केवल कृष्ण पनगोत्रा
कई समस्याएं ऐसी होती हैं जो काल के वशीभूत छोटे या लंबे कालांतर में स्वयं समाधान का संकेत देने लगती हैं। 64 साल पुरानी जम्मू-कश्मीर समस्या को काल की गति एक ऐसी ही दिशा की ओर मोड़ती नजर आ रही है जिस पर हमारे नीति नियंता या तो समझकर भी नासमझ बन रहे हैं या फिर समय बिताते हुए समय की बेकद्री कर रहे हैं।
व्यक्तियों की बात करें तो किसी को कुर्सी मोह हो सकता है और अगर दलों की बात करें तो किसी को सत्ता में बने रहने का मोह छोड़ना गंवारा नहीं। इन हालात में देश और समाज घाटे में रहता है। घर के अंदर लगी आग से घर की चहारदीवारी तो कुछ समय तक घर की सलामती का भ्रम जरूर बनाए रखती है मगर आखिर जब यह भ्रम टूटता है तो बहुत देर हो चुकी होती है। घर के पहरेदार, समाज के अलंबरदार और देश के कर्णधार अगर यों ही किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो जाएं तो घर समाज और देश की आन-बान-शान को संभालना मुश्किल हो जाता है।
जम्मू-कश्मीर भारत का ताज है। राज्य का भारत से अलगाव चाहने वाली शक्तियों की दृष्टि का भारत के नीति निर्धारकों के ढुलमुल रवैये के चलते काफी हद तक अंतरराष्ट्रीयकरण हो चुका है। कश्मीर केंद्रित नजरिया स्थापित हो रहा है मगर राज्य के शेष भागों और लोगों, जिसमें जम्मू और लद्दाख की जनता के साथ शरणार्थी समूह, जैसे विस्थापित कश्मीरी पंडित, पश्चिमी पाक और पाक अधिकृत कश्मीर से रिफ्यूजी भी हैं, का राज्य की समस्याओं को लेकर नजरिया अभी पूरी तरह स्थापित नहीं हुआ है और न ही राज्य से बाहर की जनता इन लोगों के नजरिए को जानती है।
दिल्ली में जिस तरह प्रशांत भूषण को पीटा गया वह निंदनीय जरूर है लेकिन उससे भी यही जाहिर होता है कि देश की काफी जनता जम्मू संभाग, लद्दाख और रिफ्यूजी समूहों के नजरिए से परिचित ही नहीं। संतोष की बात यह है कि इन समस्त विसंगतियों के होते पहली बार कश्मीर समस्या के हल के लिए नियुक्त वार्ताकारों की टीम ने जितनी राजनैतिक और सामाजिक कसरत की है उतनी इससे पूर्व नहीं हुई। वार्ताकारों को जिस कदर अपनी रिपोर्ट पर विश्वास है, उसके मद्देनजर सरकार को यह रिपोर्ट सार्वजनिक करनी चाहिए ताकि इस पर खुलकर पूरे देश और राज्य के दावेदारों के बीच चर्चा और मंथन हो सके।
ऐसा लगता है कि यह रिपोर्ट कई जमीनी तथ्यों से भरपूर होगी मगर सही स्थिति का पता तब ही चल पाएगा जब यह सार्वजनिक होगी। यही वजह है कि केंद्रीय वार्ताकार राधा कुमार ने पिछले दिनों श्रीनगर में रिपोर्ट पर अमल करने के साथ यह भी कहा था कि केंद्र सरकार हमारी रिपोर्ट पर सभी की राय ले सकती है। उनका यह कहना विश्वास का द्योतक है कि उन्हें अफसोस होगा अगर केंद्र उनकी किसी सिफारिश को लागू करे और किसी को नजरअंदाज। यह इस विश्वास के कारण ही है कि मीडिया में अलगाववादी भी वार्ता के संकेत देने की बातें कर रहे हैं। शायद अलगाववादी धड़े को यह लग रहा है कि उन्होंने वार्ताकारों से न मिलकर बहुत बड़ी गलती की है। यह बात दीगर है कि वार्ता की सूरत में उनके मुद्दे और मांगें क्या होंगी लेकिन अगर अलगाववादी अपना अडि़यल और पुराना रटा-रटाया राग अलापते हैं तो वार्ता पिछली कई वार्ताओं की तरह पुन: एक संदेश दे देगी, जिस पर केंद्र को गंभीरता से सोचना होगा।
