developed than the average Indian district. Even Leh was far more prosperous than nearby Kargil which, because of its Muslim majority, doesn’t exist in the BJP’s scheme of things. So, instead of trying to simulate phony patriotism by raising issues like “denial of democratic space”, the BJP would have done better had it capitalised on the State’s governance deficit.
What Sushma Swaraj and Arun Jaitley faced in Jammu, from where they were bundled out to across the Punjab border, is daily recurrence for Kashmiri activists and politicians who dare to raise their voice against the misrule of the National Conference-Congress combine. The party hardly raised the issue of Chief Minister Omar Abdullah’s repeated absence from Srinagar when the State was on flames.
On September 13, 2010, the Cabinet Committee on Security (CCS), at its meeting in New Delhi, had acknowledged “trust deficit” and “governance deficit” as the two biggest problems afflicting the approach towards J&K. Ironically, the eight confidence building measures announced a fortnight later did not announce any step to bridge the “governance deficit”.
Even in the two years since Omar Abdullah assumed office, the backbone of the state administration which comprises important commissions, the State Accountability Commission and Vigilance Commission are yet to be constituted. The Information Commission saw its first chief just a few days ago after much squabbling.
Surely, the BJP can turn over a new leaf if it supports democratic voices within J&K and lends support to the political and emotional empowerment of Kashmiri population. That is the only way to show a humane face of India to a people who have so far just seen either a mal-administered, unresponsive Government or a gun-totting soldier representing India’s face.
(Courtesy : The Pioneer)
राष्ट्रवाद का निरादर
तिरंगा यात्रा के प्रति उमर अब्दुल्ला के रुख से अलगाववादियों का दुस्साहस बढ़ता देख रहे हैं नवजोत सिंह सिद्धू
मैं अपने महान देश की कन्याकुमारी से कश्मीर तक लंबी-चौड़ी सीमाओं की बातें सुनकर बड़ा हुआ हूं। उम्र के साथ परिपक्वता आने पर मेरे अंदर एक ऐसे देश का नागरिक होने का गर्व भी आ गया जो नाना प्रकार के धर्म, संस्कृति और भाषा के लोगों को एक सूत्र में बांधता है। सच तो यह है कि राज्यों अथवा देश की सीमाओं ने मेरे आवागमन को कभी नहीं रोका। मैं जहां चाहे वहां जा सकता था। मैं क्रिकेट, क्रिकेट कमेंट्री, राजनीति, टीवी, सिनेमा जैसे अनेक कॅरियर से जुड़ा रहा और इस दौरान मुझे कभी यह अहसास नहीं हुआ कि कोई सीमा मुझे कहीं आने-जाने से प्रतिबंधित करती है। अपने देश की सीमाओं के संदर्भ में मेरी यह सुखद धारणा पिछले दिनों उस समय टूट गई जब मुझे भारतीय जनता युवा मोर्चा के कार्यकर्ताओं के साथ जम्मू-कश्मीर में प्रवेश करने से रोक दिया गया। हम 26 जनवरी को मोर्चा की तिरंगा यात्रा के तहत श्रीनगर में अपना राष्ट्रीय ध्वज फहराना चाहते थे, लेकिन हमें ऐसा नहीं करने दिया गया।
जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला का नजरिया यह था कि भारतीय जनता युवा मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष तथा सांसद अनुराग ठाकुर के नेतृत्व में निकाली जा रही तिरंगा यात्रा से घाटी में शांति व्यवस्था को खतरा उत्पन्न हो सकता है। उमर अब्दुल्ला ने सुषमा स्वराज, अरुण जेटली तथा अनंत कुमार सरीखे भाजपा के बड़े नेताओं की गिरफ्तारी के आदेश भी दिए ताकि उन्हें श्रीनगर के लाल चौक में राष्ट्रीय ध्वज फहराने के कार्यक्रम में शामिल होने से रोका जा सके। सवाल यह है कि एक शांतिपूर्ण मार्च शांति के लिए खतरा कैसे हो सकता है? भाजयुमो के कार्यकर्ता यदि लाल चौक में तिरंगा फहराना चाहते थे तो क्या वे कोई अपराध कर रहे थे? यदि लाल चौक में तिरंगा फहराने की इजाजत दे दी जाती तो कश्मीरियों के किस वर्ग की शांति को खतरा उत्पन्न हो जाता? ऐसे अनेक सवाल मुझे लगातार मथ रहे हैं। मैं निजी तौर पर उमर अब्दुल्ला को तब जरूर बधाई देता यदि उन्होंने वास्तव में घाटी में शांति को मजबूत करने के लिए कार्य किया होता, लेकिन उन्होंने जो कुछ कहा अथवा जो कुछ किया उससे यह साफ हुआ कि वह संप्रग सरकार के नीति-निर्धारकों के निर्देशों पर कार्य कर रहे हैं।
उमर अब्दुल्ला आसानी से अनुराग ठाकुर को राष्ट्रीय हीरो बनने से रोक सकते थे। उन्हें बस सुरक्षा बलों से लाल चौक में तिरंगा फहराने की अपनी परंपरा को पुनर्जीवित करने के लिए कहना था। इस स्थिति में वह राष्ट्रीय ध्वज को सलामी देने के लिए भाजयुमो के चुनिंदा कार्यकर्ताओं को इस कार्यक्रम में शामिल होने की अनुमति दे सकते थे। उमर अब्दुल्ला ने जिस तरह भाजयुमो को लाल चौक में तिरंगा फहराने की अनुमति देने से इनकार कर दिया उससे उन्होंने कुल मिलाकर भारत के बजाय पाकिस्तान के हितों की पूर्ति ही की है। आखिर हम इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि लाल चौक पिछले कुछ वर्षो में आतंकवाद के दौर में भारतीय सुरक्षा बलों की श्रेष्ठता का प्रतीक रहा है। एक असफल राष्ट्र पाकिस्तान ने यह कामना कभी नहीं की कि भारत शांतिपूर्ण माहौल में उन्नति करे। उसने हर संभव तरीके से भारत में अशांति फैलाने के प्रयास किए हैं। उसकी ये नापाक कोशिशें जहां देश के अन्य हिस्सों में असफल सिद्ध हो रही हैं वहीं कश्मीर में उन्हें आंशिक सफलता मिल रही है। इसका मुख्य कारण एक के बाद एक जम्मू-कश्मीर सरकारों की दोहरी नीतियां हैं।
उमर अब्दुल्ला को यह नहीं भूलना चाहिए कि वह जिस राज्य में शासन कर रहे हैं उसका जम्मू भी एक महत्वपूर्ण भाग है। उन्होंने उन चार लाख कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास के लिए क्या किया है जिन्हें कश्मीर से पलायन के लिए विवश कर दिया गया है और वे अभी भी जम्मू में अपना घर बसाने में संघर्ष कर रहे हैं? उमर अब्दुल्ला अलगाववादियों को संतुष्ट करने के लिए जो कदम उठा रहे हैं वे कितने उचित ठहराए जा सकते हैं? आखिर उन लोगों के साथ सहानुभूति प्रदर्शित करने का क्या औचित्य जो जम्मू-कश्मीर में अलग मुद्रा, अलग चुनाव आयोग और अलग झंडा चाहते हैं? मुख्यमंत्री को हमेशा एक चीज याद रखनी चाहिए कि अगर आप किसी कार्य को सही समझते हैं, लेकिन उसे करते नहीं हैं तो इससे बड़ी कायरता और कोई नहीं। एक ऐसे समय जब भारत ने पाकिस्तान से लगी सीमा पर बड़ी संख्या में सुरक्षा बल तैनात किए हैं तब उसे प्रत्येक स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर जम्मू-कश्मीर के हर गांव-शहर में राष्ट्रीय ध्वज फहराने के कार्यक्रम आयोजित करने की जरूरत है ताकि इस भ्रम को दूर किया जा सके कि देश के एक और विभाजन की गुंजाइश है। मैं जम्मू-कश्मीर को विकास के लिए भारी-भरकम सहायता देने के खिलाफ नहीं हूं, लेकिन इस सहायता को सही तरह लक्षित लोगों तक पहुंचना चाहिए तथा इसका इस्तेमाल जम्मू-कश्मीर के लोगों में राष्ट्रीय भावना बढ़ाने के लिए करना चाहिए।
