केवल कृष्ण पनगोत्रा
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की एक ताजा रिपोर्ट ने जम्मू-कश्मीर में सशस्त्र सेना विशेषाधिकार अधिनियम (अफस्पा) की तार्किकता पर सवाल उठाए हैं। आयोग का कहना है कि भारत सरकार स्वयं जानती है कि देश किसी सशस्त्र विवाद की स्थिति का सामना नहीं करता। देश में मानवाधिकारों की दूसरी व्यापक सामयिक समीक्षा (सेकंड यूनिवर्सल पीरियोडिक रिव्यू) में आयोग के इस नजरिए का खुलासा हुआ है। आयोग की यह दृष्टि मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को काफी रास आ रही है। वह अपनी संतुष्टता भी जाहिर कर चुके हैं। उनकी दलील है कि कुछ लोग उन पर जनता का ध्यान बंटाने का आक्षेप लगाते हैं, लेकिन राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग तो ध्यान नहीं बंटा रहा। बात का लबोलुआब यह है कि अफस्पा एक निर्दयी कानून है और मानवाधिकारों की रोशनी में अफस्पा का हटना तर्कसंगत है। लेकिन मानवाधिकारों को आधार मानकर अफस्पा को अनुचित बताना समझ से परे है। मानवाधिकारों की कसौटी पर राज्य का नागरिक प्रशासन भी खरा नहीं उतरता। वास्तव में जम्मू-कश्मीर ही नहीं अपितु पूरी दुनिया में मानवाधिकारों का हनन एक गंभीर और चिंतनीय मुद्दा है। मानवाधिकारों का एक विस्तृत क्षेत्र है। कालक्रम की लिहाज से देखा जाए तो भारत में मानवाधिकार संदर्भित घटनाओं की सूची और क्षेत्र बड़ा लंबा है। 1829 में अंग्रेजी शासन के दौरान राजा राममोहन राय के प्रयासों से सती प्रथा का बंद होना, 1929 में बाल-विवाह अधिनियम, 1947 में ब्रिटिशराज से राजनैतिक आजादी, 1950 में बने संविधान में मूल अधिकारों की गारंटी तक का संबंध किसी न किसी रूप में मानवाधिकारों से ही है। मगर फिर भी 1829 से लेकर आज तक मानवाधिकारों के हनन का चैप्टर बंद नहीं हुआ। अगर यह चैप्टर बंद होता तो न आज मानवाधिकार आयोग होता, न ह्यूमन वॉच और न ही एमनेस्टि इंटरनेशनल जैसी मानवाधिकारवादी एजेंसियां। मोटे तौर पर देखा जाए तो कुछ अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार एजेंसियां, यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी जम्मू-कश्मीर में मानवाधिकारों के हनन की शिकायत की है। मानवाधिकार उच्चायुक्त कार्यालय के एक प्रवक्ता ने एक प्रेस विज्ञप्ति में कश्मीर में नागरिकों की मृत्यु और अभिव्यक्ति के अधिकार पर पाबंदियों का संज्ञान लिया है। यह पाबंदियां मात्र कश्मीर घाटी में ही नहीं अपितु पूरे राज्य में हैं। काबिलेगौर है कि ये पाबंदियां मात्र अफस्पा जैसे कानून से ही पैदा नहीं हुई हैं बल्कि नागरिक और सरकारी स्तर पर जनता पर थोपी गई हैं। आखिर जब जनता अपने नागरिक अधिकारों के लिए धरने-प्रदर्शन करती है तो उन पर सेना नहीं बल्कि नागरिक प्रशासन लाठियां बरसाता है। क्या एक सरकारी कर्मचारी को दंडित करने के लिए उसके वेतन पर लगाई गई रोक उसके मानवाधिकार का हनन नहीं? मानवाधिकार सिर्फ अफस्पा तक ही सीमित नहीं हैं बल्कि इनका दायरा बहुत बड़ा है। सवाल यह भी है कि अगर मानवाधिकारों को आधार बनाकर अफस्पा समाप्त होना चाहिए तो राज्य में