प्रो. हरिओम
मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने 12 से 14 नवंबर के बीच नई दिल्ली में कैंप कर जम्मू-कश्मीर के कुछ क्षेत्रों से सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (अफस्पा) को हटाने की विवादास्पद मांग के पक्ष में समर्थन जुटाने के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी, रक्षा मंत्री एके एंटनी, गृह मंत्री पी चिदंबरम, सेना प्रमुख जनरल वीके सिंह और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी अध्यक्ष और यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी से मुलाकात कर उन्हें अपने विचारों से अवगत कराया था। रपट के मुताबिक, बिना किसी अपवाद के वह हर चीज को छोड़कर उदंडता पर उतर आए थे। रक्षा मंत्री ने संवाददाताओं से बातचीत करते हुए केंद्र सरकार की विचार को सार्वजनिक करते हुए उमर के बयान को झांसा देने वाला बताया था।
रक्षा मंत्री का कहना था कि यह मुद्दा बहुत ही संवेदनशील है। इसलिए जल्दबाजी में कोई कदम नहीं उठाया जा सकता है। केंद्र सरकार की तरफ से मेरी राय यह है कि इसे बहुत ही संवेदनशील मुद्दा बनाया जा रहा है। इसलिए हमें ठंडे दिमाग और परिपक्व तरीके से इसे निपटाने की जरूरत है। सीमापार से घुसपैठ का प्रयास जारी है। इस पर विचार करते हुए हमें बहुत ही सतर्क रहने की जरूरत है। सुरक्षा पर कैबिनेट कमेटी की बैठक में जब अफस्पा मुद्दे को उठाया जाएगा तो मैं कोई भी समय सीमा निर्धारित नहीं कर सकता।
उमर ने व्यावहारिक रूप से टका सा जवाब मिलने की बात स्वीकार करते हुए कहा कि उन्हें केंद्र से संबंधित मामलों को पूरी ईमानदारी से उठाने के लिए अभी और मेहनत की जरूरत है। वह सेना और राज्य सरकार के बीच मतभेद को दूर करने के लिए अपना प्रयास जारी रखेंगे। ऐसा लगता है कि उनमें आत्मविश्वास की कमी है। वह रक्षात्मक स्थिति में हैं। हालांकि उन्होंने यह संकेत देने का प्रयास किया कि वह निरंतर जमीन से जुड़े हुए हैं। इसी कारण अलग-थलग पड़ चुके उमर को हर किसी से ठंडा जवाब मिला और उन्हें तिरस्कृत होना पड़ा। इसमें केंद्रीय गृह मंत्री भी शामिल थे, जो कि उनके कट्टर समर्थक हैं।
मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, हठी उमर को किसी से भी सकारात्मक आश्वासन नहीं मिला। रिपोर्ट के मुताबिक, उमर को यूनिफाइड हेडक्वार्टर (यूएचक्यू) की बैठक में इस मुद्दे पर विचार-विमर्श करने के लिए कहा गया था। दूसरे शब्दों में, 9 नवंबर को जब जम्मू में पुन: दरबार खुला तो उनके सुझाव को पूरी तरह खारिज कर दिया गया। इसका कारण यह था कि उमर के विवादास्पद सुझाव को सेना समायोजित करने की इच्छुक नहीं है।
रक्षा मंत्री के संवाददाताओं से बातचीत में यूएचक्यू को अंतिम निर्णय लेने के बयान से साफ हो गया कि उमर हतोत्साहित करने वाली अपनी चाल छोड़ देंगे। एक ही दिन बाद प्रधानमंत्री ने भी लगभग वही बात कही। उन्होंने कहा कि इस मुद्दे पर फैसला उद्देश्यपरक और सुरक्षाबलों के इनपुट्स पर आधारित होना चाहिए। प्रधानमंत्री और रक्षा मंत्री ने साफ तौर पर जो कुछ कहा, उसे उन्होंने नजरअंदाज कर जम्मू से नई दिल्ली तक इस मुद्दे को उठाया। इससे उनकी कुंठा और हताशा का पता चलता है। उन्हें इस मुद्दे पर अपनी हार को स्वीकार करनी चाहिए। लेकिन ऐसा न कर वह न सिर्फ लोगों और विपक्षी पार्टियों की नजरों में गिर गए बल्कि उनके लिए अजीबोगरीब स्थिति पैदा हो गई। क्या यह महत्वपूर्ण नहीं है? उनसे गलती हुई है और उन्हें इसका खामियाजा भुगतान पड़ा है।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने अपनी विश्वसनीयता खो दी है। अब कौन उनकी बात सुनेगा? वह जो कुछ कहेंगे उसे कौन महत्व देगा? उनकी स्थिति इस हद तक कमजोर हो गई है कि राज्य में कोई भी व्यक्ति उन्हें गंभीरता से नहीं लेगा। तथ्य यह है कि उमर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर कब्जा जमाए रखने के लिए अपनी नैतिकता और राजनीतिक अधिकार खो चुके हैं। उन्होंने मुख्यमंत्री पद की गरिमा को खुद गिराया है। यह सब उनके हठ के कारण हुआ है।
13 नवंबर को रक्षा मंत्री एंटनी और उमर के बीच बैठक हुई थी। इस बैठक में उनके बीच जो कुछ हुआ था, उसका रहस्योद्घाटन करते हुए रक्षा मंत्री ने जो कुछ कहा, उसका क्या अर्थ है। उनका अवलोकन कि मेरी राय है कि यह मुद्दा बहुत ही संवेदनशील है। इसलिए हमें ठंडे दिमाग और परिपक्व तरीके से इस मुद्दे का हल ढूंढना होगा, हरेक चीज की व्याख्या कर देता है। यह कोई सामान्य अवलोकन नहीं है। यह उमर पर इस मायने में तिरस्कारपूर्ण हमला था कि रक्षा मंत्री ने हर किसी को समझाने का प्रयास किया कि उमर ने इस संवेदनशील मुद्दे को अपरिपक्व ढंग से निपटाने की कोशिश की और वह जल्दबाजी में थे। मानों यह सब उमर को उनकी औकात बताने के लिए पर्याप्त नहीं था।
रक्षा मंत्री ने जम्मू-कश्मीर पर पाकिस्तान की बुरी नियत का उल्लेख करते हुए उमर के रवैये पर सवाल उठाया। उनका कहना कि मैं कोई समयसीमा निर्धारित नहीं कर सकता, उमर के लिए एक स्पष्ट संदेश था कि वह अफस्पा के निरस्तीकरण पर अपनी हठ को छोड़कर बढ़िया काम करेंगे। यह स्थिति है। क्या उमर केंद्र के नकारात्मक जवाब को आत्मसम्मान पर ठेस पहुंचाने वाला बताना छोड़ेंगे? अथवा वह ऑफिस से चिपके रहेंगे, जिसमें जनवरी 2009 से वह असफलतापूर्वक काबिज हैं?
ऐसा प्रतीत होता है कि वह मुख्यमंत्री की कुर्सी चुनना पसंद करेंगे। लेकिन फिर सवाल उठता है कि क्या कांग्रेस 4 जनवरी 2012 के बाद उन्हें मुख्यमंत्री कार्यालय में बने रहने देगी? कांग्रेस कैंप में जारी गतिविधियों से पता चलता है कि कांग्रेस गैरकानूनी ढंग से सत्ता हस्तगत कर पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी और पैंथर्स पार्टी के साथ मिलकर सरकार बनाएगी। सचमुच उमर के लिए यह एक गंभीर समस्या है।
(लेखक : जम्मू विवि के सामाजिक विभाग के पूर्व डीन हैं)
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