प्रो. हरिओम
19 मार्च को नई दिल्ली स्थित जंतर-मंतर पर तीन दिवसीय
धरना देने के लिए पश्चिमी पाकिस्तान के सैकड़ों रिफ्यूजी पहुंचे। जम्मू, सांबा और कठुआ जिले से बसों में सवार होकर रिफ्यूजी दिल्ली
रवाना हुए। वे बेदर्द और असंवेदनशील केंद्र सरकार से सामान्य नागरिक और राजनीतिक
अधिकार हासिल करने, राज्य में संपत्ति का अधिकार मांगने, जेएंडके सरकार के अधीन नौकरी प्राप्त करने, उच्च तकनीक और पेशेवर शिक्षा का अधिकार प्राप्त करने, बैंक से कर्ज लेने, सदन और स्थानीय निकाय चुनाव
में मताधिकार की अनुमति मांगने के लिए सरकार को मनाने गए थे। 19 मार्च को भारतीय
जनता पार्टी, जम्मू-कश्मीर नेशनल पैंथर्स पार्टी
और जम्मू स्टेट मोर्चा के विधायकों ने भी विधानसभा में इस मुद्दे को उठाया और
रिफ्यूजियों के प्रति राज्य सरकार के नकारात्मक नजरिये के विरोध में सदन से वाकआउट
किया था। उन्होंने 22 मार्च को भी ऐसा ही किया। यह उनका पहला आंदोलन नहीं था। वे
राज्य में सत्ता की कुर्सी पर बैठे लोगों के मानवीय दृष्टिकोण के खिलाफ वर्षो से
आंदोलनरत हैं, लेकिन इसका कोई नतीजा नहीं निकला है।
उल्लेखनीय है कि वर्ष 1947 में धार्मिक आधार पर भारत और पाकिस्तान के बंटवारे के
बाद हजारों हिंदुओं जिसमें अधिकतर दलित वर्ग से संबंधित थे, जम्मू में आकर बस गए थे। यह सांप्रदायिक विभाजन था। वे
द्विराष्ट्र सिद्धांत के आंदोलनकर्ताओं के हाथों प्रताडि़त, शोषित और शारीरिक उत्पीड़न से बचने और अपनी संस्कृति को बचाने
के लिए जम्मू आकर बस गए थे। लाखों गैर मुस्लिमों जिसमें हिंदू और सिख शामिल थे, ने नव निर्मित पाकिस्तान में अपने घरों को छोड़ यहां आ गए। वे
जम्मू-कश्मीर के अलावा भारत के दूसरे भागों में भी बस गए और पूर्णरूपेण भारतीय
नागरिक बन गए। पूर्व प्रधानमंत्री आइके गुजराल,
पूर्व उप
प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी, जम्मू-कश्मीर के पूर्व
राज्यपाल जगमोहन, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल एनएन वोहरा, ब्रिटेन में पूर्व भारतीय उच्चायुक्त और स्तंभकार कुलदीप नैयर, पूर्व केंद्रीय मंत्री और प्रसिद्ध पत्रकार अरुण शौरी इनमें
कुछ प्रसिद्ध नाम हैं। अगर वे जम्मू में बस गए होते तो उनकी स्थिति भी कुछ अलग
नहीं होती। वे पाकिस्तानी रिफ्यूजियों की तरह अपने मौलिक अधिकारों के लिए लड़ रहे
होते, जिसमें भारतीय समाज में गरिमापूर्ण
जिंदगी जीना भी शामिल है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश में समाज का एक तबका हमारे
सामान्य नागरिक और राजनीतिक अधिकारों की उपेक्षा कर रहा है। जम्मू और नई दिल्ली
में 64 वर्षो से अधिक समय तक संघर्ष के बावजूद यह सब जारी है। इस संघर्ष में धरना, मार्च, प्रदर्शन, घेराव, याचिका दायर करना और
गिरफ्तारियां आदि शामिल हैं। इस बीच जम्मू उनके और पुलिस के बीच अनेकों संघर्षो, गिरफ्तारियों, असहाय लोगों के घायल होने और
