Thursday, April 5, 2012

अनुचित है जम्मू की उपेक्षा


केवल कृष्ण पनगोत्रा
देश के किसी भी राज्य की विधानसभा या फिर लोकसभा के सत्र में कुछ सुखाभासों में कुछ तल्खियां और गलतियां भी रहीं। ऐसे अनुभव होते आए हैं मगर ऐसी गलतियों में शायद ही कहीं इतिहास को जानबूझ कर अनदेखा किया गया हो। इतिहास को नकारने और किसी विशेष घटना को कमतर करके देखने के पीछे कारण, नीति और नीयत कभी भी नेक नहीं हो सकती। हां, अगर कहीं किसी ऐतिहासिक संदर्भ को दबाया या छिपाया जाता है या किसी दृष्टि विशेष से प्रस्तुत किया जाता है तो ऐसी सोच के पीछे बृहतर सामाजिक हितों को ध्यान में रखा जाता है मगर यह समझ से परे है कि जम्मू-कश्मीर सरकार के बजाय राज्य को कश्मीर कहने के पीछे क्या हितार्थ हैं? सत्ता और शासक चाहे जो करें लेकिन मौलिक इतिहास पीढ़ी दर पीढ़ी हजारों वर्षो तक अपनी उपस्थिति दर्ज करवाता है। प्रत्येक मनुष्य, परिवार, गांव-शहर, क्षेत्र, राज्य और देश का एक मौलिक इतिहास होता है और दृष्टि या सुविधा अनुसार उसे लिखा, पढ़ा और पढ़ाया जाता है मगर मौलिकता कहीं न कहीं जिंदा रहती है। 1846 की अमृतसर संधि के बाद से जम्मू-कश्मीर एक ही राजनैतिक इकाई है। यही मौलिक ऐतिहासिक सच्चाई है। कैसे जम्मू-कश्मीर और लद्दाख क्षेत्रों को जोड़कर एक राज्य का दर्जा प्राप्त हुआ? जम्मू के साथ कश्मीर और लद्दाख कैसे जुड़े? जम्मू व कश्मीर राज्य के वजूद के पीछे एक लंबी राजनैतिक, सामाजिक और सामरिक कवायद जुड़ी है। इतिहास की जानकारी रखने वाला एक बड़ा तबका इस कवायद से वाकिफ है मगर हैरानी की बात है कि धार्मिक द्विराष्ट्रवाद के आधार पर भारत विभाजन और जम्मू-कश्मीर के भारत में संपूर्ण विलय के बाद व कुछ वर्ष पहले से ही डोगरा राज और डुग्गर प्रदेश की पहचान को समाप्त करने की कश्मीर केंद्रित मानसिकता राज्य के मौलिक इतिहास को क्षेत्रीय रंग देने की चतुर-चालाक कवायद में संलिप्त है। राज्य विधानसभा के अभी संपन्न हुए बजट सत्र में भी ऐसी मानसिकता पर विधायक हर्षदेव सिंह और कई दूसरे विधायक काफी नाराज दिखाई दिए। मुद्दा यह था कि राज्य की प्रशासनिक सेवाओं के बाद सरकार से भी जम्मू का नाम काट दिया गया है। उद्योग विभाग के एक लिखित जवाब में बार-बार जम्मू-कश्मीर सरकार या मात्र सरकार शब्दों की जगह कश्मीर सरकार का जिक्र होने पर विधायकों ने कहा कि कश्मीर प्रशासनिक सेवा, कश्मीर पुलिस सेवा, कश्मीर न्यायिक सेवा की जगह अब कश्मीर सरकार कहना सीधे तौर पर जम्मू की ऐतिहासिक पहचान को नजरअंदाज करना है। विदित रहे कि यह कोई नई बात नहीं है जब राज्य से जम्मू और लद्दाख की पहचान को समाप्त करने की हरकतें सामने आई हैं। यहां तक कि कश्मीर घाटी के कस्बों-शहरों और पर्वतों को आपत्तिजनक नाम दिए जा रहे हैं। इस संदर्भ में राज्य विधानसभा की कार्यवाही के दौरान वर्ष 2001 में जब कश्मीर के अनंतनाग शहर को इस्लामाबाद कहा गया तो राज्य के एक विधायक अब्दुल मजीद मीर ने इस बात पर