दयासागर
वर्ष 2012-13 का बजट पेश करते हुए केंद्रीय वित्त
मंत्री प्रणब मुखर्जी और जेएंडके के वित्त मंत्री अब्दुल रहीम राथर ने यह संदेश
देने की कोशिश की कि यह बिना घाटे का बजट है। बजट को लेकर आज आम आदमी उतना उत्सुक
दिखाई नहीं देता जितना 10-12 साल पहले दिखता था। लगता है कि आज यह धारणा बन गई है
कि बजट बनाना और उस पर बहस करना और फिर पास कराना सत्ता पक्ष के लोगों का काम है।
अगर कोई विवाद होता है तो उसका तब तक कोई अर्थ नहीं होता जब तक सत्ता पक्ष की ओर
से कोई विवाद न हो। संसद में जिस तरह रेल बजट पेश हुआ और रेल मंत्री दिनेश
त्रिवेदी को बाहर का रास्ता दिखाया गया वह स्वतंत्र भारत के इतिहास में एक अनोखी
बात है। इससे यह संकेत मिलता है कि आज देश की राजनीति सिर्फ संख्याओं का खेल बनकर
रह गई है। आम आदमी रोटी, कपड़ा और मकान की समस्याओं
के कारण इतना हतोत्साहित हो गया है कि उसने भ्रष्ट राजनीति से छुटकारा पाने की
निकट भविष्य में आस ही छोड़ दी है। आर्थिक सर्वे 2011-12 में मुद्रास्फीति दर 9.1
फीसदी दिखाया गया है। इसका भार आम आदमी पर पड़ता है। सरकारी मुलाजिम इसको झेल लेता
है, क्योंकि सरकार हर साल औसतन अपने
मुलाजिमों को 10 फीसदी से ज्यादा महंगाई भत्ता देती है। वर्ष 2012-13 की बजट में
कोई ऐसी बात नहीं है कि कीमतें घटने की संभावना दिखाई दे। इसके बावजूद प्रणब
मुखर्जी इस बजट को आम आदमी का बजट मानते हैं,
जिसमें विधवाओं
और विकलांगों का पेंशन 200 रुपये से बढ़ाकर सिर्फ 300 रुपये प्रतिमाह किया गया है।
अब मनमोहन सिंह ही बता सकते हैं कि कैसे कोई 300 रुपये माहवार लेकर जी सकता है।
कार्यपालिका में बैठे अधिकांश लोग भ्रष्ट व्यवस्था से उतने चिंतित दिखाई नहीं
देते। कारण, बढ़ती महंगाई और सार्वजनिक सेवाओं
(शिक्षा, स्वास्थ्य) के गिरते स्तर का उन पर
उतना प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि वेतनमान बढ़ने से
उनको आम आदमी के मुकाबले कम बोझ उठाना पड़ता है। फैक्टरियों और निजी क्षेत्रों में
काम कर रहे लोगों को किस तरह लताड़ा जा रहा है यह इस बात से सिद्ध हो जाता है कि
जहां एक तरफ सरकारी कर्मचारियों के लिए महंगाई भत्ता अविलंब बढ़ाया जाता है, वहीं केंद्रीय बजट पेश करने के कुछ दिन पहले इंप्लाइज
कांट्रिब्यूटरी फंड पर सरकार ने 2011-12 के लिए ब्याज दर 9.5 फीसदी से घटा कर 8.25
फीसदी कर दिया है। श्रमिक वर्ग के हित में केंद्रीय और राज्य के बजट में कुछ खास
नहीं कहा गया है। व्यापारी वर्ग को टैक्स में छूट, कुछ
समय तक एक्साइज में छूट, निवेश पर सब्सिडी या ऐसे ही
अन्य प्रावधानों में कोई बुराई नहीं है लेकिन सरकार को यह भी देखना चाहिए कि क्या
व्यापारी वर्ग इसका कुछ लाभ अपने कर्मचारियों/कामगारों को दे रहा है या नहीं। पर
ऐसा बहुत कम होता है। अब्दुल रहीम राथर ने वर्ष 2012-13 के बजट में निजी क्षेत्र
के अस्पतालों, नर्सिग घरों और प्रयोगशालाओं को
टैक्स में कुछ छूट देते हुए कहा है कि यदि इसका लाभ स्वास्थ्य सेवा लेने वालों तक
नहीं पहुंचा तो सरकार ऐसी छूट वापस भी ले सकती है। राथर का यह कदम सराहनीय है, लेकिन यदि वह यह बात उद्योगों और दूसरे व्यापारिक संस्थानों
के लिए भी कहते तो अच्छा होता। राजनीति के खिलाडि़यों का काम उत्तर प्रदेश में हुए