केंद्र सरकार को इसके साथ ही जम्मू-कश्मीर के प्रति अपने दृष्टिकोण तथा नीति को भी बदलने की जरूरत है। यदि जम्मू-कश्मीर को धारा-370 के तहत विशेष राज्य दर्जा देने के माडल ने कश्मीरियों की मानसिकता बदलने का काम नहीं किया है तो इसे वापस लेने पर विचार करने में क्या हर्ज है? अगर शांति बंदूक की नली के साथ ही अर्जित की जानी है तो फिर एकसमान नागरिक संहिता के तहत ऐसा क्यों नहीं किया जा सकता, जिसमें कश्मीरियों को शेष भारतीयों के साथ एक ही नजर से देखा जाए और उनके साथ समान व्यवहार हो। आखिर कुछ लोगों को संविधान की मूल भावना के साथ खिलवाड़ करने की इजाजत क्यों दी जा रही है? जब संविधान में जाति, रंग और नस्ल के आधार पर नागरिकों के बीच कोई अंतर नहीं किया गया है तब जम्मू-कश्मीर के लिए विशेष प्रावधान करने का क्या औचित्य है? कोई भी इतिहास में नजर दौड़ाए तो वह पाएगा कि किस तरह केंद्र सरकार ने पंजाब में उग्रवाद पर सख्ती से अंकुश लगाया था। तत्कालीन केंद्र सरकार ने सिख उग्रवाद को कुचलने के लिए एक प्रकार से सीमाएं लांघते हुए सिखों के सर्वोच्च स्थल अकाल तख्त पर भी धावा बोला था। पूरे अभियान में 25000 से अधिक सिख युवक मारे गए, जिनमें अनेक की मौत संदिग्ध परिस्थितियों में हुई। पंजाब में अलगाववाद को सख्ती से कुचलने के बाद केंद्र जम्मू-कश्मीर के लिए अलग मानदंड अपना रहा है। आखिर कब तक कांग्रेस वोट बैंक की राजनीति करती रहेगी और वह भी किस कीमत पर? एकता यात्रा ने केंद्र और जम्मू-कश्मीर सरकार के समक्ष सवाल खड़ा कर दिया कि आप राष्ट्रवाद के पक्ष में हैं अथवा अलगाववाद के?
(लेखक : भाजपा के लोकसभा सदस्य हैं।)
(Courtesy : Dainik Jagran Hindi Daily)
Jammu & Kashmir is strategically located on the border of Pakistan. One-third of the state's territory is under Pakistani occupation. Kashmir is part of Pakistan's unfinished agenda since the partition of India. Pakistan, after initially snatching away a part of our territory, has consistently attempted to internationalise the issue. Its initial strategy of conventional war to occupy larger territory has failed. India's military strength was superior.
For two decades Pakistan resorted to proxy war through cross-border terrorism. The world started frowning upon terror tactics. India gained strength both in intelligence and security operations to crush terror. Pakistan's strategy did not work beyond a point. Through separatists in Kashmir it is now resorting to a strategy of stone-pelting while arguing that it is a peaceful protest.
Violence has always been the separatists' strategy. It invites police and security action. In clashes that follow, many innocents suffer. This results in curfews, hartals and disruption of normal life. Homes are searched and human dignity is compromised. Separatists feel, by adopting this strategy, they can create a wedge between the people and the Indian state. In a peaceful Kashmir, separatist leaders are reduced to becoming Friday speakers. In a stormy Kashmir they become mass leaders. Violence and disruption of life suits them, not the Indian state.
How did we reach this stage? Three historical mistakes were committed by our government immediately after independence. Firstly, when a natural migration after the partition was taking place, the then government did not allow resettlement of any refugee in J&K. Refugees who migrated from the PoK region have not been accorded the status of state subject till today. Secondly, Nehru's insistence on ascertaining the wishes of the people - a principle not adopted anywhere else in the country - resulted in the plebiscite resolution, the UN's resolution and the internationalisation of the issue.
