Thursday, April 12, 2012

यात्रा बनाम कश्मीर मसला

यात्रा बनाम कश्मीर मसला केवल कृष्ण पनगोत्रा
पाकिस्तानी शासकों की भारत यात्रा की लंबी कड़ी में राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी का नाम भी जुड़ गया। क्या पाया और क्या खोया? बस दोनों देशों की जनता, नेताओं और विश्लेषकों की ओर से स्वाभाविक और पूर्व परिचित सामान्य प्रतिक्रियाएं और थोड़ी बहुत औपचारिकताएं ताकि दोनों देशों के शासकों के मिलाप को जमीनी हकीकत का रूप मिल सके। मात्र 40 मिनट की बातचीत में आखिर क्या समा सकता था और वह भी एक निजी यात्रा में जब दौरे को लेकर कोई विशेष पूर्वाभास नहीं था।

जनता किसी भी अपेक्षा से पूर्णतया मुक्त ही दिखी। बेशक जिन मुद्दों पर बातचीत हुई उनमें कश्मीर के अलावा अन्य मुद्दे आम आदमी की नजर में इतने महत्वपूर्ण नहीं थे कि उनके दिलो-दिमाग में आशाओं और अपेक्षाओं का ज्वार उठता। कारण, जब तक किसी पाकिस्तानी शासक के भारत दौरे पर कश्मीर का रंग न चढ़े तो ऐसी यात्रा को सामान्य और रुखी समझे जाने में आश्चर्य नहीं होना चाहिए। कारण यह है कि 1947 से ही जब देश का धर्माधारित द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत पर विभाजन हुआ दोनों देशों के संबंध प्रगाढ़ नहीं रहे और न ही उनमें अपेक्षानुसार प्रगति हुई। दोनों देशों के संबंधों को लेकर मुख्य मुद्दा कश्मीर ही रहा। द्विपक्षीय व्यापारिक संबंध, क्षेत्रीय आर्थिक सहयोग, व्यापार संबंधी मामलों की परस्पर तारीफें, वीजा नियमों में संशोधन आदि बातें सामान्यत: ज्यादा आकर्षित नहीं करती। उद्योगपतियों को मल्टीपल विजिट वीजा बेशक प्रसन्न करने वाला हो लेकिन आतंकवाद से पीडि़त जम्मू-कश्मीर की अवाम को इस दौरे से पूर्ववर्ती दौरों की भांति कुछ खास नजर नहीं आया।

इन बातों के मद्देनजर लोग न निराश थे और न ही आशावान। नेता, राजनेता, सरकार समर्थित विश्लेषक और बुद्धिजीवी जो चाहे कहें, आम जनता और सामाजिक हलकों में जिन बातों को लेकर आशा और अपेक्षा थी वह इस दौरे के दौरान अछूती ही रहीं। कश्मीर, आतंकवाद, सियाचिन, वीजा, व्यापार, क्रिकेट आदि मुद्दों पर बात जरूर किसी नतीजे पर पहुंच सकती है लेकिन मुख्य मुद्दे कश्मीर और आतंकवाद को लेकर ठोस नतीजों की संभावना जरा दूर की बात है। बेशक हम पाकिस्तान से यह उम्मीद करते हैं कि वह कश्मीर मसले के समाधान के लिए भारत से सहयोग करेगा, लेकिन पिछले अनुभवों के दृष्टिगत और उसके चिरपरिचित स्टैंड के चलते यह इतना आसान भी नहीं है। हालांकि इस बातचीत में पाकिस्तान की ओर से कश्मीर मुद्दे के समाधान की मांग की गई है मगर जिस तरह इस दौरे के दौरान हाफिज सईद के मुद्दे को जरदारी टाल गए उसे देखते हुए पाकिस्तान की अंदरूनी मजबूरियों को समझा जा सकता है।

