पीओके के शरणार्थी आज भी पहचान के मोहताज
Vijay Kranti |
विजय क्रान्ति
आज़ाद हिंदुस्तान की हवा में सांस लेने के आदी हो चुके लोगों को इस बात पर शायद विश्वास नहीं होगा कि इस देश में बीस लाख से ज्यादा लोगों का एक ऐसा शरणार्थी समाज भी है जो 1947 में भारत विभाजन के 64 साल बाद आज भी अपने ही देश में अपनी पहचान को मोहताज है। यह समाज जम्मू-कश्मीर के उस इलाके से है जिस पर पाकिस्तानी पुलिस और पाकिस्तानी कबायलियों ने 25 नवंबर 1947 के दिन जबरन कब्जा जमा लिया था। मीरपुर, मुज़फ्फराबाद, भिंबर, कोटली और देव बटाला जैसे शहरों वाला यह इलाका आज भी पाकिस्तान के कब्जे में है और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) के नाम से चर्चित है।
इस समाज का एक बड़ा दर्द यह है कि जिस देश और प्रांत के लिए उनके समाज के 50 हजार से ज्यादा नागरिकों ने अपने प्राण न्यौछावर किए उनकी सरकारें आज भी न तो उन्हें ‘शरणार्थी’ का दर्जा देने को तैयार है और न उन्हें वे अधिकार देने को राजी है जो भारत और पाकिस्तान की सरकारों ने विभाजन में शरणार्थी हुए सवा करोड़ नागरिकों को दिए। जम्मू-कश्मीर सरकार की दलील है कि क्योंकि भारत सरकार पीओके को भारत का ‘अंतरंग हिस्सा’ मानती है और यह इलाका भारतीय नक्शे में दिखाया जाता है इसलिए इस समाज को न तो ‘विभाजन के शरणार्थी’ वाली श्रेणी में रखने का औचित्य है और न ही उन्हें शरणार्थी जैसी सुविधाएं दी जा सकती हैं। इनमें से राज्य से बाहर जाकर बसने को मजबूर हुए लगभग दस लाख शरणार्थियों को तो वह अपना ‘स्टेट सब्जेक्ट’ (नागरिक) भी मानने को तैयार नहीं है। इस दर्जे के बिना ये लोग या उनके बच्चे जम्मू-कश्मीर में न तो घर-जमीन खरीद सकते हैं, न राज्य सरकार की नौकरी कर सकते हैं और न विधानसभा, म्युनिस्पैलिटी या ग्राम पंचायत में वोट दे सकते हैं।
केंद्र सरकार ने तो इस शरणार्थी समाज को शुरू से ही 1954 के उस ‘शरणार्थी पुनर्वास बोर्ड’ के दायरे से अलग कर दिया था जिसका गठन विभाजन के शिकार लगभग 80 लाख भारतीय नागरिकों को राहत देने और पाकिस्तान में छूट गई सम्पत्तियों का मुआवज़ा देने के लिए किया गया था। केंद्र सरकार पीओके शरणार्थियों को संयुक्त राष्ट्र के 1951 वाले शरणार्थी कन्वेंशन और उसके 1967 वाले प्रोटोकोल के दायरे में लाने को भी तैयार नहीं है। उसकी दलील है कि इससे पीओके पर भारतीय दावा कमजोर पड़ जाएगा।
विभाजन के बाद राज्य सरकार की इस कठोरता का परिणाम यह हुआ कि पीओके से आए कई शरणार्थियों को राज्य से बाहर जाने को मजबूर होना पड़ा। उन्हें तत्कालीन शेख अब्दुल्ला सरकार ने कश्मीर घाटी में जाकर बसने से भी जबरन रोक दिया और कई हजार शरणार्थियों को पंजाब की ओर जाने पर मजबूर कर दिया। शेख की दलील थी कि इन शरणार्थियों के वहां रहने से ‘कश्मीरियत हलकी पड़ जाएगी’। राज्य में बचे रहे शरणार्थियों में से कई लोगों ने धीरे-धीरे अपने बूते पर अपना वहां रास्ता बना लिया है। लेकिन आज भी कई लाख पीओके शरणार्थी ऐसे हैं जो वहां के 39 शरणार्थी कैंपों में घुटन भरी जिंदगी जीने पर मजबूर है। कश्मीरी दबदबे पर चलने वाली राज्य सरकार ने इन लोगों को इन शरणार्थी कैंपों में अपने घरों पर मालिकाना हक भी नहीं लेने दिया है।
