दयासागर
सरकारी सेवा में लगे डॉक्टरों की प्राइवेट प्रैक्टिस बंद होते ही लोग कहने लगे हैं कि इससे आम आदमी की कठिनाई बढ़ गई है। पर क्या सचमुच आम नागरिकों की यह मांग है कि सरकारी सेवा में लगे डॉक्टरों को प्राइवेट प्रैक्टिस करने की इजाजत दी जाए? यह बात किसी से छुपी नहीं है कि केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा करोड़ों रुपये स्वास्थ्य सेवाओं (वेतन) और बुनियादी संरचनाओं पर खर्च करने के बावजूद आम आदमी तो क्या, एक उच्च सरकारी कर्मचारी और राजनेता का भी सरकारी अस्पतालों पर से विश्वास उठ गया है। इस कारण आम आदमी की जेब पर स्वास्थ्य सेवा का खर्च बढ़ गया है। सरकारी सेवा में लगे डॉक्टरों की प्राइवेट प्रैक्टिस का प्रावधान आम आदमी के लाभ के लिए था, लेकिन आज वह हानिकारक साबित हो रही है। इसलिए जम्मू-कश्मीर ही नहीं बल्कि पूरे देश में यह आम धारणा बन गई है कि भ्रष्टाचार के बारे में सब बातें तो करते हैं, इससे पीडि़त भी हैं पर इसके विरोध में दूसरों के खड़े होने का इंतजार करते हैं। जब 7 मार्च 1986 को जम्मू-कश्मीर में राज्यपाल शासन लागू किया गया था तो जगमोहन ने 31 मई 1986 को सरकारी डॉक्टरों के प्राइवेट प्रैक्टिस पर प्रतिबंध लगा दिया था। जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट में इसके खिलाफ एक याचिका (668/1986) दायर की गई थी। राज्य सरकार ने भी इसका विरोध किया था और 17 अक्टूबर 1986 को डिवीजन बेंच ने इसे खारिज कर दिया था। राज्यपाल शासन समाप्त होने के बाद, लोकप्रिय सरकार ने वाइड एसआरओ नं.-42 दिनांक 23 जनवरी 1987 से प्रतिबंध हटा दिया। 20 जुलाई 1995 को जम्मू के पुरानी मंडी में एक शक्तिशाली आरडीएक्स विस्फोट हुआ, जहां घटनास्थल पर ही 21 लोगों की मौत हो गई और कई घायल हो गए। यह आरोप लगाया गया कि विस्फोट के बाद जब डॉक्टरों को बुलाया गया तो कुछ सरकारी डॉक्टर अपने प्राइवेट क्लीनिक से बाहर नहीं निकले। एक बार फिर राज्यपाल/राष्ट्रपति शासन लगाया गया। 21 जुलाई 1995 को राज्य प्रशासनिक परिषद ने सरकारी डॉक्टरों के प्राइवेट प्रैक्टिस पर प्रतिबंध लगाने का फैसला किया। 4 अगस्त 1995 को प्राइवेट प्रैक्टिस पर प्रतिबंध लगाने के लिए एसआरओ-196 जारी किया गया। वर्ष 1996 में लोकप्रिय सरकार की वापसी हुई। 14 जनवरी 1997 को एक स्थानीय अंग्रेजी समाचारपत्र ने जानकारी दी कि तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री डॉ. मुस्तफा कमाल के अनुसार प्राइवेट प्रैक्टिस पर लगे प्रतिबंध को हटाने के लिए उनके पास सरकारी डॉक्टरों का कोई प्रस्ताव नहीं था। उन्होंने कहा कि मेरे पास ऐसी सूचना है कि श्रीनगर मेडिकल कॉलेज में एक मरीज को ऑपरेशन करवाने के लिए तीन साल तक इंतजार करना पड़ा। यह सब सरकार पर दबाव बनाने के लिए किया जा रहा है। लेकिन 14 अप्रैल 1998 को कैबिनेट बैठक में फिर प्रतिबंध हटाने का फैसला किया गया। ऐसा लगता है कि दो बार प्राइवेट प्रैक्टिस बंद होने के बावजूद इसका दुरुपयोग जारी है। कुछ डॉक्टरों ने सरकारी डॉक्टरों की प्राइवेट प्रैक्टिस को अब भी परामर्श और आपात स्थिति सेवा तक सीमित नहीं रखा है और एक प्रकार से व्यावसायीकरण को बढ़ावा दिया है। सरकारी अस्पतालों के उपकरणों और प्रयोगशालाओं का प्रयोग करने के बजाय प्राइवेट उपकरणों और प्रयोगशालाओं के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया गया। पर आज