Thirdly, grant of special status prevented J&K's economic development. It created a psychological barrier between the state and the rest of India. The state's political merger was complete with the signing of the instrument of accession. Accession to Indian law, however, was incomplete because of Article 370. The six-decade journey of separate status has not been towards fuller integration but towards separatism. Separate status created a faint hope of azadi in the minds of some. It prevented investments in the state. Even with its huge human resource potential and natural beauty, the state could never realise its economic potential. It did not gain from economic development in the last two decades.
Pakistan has aided separatists and terrorists. Violence, terrorism coupled with security actions harassed the Indian state and the people of J&K. The faint hope of azadi at times culminated in a realisable reality in the minds of separatists. None amongst Kashmir's people has considered whether azadi is realistically possible. Azadi's political content and the prospect of an 'azad' state's survival have never been seriously analysed. It was an idea of protest against India.
If separate status gave birth to this faint hope of azadi, mainstream parties, by advocating autonomy, pre-1953 status, self-rule and dual currency, aided and abetted this.
Under our constitutional scheme, J&K enjoys more executive and legislative powers than any other state in India. The Centre's jurisdiction is confined to security, defence, currency, foreign affairs, telecommunication and the jurisdiction of the Supreme Court and Election Commission. None of the above-mentioned jurisdictions can ever be transferred to the state. J&K's current problems are due to the environment being created by separatists, terrorists and our western neighbour. The problems may be economic, employment-centric or those of regional imbalances. None has anything to do with inadequacy of power being vested in the state legislature or state government.
The whole object of some political parties is to weaken the political and constitutional relationship between the state and the nation. Special status already started this, with a relationship of modest strength. Autonomy, self-rule and azadi are all intended to weaken this relationship even more. It is for this reason symbols of India's national identity are objected to by the votaries of separatism. There was an objection to the army's presence in the state. Army cantonments are objected to. If yatris visit the Amarnath shrine, grant of land for basic toilet or lodging amenities was objected to. If a national political party endeavours to fly the national flag at a prominent market place in the state capital, it is considered provocative.
The tragedy of J&K is that the Nehruvian policy of this loose political and constitutional relationship between the state and the Centre was flawed. Votaries of this policy never accepted its disastrous consequences. They wish to further pursue it to loosen the relationship. Hence the present dichotomy. If somebody advocates segregation of the state from the Indian nation, it is free speech; if you fly the national flag, you will be arrested for breach of peace.
It is time governments and policy makers realise the consequences of what they have pursued for over six decades. Unquestionably to eliminate separatism we need to have the people of J&K on our side. Our policy has to be people-friendly, but not separatist-friendly. The state needs peace, prosperity, jobs and security. It does not need moves which strengthen the separatist psyche. Regrettably, the move to consider the unfurling of the national flag by the BJP youth wing representatives in the Valley as a possible breach of peace was psychological surrender to the psyche of the separatists.
(The writer is a leader of the opposition in the Rajya Sabha.)
(Courtesy : Times of India)
BJP should focus on Kashmiris’ real problems
Iftikhar Gilani (Columnist)
More national flags are hoisted in the Kashmir valley than elsewhere in India. Instead of dull symbolism, the BJP would do well to launch programmes to highlight the corruption and nepotism of the Omar Government
The country’s principal Opposition party’s Ekta Yatra to hoist the national flag at Lal Chowk in Srinagar resembled a march to conquer enemy territory, giving all the impression that Tricolour is normally not allowed to be unfurled in Jammu and Kashmir even on occasions like Republic Day. The fact is that the Kashmir valley hosts the highest number of the national flag ceremonies on Republic and Independence Days each year than any other district in India.
People in Delhi and elsewhere would be surprised to know that no less than 450 such flag hoisting ceremonies are organised in the 10 districts that fall within the Valley region. Besides the famous Lal Chowk of Srinagar, where the BJP’s Yuva Morcha activists were heading in climax to their torturous expedition, there are more than 10 spots in the city alone where the national flags ceremoniously hoisted on the two national days. As for Lal Chowk, flag raising was done every year by the paramilitary forces, BSF and CRPF, until 2007 when their commandant-headed bunker moved out.
