नरेन्द्र सहगल
हाल ही में जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला का यह कहना कि
इस साल के अंत तक सैन्य विशेषाधिकार अधिनियम को राज्य में समाप्त करने की
प्रक्रिया शुरू हो जाएगी, साबित करता है कि वे जिहादी आतंकवादियों व पाकिस्तान-परस्त अलगाववादियों के
कितने दबाव में हैं। क्योंकि राज्य में अनुच्छेद 370 के औचित्य पर लगा हुआ सवालिया निशान, देश विभाजन के समय पाकिस्तान
से आए लाखों हिन्दुओं की नागरिकता का लटकता मुद्दा, तीन-चार युद्धों में
शरणार्थी बने सीमांत क्षेत्रों के बेकसूर नागरिकों का पुनर्वास, जम्मू और लद्दाख के
क्षेत्रीय अधिकारों का हनन, अभिशाप बन चुकी लद्दाख की गरीबी, पूरे प्रदेश में व्याप्त आतंकवाद, कश्मीर घाटी से उजाड़ दिए गए चार लाख
कश्मीरी हिन्दुओं की घरवापसी तथा पूरे प्रांत के लोगों की अन्य कठिनाइयों
के समाधान की कोई ईमानदार कोशिश तो उमर ने अभी तक नहीं की। वास्तविकता तो
यह है कि इस प्रदेश में सबसे ज्यादा प्रताड़ित हो रहे हैं अल्पसंख्यक हिन्दू।
यहां तक कि राष्ट्रीय स्वाभिमान के प्रतीक तिरंगे झंडे को जलाने की
दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं प्रदेश की राजधानी श्रीनगर के लाल चौक पर पचासों बार हो
चुकी हैं।
देशद्रोह में बदला अलगाववाद
दरअसल, स्वतंत्रता के साथ ही जो समस्याएं देश को मिलीं उनका अधिकांश असर
जम्मू-कश्मीर पर ही हुआ। देश के शेष प्रांतों की संवैधानिक तथा भौगोलिक समस्याएं धीरे-धीरे
निपटा ली गईं। प्रांतीय पुनर्गठन आयोग के माध्यम से प्रांतों का पुनर्गठन, निर्माण तथा जोड़-तोड़ करके एक ही बार में
देश का प्रशासनिक ढांचा सुधारने का एक प्रयास हुआ, परंतु जम्मू-कश्मीर देश की
इस संवैधानिक परिधि में नहीं आ सका।
परिणामस्वरूप इस प्रदेश की सब समस्याएं जटिल होती चली गईं। अलबत्ता
अलगाववाद की भावना खतरनाक मोड़ लेकर देशद्रोह में बदल गई और आतंकवाद के
भयंकर अजगर ने सिर उठा लिया, जिसे कुचलने में देश की फौज, सरकार तथा अरबों का धन लग रहा है।
लेकिन समस्या बढ़ती ही जा रही है।
6 दशक बीत जाने के बाद भी जम्मू-कश्मीर
की
संवैधानिक
व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह लग रहे हैं। इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या होगा कि इस देश के
शासकों को बार-बार यह घोषणा करनी पड़ती है कि "जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न हिस्सा
है।" इस घोषणा से संसार भर को यह गलत संदेश मिलता है कि कहीं कोई गड़बड़ है।
दिलचस्प और हैरत की बात तो यह है कि भारत में जम्मू-कश्मीर के पूर्ण विलय के बावजूद देश के
शासक कहते चले आ रहे हैं कि यह प्रदेश भारत का अभिन्न हिस्सा है।
कुचले गए संवैधानिक अधिकार
दुर्भाग्य से भारत का संविधान अभी तक पूर्ण रूप से जम्मू-कश्मीर
पर लागू नहीं हो सका है। जम्मू-कश्मीर की भौगोलिक सीमाओं में शेष भारत के
नागरिक स्वतंत्र नहीं हैं। उन्हें जम्मू-कश्मीर- का नागरिक बनने का हक नहीं है। वह
जमीन-जायदाद नहीं खरीद सकते,
वोट नहीं दे
सकते,
सरकारी नौकरी
नहीं ले सकते और अब तो स्थिति इतनी विस्फोटक हो गई है कि भारत के लोगों के लिए कश्मीर
घाटी में
स्वतंत्रतापूर्वक
घूमना-फिरना भी असंभव है। यह कैसी विडम्बना है कि जम्मू-कश्मीर में भारत का
राष्ट्रपति,
संसद तथा जनता
आज भी विदेशी माने जाते हैं?
