केवल कृष्ण पनगोत्रा
श्रीनगर के नौहट्टा क्षेत्र में तारिक अहमद नामक एक दुकानदार की पत्थरबाजों ने हत्या क्यों की? मात्र इसलिए कि इस अमन पसंद नागरिक ने अलगाववादियों का कहना मानने से इंकार कर दिया। उसे अलगाववादियों द्वारा की जाने वाली हड़तालों का सिलसिला भी पसंद नहीं था। तारिक की मौत से वही सामने आया जो सच था। यानि कश्मीर घाटी में आए दिन की हड़तालों से बंद नजर आने वाले बाजार और सरकारी संस्थान जनता की मर्जी से नहीं बल्कि अलगाववादियों और उनके हड़ताली व पत्थरबाज समर्थकों के दबाव के कारण बंद रहते हैं।
कई बार राज्य से बाहर रहने वाले कश्मीरी युवकों ने इन हालात की पुष्टि की है। दबाव में पत्थरबाजी और हड़तालें करवाने की पुष्टि करते हुए जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला का यह कहना जायज ही है कि झूठ अधिक दिन तक नहीं छिपता, एक दिन लोगों के सामने सच्चाई आ जाती है। मुख्यमंत्री ने यह कहते हुए अलगाववादियों को आखिर खरी-खरी ही सुनाई है कि हिंसा व नफरत फैलाने वाले अब बेनकाब हो रहे हैं। पत्थरबाजी और अलगाववादियों द्वारा प्रायोजित आए दिन की हड़तालों और प्रदर्शनों पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए उन्होंने एक समीचीन बात कही है कि अगर ऐसा कार्य किसी सुरक्षाकर्मी ने किया होता तो यह अलगाववादियों के टॉप एजेंडे में होता। उनकी यह नसीहत जायज ही है कि अलगाववादी गुंडागर्दी छोड़ दें।
यह वही पत्थरबाज हैं जिनको उकसाने वाले अलगाववादी सुरक्षाबलों पर मानवाधिकारों के हनन का इल्जाम लगाते आए हैं। क्या किसी आदमी के रोजमर्रा जीवन के आवश्यक और जायज क्रियाकलापों में इस प्रकार का हस्तक्षेप और जान से मार डालना मानवाधिकारों का खुला उल्लंघन नहीं? कौन नहीं जानता कि अलगाववादियों को पाकिस्तान और आतंकियों को पाक गुप्तचर एजेंसी आईएसआई का समर्थन और सहायता प्राप्त है। बेशक अलगाववादी यह भी भली प्रकार जानते हैं कि कश्मीर में मानवाधिकारों की दुहाई देने वाले पाकिस्तान के बलूचिस्तान में मानवाधिकारों की क्या दशा है और सिंध प्रांत में अल्पसंख्यक पाक सरकार से किस कदर खफा हैं?