Other places in Srinagar that regularly have the Tricolour hoisted on R-Day and Independence Day include Palladium Cinema Chowk, Needous Hotel, Radio Kashmir, TV Station, Telephone Exchange and almost near all the bunkers and posts of the paramilitary forces. In every district, tehsil and block headquarters, the state ministers, district magistrates or tehsildars hoist flags in addition to Army organising their own functions separately at brigade and section headquarters.
So ordinary Kashmiris find it hard to understand why the BJP was up to so much fuss. People wondered if the saffronites were not up to their old rhetoric-oriented politics. The party had vowed to address the issue of Kashmir within the framework of “humanity,” when Atal Bihari Vajpayee visited Srinagar in 2000. It was an imaginative and bold promise which paved the way for a peace process with the separatists. Later, on April 18, 2003, he also announced a “fresh hand of friendship with Pakistan” from Srinagar.
It is high time the national Opposition party stops looking at the Kashmir issue though a telescope erected on the soil of Hindu majority Jammu and Kathaua where it has considerable support. A solution to the Kashmir issue is necessary for regional peace as well as progress of the country. While on the one hand, BJP leaders vow to ensure the unity of the State, on the other they stoke the flames of division along communal lines by raising the issue of “discrimination” against Jammu and Ladakh. In the 2008 elections, as a fallout of the Amarnath land row, the BJP won 11 seats in the State Assembly, mostly in Jammu, Kathua and Samba districts; up from just one seat it got in the 2002 election.
The party’s discrimination theory was punctured by the State Finance Commission (SFC)’s latest findings, which has concluded that Jammu, Kathua and Samba were among the most developed districts of the State. Actually they are more developed than the average Indian district. Even Leh was far more prosperous than nearby Kargil which, because of its Muslim majority, doesn’t exist in the BJP’s scheme of things. So, instead of trying to simulate phony patriotism by raising issues like “denial of democratic space”, the BJP would have done better had it capitalised on the State’s governance deficit.
What Sushma Swaraj and Arun Jaitley faced in Jammu, from where they were bundled out to across the Punjab border, is daily recurrence for Kashmiri activists and politicians who dare to raise their voice against the misrule of the National Conference-Congress combine. The party hardly raised the issue of Chief Minister Omar Abdullah’s repeated absence from Srinagar when the State was on flames.
On September 13, 2010, the Cabinet Committee on Security (CCS), at its meeting in New Delhi, had acknowledged “trust deficit” and “governance deficit” as the two biggest problems afflicting the approach towards J&K. Ironically, the eight confidence building measures announced a fortnight later did not announce any step to bridge the “governance deficit”.
Even in the two years since Omar Abdullah assumed office, the backbone of the state administration which comprises important commissions, the State Accountability Commission and Vigilance Commission are yet to be constituted. The Information Commission saw its first chief just a few days ago after much squabbling.
Surely, the BJP can turn over a new leaf if it supports democratic voices within J&K and lends support to the political and emotional empowerment of Kashmiri population. That is the only way to show a humane face of India to a people who have so far just seen either a mal-administered, unresponsive Government or a gun-totting soldier representing India’s face.