चुनावों के बाद साफ नजर आने लगा है। पहले मुलायम सिंह और मायावती की पार्टियां
कांग्रेस के खिलाफ प्रचार कर रही थीं और अब बसपा और सपा में कांग्रेस का साथ देने
के लिए होड़ मची हुई है। इससे साफ है कि आज राजनीतिज्ञ मतदाता को सीधा-सादा समझते
हैं। कोई भी निर्णय देश और आम मतदाता के हित में कम और कुर्सी पर बैठे लोगों के
हित में ज्यादा लिया जाता है। हाल ही में श्रीलंका के विषय में करुणानिधि का दबाव
और रेल मंत्री को बदलने की ममता की मांग से यह बात स्पष्ट हो जाती है।हमारे देश
में सरकारी विश्वविद्यालयों में कार्यरत प्रोफेसरों को राजनीति में भाग लेने या
सरकार की नीतियों पर टिप्पणी करने की छूट दी गई है, जबकि
दूसरे कर्मचारियों को यह छूट नहीं है। इसके पीछे यह कारण है कि बुद्धिजीवी और उच्च
सोच रखने वाले लोग समय-समय पर राजनेताओं को दिशा-निर्देश देते हैं, पर यहां भी उतनी दयानतदारी नहीं रही है। शिक्षा क्षेत्र के
लोगों में भी सरकारी पदों पर आसीन लोगों की शाबाशी पाने की होड़ मची रहती है। यदि
ऐसा न होता तो सरकार द्वारा वर्ष 2011-12 की जो आर्थिक सर्वे जारी की गई है, उस पर कुछ लोग जरूर सवाल उठाते। वर्ष 2011 के मुकाबले 2011-12
में कृषि उत्पादन/खाद्यान्न सिर्फ 2.29 फीसदी (24.48 से 25.04 करोड़ टन) बढ़ेगा, जबकि जनसंख्या 3.4 फीसदी बढ़ेगी (117 से 121 करोड़)। फिर भी
दूसरी हरित क्रांति के लिए 2012-13 की बजट में कृषि क्षेत्र के लिए सिर्फ 5000
करोड़ रुपये रख कर ही बड़े दावे किए जा रहे हैं। विदेशों से गत वर्ष पहले छह माह
में ही आयात मूल्य 236.67 अरब अमेरिकी डॉलर,
जबकि निर्यात
सिर्फ 150.9 अरब अमेरिकी डॉलर था। अनुमान के मुताबिक वर्ष 2011-12 में
आयात-निर्यात का अंतर करीब सात लाख करोड़ रुपये होगा। किसी भी देश की अर्थव्यवस्था
मापने के लिए आयात-निर्यात का घाटा/लाभ एक अच्छा मूल्यांकन होता है। कुछ लोगों का
तर्क है कि कच्चे तेल का आयात घाटे का मूल कारण है। यह तर्क सही नहीं है। अमेरिका
भी बड़ी मात्रा में कच्चे तेल का आयात करता है और उसे साफ कर बेचता है। अमेरिका
में एक मजदूर भारत के मुकाबले ज्यादा मजदूरी लेता है। फिर भी अमेरिका में आम आदमी
को पेट्रोल भारत के मुकाबले 20 से 25 रुपये लीटर कम मिलता है। इससे साफ है कि भारत
में सरकार तेल पर ड्यूटी और टैक्स बहुत अधिक लेती है। आम आदमी को विचार करना होगा
कि भ्रष्ट अधिकारी और नेता जिस सरकारी दान का दुरुपयोग करते हैं, वह उसका ही है और जो उसको सब्सिडी दी जाती है उससे कहीं अधिक
उससे टैक्स लिया जाता है। आर्थिक सर्वे के मुताबिक जल्द ही सरकार के ऊपर देश-विदेश
का कर्ज 50,00,000
करोड़ रुपये तक पहुंच जाएगा। वर्ष 2011-12 में सरकार ने 2,67,986 करोड़ रुपये सूद दिया
है। यूपीए-2 की 2012-13 बजट में भी 14,90,925 करोड़ रुपये का बजट खर्च करने के लिए 4,79,000 करोड़ रुपये का उधार
लेने का लक्ष्य रखा गया है। अन्ना हजारे और बाबा रामदेव की आज घर-घर में चर्चा हो
रही है, पर सत्ता की दौड़ में शामिल
राजनेताओं पर आम आदमी कैसे अंकुश लगाता है यह देखने में अभी समय लगेगा।
(लेखक जम्मू-कश्मीर मामलों के अध्येता हैं)
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