कुछ सरकारी डॉक्टरों के घर के बाहर 10 सेमी 3 10 सेमी की नेम प्लेट की जगह एक किरयाने की दुकान से भी बड़े बोर्ड देखे जाते हैं। जम्मू-कश्मीर में बहुत से प्राइवेट अस्पताल सरकारी सेवा में लगे डॉक्टरों के इशारे पर चलते हैं। मालूम होता है कि जेएंडके हाई कोर्ट में विचार क्रांति मंच इंटरनेशनल द्वारा जनहित याचिका को अनिवार्य बना दिया गया था। कारण, डॉक्टरों के अनुचित व्यावसायीकरण पर रोक के लिए पहले से लगे प्रतिबंध से डॉक्टरों ने कोई सबक नहीं सीखा। यदि प्राइवेट प्रैक्टिस को परामर्श और आपातकाल तक ही सीमित रखा जाता तो शायद यह जनहित याचिका नहीं होती। अक्सर प्राइवेट क्लीनिक या प्राइवेट प्रैक्टिस करने वाले सरकारी डॉक्टर गंभीर मरीजों को सरकारी अस्पताल/मेडिकल कॉलेज अस्पताल रेफर कर देते हैं। पहले भी 23 जनवरी 1987 के एसआरओ 42 के बारे में सुकेश चंद्र खजुरिया द्वारा दायर की गई जनहित याचिका के माध्यम से सवाल पूछे गए हैं। 14 फरवरी 1994 को जेएंडके हाई कोर्ट ने यह कहते हुए जनहित याचिका को खारिज कर दिया कि सरकारी सेवा में लगे डॉक्टरों को प्राइवेट मेडिकल प्रैक्टिस की अनुमति मिलनी चाहिए या यह नीतिगत मसला नहीं है। नीतिगत फैसला कोर्ट को नहीं, बल्कि कार्यकारी को लेना चाहिए। कोर्ट सिर्फ कानूनी मत के बारे में संकेत दे सकता है। इसके तहत राज्य को प्राइवेट प्रैक्टिस पर प्रतिबंध लगाने या इसे अनुमति प्रदान करने का अधिकार मिलता है। प्राइवेट प्रैक्टिस पर कब प्रतिबंध लगेगा और कब इसकी अनुमति मिलेगी, यह सरकार को तय करना है न कि कोर्ट को। इसके मद्देनजर याचिका में खामियों के कारण कोर्ट इसे खारिज करता है। इसमें संदेह नहीं कि सरकार को सरकारी कर्मचारियों की सेवा नियमों को बनाने और संशोधन करने का अधिकार प्राप्त है। लेकिन लोकतांत्रिक देश में किसी भी सरकार से यह उम्मीद नहीं होती कि वह मौलिक सिद्धांतों और आचार संहिता की उपेक्षा करे। इसका अनुसरण उन लोगों को करना चाहिए जो राज्य के संसाधनों व प्रावधानों का निपटारा करती है। इसलिए उस प्रश्न का हल ढूंढने की जरूरत है कि क्या जेएंडके और दूसरे राज्यों में सरकारी डॉक्टरों को प्राइवेट प्रैक्टिस की अनुमति मिली थी? यदि यह आमदनी बढ़ाने का जरिया था तो निश्चित रूप से यह लोक सेवकों की आचार संहिता के खिलाफ है। यदि सरकारी डॉक्टरों को प्राइवेट इंटरप्राइज की अनुमति देनी थी तब सभी सरकारी कर्मचारियों को प्राइवेट इंटरप्राइज की अनुमति मिलनी चाहिए थी। आज बहुत कम सरकारी डॉक्टर जेनरिक नाम से दवा लिखते हैं। केंद्र सरकार ने वर्ष 2008 में जन औषधि स्टोर अभियान की शुरुआत की थी। जन औषधि स्टोर में जेनरिक नाम से दवा बेचने का प्रावधान था। जो ब्रांडेड दवा आज 50 रुपये प्रति पत्ता मिलती है वह यहां दवा की गुणवत्ता कम किए बिना 10 से 12 रुपये में मिल सकती है। राज्य के मुख्यमंत्री और स्वास्थ्य मंत्री ने नवंबर 2010 में सिर्फ चार जन औषधि स्टोर खोलने की बात की थी। जबकि ऐसे कम से कम एक सौ स्टोर सरकारी अस्पतालों के बाहर अब तक खुल जाने चाहिए। पर आज एक साल बाद भी सिर्फ एक ही दुकान श्रीनगर की रेजीडेंसी रोड पर खोली गई है। न ही सरकार ने अब तक कोई ऐसा आदेश दिया है कि दवाइयों को जेनरिक नाम से लिखा जाए और न ही इस दुष्प्रचार को खत्म करने के लिए कोई प्रचार किया जा रहा है।
(लेखक : जम्मू-कश्मीर मामलों के अध्येता हैं।)
No comments:
Post a Comment