(Courtesy : The Pioneer)
राष्ट्रवाद का निरादर
तिरंगा यात्रा के प्रति उमर अब्दुल्ला के रुख से अलगाववादियों का दुस्साहस बढ़ता देख रहे हैं नवजोत सिंह सिद्धू
मैं अपने महान देश की कन्याकुमारी से कश्मीर तक लंबी-चौड़ी सीमाओं की बातें सुनकर बड़ा हुआ हूं। उम्र के साथ परिपक्वता आने पर मेरे अंदर एक ऐसे देश का नागरिक होने का गर्व भी आ गया जो नाना प्रकार के धर्म, संस्कृति और भाषा के लोगों को एक सूत्र में बांधता है। सच तो यह है कि राज्यों अथवा देश की सीमाओं ने मेरे आवागमन को कभी नहीं रोका। मैं जहां चाहे वहां जा सकता था। मैं क्रिकेट, क्रिकेट कमेंट्री, राजनीति, टीवी, सिनेमा जैसे अनेक कॅरियर से जुड़ा रहा और इस दौरान मुझे कभी यह अहसास नहीं हुआ कि कोई सीमा मुझे कहीं आने-जाने से प्रतिबंधित करती है। अपने देश की सीमाओं के संदर्भ में मेरी यह सुखद धारणा पिछले दिनों उस समय टूट गई जब मुझे भारतीय जनता युवा मोर्चा के कार्यकर्ताओं के साथ जम्मू-कश्मीर में प्रवेश करने से रोक दिया गया। हम 26 जनवरी को मोर्चा की तिरंगा यात्रा के तहत श्रीनगर में अपना राष्ट्रीय ध्वज फहराना चाहते थे, लेकिन हमें ऐसा नहीं करने दिया गया।
जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला का नजरिया यह था कि भारतीय जनता युवा मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष तथा सांसद अनुराग ठाकुर के नेतृत्व में निकाली जा रही तिरंगा यात्रा से घाटी में शांति व्यवस्था को खतरा उत्पन्न हो सकता है। उमर अब्दुल्ला ने सुषमा स्वराज, अरुण जेटली तथा अनंत कुमार सरीखे भाजपा के बड़े नेताओं की गिरफ्तारी के आदेश भी दिए ताकि उन्हें श्रीनगर के लाल चौक में राष्ट्रीय ध्वज फहराने के कार्यक्रम में शामिल होने से रोका जा सके। सवाल यह है कि एक शांतिपूर्ण मार्च शांति के लिए खतरा कैसे हो सकता है? भाजयुमो के कार्यकर्ता यदि लाल चौक में तिरंगा फहराना चाहते थे तो क्या वे कोई अपराध कर रहे थे? यदि लाल चौक में तिरंगा फहराने की इजाजत दे दी जाती तो कश्मीरियों के किस वर्ग की शांति को खतरा उत्पन्न हो जाता? ऐसे अनेक सवाल मुझे लगातार मथ रहे हैं। मैं निजी तौर पर उमर अब्दुल्ला को तब जरूर बधाई देता यदि उन्होंने वास्तव में घाटी में शांति को मजबूत करने के लिए कार्य किया होता, लेकिन उन्होंने जो कुछ कहा अथवा जो कुछ किया उससे यह साफ हुआ कि वह संप्रग सरकार के नीति-निर्धारकों के निर्देशों पर कार्य कर रहे हैं।
उमर अब्दुल्ला आसानी से अनुराग ठाकुर को राष्ट्रीय हीरो बनने से रोक सकते थे। उन्हें बस सुरक्षा बलों से लाल चौक में तिरंगा फहराने की अपनी परंपरा को पुनर्जीवित करने के लिए कहना था। इस स्थिति में वह राष्ट्रीय ध्वज को सलामी देने के लिए भाजयुमो के चुनिंदा कार्यकर्ताओं को इस कार्यक्रम में शामिल होने की अनुमति दे सकते थे। उमर अब्दुल्ला ने जिस तरह भाजयुमो को लाल चौक में तिरंगा फहराने की अनुमति देने से इनकार कर दिया उससे उन्होंने कुल मिलाकर भारत के बजाय पाकिस्तान के हितों की पूर्ति ही की है। आखिर हम इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि लाल चौक पिछले कुछ वर्षो में आतंकवाद के दौर में भारतीय सुरक्षा बलों की श्रेष्ठता का प्रतीक रहा है। एक असफल राष्ट्र पाकिस्तान ने यह कामना कभी नहीं की कि भारत शांतिपूर्ण माहौल में उन्नति करे। उसने हर संभव तरीके से भारत में अशांति फैलाने के प्रयास किए हैं। उसकी ये नापाक कोशिशें जहां देश के अन्य हिस्सों में असफल सिद्ध हो रही हैं वहीं कश्मीर में उन्हें आंशिक सफलता मिल रही है। इसका मुख्य कारण एक के बाद एक जम्मू-कश्मीर सरकारों की दोहरी नीतियां हैं।
