जोगिंदर सिंह
हिटलर के प्रचार मंत्री जोसफ गोएबल्स ने एक बार कहा था, ‘अगर एक झूठ को बार-बार दोहराया जाए तो लोग उसे सच मानने लगते हैं। ...लेकिन झूठ तभी बोला जाए जब राज्य अपनी जनता को उसके राजनीतिक, आर्थिक या सामरिक दुष्प्रभावों से बचा पाए। ऐसे में राज्य के लिए यह जरूरी हो जाता है कि वह असहमति को कुचल दे क्योंकि सच हमेशा झूठ का शत्रु होता है और इसी तर्क को आगे बढ़ाएं तो सच राज्य का सबसे बड़ा शत्रु है।’
कश्मीर में आज यही हो रहा है। वहां मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला आतंकवाद से निपटने के लिए सशस्त्र बल विशेष अधिकार कानून को हटाना चाहते हैं। वे यह साबित करना चाहते हैं कि कश्मीर घाटी में सब कुशल मंगल है। लेकिन मुख्यमंत्री के लगातार खंडन के बावजूद उनकी अपनी ही पार्टी सशस्त्र बलों पर हमला बोल रही है। अक्टूबर में सशस्त्र बलों के ठिकानों पर आतंकवादियों के हमले के बाद मुख्यमंत्री के एक करीबी ने बड़बोला बयान जारी किया कि श्रीनगर के हमले दरअसल सेना की करतूत हैं। यानी ये हमले सेना ने खुद करवाए। सेना प्रमुख ने जायज ही इसे टिप्पणी लायक नहीं माना।
सेना लगातार विशेष अधिकार कानून की वकालत करती आ रही है क्योंकि उसके बिना घाटी में आतंकवाद से जूझना मुश्किल होगा। यह कानून सुरक्षा बलों (सेना, सीआरपीएफ, बीएसएफ, आईटीबीपी) को शांति व्यवस्था कायम करने के दौरान उनकी कार्रवाईयों पर सीधे मुकदमा चलाने से रोकता है। विशेष अधिकार कानून हटा लेने से सशस्त्र बलों के मनोबल पर उलटा असर पड़ेगा और यह शायद आतंकवादियों के हक में जाएगा।
खुफिया रिपोर्टों के मुताबिक घुसपैठ की वारदातें बढ़ रही हैं और सीमा पार 42 आतंकवादी प्रशिक्षण शिविरों में करीब ढाई हजार रंगरूट घुसपैठ के इंतजार में हैं। करीब 800 आतंकवादी तो नियंत्रण रेखा के पास मौके का इंतजार कर रहे हैं। 2003 में जारी जम्मू-कश्मीर पुलिस की एक पत्रिका में कहा गया है कि 1990 से 2002 दिसंबर तक 56,041 हिंसा की वारदातें हुईं। इनमें 10,000 बम धमाके और 29, 931 गोलीबारी की वारदातें हैं। 14 साल लंबे आतंकवाद के दौर में करीब 30,000 आम लोगों के मरने की आशंका है। सुरक्षा बलों ने इस दौरान 24,785 एके-राइफलें, 9,387 पिस्तौल और रिवाल्वर, 742 राकेट लांचर वगैरह पकड़े। इसके अलावा 6,865 किलो आरडीएक्स, 47,219 हथगोले, 5,228 बारूदी सुरंगें और 4,176 राकेट बरामद किए।
2003 के बाद सरकार ने कोई आंकड़ा जारी नहीं किया है। शायद यह दिखाने के लिए कि जम्मू-कश्मीर में सब ठीक-ठाक है और इसी वजह से मुख्यमंत्री का दावा है कि विशेष अधिकार कानून हटा लिया जाना चाहिए। हालांकि मुख्यमंत्री ने कहा, ‘सेना वाकई राज्य में आतंकवाद विरोधी कार्रवाईयों में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। लेकिन अगर सरकार जीवन-मृत्यु के सवालों पर झूठ बोले तो आपकी प्रतिक्रिया क्या होगी। सच्चाई यह है कि जब सत्ता में होते हैं तो सच बोलने की जरूरत नहीं होती। यही दुनियाभर में जमाने से चलता आ रहा है।