कड़ी आपत्ति जताते हुए सभा में सवाल उठाया था कि क्या सरकार ने दक्षिण कश्मीर के अनंतनाग जिले को आधिकारिक रूप से इस्लामाबाद (पाकिस्तान) मान लिया है? यह गलती है या साजिश? राज्य में ऐसे तत्व मौजूद हैं जो जम्मू और लद्दाख की पहचान और वजूद को समाप्त करने करने के बाद कश्मीर (यानी जम्मू-कश्मीर) को पाकिस्तान साबित करना चाहते हैं। उत्तर प्रदेश भारत का एक मुस्लिम बहुल प्रदेश है मगर ऐसा लग रहा है कि कश्मीर में घर के भेदियों द्वारा ही सांप्रदायिक सद्भाव को चोट पहुंचाने के नापाक इरादों पर एक साजिश के तहत कार्य हो रहा है। समझने लायक है कि सरकार अनंतनाग को इस्लामाबाद और राज्य के मौलिक वजूद और इतिहास में से जम्मू को नकारने की इजाजत कैसे दे रही है? इन्हीं सवालों और चिंताओं के दृष्टिगत जम्मू और लद्दाख का बौद्धिक वर्ग चिंतित है। 25 मार्च को पब्लिक ओपिनियन फोर्म में चैलेंजर्स विफोर जम्मू रीजन-डे आउट इन द प्रेजैंट पॉलिटिकल सनेरियो विषय को लेकर चिंताएं जताते हुए जम्मू को अलग राज्य का दर्जा देने की पैरवी करते हुए जम्मू और लद्दाख की सांस्कृतिक पहचान को समाप्त करने का आक्षेप लगाते हुए राज्य के कुल क्षेत्रफल में से मात्र 16 प्रतिशत क्षेत्र वाली कश्मीर घाटी के जम्मू और लद्दाख पर दबदबे पर बहस में भेदभाव के अनेक उदाहरण गिनाए हैं। बेशक जम्मू-कश्मीर और लद्दाख अलग क्षेत्र थे लेकिन अब पूरा विश्व जानता है कि 16 मार्च 1846 की अमृतसर संधि के बाद आधुनिक जम्मू-कश्मीर वजूद में आया और महाराजा गुलाब सिंह इस समूचे राज्य का संस्थापक शासक था। 26 अक्टूबर 1947 का विलय दस्तावेज जम्मू-कश्मीर (जिसमें जम्मू-कश्मीर, उत्तरी क्षेत्र, लद्दाख और अक्साई चिन शामिल हैं) को भारत का अटूट अंग दर्शाता है। जम्मू-कश्मीर के शासक भी इस बात को स्वीकार करते हैं मगर केंद्र सरकार के दब्बूपन के कारण राज्य में कश्मीर केंद्रित मानसिकता से ग्रस्त कुछ लोग और जम्मू सूबा का स्वार्थपरक नेतृत्व ऐसे लोगों के दुस्साहस की ही पुष्टि कर रहे हैं जो स्थापित और मौलिक इतिहास को नजरअंदाज करते हुए जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में सांप्रदायिक लकीरें खींचने के प्रयास कर रहे हैं। हर स्तर पर जम्मू और लद्दाख को कमतर करके आंका जा रहा है। आंकड़े, घटनाक्रम और कश्मीर केंद्रित मानसिकता से परिपूर्ण होने वाली खुराफातें इस तल्ख सच्चाई की गवाही देती हैं। राज्य की सांस्कृतिक और भौगोलिक पहचान और अस्तित्व से जम्मू को कमतर करके आंकना और मौलिक इतिहास को नकारना साधारण गलती या सामान्य बात नहीं लगती। राज्य के अस्तित्व में तीनों हिस्सों की अपनी अलग-अलग भौगोलिक, ऐतिहासिक, राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक महत्ता है जिसे नकारने की गलती भारत जैसे सेक्यूलर देश में बड़ी गलती के सिवाए और कुछ नहीं होगा।
(लेखक जेएंडके के सामाजिक विषयों के अध्येता हैं)  

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