Wednesday, March 28, 2012

अब की जा सकती है कश्मीर के हल की पहल


कुलदीप नैयर
एक समय था, जब कश्मीर पर भारत या पाकिस्तान के प्रधानमंत्री का कोई बयान आने पर हंगामा खड़ा हो जाता था। दोनों देश के राजनीतिज्ञ और मीडिया कई दिनों तक उस बयान का अर्थ निकालने में जुटे रहते थे। इधर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री युसूफ रजा गिलानी ने पिछले दिनों कहा कि उनका देश कश्मीर समस्या को टकराव के बजाए बातचीत के जरिए सुलझाना चाहता है। लेकिन इस बयान पर मैंने न तो भारत में कोई प्रतिक्रिया देखी, और ना ही पाकिस्तान के किसी विपक्षी नेता या प्रेस ने इसे कोई तवज्जो दिया। इससे भी ज्यादा ध्यान देने वाली बात हर वक्त भारत के खिलाफ जेहाद की आवाज उठाने वाले आतंकवाद समर्थक गुटों की चुप्पी रही। आमतौर पर पाकिस्तान बार-बार कहता रहा है कि कश्मीरियों के सवाल पर वह पीछे नहीं हटेगा। इसी बात को उसने फिर दोहराया है। पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी ने इस हफ्ते कहा कि पाकिस्तान कश्मीर को भूला नहीं है। लेकिन इससे वह जमीनी हकीकत नहीं बदलती, जिसमें भारत और पाकिस्तान के बीच की सीमा के तौर पर नियंत्रण रेखा को कबूला गया है।

गिलानी ने फिर दोहराया है कि स्व. जुल्फीकार अली भुट्टो ने चार दशक पहले शिमला समझौता किया था। इस समझौते में कहा गया है, ‘17 दिसम्बर 1971 के युद्धविराम के परिणामस्वरूप जम्मू-कश्मीर में तय किए गए नियंत्रण रेखा को दोनों देश बिना किसी पूर्वाग्रह के स्वीकार करेंगे और यही दोनों देशों की मान्यता प्राप्त सीमा होगी। आपसी मन-भिन्नता और कानूनी व्याख्या चाहे जो भी हो, दोनों में से कोई भी इसे एकपक्षीय तरीके से नहीं बदलेगा। साथ ही इस नियंत्रण रेखा का उल्लंघन कर किसी तरह के बल प्रयोग से भी अलग रहने का वादा दोनों पक्ष वादा करते हैं। यह समझौता पिछले तीन दशकों से बना हुआ है। कारगिल की अनिष्टकारी घटनाओं को छोड़कर बाकी समय सीमा पर शांति बहाल रही है।

संभवतः आतंकियों के साथ-साथ पाकिस्तान सरकार को भी एहसास हो चुका है कि मेलजोल का कोई विकल्प नहीं है। शायद शांति चाहने वालों की संख्या दोनों ओर बढ़ी है। यहां तक कि दोनों सरकारों को भी एहसास है। कुछ समय पहले तक वे जिस तरह धमकियां दिया करती थीं, अब नहीं दे रही हैं। संभवतः प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की यह चेतावनी कि कश्मीर पर किया गया कोई हमला भारत पर हमला माना जाएगा, पुरानी हो चुकी है। तीन युद्धों और कारगिल की अनिष्टकारी घटना से साबित हो चुका है कि इस्लामाबाद के किसी हमले का नई दिल्ली पूरी ताकत के साथ जवाब दे सकती है। ऐसे में प्रधानमंत्री गिलानी का नया बयान न सिर्फ अर्थवान है बल्कि यह एक नया मौका भी देता है। दोनों देशों को कश्मीर समस्या को हल करना है और इसी तरह दूसरी समस्याओं को भी शांतिपूर्ण तरीके से निपटाना है। यह एक तरह से हस्ताक्षर की औपचारिकता निभाए बिना अपने तरह का अयुद्ध संधि है। फिर भी गिलानी के बयान से भारत को संतुष्ट होकर शांत नहीं हो जाना चाहिए। कश्मीर समस्या अभी भी बनी हुई है। लोगों के असंतोष को व्यक्त करने के लिए कभी-कभी घाटी में घटनाएं घटित हो रही हैं। यहां तक मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली निवार्चित सरकार ने भी कई बार कहा है कि कश्मीर समस्या का समाधान पाकिस्तान की भागीदारी के बिना संभव नहीं है।

