हरिकृष्ण निगम
हमारे देश के अनेक बड़े राजनीतिबाजों और अंग्रेजी मीडिया के एक बड़े वर्ग के कर्णधारों की पहले सदैव यह कोशिश रही थी कि घरेलू आतंकवादियों के अस्तित्व को ही जोर-शोर से नकारते थे और हर हादसे के तुरंत बाद पाकिस्तान पर आरोप गढ़कर यह जानते थे कि उस सच को सत्यापित करने में वर्षों लग सकते हैं, अंदरूनी छिपे अपराधियों और दहशतगर्दों के पहचानने में जनता का ध्यान बंटवाते थे। आज मुंबई के 13 जुलाई, 2011 के बम-विस्फोटों के बाद की व्यथा, हताशा और सर्वसाधारण के आक्रोश के क्षणों में आम नागरिक महसूस कर रहा है कि उन राजनीतिज्ञों जैसे लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव आदि कुछ उन बुद्धिजीवियों की भूमिका की गहन जांच होनी चाहिए,जो सिमी जैसे संगठनों अथवा माओइस्ट कम्यूनिस्ट सेंटर या पीपुल्स वॉर ग्रुप जैसे संविधान विरोधी राजनीतिक समूहों को लंबे अरसे तक अच्छे आचरण का प्रमाण-पत्र बांटते रहते थे।
पिछले आम चुनावों में मुंह की खाए नेता रामविलास पासवान को कुख्यात अंतर्राष्ट्रीय आंतकवादी ओसाम-बिन-लादेन जैसे दिखने वाले व्यक्ति को अपनी रैलियों के मंच पर साथ खड़ाकर अल्पसंख्यकों को रिझाने की कोशिश करने वाले को आतंकवाद के प्रच्छन्न समर्थक के रूप में जांच के घेरे में लाना चाहिए। हम सब जानते हैं कि अमेरिका में चाहे सीनेट का सदस्य या बड़े से बड़ा पत्रकार ही क्यों न हो यदि वह पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई या किसी भी देश विरोधी आतंकवादी का समर्थन करता है,तब स्वयं सरकार उसकी तरह में जाने के लिए एफ.बी . आई. किसी सुरक्षा एजेंसी की उपयोग करती है। वहां देश की सुरक्षा अधिक महत्वपूर्ण मानी जाती है रिपब्लिकन अथवा डेमोक्रेट की दलीय राजनीति उसके सामने कुछ नहीं है।
हमारा देश जो आतंकवाद से दशकों से पीड़ित है उसके नेता और अनेक बुद्धिजीवी अपने मानवाधिकार और उदारवादी फतवों के ऊपर मुखौटा लगाकर उनके मंतव्यों की बेझिझक वकालत करते हैं। इसीलिए उन्होंने देश की सुरक्षा व्यवस्था को पिलपिला बना दिया है। कश्मीर के मुद्दे पर वर्षों से दुष्प्रचार में लगे गुलाम नवी फई जिस तरह अमेरिका में रहकर आईएसआई के समर्थन में अमेरिका के सीनेटरों की लॉबी खड़ी कर भारत-विरोधी लॉबी बना रहे थे,यह विस्मयजनक है।
जिस तरह से अमेरिकी राजनीतिज्ञों और मीडिया की पाकिस्तानपरस्त लॉबी जो आईएसआई की धनराशि से संचालित भी उसमें आज भारत को आश्चर्य नहीं होना चाहिए क्योंकि यही काम निर्लज्ज्ता से हमारे देश में भी चल रहा है। एक खुलासे के अनुसार आईएसआई ने 40 लाख डॉलर कश्मीर मुद्दे पर वहां के राजनीतिज्ञों पर खर्च किए थे। कश्मीर के अलगाववादी नेता जब भी अमेरिका जाते थे गुलाम नबी फई ही उनके दौरे, प्रचार कार्य और सार्वजनिक छवि बनाने में करोड़ों खर्च करता था। यह सच भी सामने आया है कि अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों के इस देश के प्रतिनिधि भी उनके प्रभाव में सरकार की कश्मीर नीति व भूमिका पर प्रश्नचिन्ह लगाते रहे हैं।