मुम्बई हमले के दोषियों को सजा दिलाने के मुद्दे पर जरदारी अदालती प्रक्रिया की पेचीदगियां ही गिनाते रहे। इसलिए जैसा कि जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री ने अपनी टिप्पणी में कहा है कि बैठक में उम्मीद से ज्यादा मुद्दों पर बातचीत हुई, राज्य की जनता की अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं लगता। हालांकि मुख्यमंत्री ने सोशल साइट ट्विटर पर यह भी स्वीकार किया कि जरदारी के दौरे के एजेंडे में कश्मीर मसला शामिल नहीं रहा। यह कहकर एक प्रकार से उन्होंने राज्य की जनता के दिल की बात ही कही है। हो सकता है उमर अब्दुल्ला ने कश्मीर मसले की बात करते हुए ऐसे समाधान की उम्मीद की हो जो अधिकतर कश्मीर केंद्रित सियासत की पसंद हो लेकिन यह अवश्य है कि कश्मीर समस्या के समाधान के लिए राज्य के जम्मू और लद्दाख क्षेत्रों की जनता भी समान रूप से चिंतित है।

चाहे अलगाववादी हों या मुख्य धारा से जुडे़ लोग दोनों हलकों में कश्मीर मसला चिंता का विषय है। दोनों ही हलके बातचीत जारी रखना चाहते हैं। जरदारी के दौरे पर अलगाववादी मीरवाइज उमर फारूक का कहना है कि जरदारी ने कोई उत्साह नहीं दिखाया। मुलाकातें अच्छी हैं, लेकिन ये आगे नहीं बढ़ती। पाकिस्तान के राष्ट्रपति का दौरा निजी था। मुफ्ती मुहम्मद सईद ने इसे मात्र अच्छी पहल ही कहा है और भाजपा के निर्मल सिंह का मानना है कि यह बातचीत एक दिखावा है। पाकिस्तान आतंकवाद को लगातार शह दे रहा है। इन प्रतिक्रियाओं से जाहिर होता है कि राज्य की जनता के लिए जितना अहम कश्मीर मुद्दा है उतना शायद ही कोई दूसरा मुद्दा हो। अत: जरदारी के दौरे से राज्य की जनता में कोई विशेष उत्साह देखने को नहीं मिला।

कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के अध्यक्ष बिलावल भुट्टो जरदारी की मुलाकात से राज्य की जनता को शायद ही कोई सरोकार हो। इसमें कोई दो राय नहीं कि पाकिस्तान भारत से अच्छे संबंध चाहता है। शायद यही वजह है कि पाकिस्तान भारत को मोस्ट फेवर्ड नेशन का दर्जा देने में कुछ रुचि दिखाई देता नजर आ रहा है। समस्या मात्र यही है कि पाकिस्तान आतंकवाद पर लगाम लगाने का इच्छुक नजर नहीं आ रहा। वह एक तरफ तो स्वयं को आतंकवाद का शिकार मान रहा है जबकि दूसरी ओर भारत आतंकवाद और कश्मीर मसले के समाधान में कोई ठोस प्रगति करता नजर नहीं आता। हैरानी तो तब होती है जब पाकिस्तानी शासक ऐसे बयान देते हैं जिनसे कश्मीर मसले के समाधान में प्रगति के बजाए अवनति ही नजर आने लगती है। आखिर पाकिस्तानी प्रधानमंत्री युसूफ रजा गिलानी का कुछ माह पूर्व यह कहना कि अगर पाकिस्तान को एक हजार साल तक भी भारत से लड़ना पड़े तो वह कश्मीर की खातिर लड़ेंगे। 1989 में चर्म पर पहुंचा आतंकवाद पाकिस्तानी शासकों की ऐसी ही फितरत का एक उदाहरण है।

पाकिस्तान अभी भी कश्मीर में जनमत-संग्रह की पैरवी करता नजर आता है। पाक परस्त अलगाववादी अभी भी कश्मीर को द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत पर पाकिस्तान में शामिल करना चाहते हैं। आजादी और जनमत-संग्रह की दलील तो मात्र एक छलावा है। यकीनन यही कारण है कि 1951 से ही पाकिस्तान और वर्तमान में अलगाववादी भी जनमत-संग्रह की मांग को दोहरा रहे हैं। इस दृष्टि से जरदारी का भारत दौरा उम्मीद के मुताबिक उत्साहजनक नहीं रहा।
(लेखक : जम्मू-कश्मीर मामलों के अध्येता हैं।)

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