मात्र बलूचिस्तान या सिंध ही नहीं अपितु समूचे पाकिस्तान में कैसे मानवाधिकारों की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। उन्हें यह भी मालूम होगा कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई मात्र कश्मीर घाटी में ही आतंकियों और अलगाववादियों के सहयोग से भारत विरोधी दुष्प्रचार नहीं कर रही बल्कि विदेशों में भी कुछेक संगठनों के माध्यम से न सिर्फ भारत विरोधी प्रचार में मशगूल है बल्कि उन देशों की कश्मीरी नीति और सोच को प्रभावित करने का दुस्साहस भी कर रही है।
इसी साल जुलाई में एक अलगाववादी कश्मीरी गुलाम नबी फई का अमेरिका में फेडरल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन (एफबीआई) द्वारा गिरफ्तार किया जाना आईएसआई की करतूतों की अनेक परतें खोलता नजर आता है। अलगाववादियों को यह भी मालूम होगा कि फई की केएसी (कश्मीर अमेरिकी कौंसिल) किसके लिए काम कर रही थी। फई पर यह आरोप था कि उसने केएसी के सम्मेलनों के जरिए कश्मीर पर अमेरिकी नीति को आईएसआई के निर्देश पर प्रभावित करने की कोशिश की। केएसी की प्रत्येक बैठक और भाषण का एजेंडा भी पाक गुप्तचर एजेंसी के आला अधिकारी ही तय करते थे। यह एक तरह से भारत और अमेरिका के संबंधों को कमजोर बनाने वाली हरकत थी।
अमेरिका की कश्मीर नीति कुछ भी हो, लेकिन यह उस नीति से भी मेल नहीं खाती जो पाकिस्तान और उसकी गुप्तचर एजेंसी तय करती है। फई की अमेरिका में गिरफ्तारी जम्मू-कश्मीर में अलगाववादियों के लिए एक बहुत बड़ा सबक थी। फई जैसे पाक परस्त लोग व आईएसआई के एजेंट अब मात्र पाकिस्तान और आईएसआई से पैसा बटोर सकते हैं, जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग-थलग नहीं करा सकते। हाल ही में फई द्वारा की गई स्वीकारोक्ति से सारी तस्वीर सामने है।
दरअसल अलगाववादी कश्मीर में सुधर रहे हालात पर हतोत्साहित हैं और देश विरोधी प्रदर्शनों से हालात को बिगाड़ने के प्रयत्न में लग रहे हैं। पिछले दिनों कट्टरपंथियों के गढ़ समझे जाने वाले सोपोर कस्बे में जब मीरवाइज उमर फारूक ने देश विरोधी बयानबाजी करने के बाद जुलूस की अगुवाई करने से इंकार किया तो उत्तेजित लोगों ने उन्हीं पर पत्थर बरसाने शुरू कर दिए। श्रीनगर के नौहट्टा, गोजवारा और डाउन-टाउन से भी ऐसी घटनाओं के समाचार मिले हैं। मालूम हो कि इसी महीने अलगाववाद समर्थक नौहट्टा और गोजवारा में जबरन दुकानों को बंद करवा रहे थे। इसी के चलते एक दुकानदार की मौत हो गई।
जाहिर है कि कश्मीर घाटी में जबरन हड़तालें और सरकार विरोधी प्रदर्शन करवाना आज की नहीं वर्षों पुरानी कवायद है। लगता है कि अमर अब्दुल्ला की फटकार और नसीहत, जिसमें उन्होंने अलगाववादियों को पथराव और हड़ताल के बजाय सियासी मोर्चे पर जनसमर्थन प्रदर्शित करने की चुनौती दी थी, से अलगाववादी बेचैन हैं और अपना चिरपरिचित राग अलाप रहे हैं। अलगाववादी यह भी जानते हैं कि सरकार का यह कठोर रवैया मात्र कश्मीर ही नहीं अपितु जम्मू संभाग में भी उजागर होता रहा है। अपनी जायज मांगों के लिए बेरोजगारों और सरकारी कर्मचारियों पर लाठीचार्ज आम बात है, लेकिन कश्मीर में लोग ऐसी हड़तालों से भी आजिज हैं जिनसे उनकी रोजमर्रा की जिंदगी संकटग्रस्त होती है।
तारिक की मौत से यह भी स्पष्ट हो रहा कि अलगाववादियों द्वारा करवाई जाने वाली हड़तालें और प्रदर्शन शांतिपूर्ण नहीं बल्कि हिंसात्मक होते हैं। उन लोगों पर हिंसा की जाती है जो अलगाववादियों के इशारे पर हड़ताल के समर्थन में व्यापारिक प्रतिष्ठानों या सरकारी संस्थानों को बंद नहीं करते। ऐसी गंभीर परिस्थितियों में राज्य के मुख्यमंत्री ने ठीक ही कहा कि अलगाववादी गुंडागर्दी छोड़ दें। हड़ताल को सफल बनाने के लिए नागरिकों के साथ ऐसे क्रूर व्यवहार को मुख्यमंत्री गुंडागर्दी नहीं तो और क्या कहते?
(लेखक : जम्मू-कश्मीर मामलों के अध्येता हैं।)