Sunday, August 21, 2011

गुलाम नबी फई की चालें


एस.के. सिन्हा

भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिक गुलाम नबी फई इन दिनों अमेरिका, भारत और पाकिस्तान में सुर्खियों में है। वह हाईप्रोफाइल सेमिनारों और अमेरिकी सीनेटरों तथा कांग्रेस सदस्यों को प्रभावित करने के जरिये कश्मीर पर पाकिस्तान की सोच को प्रचारित करने के लिए आइएसआइ से करोड़ों डॉलर हासिल किए थे। करीब दो दशक से वह इस काम में लगा था। अभी वह एक लाख डॉलर के मुचलके पर जमानत पर अपने घर में नजरबंद है। पाकिस्तान ने उसका समर्थन करते हुए कहा है कि कश्मीरी होने के नाते उसे कश्मीर मुद्दे का समर्थन करने का पूरा हक है। सीआइए को उसकी गतिविधियों की पूरी तरह जानकारी रही होगी और पुराने और भरोसेमंद साथी पाकिस्तान के साथ अच्छे संबंधों के चलते उसने पहले आंखें मूंद रखी थी। ओसामा के मारे जाने बाद हालात बदल गए हैं और अब इन दो सहयोगियों के संबंधों में ठहराव आ गया है। इतने लंबे समय से फई की गतिविधियों से भारतीय खुफिया एजेंसियों का फई की शरारतों से अनभिज्ञ रहना मुमकिन नहीं लगता। उसे पता था इन बड़े-बड़े सेमिनारों में असल में क्या होता था? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर हमारी सरकार कश्मीरी अलगाववादियों को न केवल दिल्ली, कोलकाता और चंडीगढ़ में, बल्कि वाशिंगटन, लंदन और ब्रुसेल्स में भी खुलेआम भारत-विरोधी विचार व्यक्त करने की छूट देती रही है। यह तुष्टिकरण का ही परिचायक है। हमारे देश के बहुसंख्यक वर्ग से खास तौर से चुने गए प्रख्यात नागरिकों को फई ने अमेरिका में कश्मीर पर अपने सेमिनारों में बुलाया ताकि उन सेमिनारों की विश्वसनीयता स्थापित की जा सके। इन लोगों को एग्जीक्यूटिव श्रेणी में विमान यात्रा, पंचसितारा होटल निवास और उदारता से अन्य सुविधाएं प्रदान की गई। इनमें से कुछ ने इन सेमिनारों में भारतीय दृष्टिकोण भी रखा, लेकिन उसे सेमिनार में पारित प्रस्तावों में स्थान नहीं दिया गया।

माना जा सकता है कि एक बार जाने वाले लोगों के साथ धोखा हुआ होगा, लेकिन जो लोग बार-बार वहां गए उनके बारे में क्या कहा जाए? जम्मू के एक वरिष्ठ पत्रकार तो सत्रह बार इन सेमिनारों में गए। वह कश्मीर के बारे में भारतीय दृष्टिकोण के खिलाफ लगातार लिखते रहे हैं। इस पूरे प्रकरण पर भारत सरकार मौन ही रही। विवेकशीलता का तकाजा तो यह था कि इन सेमिनारों में जाने वाले अपने प्रख्यात नागरिकों के बारे में हम सतर्कता बरतते। 1983 में सेना से इस्तीफा देकर जब मैं पटना में अपने घर रह रहा था तो मैंने पटना का गौरवपूर्ण नाम पाटलिपुत्र रखने का आंदोलन शुरू किया। एक हजार साल तक यह दुनिया का एक अग्रणी शहर और भारत की राजधानी रहा था। हमने पटना के एक लाख नागरिकों के हस्ताक्षरों से युक्त एक ज्ञापन दिया। बिहार सरकार ने हमारे ज्ञापन की अनुशंसा की और मंजूरी के लिए इसे भारत सरकार के पास भेज दिया। वोट बैंक के कारणों से भारत सरकार ने इसे मंजूरी नहीं दी।

हमने अशोक चिह्न को अपना प्रतीक चुना था और अशोक धर्म चक्र को अपने राष्ट्रीय ध्वज में स्थान दिया था, लेकिन अशोक की इस राजधानी को उसका मूल नाम देने में हमें आपत्ति है। तब मुझे बड़ी हैरानी हुई जब मॉरीशस में विपक्ष के नेता पॉल ब्रेजनर ने मुझे एक अतिथि के रूप में मॉरीशस आने का न्यौता दिया। उन्होंने मॉरीशस के एक शहर का नाम पाटलिपुत्र रखने और उसे पटना से जोड़ने का प्रस्ताव किया था। मॉरीशस में बिहारियों की अच्छी-खासी तादाद है। निश्चित ही वे भी इस बात का राजनीतिक फायदा उठाना चाहते थे। मेरा मन किया कि मैं उनका निमंत्रण स्वीकार कर लूं। भ्रमणीय स्थान की यात्रा के साथ-साथ इससे मेरी प्रिय परियोजना को भी बल मिल सकता था। मैंने विदेश मंत्रालय को पत्र लिखकर उनकी सलाह मांगी। जवाब मिला कि हमारी सरकार के प्रधानमंत्री अनिरुद्घ जगन्नाथ के साथ बहुत अच्छे संबंध हैं और मेरे लिए विपक्ष के नेता का अतिथि बनना उचित नहीं होगा। मैं भी एक बार अमेरिका पर गया था, लेकिन ऐसे कार्यक्रमों से दूर रहा।

(लेखक सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट जनरल हैं)

(Dainik Jagran/21/08/2011)

1 comment:

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