दयासागर
ऐसा प्रतीत होता है कि तवी पुल के पास
महाराजा हरि सिंह की मूर्ति दिल्ली वालों से पूछ रही हो कि मैंने
तो भारतीय गणराज्य में अपने राज्य का विलय कर दिया
था फिर यहां इतनी अशांति क्यों है? आज भी कुछ लोग किस कश्मीर समस्या की बात कर रहे हैं,
जिसके बारे में
मनमोहन सिंह और जरदारी के बीच बातचीत हो सकती है? महाराजा को क्या पता कि जिस गैर जिम्मेदाराना ढंग से केंद्र
सरकार ने वीपी मेनन के हाथों भेजे गए विलय
दस्तावेज का निपटारा किया था उससे वर्ष 1947
में भारत में
विलय नहीं चाहने वालों को बातचीत करने का अवसर मिला था। इसके साथ ही न तो कांग्रेसी नेताओं
ने अपनी कार्रवाई की सही तरह से व्याख्या करने की
कोशिश की, जिस कारण देश विरोधी तत्व बेरोकटोक
अपनी बातों को लोगों तक पहुंचाने में लगे रहे, जिस कारण कुछ लोगों के मन में शंकाएं उत्पन्न होती चली गई। यही नहीं,
राजसत्ता के कुछ
भूखे लोग भी केंद्र सरकार के ऐसे रवैये में अपना लाभ देखने लगे
और आम कश्मीरियों को भ्रमों के जाल से
निकालने के लिए
ईमानदारी से कोशिश नहीं की।
महाराजा द्वारा हस्ताक्षरित विलय दस्तावेज एक चिट्ठी से ढंका हुआ था, जिसमें तत्कालीन मौजूदा शर्तों की व्याख्या की गई थी। 27 अक्टूबर 1947 को विलय दस्तावेज स्वीकारने के बाद लॉर्ड माउंटबेटन ने भी महाराजा हरि सिंह को एक चिट्ठी लिखी थी, जिसमें 26 अक्टूबर को उनकी लिखी चिट्ठी
मिलने की बात कही गई थी। अलगाववादियों और देश विरोधी तत्वों ने विलय की पूर्णता के बारे में प्रश्न पूछने
के लिए माउंटबेटन की चिट्ठी का सबसे अधिक
प्रयोग किया है। कुछ लेखकों ने भी अंतिम विलय पर
सवाल उठाने के लिए इस चिट्ठी का खूब प्रयोग किया है। यद्यपि यह चिट्ठी विलय दस्तावेज का हिस्सा नहीं थी। दिल्ली में सत्ता की
कुर्सी पर काबिज लोगों को बहुत पहले इन सवालों
के जवाब देने चाहिए थे। यहां तक कि महाराजा हरि सिंह की चिट्ठी
के प्रारूप का भी अलगाववादियों के विचारों का विरोध करने के लिए प्रयोग नहीं हुआ है। हालांकि बहुत देर हो
चुकी है, लेकिन अभी भी समय है।
जेएंडके (खासकर कश्मीर घाटी के लोगों)
के कुछ मासूम लोगों के दिमाग में वर्षों से घर कर
चुके भ्रमों को दूर करने के लिए सामान्य और व्यापक
स्वीकार्य तर्कों को विस्तार देने की आवश्यकता है। भारतीय स्वतंत्रता कानून 1947 से संबंधित भारत सरकार कानून 1935 यह अवसर प्रदान करता है कि देश के किसी भी राज्य का शासक विलय दस्तावेज पर अमल कर भारतीय
गणतंत्र में अपने राज्य का विलय कर सकता है।
महाराजा द्वारा हस्ताक्षरित विलय
दस्तावेज के अनुसार- मैं श्रीमान् इंदर महेंदर
राजराजेश्वर महाराजाधिराज श्री हरि सिंह, जम्मू और कश्मीर नरेश तत्था तिब्बत आदि देशाधिपति, जम्मू-कश्मीर का
शासक अपने राज्य
की संप्रभुता अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए राज्य को भारतीय गणराज्य में विलय करता हूं। साथ ही सूची में वर्णित शर्तों को
स्वीकार करता हूं ताकि विधानमंडल राज्य के लिए
कानून बना सके। भारतीय स्वतंत्रता कानून
1947 से विलय के
दस्तावेज में किसी तरह का संशोधन या बदलाव नहीं होगा, जब तक कि मैं ऐसे संशोधनों को
स्वीकार नहीं करता। मैं राज्य की ओर से विलय शर्तो को लागू करने की घोषणा करता हूं।
तत्कालीन गवर्नर जनरल ऑफ इंडिया लॉर्ड माउंटबेटन ने इसे स्वीकार करते हुए 27
