प्रो. हरिओम
श्रीनगर स्थित 15 सैन्य कमांडर, लेफ्टिनेंट जनरल सईद अता हसनैन ने कश्मीरी अलगाववादियों को थाली में परोस कर एक मुद्दा थमा दिया है। उनका यह बयान कि राज्य के कुछ क्षेत्रों से अगर सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (अफस्पा) हटाया जाता है तो वर्ष 2016 तक कश्मीर आजाद हो सकता है। 9 नवंबर को जम्मू में आयोजित यूनिफाइड हेडक्वार्टर की बैठक में उन्होंने अपने विचारों को व्यक्त किया था। यदि यह बात सच है तो उनके बयान से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि पिछले 64 वर्षों से भारत ने कश्मीर घाटी पर जबरन कब्जा जमाया हुआ है।
एक अग्रणी समालोचक के मुताबिक, हसनैन ने रुक्षतापूर्वक यूनिफाइड कमांड के सदस्यों से कहा है कि यदि अफस्पा को निरस्त किया जाता है तो केंद्र सरकार पर वर्ष 2016 तक कश्मीर को आजाद करने के लिए दबाव डाला जाएगा। क्या हसनैन ने जानबूझ कर यह बयान दिया था या फिर उन्होंने बिना सोचे समझे यह टिपण्णी की थी। यदि वह अपने बयानों का मतलब जानते थे तो इसका यह अर्थ होगा कि उन्होंने कश्मीर घाटी के सभी मुस्लिमों को देश विरोधी करार दिया है, जबकि ऐसा नहीं है। मुस्लिम पंथ से संबंधित कुछ लोग ही अलगाववादी आंदोलन में शामिल हैं। गुज्जर-बक्करवाल, शिया, पथोवारी मुस्लिम, सिख और विस्थापित कश्मीरी हिंदुओं और कुछ असंतुष्ट तत्वों को छोड़ दें तो अलगाववादी आंदोलनों से इनका कोई लेना देना नहीं है। ये समुदाय कश्मीर की कुल जनसंख्या का 30 फीसदी से अधिक हैं।
जहां तक कश्मीरी सुन्नियों का सवाल है, जोकि कश्मीर में बहुसंख्यक हैं, उनकी मांगों के मुताबिक सीधे तौर पर उन्हें पांच समूहों में बांटा गया है- पाकिस्तान में शामिल होना, आजादी, स्वायत्तता, स्वशासन और भारत के साथ बने रहना। इन समूहों का तहरीक-ए-हुर्रियत, ऑल पार्टी हुर्रियत कांफ्रेंस (मीरवाइज), जेकेएलएफ व जेकेडीएफपी, नेकां, पीडीपी और कांग्रेस प्रतिनिधित्व करते हैं। सभी कश्मीरियों को देश विरोधी कहना अपराध होगा। हसनैन ने यह कह कर कि अफस्पा हटाने से 2016 तक कश्मीर आजाद हो सकता है, देश की कोई सेवा नहीं की है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह बिना सोचे-समझे या बिना किसी तैयारी के दिया हुआ बयान नहीं है। वास्तव में, वह जानते हैं कि उनके बयान का क्या अर्थ है। उन्होंने पहले भी विवादास्पद बयान दिए हैं। उदाहरण स्वरूप 1 फरवरी 2010 को दिए उनके बयान को ही लें- उन्होंने कहा था कि कश्मीर एक राजनीतिक मुद्दा है और कश्मीर घाटी से अफस्पा को हटाने में सेना की कोई भूमिका नहीं है। कश्मीर एक राजनीतिक मुद्दा है और इसका राजनीतिक समाधान होना चाहिए। उन्होंने कश्मीर के खन्नाबल सेक्टर 2 स्थित सैन्य मुख्यालय में आयोजित समारोह के बाद मीडियाकर्मियों से बातचीत करते हुए ये बयान दिए थे।