विडंबना यह है कि सरकार विरोधाभाषी रुख अपनाकर आतंकवादियों को मौका मुहैया करा रही है, मानो आतंकवाद से कड़ाई से निपटना कोई गलत काम हो। भारत धर्मनिरपेक्ष देश है और यहां हर आदमी के समान अधिकार हैं। लेकिन कश्मीर और यहां तक कि बाकी देश में भी कुछ राजनीतिक सियासी बढ़त पाने के लिए आतंकवादियों की वकालत करते दिखते हैं। अगर कोई आतंकवाद का नाम लेता है तो उसे लाल, हरा, भगवा जैसे रंगों में रंग दिया जाता है। जबकि आतंकवादी और उनके समर्थक खुलेआम यह कहते हैं कि पाकिस्तान उनके दिल में बसा है। वे अपने दिल की बात सुनेंगे और भारत में उपलब्ध आजादी का इस्तेमाल करके अपने मनपसंद देश के साथ हो जाएंगे। समस्या यह है कि सरकार खुद कट्टरवादियों को घाटी में आम लोगों की जिंदगी चौपट करने का मौका मुहैया करा देती है। वरना आप सिनेमा, वीडियो पार्लर, ब्यूटीपार्लर, शराब की दुकानें और फिल्मी पत्रिकाओं को कट्टरवादियों के दबाव में बंद कराने की क्या व्याख्या कर सकते हैं।
कई बार हमारे तथाकथित नागरिक समाज के लोग कहते हैं कि सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार से भी बुरी है (जिससे मैं सहमत नहीं हूं) तो वे कश्मीर के मामले में चुप्पी क्यों साध लेते हैं। शायद कुछ लोगों की रोजी-रोटी भारत विरोध के नाम पर चलती है। दुनिया में कहीं भी आतंकवाद को तुष्टिकरण से मिटाया नहीं जा सका है। हमारी सरकार आतंकवादियों को, चाहे वे कश्मीर के हों या माआवोदी, उन इलाकों के विकास के नाम पर तरह-तरह की योजनाओं से पैसा पहुंचाकर परोक्ष रूप से मदद ही करती है। केंद्र सरकार से आवंटित लगभग 70 प्रतिशत रकम कश्मीर घाटी में खर्च होती है, जहां आतंकवादियों का सिक्का चलता है और स्थानीय अधिकारियों की मिलीभगत से यह रकम उनकी जेब में पहुंच जाती है। ये अधिकारी उनसे डरे हाते हैं या फिर सहानुभूति रखते हैं।
इसी तरह की दूसरी लटकेबाजी तथाकथित वार्ताकारों की नियुक्ति भी रही है जिनसे आतंकवादियों तक ने बात करना मुनासिब नहीं समझा। फिर भी ये वार्ताकार चाहते हैं कि कश्मीर में 1953 के पहले की स्थिति लागू की जाए और अधिक स्वायत्तता दी जाए। मतलब यह है कि कश्मीर में एक समांतर सरकार बने जिसमें जम्मू और लद्दाख जैसे गैर-मुस्लिम क्षेत्रों का कोई लेना-देना न हो।
सच्चाई यह है कि स्वायत्तता और अलगाव के बीच एक बेहद बारीक रेखा है। इसमें आम आदमी, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान या सिख, की कोई दिलचस्पी नहीं है। वह तो शांति और सुरक्षा के साथ जीना चाहता है जिसे 1989 से घाटी में कोई सरकार मुहैया नहीं करा पाई है। घाटी से करीब 3.7 लाख हिंदू और सिखों के विस्थापन पर कोई बात तक नहीं करना चाहता। इससे भी बढ़कर यह भी बात है कि समूचे देश के करदाता जम्मू-कश्मीर का बोझ उठा रहे हैं। वहां की सरकार के पास तो तनख्वाह देने का भी पैसा नहीं है। तो, क्या करदाताओं के पैसों को कश्मीर में कट्टरवादियों और आतंकवादियों के लिए खर्च किए जाने की इजाजत दी जानी चाहिए?
अफस्पा हटाने का प्रस्ताव न सिर्फ भ्रामक है बल्कि राष्ट्रविरोधी भी है। राष्ट्रविरोधी तत्वों को ब्लैकमेल करने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए। केंद्र और राज्य दोनों सरकारों को अब्राहम लिंकन का वह प्रसिद्ध वाक्य याद रखना चाहिए कि, ‘अपने ही खिलाफ खड़े लोग एकजुट होकर काम नहीं कर सकते।’
(लेखक सीबीआई के पूर्व निदेशक हैं।)
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