उमर अब्दुल्ला को यह नहीं भूलना चाहिए कि वह जिस राज्य में शासन कर रहे हैं उसका जम्मू भी एक महत्वपूर्ण भाग है। उन्होंने उन चार लाख कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास के लिए क्या किया है जिन्हें कश्मीर से पलायन के लिए विवश कर दिया गया है और वे अभी भी जम्मू में अपना घर बसाने में संघर्ष कर रहे हैं? उमर अब्दुल्ला अलगाववादियों को संतुष्ट करने के लिए जो कदम उठा रहे हैं वे कितने उचित ठहराए जा सकते हैं? आखिर उन लोगों के साथ सहानुभूति प्रदर्शित करने का क्या औचित्य जो जम्मू-कश्मीर में अलग मुद्रा, अलग चुनाव आयोग और अलग झंडा चाहते हैं? मुख्यमंत्री को हमेशा एक चीज याद रखनी चाहिए कि अगर आप किसी कार्य को सही समझते हैं, लेकिन उसे करते नहीं हैं तो इससे बड़ी कायरता और कोई नहीं। एक ऐसे समय जब भारत ने पाकिस्तान से लगी सीमा पर बड़ी संख्या में सुरक्षा बल तैनात किए हैं तब उसे प्रत्येक स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर जम्मू-कश्मीर के हर गांव-शहर में राष्ट्रीय ध्वज फहराने के कार्यक्रम आयोजित करने की जरूरत है ताकि इस भ्रम को दूर किया जा सके कि देश के एक और विभाजन की गुंजाइश है। मैं जम्मू-कश्मीर को विकास के लिए भारी-भरकम सहायता देने के खिलाफ नहीं हूं, लेकिन इस सहायता को सही तरह लक्षित लोगों तक पहुंचना चाहिए तथा इसका इस्तेमाल जम्मू-कश्मीर के लोगों में राष्ट्रीय भावना बढ़ाने के लिए करना चाहिए।
केंद्र सरकार को इसके साथ ही जम्मू-कश्मीर के प्रति अपने दृष्टिकोण तथा नीति को भी बदलने की जरूरत है। यदि जम्मू-कश्मीर को धारा-370 के तहत विशेष राज्य दर्जा देने के माडल ने कश्मीरियों की मानसिकता बदलने का काम नहीं किया है तो इसे वापस लेने पर विचार करने में क्या हर्ज है? अगर शांति बंदूक की नली के साथ ही अर्जित की जानी है तो फिर एकसमान नागरिक संहिता के तहत ऐसा क्यों नहीं किया जा सकता, जिसमें कश्मीरियों को शेष भारतीयों के साथ एक ही नजर से देखा जाए और उनके साथ समान व्यवहार हो। आखिर कुछ लोगों को संविधान की मूल भावना के साथ खिलवाड़ करने की इजाजत क्यों दी जा रही है? जब संविधान में जाति, रंग और नस्ल के आधार पर नागरिकों के बीच कोई अंतर नहीं किया गया है तब जम्मू-कश्मीर के लिए विशेष प्रावधान करने का क्या औचित्य है? कोई भी इतिहास में नजर दौड़ाए तो वह पाएगा कि किस तरह केंद्र सरकार ने पंजाब में उग्रवाद पर सख्ती से अंकुश लगाया था। तत्कालीन केंद्र सरकार ने सिख उग्रवाद को कुचलने के लिए एक प्रकार से सीमाएं लांघते हुए सिखों के सर्वोच्च स्थल अकाल तख्त पर भी धावा बोला था। पूरे अभियान में 25000 से अधिक सिख युवक मारे गए, जिनमें अनेक की मौत संदिग्ध परिस्थितियों में हुई। पंजाब में अलगाववाद को सख्ती से कुचलने के बाद केंद्र जम्मू-कश्मीर के लिए अलग मानदंड अपना रहा है। आखिर कब तक कांग्रेस वोट बैंक की राजनीति करती रहेगी और वह भी किस कीमत पर? एकता यात्रा ने केंद्र और जम्मू-कश्मीर सरकार के समक्ष सवाल खड़ा कर दिया कि आप राष्ट्रवाद के पक्ष में हैं अथवा अलगाववाद के?
(लेखक : भाजपा के लोकसभा सदस्य हैं।)
(Courtesy : Dainik Jagran Hindi Daily)
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