Saturday, November 19, 2011

बर्बाद होता बच्चों का भविष्य

दयासागर 
कश्मीर घाटी के अलगाववादियों की योजनाओं के मुताबिक जम्मू संभाग के दूरदराज क्षेत्रों में विदेशी आतंकियों की मदद से आतंकवाद और देश विरोधी दबाव बनना शुरू हो गया है। इसमें संदेह नहीं कि जम्मू संभाग के दूरदराज क्षेत्रों में मुस्लिम आबादी अधिक होने के बावजूद देश विरोधी तत्वों को अधिक प्रतिरोध झेलना पड़ा है। वहां स्थानीय लोगों की अधिक हत्याएं होती हैं। उन्हें बहुत अधिक प्रताडि़त किया जाता है और उनके जानमाल का अधिक नुकसान होता है। यह सब वर्ष 1990/1991 में शुरू हुआ, जो अभी तक जारी है।

जम्मू संभाग में आतंकियों के दबाव के कारण सही रिपोर्टिंग और रजिस्ट्रेशन न होने के बावजूद अभी भी बड़ी संख्या में प्रवासियों और प्रवास की इच्छा रखने वालों को उद्धृत किया जा सकता है। कश्मीर संभाग की तरह जम्मू संभाग में भी स्थानीय लोगों पर कम दबाव नहीं है। जेएंडके में बच्चों और आने वाली पीढ़ी पर सशस्त्र संघर्षों के प्रभाव को आतंकवाद और विद्रोह के रूप में देखने की जरूरत है, खासकर 1989-90 के बाद से। राज्य में बच्चों के समूह पर गौर करने के लिए मनोवैज्ञानिक, शारीरिक और सामाजिक दृष्टिकोण को भी ध्यान में रखने की जरूरत है। ये उन अभिभावकों के बच्चे हैं जो आतंकियों द्वारा कश्मीरी पंडितों की परिस्थितियों का दोहन करने और यातना देने के कारण कश्मीर घाटी छोड़ चुके हैं और विस्थापन का दंश झेल रहे हैं।

डोडा, ऊधमपुर, राजौरी, कठुआ जिले और ऊपरी भागों में अपने घरों को छोड़ चुके हिंदू, मुस्लिम या वे लोग जो कश्मीर के गांवों को छोड़ कर शहरों में बस चुके हैं, अभी भी सुख-चैन की तलाश में भटक रहे हैं। जम्मू के दूरदराज क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को सबसे अधिक नुकसान हुआ है। डोडा, राजौरी, कठुआ, ऊधमपुर, रामबन, बनिहाल व किश्तवाड़ के दूरदराज क्षेत्रों से पलायन कर चुके लोगों पर प्रशासन ने ध्यान नहीं दिया है। इन क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को आतंक के साए में जीने या सुनसान जगहों पर दयनीय स्थिति में रहने के अलावा और कोई चारा नहीं है। इसलिए उनके बच्चों को बहुत अधिक मानसिक व शारीरिक कष्ट झेलना पड़ा है। उनकी पढ़ाई-लिखाई सबसे अधिक प्रभावित हुई है। इसके अलावा उनकी सेहत भी ठीक नहीं रहती है और वे मनोवैज्ञानिक दबाव में रहते हैं।

वे लोग जो विद्रोहियों और आतंकियों द्वारा सशस्त्र हमलों की धमकियों के बावजूद उन क्षेत्रों में रहते हैं और आतंकियों के सफाए के लिए सुरक्षाबलों की कार्रवाई सहते हैं, उन पर विपरीत असर पड़ा है। संक्षेप में, उन्हें सामाजिक-आर्थिक तनावों, अवसादों, खराब स्वास्थ्य, नवजात बच्चों की मौत में वृद्धि, बच्चों की शारीरिक और मानसिक विकास न होने के कारण माताओं का भयभीत रहने, सशस्त्र संघर्षों के कारण घायल हुए बच्चों जिनके माता-पिता गरीब होते हैं और जो दूरदराज क्षेत्रों में रहते हैं, को सबसे अधिक नुकसान हुआ है। कारण, उनके लिए चिकित्सा सेवा काफी दूर उपलब्ध होती है। विकलांग होने के कारण उन पर विपरीत असर पड़ता है। बीमार बच्चों को तत्काल चिकित्सा सेवा नहीं मिल पाती है। कारण, विद्रोह और तलाशी अभियान के चलते उनकी गतिविधियों पर प्रतिबंध लगा होता है।

