प्रो. हरिओम
कश्मीरी नेता सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (अफस्पा) को निरस्त करने की मांग कर रहे हैं। सेना को यह कानून राज्य में विद्रोह को कुचलने के लिए वैधानिक प्रतिरक्षा शक्ति प्रदान करता है। यह जरूरी नहीं है कि इस मांग को रखने के लिए कश्मीरी अलगाववादियों का हो-हल्ला परिलक्षित हो। कारण, वे किसी भी भारतीय प्रतीक या प्राधिकरण को मानने से इंकार करते हैं। लेकिन सत्ताधारी नेशनल कांफ्रेंस, मुख्य विपक्षी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी) या सीपीआई (एम) के तथाकथित मुख्यधारा के कश्मीरी नेताओं पर यह परिलक्षित होना आवश्यक है। यह इसलिए जरूरी है कि वे खुद को मुख्यधारा के नेता के रूप में प्रस्तुत करते हैं, लेकिन उनकी मांग वही है जो वैश्विक आतंकवाद का केंद्र और भारत के दुश्मन नंबर एक कश्मीरी अलगाववादी और इस्लामाबाद आए दिन करते रहते हैं।
मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने अफस्पा मुद्दे को अपने भाषण, बयान और ट्विट्स का आधार बना लिया है। उनका कहना है कि राज्य के कई हिस्सों में स्थिति बेहतर है। इसलिए वहां से अफस्पा हटाने की जरूरत है। उनका मूल तर्क यह होता है कि इससे कश्मीरी मुस्लिमों को सांस लेने की जगह मिलेगी, जिसकी उन्हें सख्त जरूरत है और एक नागरिक के रूप में वे इसके हकदार भी हैं। कई अवसरों पर वह सेना के साथ विचार-विमर्श में इस मुद्दे का समर्थन करते रहे हैं। उनके पिता और नेकां अध्यक्ष फारूक अब्दुल्ला जो कि केंद्रीय मंत्री हैं, यही राग अलापते हुए अफस्पा को हटाने की वकालत कर रहे हैं। अपने पुत्र की उद्देश्य प्राप्ति के लिए वे केंद्र में सत्ता की कुर्सी पर बैठे लोगों के साथ लॉबिंग कर रहे हैं।
उमर के चाचा, पार्टी के पूर्व अतिरिक्त महासचिव और मुख्य प्रवक्ता मुस्तफा कमाल भी सेना और अफस्पा के कटु आलोचक हैं। वास्तव में, इस साल 25 अक्टूबर को कश्मीर घाटी में हुई आतंकी वारदातों और उसके बाद 11 दिसम्बर को नेकां के वरिष्ठ नेता और विधि मंत्री अली मुहम्मद सागर पर हुए जानलेवा हमले के लिए भी मुस्तफा कमाल सेना और अफस्पा को ही जिम्मेदार ठहराते हैं। ये हमले मीरवाइज उमर फारूक के गढ़ में हुए थे। मुस्तफा कमाल की यह राय है कि सेना और अर्द्धसैनिक बल इस प्रकार की गतिविधियों में शामिल हैं, क्योंकि वे नहीं चाहते कि राज्य से अफस्पा हटे। दूसरे ही दिन उन्होंने शक की सुई सेना की तरफ मोड़ते हुए कहा कि अली मुहम्मद सागर पर जानलेवा हमला मीरवाइज उमर फारूक और नेकां के बीच दरार पैदा करने के लिए किया गया था, जिनके बीच कटुता और वैमनस्यता का इतिहास है।
पीडीपी भी अफस्पा के निरस्तीकरण को सुनिश्चित बनाने के लिए संघर्षरत है। यह नेकां पर इस मुद्दे को तोड़-मरोड़ कर पेश करने और कश्मीर घाटी में इसका दोहन कर अब्दुल्ला वंश के जनाधार को नुकसान पहुंचाने का आरोप लगा रही है। व्यावहारिक रूप से यह कश्मीर के लोगों को आश्वस्त करने में सफल रही है कि नेकां सचमुच अफस्पा को हटाने के लिए प्रतिबद्ध नहीं है और इसने सत्ता में बने रहने के लिए इस मुद्दे पर अपने नजरिए से समझौता कर लिया है। वास्तव में, कश्मीर में दो प्रमुख राजनीतिक संगठनों के बीच आरोप-प्रत्यारोप का खेल जारी है। यह सच है कि इस खेल में पीडीपी आगे और नेकां पीछे है। दोनों पार्टियां अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए राजनीति कर रही हैं। हालांकि सत्ता के लिए नेकां और पीडीपी के बीच संघर्ष जारी है। इन दोनों पार्टियों के नेताओं का कहना है कि अफस्पा के हटने से कश्मीर के लोगों को सांस लेने के लिए जगह मिलेगी। उन पर विश्वास करना कठिन है।
मुद्दा यह नहीं है कि इस कानून के निरस्त होने से कश्मीरी मुस्लिमों को सांस लेने के लिए जगह मिलेगी। वास्तविक मुद्दा यह है कि अफस्पा के हटने से कश्मीर घाटी में अशांति दूर होगी या नहीं। अफस्पा के निरस्तीकरण से घाटी में मौजूदा अशांति कदापि दूर नहीं होगी। कारण, कश्मीर में अशांति अफस्पा लागू करने का नतीजा नहीं है। कश्मीरी नेता दशकों से जिस तरह शोर-शराबा की राजनीति कर रहे हैं, यह अशांति उसी का परिणाम है। इस मसले का मुख्य बिंदु धर्म पर आधारित पाकिस्तान की राजनीति, स्वतंत्रता, वृहत्तर स्वायत्तता और स्वशासन है। घाटी में जारी हिंसात्मक आंदोलन का अंतिम नतीजा विखंडन है। कश्मीरी नेता प्रतियोगितात्मक, सांप्रदायिकतावाद और अलगाववाद की राजनीति में शामिल हैं। उनका मकसद कश्मीर और देश के शेष हिस्सों के बीच विभाजन पैदा करना है। तथ्य यह है कि तथाकथित मुख्यधारा के नेकां नेतृत्व अफस्पा मुद्दे को फिर से उखाड़ने में लगे हुए हैं ताकि वास्तविक मुद्दों और अन्य मोर्चों पर मिली नाकामियों से लोगों का ध्यान हटा सकें। राज्य सरकार और विधानमंडल में जो कश्मीरी नेता हैं, वे अपनी मांगों पर पुनर्विचार कर अच्छा काम करेंगे। उन्हें लोकतंत्र, आर्थिक और प्रशासनिक मुद्दों पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए। इसके साथ ही उन्हें सुरक्षा संबंधी मामलों में हस्तक्षेप करने से परहेज करना चाहिए, क्योंकि ये मामले रक्षा मंत्रालय के क्षेत्राधिकार में हैं।
(लेखक : जम्मू विवि के सामाजिक विभाग के पूर्व डीन हैं।)
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