राष्ट्रपति महोदय
वहां आपात स्थिति घोषित नहीं कर सकते। देश की सर्वोच्च संस्था संसद द्वारा
बनाए गए कानून वहां लागू नहीं होते। देश के नागरिक वहां के नागरिक नहीं हैं।
यह दयनीय स्थिति यहां तक है कि देश के राष्ट्रीय ध्वज को फहराने के
लिए प्रदेश के हल वाले हरे झंडे का सहारा लेना पड़ता है। अनुच्छेद 370 के अंतर्गत बनी इन देशघातक
परिस्थितियों को बदलने के स्थान पर भारत सरकार अलगाववादियों और कट्टरपंथी राजनीतिक दलों के दबाव में आकर जम्मू -कश्मीर को
"स्वायत्तता" प्रदान करने की तैयारियां कर रही है।
भेदभाव की पराकाष्ठा
भारत के नागरिकों की बात को छोड़िए, जम्मू- कश्मीर में 1947 में पाकिस्तान से आकर बसे
लाखों लोगों को अभी तक नागरिकता नहीं दी गई। ये लोग अपने मूल अधिकारों से भी वंचित किए
जा रहे हैं। विभाजन के समय जितने भी हिन्दू पाकिस्तान से आकर भारत के भिन्न-भिन्न हिस्सों में बसे, सबको पाकिस्तान में रह गई
उनकी जायदादों के मुआवजे दिए गए, परंतु जम्मू-कश्मीर में आकर बसे लोगों को कुछ नहीं दिया गया। शर्म की बात तो यह है कि जो लोग पाकिस्तान में
जाकर बसे हैं वे आज भी वापस आकर अपनी जमीन-मकान वापस लेकर, उसे बेचकर फिर से पाकिस्तान
चले जाते हैं,
उन्हें कोई
रोकता
नहीं और कोई
पकड़ता नहीं।
जम्मू-कश्मीर में आज तक जम्मू तथा लद्दाख के लोगों को बराबरी के हक
नहीं दिए गए। भारत सरकार ने अरबों का धन जम्मू-कश्मीर के विकास के लिए दिया
है। परंतु इस धन का 90 प्रतिशत हिस्सा केवल कश्मीर घाटी में खर्च हो रहा है परिणाम उलटा निकला। इस धन का
दुरुपयोग
करके कश्मीरी
पृथकतावादियों ने आतंक का रास्ता पकड़ लिया। शायद जम्मू और लद्दाख के देशभक्त लोगों को
उनके भारत प्रेम की सजा देने के लिए ही उन्हें पिछड़ा रखा जा रहा है।
विधानसभा में प्रतिनिधित्व, शिक्षा एवं रोजगार में पक्षपात, विकास कार्यों में असंतुलन इत्यादि
सभी क्षेत्रों में जम्मू और लद्दाख कश्मीर घाटी से बहुत पीछे हैं। आज लद्दाख के
लोगों की दयनीय आर्थिक स्थिति अभिशाप बनी बैठी है।
भारत-भक्ति की घिनौनी सजा
पाकिस्तान द्वारा थोपे गए चार युद्धों में जम्मू-कश्मीर के सीमांत
क्षेत्रों के लोगों को अपने घर-जमीन छोड़कर दूसरे क्षेत्रों में अस्थाई रूप से
जाने के आदेश दिए गए। परंतु ये लोग आज भी भटक रहे हैं। इनके पुनर्वास की
कोई व्यवस्था नहीं हो सकी है। राजौरी तथा पुंछ के सीमांत ग्रामों से
विस्थापित लोग तो इतने परेशान हैं कि इनके बच्चों की पढ़ाई-लिखाई तक समाप्त हो गई
है। 1965
तथा 1971 के युद्धों में विस्थापित हुए लोगों की पूरी एक पीढ़ी
तबाह हो गई है।
विदेश प्रेरित आतंकवाद से प्रभावित होकर कश्मीर से उजड़े चार लाख से
भी ज्यादा कश्मीरी हिन्दू अपनी मातृभूमि से दूर दर-दर भटक रहे हैं।
जम्मू-कश्मीर की निर्वाचित सरकारें भी इनको अपने घरों में भेजने की व्यवस्था नहीं
कर सकीं। 22
वर्ष पूर्व
कश्मीर के वास्तविक बाशिंदे चार लाख कश्मीरी हिन्दुओं का जबरदस्ती पलायन करवाकर कश्मीर घाटी
को
पूर्णतया
हिन्दू-विहीन करने के पश्चात् अब वहां रह रहे साठ हजार से भी ज्यादा सिखों को इस्लाम कबूल
करने अथवा कश्मीर से निकल जाने के जिहादी फरमान जारी किए जा रहे हैं।
दूसरे पाकिस्तान की तैयारी
कश्मीर में लगी अलगाववादी आग को राजनीतिक पैकेजों द्वारा शांत करने के