आवश्यक है कि यह संभावित वार्ता केंद्रीय वार्ताकारों की रिपोर्ट को सार्वजनिक करने के बाद ही होनी चाहिए ताकि यह पता चल सके कि राज्य के समूचे अवाम को यह रिपोर्ट कितनी व्यवहारिक लगती है। अगर अलगाववादी और कश्मीर केंद्रित नजरिया रखने वालों को इस रिपोर्ट से शिकायत रहती है तो वह भारत सरकार को भी अपनी दृष्टि और चिरपरिचित नीति में बदलाव लाते हुए जम्मू संभाग के अलावा विभिन्न शरणार्थी समूहों और उस जनता की भावनाओं की भी कदर करनी होगी जिन्हें कश्मीर में रायशुमारी की बात जरा भी नहीं सुहाती।
ऐसा भी लग रहा है कि वार्ताकारों की रिपोर्ट और सिफारिशों के पूर्वानुमान से अलगाववादी असमंजस में हैं। बेशक केंद्रीय वार्ताकारों का बहिष्कार करने वाले और रिपोर्ट को खारिज करने वाले अब बातचीत की हामी भरते नजर आ रहे हैं लेकिन जिस तरह की तेवर-तल्खियां अलगाववादी और आतंकवादी गुट दिखा रहे हैं उससे वार्ता की सफलता पर पहले ही आशंका बनी हुई है।
हिजबुल मुजाहिद्दीन सुप्रीमो सलाहुद्दीन हुर्रियत को बातचीत से दूर रहने का मशविरा दे रहे हैं। वह बातचीत में कश्मीरियों (आजादी के पैरोकार) के साथ पाकिस्तान को शामिल करना चाहते हैं। उधर, पाकिस्तानी प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी की बानगी है कि वे (पाकिस्तानी) कश्मीरी लोगों की अकांक्षाओं के अनुरूप भविष्य निर्धारित करने के उनके संघर्ष अलगावाद और आतंकवाद में उनका साथ देने यानी (भारत से अलगाव और आतंकवाद भड़काने) में कोई कमी नहीं रखेंगे। जम्मू-कश्मीर समस्या पर वार्ता के किसी भी अवसर पर पाकिस्तान, अलगाववादी और आतंकवादी बार-बार अपने नजरिए को दोहराते आए हैं जबकि हमारे नीति नियंता समझ कर भी नासमझ बनते आए हैं। समय के संदेश को आत्मसात करने में हिचकिचाते आए हैं। मात्र यह कह देना ही पर्याप्त नहीं है कि सरकार भारतीय संविधान के दायरे में बातचीत को तैयार हैं। यह बात कई बार दोहराई जा चुकी है। स्टैंड स्पष्ट किया जा चुका है। अब सरकार से हिम्मत की आशा है। अलगाववादियों को भी और राष्ट्रवादियों को भी।
नि:संदेह बातचीत से ही समस्याओं का समाधान होता है मगर जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में दोनों हलके (भारतीय संविधान के दायरे में समाधान चाहने वाले और संविधान से बाहर समाधान चाहने वाले अलगाववादी एवं उनके परोक्ष समर्थक कश्मीर केंद्रित नेता) नदी के दो ऐसे किनारे बनते जा रहे हैं जिन्हें जोड़ने के लिए विश्वास के एक मजबूत सेतु की जरूरत है।
(लेखक : जम्मू-कश्मीर मामलों के जानकार हैं।)
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