केवल कृष्ण पनगोत्रा
सशस्त्र सेना विशेषाधिकार अधिनियम (अफस्पा) करीब डेढ़ महीने की बहस के बाद राज्य के कुछ भागों से हटाए जाने पर सर्वसम्मति हासिल करता नजर नहीं आ रहा। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के साथ फौजी कानून को हटाए जाने की पैरवी करने वाले लोगों की दलीलों की समानांतर रूप से आलोचना होने लगी है। अब तो ऐसा लगने लगा है कि जैसे-तैसे अफस्पा हटाने के मुद्दे को मुख्यमंत्री दिल्ली जाकर लॉबिंग करने की कोशिश कर रहे हैं, वैसे ही राज्य में भी इस पर बहस और आलोचना बढ़ती ही जा रही है।
अफस्पा का हटना नेशनल कांफ्रेंस के लिए प्रतिष्ठा का मुद्दा बन चुका है जबकि कांग्रेस के लिए गले की फांस। आश्चर्य की बात है कि अफस्पा का विरोध करते समय सुरक्षा के अलावा राज्य में सेना की सकारात्मक सामाजिक व सांस्कृतिक भूमिका को भी नजरअंदाज किया जा रहा है। सेना ने राज्य में आंतरिक सुरक्षा बहाल करने के लिए बलिदान दिए हैं और आपसी सद्भाव को सुदृढ़ सुदूर ग्रामीण अंचलों में सद्भावना कैंप लगाकर महती भूमिका निभाई है, मगर फिर भी सेना के बारे में यह कहना दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि सेना लोगों की मास्टर नहीं है। सेना की भूमिका पर ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण टिप्पणियों का संज्ञान लेते हुए जम्मू-कश्मीर के एक सेवानिवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश बीएल सर्राफ ने एक अंग्रेजी अखबार में लिखे लेख में कहा है कि सेना की भूमिका के कारण ही लोग स्वयं अपने मास्टर हैं, किसी के गुलाम नहीं। राज्य के राजनीतिज्ञों को यह अच्छी तरह जान लेना चाहिए कि सशस्त्र बलों ने कानून का सम्मान करने वाले नागरिकों से कभी विश्वासघात नहीं किया।
सेना की भूमिका को कमतर करके आंकने वाली एक और बानगी यह है कि सेना को राज्य में नागरिक गतिविधियां बंद कर देनी चाहिए। इस बानगी की अंगुली साफ तौर पर सेना के आपरेशन सद्भावना पर उठी है। इन हलकों का मानना है कि कुछ इलाकों से अफस्पा के हटने से जम्मू-कश्मीर में विश्वास की कमी दूर होगी। यानि अफस्पा हटने से राज्य के लोगों (सिर्फ कश्मीर केंद्रित लोग) का केंद्र से उठा विश्वास बहाल होगा। राज्य में सेना के आपरेशन सद्भावना पर सवाल उठाते हुए अलगाव समर्थक हलकों का मानना है कि स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में सेना की सेवाओं को बंद करके इन्हें राज्य सरकार को सौंप देना चाहिए ताकि राज्य सरकार की नकारात्मक सूरत सामने न आए। बेशक ऐसे लोग राज्य के दूरस्थ पहाड़ी ग्रामीण क्षेत्रों में सेना की भूमिका को थोड़ा-बहुत महत्व जरूर देते हैं, मगर कस्बाई क्षेत्रों में आपरेशन सद्भावना को निरर्थक मानते हैं। यह हलका सैनिक कमांडरों की दलीलों को यह कहकर खारिज करता है कि यदि सेना गरीबों के लिए कुछ करना चाहती है तो उसे दिल्ली और मुंबई की झोपड़ बस्तियों में जाना चाहिए।