लेकिन इसे भारतीय लोकतंत्र की विडंबना ही कहा जाएगा कि जम्मू-कश्मीर सरकार ने 1982 में विधानसभा में एक विशेष ‘रिसेटलमेंट एक्ट-1982’ पास किया जिसमें विभाजन के दौरान पाकिस्तान जा बसे कश्मीरियों को यह अधिकार दिया गया है कि वे वापस आकर अपने परिवार की सम्पत्तियों का कब्जा लेकर यहीं बस जाएं। पीओके शरणर्थियों के नागरिक और मानवाधिकारों के लिए प्रयास कर रहे संगठन एसओएस इंटरनेशनल के अध्यक्ष श्री राजीव चुन्नी कहते हैं, ‘‘राज्य सरकार पाकिस्तानी नागरिकों के लिए बहुत चिंतित है। वह भारत से भागकर पाकिस्तान में आतंकवाद की ट्रेनिंग लेने के लिए गए कश्मीरी आतंकवादियों को सरकारी नौकरियां और पुनर्वास सुविधाएं देने को भी उतावली है। लेकिन अपने पीओके शरणार्थियों के लिए उसके पास दया भरा एक शब्द भी नहीं है।’’ जम्मू-कश्मीर सरकारों के ऐसे पक्षपाती रवैये ने राज्य में सांप्रदायिक विभाजन को यकीनन लगातार बढ़ाया है, घटाने में कभी योगदान नहीं दिया।
जम्मू-कश्मीर का अध्ययन करने वाले कई विशेषज्ञ मानते हैं कि राज्य में इस तरह के भारत विरोधी कानून बनाने के लिए वहां कश्मीर घाटी के राजनेता उस प्रावधान का बहुत दुरूपयोग करते हैं जिसके तहत पीओके के हिस्से की 24 सीटों को विधानसभा में स्थायी रूप से खाली रखा जाता है। इससे विधानसभा में कश्मीर घाटी का बहुमत पक्का हो चुका है जिसका सीधा नुकसान जम्मू और लद्दाख की जनता को होता है।
राज्य से बाहर जाकर बसे लगभग दस लाख पीओके शरणार्थियों के हितों की रक्षा के लिए काम करने वाली विभिन्न बिरादरियों के साझा मंच फोरम ऑफ पीओके कम्युनिटीज़ ने पिछले दिनों जम्मू-कश्मीर पर सलाहकार दल को दिए गए अपने प्रतिवेदन में यह मांग रखी है कि ये 24 सीटें पीओके शरणार्थियों की दी जानी चाहिएं। फोरम ने यह मांग भी की है कि केंद्र सरकार राज्य में और वहां से बाहर जाकर बस चुके पीओके नागरिकों का एक ‘राष्ट्रीय रजिस्टर’ तैयार करे जिसमें इस समाज के सदस्यों की पूरी जानकारी दर्ज रहे। फोरम के एक संयोजक डा. सुदेश रतन महाजन का कहना है, ‘‘ऐसा रजिस्टर भारत सरकार के लिए ऐसे समय में बहुत उपयोगी सिद्ध होगा जब पीओके पर भारतीय अधिकार के दावे पर चर्चा का सही समय आएगा।’’
पीओके शरणार्थी समाज को इस बात का बहुत दुख है कि उन्हें ऐसे समय में अपने घर से बेघर होना पड़ा जब जम्मू-कश्मीर रियासत का भारत में बाकायदा विलय हो चुका था और विभाजन के समय सीमा के दोनों ओर शुरू हुई हत्याओं और लूटपाट की आग ठंडी पड़ चुकी थी। लेकिन तब न तो भारत सरकार ने और न उसके द्वारा रियासत में नियुक्त किए गए नए प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला ने रियासत के इस हिस्से को भारतीय नियंत्रण में लेने के लिए पुलिस या सेना भेजने की जहमत उठाई। परिणाम यह हुआ कि मैदान खाली पड़ा देखकर पाकिस्तान की हथियारबंद पुलिस ने सहयोगी ‘रज़ाकारों’ तथा कबायलियों की मदद से इस इलाके पर कब्जा कर लिया। एक मोटे अनुमान के अनुसार केवल मीरपुर और मुजफ्फराबाद में लगभग 50 हजार भारतीय नागरिक इस पाकिस्तानी हिंसा में मारे गए।
सवाल उठता है कि इस अभागे शरणार्थी समाज को अपनी बात सुने जाने तक कितने 25 नवंबर और देखने होंगे? एक और सवाल यह भी है कि भारत के एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य की सरकारों का अपने अल्पसंख्यकों के प्रति निरंतर इस तरह का अमानवीय रवैया क्या भारत के बाकी मुस्लिम समाज की छवि को प्रभावित नहीं करता?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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