ख्वाब देख रहे कांग्रेसी एवं साम्यवादी संगठनों और इनके कथित प्रगतिशील
नेताओं की मुस्लिम तुष्टीकरण की सनक अगर अब भी समाप्त नहीं हुई तो कश्मीर को
दूसरा पाकिस्तान बनने से कोई भी रोक नहीं सकेगा। बहुमत के आधार पर मुस्लिम
राष्ट्र के निर्माण का इतिहास फिर दोहराया जाएगा।
सारे संसार में शैवमत, बौद्धमत, वैदिक संस्कृति और भारतीय
राष्ट्रवाद का प्रचार करने वाले कश्मीर की धरती पर भारत विद्रोह का झंडा उठाकर
निजामे मुस्तफा की हुकूमत अर्थात् आजाद इस्लामी मुल्क के नारे बुलंद किए जा
रहे हैं।
अरब हमलावरों का सफल प्रतिकार करने वाले सम्राट चंद्रापीड़, तुर्किस्तान से लेकर मध्य
एशिया तक भारत के राष्ट्रीय ध्वज को फहराने वाले सम्राट ललितादित्य, जनकल्याण की वैश्विक अवधारणा
को बल
प्रदान करने
वाले महाराजा अवंतिवर्मन, काबुल पर आधिपत्य जमाने वाले राजा शंकरवर्मन, महमूद गजनवी को दो बार
पराजित करने वाले महाराजा संग्रामराज और राजा त्रिलोचनपाल को कश्मीर के
इतिहास के पन्नों से मिटाया जा रहा है।
निरंतर बिगड़ रहीं परिस्थितियां
यह देखकर कितना अजीब लगता है कि जब सारा देश स्वतंत्रता की खुशियां
मनाने में व्यस्त होता है, उस समय जम्मू-कश्मीर के अधिकांश नागरिकों के पास मनाने के लिए कुछ भी नहीं
होता। इस प्रदेश के कई लोगों को वोट का हक नहीं, कइयों को अपने घर में रहने का हक
नहीं,
कइयों को अपना स्वतंत्र कारोबार
करने का हक नहीं। हिन्दुओं को हिन्दू होने की सजा मिल रही है।
केन्द्र और प्रदेश की सरकारों का राजनीतिक छल, एक विशेष समुदाय के
तुष्टीरकण पर आधारित वोट बैंक की लालसा, ठोस नीति और सख्त कार्रवाई के अभाव
में पाकिस्तान समर्थक अलगाववादी तत्व निरंतर मजबूत होते जा रहे हैं।
हिंसक आतंकवाद थम नहीं रहा। इस विदेश प्रेरित आतंकवाद ने हिन्दू मुसलमानों
समेत प्रत्येक वर्ग के लोगों के अमन-चैन को बारूदी पलीता लगा दिया है। लगातार
बिगड़ रही परिस्थितियों में जी रहे हैं जम्मू-कश्मीर के लोग, विशेषतया हिन्दू समाज।
देशघातक अलगाववादी अभियान
यह भी कैसी विडम्बना है कि एक ओर सारे देश में अल्पसंख्यकों विशेषतया
मुस्लिम समाज को सभी प्रकार की राजनीतिक, सामाजिक, मजहबी और आर्थिक सुविधाएं दी
जा रही हैं। बहुसंख्यक हिन्दू समाज की पिछड़ी जातियों के संवैधानिक अधिकारों में कटौती
करके अल्पसंख्यक मुस्लिम समाज को प्रत्येक प्रकार के आरक्षण प्रदान करने की होड़ मच रही है। वहीं दूसरी ओर जम्मू-कश्मीर में
रहने वाले अल्पसंख्यक हिन्दुओं को सम्मानपूर्वक जीने के अधिकारों से भी
वंचित किया जा रहा है।
वर्तमान में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद का सबसे ज्यादा असर हिन्दुओं
पर हुआ है। विशेषतया कश्मीर घाटी में तो हिन्दुओं को अपने घरों में भी
सुरक्षित नहीं रहने दिया गया। शेष दो संभागों जम्मू एवं लद्दाख में भी इसी
प्रकार की परिस्थितियां बनाने के लिए अलगाववादी संगठन जी तोड़ प्रयास कर रहे हैं। अगर निकट
भविष्य में पूरे भारत में इस एकतरफा उत्पीड़न के विरुद्ध कोई संगठित प्रयास न हुआ तो इस
सीमावर्ती प्रांत को दूसरे पाकिस्तान में तब्दील करने का देशघातक अभियान जोर पकड़ता जाएगा।
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