हसनैन के बयान से देश के मित्रों और शुभचिंतकों के लिए खतरे की घंटी बज गई है। कारण, उन्होंने देश की परेशानियों को बढ़ाने का ही काम किया है। स्मरण रहे, हसनैन ने वही बात कही थी, जो कश्मीरी अलगाववादी और मुख्यधारा के नेता दशकों से कहते रहे हैं। वे कथित कश्मीर समस्या के राजनीतिक हल की मांग कर रहे हैं। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने भी बार-बार ऐसा ही कुछ कहा है। पीडीपी नेता भी लगातार सुर में सुर मिलाते हुए केंद्र से कश्मीर समस्या का समाधान राजनीतिक रूप से करने की गुहार लगाते रहे हैं। गिलानी, मीरवाइज व मलिक जैसे अलगाववादी भी इसी तरह के विचार व्यक्त कर रहे हैं। इतना ही नहीं, दिल्ली और उसके बाहर रहने वाले कश्मीरी नेताओं के समर्थक भी कश्मीर को एक राजनीतिक समस्या बताते हुए केंद्र से इसके राजनीतिक समाधान के लिए कहते हैं, ताकि तनावग्रस्त कश्मीर में शांति बहाल हो सके।
दूसरे शब्दों में, ये लोग ऐसे समाधान की वकालत कर रहे हैं जो कश्मीरी नेताओं की मांगों को समायोजित करे। इनकी मांगों को स्वीकार करने का मतलब कश्मीर में भारत की मौजूदगी का अंत, अलगाववादी ताकतों और पाकिस्तान की जीत होगी। यह चिंता का विषय है, क्योंकि जाने-अनजाने हसनैन उन लोगों में शामिल हो चुके हैं जो कश्मीर को राजनीतिक समस्या मानते हैं और अंतरराष्ट्रीय समुदाय को गुमराह कर उनसे मदद लेने का प्रयास कर रहे हैं ताकि वे देश को तोड़ने वाले एजेंडे लागू कर सकें।
हसनैन के बयान की तुलना सैन्य प्रमुख जनरल वीके सिंह के उस बयान से की जा सकती है, जो उन्होंने 29 जनवरी 2010 को नई दिल्ली में एक न्यूज चैनल से साक्षात्कार के दौरान दिए थे। इस तरह हमें कश्मीर आंदोलन पर सेना के भीतर मौजूद विरोधाभास को समझने में मदद मिलेगी। ऐसे अभ्यास से हमें सेना के भीतर विरोधाभास और कश्मीर में जारी आंदोलन की प्रकृति समझने में आसानी होगी। वीके सिंह ने कहा था कि जम्मू-कश्मीर जटिलताओं का एक समुच्चय है। हम वहां जो कुछ कर रहे हैं उस पर एक पवित्र विचार होना चाहिए। हमें दीर्घकाल के लिए एक अलग नजरिया विकसित करना होगा। किसी खास उद्देश्य की पूर्ति के लिए हम कोई निर्णय नहीं ले सकते। कश्मीर समस्या के समाधान के लिए एकाग्र होने और सरकार को इस काम के लिए कुछ लोगों को लगाने की जरूरत है।
इस समय सेना की वापसी का कोई औचित्य नहीं है। जिस दिन सीमापर स्थित 42 आतंकी कैंप बंद हो जाएंगे और पाकिस्तान छद्म युद्ध बंद कर देगा, तभी सेना की वापसी संभव है। हमें सेना को कम करने के बारे में यथार्थवादी बनना पड़ेगा। हसनैन को अपने विवादास्पद बयान से लोगों के दिमाग में उपजी शंकाओं को दूर करना चाहिए। इसी प्रकार, सेना प्रमुख को अपने मातहतों को यह बताने की जरूरत है कि वह कोई ऐसा बयान न दें, जिससे राज्य में राष्ट्रीय हितों को नुकसान पहुंचे। सेना प्रमुख को एक स्वर में बोलना चाहिए।
(लेखक : जम्मू विवि के सामाजिक विभाग के पूर्व डीन हैं।)
No comments:
Post a Comment