सारांश में कहा जाए तो आंतरिक सुरक्षा तो क्या, इन लोगों का आशय राज्य में सेना की सामाजिक-सांस्कृतिक भूमिका को भी कमतर करके आंकना ही है। क्या इन लोगों से राज्य की भलाई की उम्मीद की जा सकती है? अफस्पा का विरोध करने वाले लोग यह भूलते जा रहे हैं कि उनके इस अतार्किक विरोध के कारण अब सेना की भूमिका भी आम लोगों की समझ में आने लगी है और आम जनता सेना की भूमिका जानने के लिए उत्सुक हो रही है। दरअसल आपरेशन सद्भावना का एक उद्देश्य राज्य में उन क्षेत्रों, जहां अलगाववादियों और आतंकियों का ज्यादा प्रभाव है, में राष्ट्रविरोधी तत्वों के दुष्प्रचार से फैलाई जा रही राष्ट्रविरोधी भावनाओं को समाजसेवा द्वारा समाप्त करके राष्ट्रीय भावना जागृत करना भी है। इस लिहाज से आपरेशन सद्भावना को राज्य में कमतर करके देखना आश्चर्यजनक ही नहीं तर्क से परे भी है।
पूर्व जिला एवं सत्र न्यायाधीश बीएल सराफ ने सेना की आलोचना के दृष्टिगत ठीक ही कहा है कि एक वर्ष से कुछ ज्यादा की खामोशी के बाद अफस्पा को समाप्त करने और दानव बताने के लिए एक वादक अभियान उभर रहा है। कश्मीर घाटी में स्थिति सुधर रही है और राज्य के कुछ क्षेत्रों में अफस्पा को हटना ही होगा। यह बातें शायद उसी वादक अभियान का हिस्सा है जो अफस्पा को हटाने के लिए चलाया जा रहा है। अफस्पा के विरोधी किसी भी सियासतबाज का ध्यान इस ओर नहीं कि यह कानून राष्ट्रविरोधी गतिविधियों के दमन और राष्ट्र के सामरिक हितों की सुरक्षा के लिए है।
स्पष्ट है कि सियासतबाजी की जिद के आगे राष्ट्र के सामरिक हित कमजोर पड़ते जा रहे हैं। अफस्पा का बेजा विरोध करने वाले राजनीतिज्ञों, सत्ता के तलवे चाटने वाले चंद सेवानिवृत्त नौकरशाहों और कथित बुद्धिजीवियों को सेना पर टिप्पणी करते हुए कम से कम कश्मीर केंद्रित राजनीति करने वाली महबूबा मुफ्ती से भी कुछ सीख लेना चाहिए। पिछले दिनों दिल्ली में मीडिया के एक सम्मेलन के बाद मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के अफस्पा पर निर्णय को महबूबा ने विस्मित करने वाला कहा। कश्मीर केंद्रित राजनीति में यह अफस्पा पर नई बात नहीं तो और क्या है? दिल्ली में महबूबा ने स्पष्ट कहा कि सुरक्षाबलों ने राज्य में सराहनीय काम किया है। उन्होंने अफस्पा के धुर विरोधियों से हटकर सेना की भूमिका पर संतुलित बात कही है और अपवाद को छोड़कर भारतीय सेना को अति अनुशासित भी कहा है। उनकी बात का आशय यह है कि अगर सेना को जाना ही है तो यह गमन सम्मानजनक होना चाहिए।
दुर्भाग्य यह है कि सेना को सम्मानजनक गुडबॉय कहने के बजाय राज्य से बाहर धकेलने जैसी मानसिकता का प्रदर्शन किया जा रहा है। उन्होंने ठीक ही कहा कि अफस्पा हटाने के फैसले को राज्य और देश के मुंह पर फेंका नहीं जा सकता। जिस तरह अफस्पा को हटाने की पैरवी की जा रही है उससे आम लोगों में यह संदेश जाना स्वाभाविक है कि भ्रष्टाचार जैसे गंभीर मोर्चे पर विफल सरकार जनता का ध्यान बंटाने के लिए अफस्पा का राग अलाप रही है। सवाल यह भी है कि क्या हालात अफस्पा हटने देंगे?
(लेखक : जम्मू-कश्मीर मामलों के अध्येता हैं।)
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