परित्यक्त रिफ्यूजियों जिसमें बच्चे और महिलाएं भी शामिल हैं, का गवाह बना है। इसमें राज्य सरकार विफल रही है। कारण, रिफ्यूजियों का संघर्ष उन लोगों द्वारा नियंत्रित होता है, जिनका मानना है कि इनको नागरिकता का अधिकार देने का मतलब धारा
370 के तहत राज्य को जो विशेष दर्जा मिला हुआ है उसका न केवल क्षरण बल्कि राज्य की
जनसांख्यिकी को भी बदलना होगा, जिससे सदन में जम्मू संभाग
को अधिक प्रतिनिधित्व मिलेगा। केंद्र सरकार इसमें विफल साबित हुई है कारण वह कमजोर
और दब्बू है। उसमें शासन कर रहे अभिजात्य कश्मीरियों के खिलाफ जाने का साहस नहीं
है। स्थिति यह है कि सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने के बावजूद इन असहाय
रिफ्यूजियों को किसी तरह की मदद नहीं मिली है। अब सवाल उठता है कि क्या जंतर-मंतर
पर तीन दिन तक धरना-प्रदर्शन करने से इच्छित परिणाम मिलेगा? दुर्भाग्यवश, इसका सकारात्मक जवाब नहीं
है। किसी को भी निराशावादी नहीं बनना चाहिए,
लेकिन नई
दिल्ली में बैठे मंत्रियों के रवैये को देखकर कोई भी व्यक्ति दूसरे तरीके से नहीं
सोच सकता। यह रेखांकित करने की जरूरत है कि रिफ्यूजियों ने दिल्ली में नौ महीने
धरना दिया। यह बहुत पहले की बात नहीं है। प्रधानमंत्री ने उन्हें एक बार फिर भरोसा
दिलाया है कि उनकी समस्याओं का समाधान किया जाएगा, लेकिन
इन आश्वासनों से कुछ नहीं मिलने वाला है। सचमुच राज्य में इन रिफ्यूजियों की दशा
दयनीय हो गई है। रिफ्यूजियों के नेतृत्वकर्ता के अनुसार, उन लोगों की विश्वसनीयता को जांचा-परखा नहीं गया है जो केंद्र
सरकार की नौकरी पाने का प्रयास कर रहे हैं। यह ध्यान देने योग्य है कि ये रिफ्यूजी
केंद्र सरकार के अधीन नौकरी पाने योग्य हैं। जहां तक लोकसभा चुनावों की बात है तो
वे आम चुनावों में अपने मताधिकार का प्रयोग करते हैं। हालांकि अभी भी सब कुछ खत्म
नहीं हुआ है, उनका संघर्ष एक दिन रंग-ला सकता है।
उम्मीद की जाती है कि नई दिल्ली में बैठे अधिकारी इन रिफ्यूजियों, जिनकी जिंदगी नरक तुल्य हो गई है, को विशेष उपचार प्रदान करेंगे। यह एक मानवीय समस्या है। यदि
हमारे प्रधानमंत्री जो खुद रिफ्यूजी हैं, अगर श्रीलंका के तमिलों को
संतुष्ट करने के लिए श्रीलंका के खिलाफ मतदान करने के बारे में सोच सकते हैं और यह
कहते हैं कि यदि अमेरिकी प्रायोजित प्रस्ताव से श्रीलंका में तमिल समुदाय का
भविष्य सुरक्षित रहता है और वे समानता, गरिमा, न्याय और आत्मसम्मान से जिंदगी जीते हैं, जोकि हमारा उद्देश्य है तो हम प्रस्ताव के पक्ष में मतदान
करने के लिए तैयार हैं। तो फिर वे जम्मू में शिथिल पड़ चुके पश्चिमी पाकिस्तानी
रिफ्यूजियों के प्रति इसी प्रकार का नजरिया क्यों नहीं अपनाते हैं? 22 मार्च को संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में भारत ने
तमिल नेतृत्व को संतुष्ट करने के लिए श्रीलंका के खिलाफ मतदान किया था, क्योंकि श्रीलंका के तमिलों के साथ भारतीयों का हित जुड़ता
है।
(लेखक : जम्मू विवि के सामाजिक
विभाग के पूर्व डीन हैं।)
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