जगमोहन
जहां हम लगातार यह दावा करते हैं कि 26 अक्टूबर 1947 को जम्मू-कश्मीर रियासत का भारत में सम्मिलन हो गया था और वह भारत का अभिन्न अंग बन गया था, वहीं हम इसमें कम ही रुचि रखते हैं कि फिलवक्त उस बड़े क्षेत्र में क्या हो रहा है, जो पाकिस्तान के अवैध कब्जे में है। जून में इस क्षेत्र के एक हिस्से में विधानसभा चुनाव हुए, लेकिन हमारे मीडिया ने इस घटना को तकरीबन नजरअंदाज कर दिया। यह क्षेत्र अत्यधिक रणनीतिक महत्व का है और चीन पाकिस्तान के सहयोग से इसमें लगातार घुसपैठ कर रहा है।
हम इस क्षेत्र को पाक अधिकृत कश्मीर कहते हैं। नियंत्रण रेखा के दूसरी तरफ इसे ‘आजाद जम्मू-कश्मीर’ के नाम से जाना जाता है, जिसके इर्द-गिर्द संप्रभुता का एक मनगढ़ंत ताना-बाना बुना गया है। पाकिस्तान के संविधान में इस क्षेत्र के नाम का भी उल्लेख नहीं है। न ही पाकिस्तान की नेशनल असेंबली या सीनेट में इस क्षेत्र का कोई प्रतिनिधित्व है। कथित ‘आजाद जम्मू-कश्मीर’ का क्षेत्रफल लगभग 78114 वर्ग किलोमीटर है, जो कि पूर्व कश्मीर रियासत का लगभग एक-तिहाई है।
इसके लगभग 85 फीसदी क्षेत्र में गिलगित और बाल्टिस्तान जैसे बड़े और हुंजा, नगर और पुनियल जैसे छोटे प्रांत हैं। ये प्रांत कथित ‘आजाद जम्मू-कश्मीर’ से पृथक हैं। ये पृथक प्रांत संयुक्त रूप से फेडरल एडमिनिस्टर्ड नॉर्दर्न एरियाज (एफएएनए) कहलाते हैं, जबकि ‘आजाद जम्मू और कश्मीर’ कहलाने वाला इलाका पाक अधिकृत कश्मीर का महज 15 फीसदी है। इसी इलाके में गत 26 जून को 49 सदस्यीय विधानसभा के लिए चुनाव हुए थे।
पाकिस्तान की कोशिश रही है कि इस इलाके को दुनिया के सामने ‘अर्ध संप्रभु किंतु जनतांत्रिक’ क्षेत्र के रूप में पेश करे। लेकिन इस कोशिश की राह में कुछ कठोर तथ्य खड़े हैं। कथित ‘आजाद जम्मू-कश्मीर’ 1974 के अंतरिम संविधान के तहत संचालित होता है। यहां विधानसभा के अलावा एक पृथक सर्वोच्च अदालत और चुनाव आयोग भी है। इसकी सरकार के मुखिया को प्रधानमंत्री और संवैधानिक मुखिया को राष्ट्रपति कहा जाता है। लेकिन इन तमाम प्रपंचों का वास्तविकता में बहुत कम महत्व है।
वास्तव में पाकिस्तानी हुकूमत इस इलाके को अपनी जागीर की तरह संचालित करती है। संविधान के प्रावधानों के मुताबिक कथित ‘आजाद जम्मू-कश्मीर’ काउंसिल के अध्यक्ष पाकिस्तान के प्रधानमंत्री हैं और कश्मीर मामलों के केंद्रीय मंत्री इसके सचिव हैं। ‘आजाद जम्मू-कश्मीर’ के प्रधानमंत्री इसके उपाध्यक्ष हैं। काउंसिल में ग्यारह अन्य सदस्य हैं, जिनमें से पांच हुकूमत के मेंबरान हैं। यह एक स्वायत्त संस्था है, हालांकि संविधान इसे महज एक ‘लिंक काउंसिल’ ही बताता है।
इसकी शक्तियों और प्रभाव के दायरे का पता इस बात से चलता है कि इसके न्यायाधिकार में कम से कम 52 नियामक तत्व हैं और इसके निर्णयों को कथित ‘आजाद जम्मू-कश्मीर’ की सर्वोच्च अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती। काउंसिल को इमरजेंसी की घोषणा करने का भी अधिकार है। एक ऐसी काउंसिल, जिसके अध्यक्ष पाकिस्तान के प्रधानमंत्री हों, वह यकीनन वही फैसले लेगी, जो पाकिस्तानी हुकूमत और सत्तारूढ़ पार्टी के हित में होंगे। इसकी व्यापक शक्तियों के चलते कथित ‘आजाद जम्मू-कश्मीर’ की हुकूमत के पास न के बराबर अधिकार हैं। यहां तक कि इस क्षेत्र के महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्तियां भी पाकिस्तान की हुकूमत द्वारा ही की जाती है।