व्याप्त भ्रष्टाचार के चलते नागरिक अधिकारों के हनन के आधार पर राज्य सरकार को भी जाना चाहिए। गहनता से देखा जाए तो कोई भी सरकार मानवाधिकारों के विभिन्न आयामों और पहलुओं के हिसाब से नागरिकों के प्रत्येक अधिकार की रखवाली करने में नाकाम रही है। कुछ लोग तो मात्र संविधान द्वारा प्रदत्त मूल अधिकारों को ही मानवाधिकार प्रतिपादित करते हैं। अगर भारतीय संविधान में दर्ज मूल अधिकारों के संदर्भ में देखा जाए तो भी सरकार लोगों के मानवाधिकारों की रक्षा करती नजर नहीं आती। भारत में आपातकाल के दौरान संविधान द्वारा प्रदत्त मूल अधिकारों को स्वमेव निलंबित माना जाता है। क्या यह मानवाधिकार का उल्लंघन नहीं? इसी बात के दृष्टिगत 1978 में मेनका गांधी बनाम भारत संघ के एक मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी थी कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन का अधिकार आपातकाल के दौरान निलंबित नहीं किया जा सकता। मानवाधिकारों की सूक्ष्म दृष्टि से तो नागरिकों को शिक्षा और रोजगार से वंचित रखना भी मानवाधिकारों का हनन है। वस्तुत: भारत में मानवाधिकारों की स्थिति ही बहुत पेचीदा है। हालांकि संविधान में जिन मूल अधिकारों का उल्लेख है वह मानवाधिकारों के दृष्टिगत ही नागरिकों को दिए गए हैं। मगर फिर भी 2010 के दौरान प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में ह्यूमन राइट्स वॉच नामक मानवाधिकार संस्था ने भारत को मानवाधिकारों के हनन का देश बताया है। संस्था ने मात्र सुरक्षाबलों को ही नहीं अपितु पुलिस की क्रूरता पर भी सवाल खड़े किए हैं। यहां यह ध्यान देना भी जरूरी है कि नागरिक प्रशासन की सहयोगी पुलिस मात्र जम्मू-कश्मीर जैसे आतंकग्रस्त राज्यों में ही क्रूर नहीं है बल्कि हिमाचल, पंजाब और हरियाणा जैसे शांत राज्यों में भी सामान कार्यप्रणाली से काम करती है। मानवाधिकार संस्थाओं का अपना कार्यक्षेत्र और कार्यपद्धति है। इन्हें मानवाधिकारों के प्रत्येक पहलू के दृष्टिगत अपने निष्कर्ष एवं रिपोर्ट देनी होती है। बेशक इनका कार्य तथ्यों पर आधारित होता है, लेकिन अक्सर इन रिपोर्टो पर बहस और विवाद भी बने रहते हैं। इन एजेंसियों पर आतंकवाद प्रभावित क्षेत्रों में आतंकवादियों द्वारा मारे जाने वाले निर्दोष लोगों के मानवाधिकार की चिंता न करने के आक्षेप लगते रहे हैं। जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में यह तो माना ही जा रहा है कि अफस्पा जैसे कानून से ही राज्य के कुछ भागों में शांति स्थापित हुई है। जाहिर है कि इस शांति को बनाने में सैनिक कार्रवाई के दौरान मानवाधिकार का हनन हुआ होगा। कई बार शांति के लिए समाज और देशविरोधी तत्वों से सशस्त्र टकराव जरूरी हो जाता है और टकराव में मानवाधिकारों के हनन को टाला नहीं जा सकता। ऐसे मामलों में सुरक्षाबल किसी के अधिकारों के हनन के इच्छुक नहीं होते बल्कि ये घटनाएं आतंकियों और देशविरोधी तत्वों की क्रिया की स्वाभाविक प्रतिक्रिया का परिणाम होती है।
(लेखक : जम्मू-कश्मीर मामलों के अध्येता हैं।)
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