दूरदराज और पिछड़े क्षेत्रों में रहने वालों को सबसे अधिक परेशानी होती है। यहां तक कि अधिक बुखार होने पर बच्चों को अपनी जान तक गंवानी पड़ती है या फिर वे जीवन पर्यन्त शारीरिक या मानसिक रूप से अपंग हो जाते हैं। गरीब अभिभावकों के बच्चों को शारीरिक और शैक्षणिक रूप से भी नुकसान उठाना पड़ता है। जिन अभिभावकों के पास संसाधन उपलब्ध हैं, वे अपने बच्चों को गुणवत्तापरक शिक्षा दिलाने के लिए अशांत क्षेत्रों से बाहर निकल जाते हैं। लेकिन गरीब अभिभावकों को आतंकवाद प्रभावित क्षेत्रों, जहां शिक्षकों के अभाव में स्कूल बंद रहते हैं, उनके बच्चों की पढ़ाई नहीं हो पाती है। यही नहीं, उनके घर पर भी पढ़ाई-लिखाई के लिए उपयुक्त माहौल नहीं होता है।

जम्मू संभाग में उपेक्षित लोगों की संख्या अधिक है। वे शारीरिक, शैक्षणिक, आर्थिक रूप से अपंग हो चुके हैं और उनमें अपने भविष्य का निर्माण करने की क्षमता नहीं रही है। वे सामाजिक रूप से काफी पिछड़ चुके हैं। इसलिए आतंकियों, अपराधियों, धार्मिक कट्टरपंथियों और अलगाववादियों को इनका शोषण करने का अवसर मिल गया है। पिछड़े, ग्रामीण व अशिक्षित क्षेत्रों में इस तरह की समस्याएं अधिक देखी जाती हैं। वे लोग निर्दोष लोगों का अधिक शोषण करते हैं, जिनमें मानवीय मूल्यों के प्रति कोई सम्मान नहीं होता है। यह एक तथ्य है कि आजादी के दिनों से पहले जम्मू संभाग के अधिकांश क्षेत्र कश्मीर की तुलना में उपेक्षित रहे हैं। कश्मीर घाटी की तुलना में जम्मू संभाग में सड़क नेटवर्क बहुत कम है। यहां की भूमि की आकृति अधिक रूखी है। यहां के लोग सामान्यतया आर्थिक रूप से कमजोर रहे हैं। यहां उद्योगों की कमी है और पर्यटन स्थलों का वर्षो से दोहन नहीं हुआ है।

इस क्षेत्र में अधिकतम वन संपदा उपलब्ध है, लेकिन वाणिज्यिक रूप से इसका दोहन करने और क्षेत्रों के विकास के लिए उस अनुपात में खर्च नहीं हुआ है। इसलिए इस क्षेत्र के लोग गरीब हैं और उनका शैक्षणिक स्तर निम्न है और वे बाहरी दुनिया के समक्ष अपनी खूबियों का प्रदर्शन नहीं कर पाते हैं। कश्मीर घाटी से पलायन कर चुके लोगों का शैक्षणिक और प्रशासनिक इतिहास बेहतर है। उनका आर्थिक स्तर औसतन बेहतर है। इसलिए वे बाहरी दुनिया का ध्यान खींचने में समर्थ हैं। साथ ही अपने बच्चों की शैक्षणिक, रोजगार व सुरक्षा की व्यवस्था कर सकते हैं जबकि डोडा, राजौरी, ऊधमपुर जैसे अशांत क्षेत्रों के प्रवासी ऐसा नहीं कर सकते हैं। वहीं, जम्मू संभाग के प्रभावित लोगों को बहुत कम छूट मिली हुई है। कारण, वे कम शिक्षित हैं और बाहरी दुनिया से उनका कम संपर्क है।

जम्मू संभाग के दूरदराज क्षेत्रों में रहने वाले गरीबों की आतंकी निरंतर हत्याएं कर रहे हैं। सुरक्षाबलों की मौजूदगी के बावजूद आतंकी हत्याएं, यातनाएं और दुष्कर्म दबाव बनाए रखने और अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए कर रहे हैं। यही नहीं, क्षेत्रों में आतंकी गतिविधियों को संचालित करने और सुरक्षित पनाहगाह के लिए स्थानीय लोगों की सहायता प्राप्त करने का प्रयास कर रहे हैं। गरीब, अशिक्षित और उपेक्षित ग्रामीणों के लिए यहां टिके रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। उनके बच्चे गरीबी, खराब स्वास्थ्य और लचर स्थिति में जीने को मजबूर हैं। स्कूल जाने वाले बच्चों और युवाओं का भविष्य प्रभावित हुआ है। इसकी क्षतिपूर्ति के लिए विशेष कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार करने की जरूरत है।
(लेखक : जम्मू-कश्मीर मामलों के अध्येता हैं।)

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