बात साफ है। ‘आजाद’ सरकार एक नख-दंतहीन संस्था है और इसके अधिकार एक नगर पालिका से अधिक नहीं हैं। इसके ‘राष्ट्रपतियों’ और ‘प्रधानमंत्रियों’ को हुकूमत द्वारा जब चाहे बदल दिया जाता है। पाकिस्तान की हुकूमत बदलते ही ‘आजाद जम्मू-कश्मीर’ के हुक्मरान भी बदल जाते हैं। हैरत नहीं कि यूनाइटेड नेशंस कमिश्नर फॉर रिफ्यूजीस ने इस क्षेत्र को ‘अस्वतंत्र’ चिह्न्ति किया है। कथित ‘आजाद जम्मू-कश्मीर’ का सम्मिलन भी पूर्वनिर्धारित था।
1974 का अंतरिम संविधान कहता है: ‘किसी भी व्यक्ति या दल को पाकिस्तान की विचारधारा के विरुद्ध प्रचार करने या पूर्वग्रहग्रस्त गतिविधियों में शामिल होने की अनुमति नहीं दी जाएगी।’ न ही कोई व्यक्ति इस क्षेत्र के पाकिस्तान में सम्मिलन का समर्थन किए बिना विधानसभा चुनाव लड़ पाएगा। उत्तर के क्षेत्र तो और मुसीबत में हैं।
2009 तक यहां प्रतिनिधि संस्था जैसी कोई चीज नहीं थी और उन्हें सीधे केंद्रीय हुकूमत के रक्षा मंत्रालय के एक संयुक्त सचिव द्वारा संचालित किया जाता था। इन वजहों से लोगों में आक्रोश उपजा। कई हिंसक-अहिंसक प्रदर्शन हुए। हुकूमत नर्म पड़ी। उसने गिलगित-बाल्टिस्तान सशक्तीकरण व स्वशासन आदेश 2009 नामक अध्यादेश जारी किया। उत्तरी क्षेत्रों का नामकरण गिलगित-बाल्टिस्तान कर दिया गया और एक निर्वाचित विधानसभा का प्रावधान भी रखा गया।
लेकिन अधिक महत्व की बात यह है कि यह समूचा क्षेत्र, जिस पर वैधानिक रूप से भारत का स्वामित्व है, औपचारिक रूप से पाकिस्तान में सम्मिलित कर लिया गया है। भारत सरकार और जम्मू और कश्मीर के राजनीतिक दलों के साथ ही कथित ‘आजाद जम्मू-कश्मीर’ द्वारा किए गए अशक्त विरोध को पाकिस्तानी हुकूमत ने नजरअंदाज कर दिया। भारत ने नियंत्रण रेखा के उस तरफ हो रही गतिविधियों की उपेक्षा करने की भारी कीमत चुकाई है।
बीते दो दशकों के दौरान जहां कथित ‘आजाद जम्मू-कश्मीर’ सीमापार आतंकवाद के लिए एक सक्रिय केंद्र बन गया, वहीं गिलगित-बाल्टिस्तान घुसपैठियों की शरणगाह बन गया, जिसकी परिणति 1999 के कारगिल युद्ध के रूप में हुई थी। भारत के लिए चिंता की बात यह होनी चाहिए कि पाकिस्तान-चीन मिलकर इस क्षेत्र में आगामी मुश्किलों के बीज बो रहे हैं।
चीन गिलगित-बाल्टिस्तान क्षेत्र में रेल और सड़क मार्ग बना रहा है। कराकोरम हाईवे को विस्तारित किया जा रहा है। पाकिस्तान और चीन मिलकर कश्मीर समस्या के संबंध में भारत के लिए और मुश्किलें पैदा कर सकते हैं। अब समय आ गया है कि भारत नियंत्रण रेखा के उस तरफ हो रही घटनाओं पर अपना ध्यान केंद्रित करे और प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने के लिए एक प्रभावी रणनीति का निर्माण करे।
(लेखक : जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल एवं केंद्रीय मंत्री रहे हैं।)
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