भारतीय सेना भी मौजूदा स्थिति से खुश नहीं है, क्योंकि जम्मू-कश्मीर के सैन्य कमांडरों ने निरंतर कहा है कि यह एक राजनीतिक समस्या है, न कि सैन्य समस्या। इसके बावजूद भारत बड़ी संख्या में अपनी सेना कश्मीर में लगाए हुए है। बार-बार यह साबित होता रहा है कि इस सेना के पास घरेलू अशांति से निपटने का आवश्यक प्रशिक्षण नहीं है। देश की सुरक्षा समझने वाली बात है, लेकिन सेना को सीमा पर रहना चाहिए और इनका इस्तेमाल कानून-व्यवस्था बहाल करने के काम में नहीं होना चाहिए। राज्य के अंदर सेना तैनात करने से इस बात की पुष्टि होती है कि सरकार के पास स्थिति से निपटने का कोई हल नहीं है और समस्या से किस तरह निपटा जाए इसकी उसे जानकारी भी नहीं है।

यह बात सही है कि नई दिल्ली ने अंतरराष्ट्रीय अभिमत को ठीकठाक बनाए रखा है। देश के बाहर कोई प्रतिकूल प्रतिक्रिया नहीं है। लेकिन इतने से समस्या का समाधान नहीं हो जाता। अधिक से अधिक यह दब कर रह जाता है। आखिर भारत एक सिविल सोसायटी है, जिसके अपने कुछ उत्तरदायित्व हैं और लोकतांत्रिक राज्यसत्ता को इन उत्तरदायित्वों को पूरा करना होता है। अगर कश्मीरी खुश नहीं हैं, और उनके द्वारा चुनी गई सरकार भी महसूस करती है कि समस्या का समाधान पाकिस्तान को साथ लेकर ही किया जाना चाहिए, तो फिर नई दिल्ली को हकीकत स्वीकार करनी पड़ेगी। इसका मतलब यह कतई नहीं है कि पाकिस्तान की मांगें मान ही ली जाएं। पाकिस्तान को भी हकीकतों का ख्याल करना होगा और एक बड़ी हकीकत यह है कि भारत धर्म के आधार पर एक और विभाजन कभी नहीं स्वीकार करेगा।

मुस्लिम बहुल घाटी अपने रास्ते चली है। उसने हिंदूबहुल जम्मू तथा बौद्धबहुल लद्दाख से अपनी दूरी बनाए रखी है। इसलिए जब राष्ट्रपति जरदारी यह कहते हैं कि पाकिस्तान कश्मीर का साथ देता रहेगा तो वे द्विराष्ट्रवाद की बात कर रहे होते हैं। जबकि भारत द्विराष्ट्रवाद के इस सिद्धांत को बहुत पहले दफना चुका है। मुझे नहीं लगता कि पाकिस्तान का बौद्धिक समाज भी द्विराष्ट्रवाद के इस सिद्धांत को मानता है। लेकिन विचार का विषय यह सवाल नहीं है। विचार का विषय कश्मीर है और मेरा मानना है कि गिलानी ने जो पहल की है उस पर ध्यान दिया जाना चाहिए। मैं उन लोगों से सहमत नहीं हूं, जो यह कहते हैं कि पाकिस्तान जो कुछ युद्ध के जरिए नहीं हासिल कर सका, उसे बातचीत के जरिए पाने का दावा वह नहीं कर सकता। दरअसल दोनों देशों को यह महसूस करने की जरूरत है कि उन्हें अपना पुराना रुख छोड़ना होगा। शांति और सद्भाव युद्ध से ज्यादा जरूरी है। आतंकी लगातार युद्ध की बात करते रहेंगे, क्योंकि समस्या को बनाए रखने के लिए उनका निहित स्वार्थ है।

समस्या के हल के रूप में मेरा एक सुझाव है। दोनों सरकारें प्रतिरक्षा और विदेशी मामलों को छोड़कर बाकी सब कुछ कश्मीरियों के हवाले कर दें और सीमा को थोड़ा बंधनमुक्त बनाएं ताकि जम्मू-कश्मीर तथा आजाद कश्मीर के लोग आपस में मिल जुल सकें और साथ मिलकर अपने क्षेत्र के विकास की योजनाएं बना सकें। उनकी अपनी हवाई सेवा और व्यापार तथा विदेशों में सांस्कृतिक मिशन रहें। दोनों कश्मीर में आने-जाने के लिए वीजा का प्रावधान हो। आजाद कश्मीर पाकिस्तान का हिस्सा रहे तथा जम्मू-कश्मीर भारत का। संयुक्त राष्ट्र में लंबित मामले को वापस ले लिया जाए। मेरा सुझाव है कि जम्मू-कश्मीर से निवार्चित लोकसभा के सदस्य पाकिस्तान के नेशनल एसेम्बली में बैठें तथा आजाद कश्मीर से चुने गए प्रतिनिधि भारत की लोकसभा में। यह सुझाव भविष्य में दोनों देशों के बीच निकटता स्थपित करने के मकसद से दिया जा रहा है।

No comments:

Post a Comment