इस्लामाबाद की कश्मीरी दुष्प्रचार की नीति की सफलता के पीछे नई दिल्ली की निष्क्रियता व सोए रहना ही है, कश्मीर को स्वतंत्र कराने के संघर्ष में पाकिस्तान ने जितने बार भी अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर हमें अपमानित किया है उसका एकमात्र कारण है उसकी अक्रामकता और हमारी कायरतापूर्ण बचाव की मुद्रा। शीतयुद्ध की भू-राजनीतिक विफलता का कारण हमारा नैतिकता के उच्च-शासन पर बैठकर आदर्शवादी भाषण देना है। सच देखा जाए तो पाकिस्तान को अपने कुटिल मंतव्यों को ढ़कने की आवश्यकता कभी नहीं पड़ी क्योंकि उसका भारत का नितनूतन एवं चिर घृणा का पंचांग ही उसके आस्तित्व की बड़ी शर्त रहा है। क्या हुर्रियत या कोई पाकिस्तान समर्थक संघटन जम्मू, लद्दाख या चीन को दिए किसी भी कश्मीरी हिस्से की आवाज का प्रतिनिधित्व कर सकता है पाकिस्तान कश्मीर के हर भाग, यहां तक उसके अपने नियंत्रण वाले भाग का प्रतिनिधित्व भी नहीं कर सकता है। यह बात हमने इस मुद्दे के अंतर्राष्ट्रीयकरण करने वालों को कभी भी प्रभावी रूप से नहीं बताई। यही नहीं अपनी निष्क्रियता से हम स्वयं देशवासियों को बहुधा संशयवादी बनाते रहें।
हमारे देश में पाकिस्तान की समृद्धि व प्रगति के हिमायती या अमन की आशा जैसे कार्यक्रम चलाने वाले सामान्य जनता को एक विदूषक से लगते हैं। पाकिस्तान के जन्म से ही भारत विद्वेष और इसे नष्ट करने की कसमें खाने वालों की बात तो पुरानी हो गई। आज भी वहां क्या हो रहा है इसकी झलकियां वहां अनगिनत विचारक और राजनीतिक हमें आज भी देते हैं। कदाचित दो सप्ताह पहले की बात है जब हाल में पाकिस्तान पंजाब के गवर्नर सलमान तासीर, जिनकी हत्या कर दी गई थी, को पुत्र आतिश तासीर ने अमेरिका के प्रसिद्ध पत्र ‘वाल स्ट्रीट जर्नल’ के एक स्तंभ ‘व्हाई माई फादर हेटेड इंडिया’ लिखा था कि पाकिस्तान की भारत विरोधी विक्षिप्तता और अक्रामकता को भली भांति समझने के लिए आवश्यकता है कि यह भी स्वीकार किया जाए कि भारत जो कुछ भी है, इसकी अतीव,इसकी संस्कृति, इनकी अवधारणा उसको पाकिस्तान पूरी तरह नकारता है। वह इसलिए कि पाकिस्तान इसी पर जीवित है, नहीं तो इसका आस्तित्व ही नहीं होता।’
आतिस तासीर के अनुसार इसलिए पाकिस्तान इस्लामी अतिरेकवाद के विरुद्ध कभी खुलकर नहीं लड़ेगा। यह मात्र बुद्धिवादियों का किताबी प्रश्न नहीं है बल्कि यह इस लड़ाई में अमेरिका का सहयोगी भी कभी नहीं बनेगा, मात्र कई बिलियन डॉलरों की सहायता पर ही उसकी दृष्टि रहेगी। जहां पाकिस्तान और अफगानिस्तान में अमेरिकी प्रजातंत्र का ‘डॉलर डांस’ चल रहा है। क्षेत्रीय राजनीति में भारत की भिक्षुणियों जैस नृत्य-नाटिका ‘बेगर्स आपेरा’ हमें लगातार बचाव की मुद्रा में अभिशिप्त होंगे।
(लेखक अंतरराष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ हैं)
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