अक्टूबर 1947 को इस पर हस्ताक्षर कर दिया। उन्होंने
कहा मैं 27 अक्टूबर 1947 के विलय के दस्तावेज को
स्वीकार करता हूं। इसलिए तकनीकी रूप से यह विलय पूर्ण और असंदिग्ध है। यह उल्लेख करना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि जेएंडके राज्य के
विलय दस्तावेज का प्रारूप देश के अन्य
राज्यों के विलय दस्तावेज से भिन्न नहीं था।
हरि सिंह ने 26 अक्टूबर को अपनी चिट्ठी में
विलय दस्तावेज पर हस्ताक्षर करने के
लिए 14 अगस्त 1947 के बाद देरी के कारणों का
उल्लेख करने की कोशिश की है। महाराजा ने अपनी चिट्ठी में
कहा है कि महामहिम मैं आपको सूचित करना चाहता हूं कि मेरे राज्य में एक गंभीर स्थिति पैदा हो गई है। मैं
आपकी सरकार से तत्काल मदद पहुंचाने का आग्रह
करता हूं। महामहिम जैसा कि आप जानते हैं कि जम्मू-कश्मीर
राज्य का न तो भारतीय गणराज्य और न ही पाकिस्तान में विलय हुआ है। उत्तरी पश्चिमी सीमांत प्रांत के दूरस्थ क्षेत्रों से
बड़ी संख्या में जनजातियों का घुसपैठ हो रहा
है। ये मानसेहरा-मुजफ्फराबाद सड़क से बड़ी संख्या
में ट्रकों में सवार होकर आ रहे हैं और आधुनिक हथियारों से पूरी तरह लैस हैं। उत्तरी पश्चिमी सीमांत प्रांत की स्थानीय और
पाकिस्तान सरकार की जानकारी के बिना यह संभव नहीं
है। बार-बार अपील करने के बावजूद इन हमलावरों को रोकने के लिए कोई प्रयास नहीं किए जा रहे हैं।
महाराजा ने राज्य के लोगों के बारे में जो कुछ कहा उससे बहुत कुछ खुलासा होता है।
उन्होंने कहा कि मेरे राज्य के लोग जिसमें मुस्लिम, गैर मुस्लिम और सामान्य लोग शामिल हैं, उनका इसमें कोई हाथ नहीं है।
मौजूदा आपातकालीन स्थिति को देखते हुए
भारत सरकार से
मदद मांगने के अलावा मेरे पास कोई विकल्प नहीं है। इसी कारण मैंने ऐसा करने का फैसला किया है और आपकी सरकार हमारी बात को
स्वीकार करे इसके लिए विलय के दस्तावेज को संलग्न
करता हूं। इसलिए स्पष्ट रूप से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है
कि महाराजा ने जेएंडके के राजकुमार के साथ मौजूदा
परिस्थितियों का वैचारिक और तार्किक मूल्यांकन के बाद यह निर्णय लिया था। जबकि लॉर्ड माउंटबेटन द्वारा महाराजा को लिखी चिट्ठी
से तत्कालीन अनुत्तरित केंद्र सरकार और माउंटबेटन
के इरादों का पता चलता है। तत्कालीन
जवाहर लाल नेहरू
की कैबिनेट ने उन अनुत्तरित प्रश्नों का स्पष्टीकरण देने तक की परवाह नहीं की।
लॉर्ड माउंटबेटन ने विचित्र ढंग से
अपनी चिट्ठी में लिखा है कि परिस्थितियों को देखते हुए
मेरी सरकार ने भारतीय गणराज्य में कश्मीर के विलय को स्वीकार करने का निर्णय लिया है। अगर किसी राज्य में
विलय का मुद्दा विवाद का विषय रहा है तो उस
राज्य के लोगों की इच्छाओं के अनुरूप
विलय के सवाल पर
फैसला लेना चाहिए। मेरी सरकार की इच्छा है कि कश्मीर में कानून व्यवस्था बहाल होने और यहां की धरती को हमलावरों से
मुक्त करवाने के बाद राज्य के विलय के प्रश्न
को लोगों के माध्यम से निपटाना चाहिए।
सवाल है कि
जेएंडके के विलय के मुद्दे पर माउंटबेटन का नाम विवाद के रूप में कैसे लिया जा सकता है। महाराजा ने किसी विवाद के बारे में
बात नहीं की थी। न ही भारतीय स्वतंत्रता कानून को
लेकर कोई विवाद था और न ही नेहरू ने इसकी व्याख्या की थी और न ही कांग्रेसियों ने उनका अनुसरण
किया था।
(लेखक : जम्मू-कश्मीर मामलों के
अध्येता हैं।)