Saturday, November 12, 2011

अफस्पा पर दुविधा


डॉ. महेश परिमल  

यदि अफस्पा को खत्म किया जाता है तो आतंकी इसका फायदा उठाने से नहीं चूकेंगे। और अगर जवानों को कुछ भी करने की खुली छूट दी जाती रहेगी तो कश्मीर में सुधरते हुए हालात फिर से बिगड़ने में देर नहीं लगेगी। इस संबंध में मध्यमार्ग अपनाया जाना चाहिए। अफस्पा को हटाने के बजाए अ‌र्द्धसैनिक बलों को निरंकुश होने से रोकने के उपाय करने होंगे। इससे जनता में असंतोष नहीं फैलेगा और प्रदेश आतंक से भी सुरक्षित रहेगा।...

कश्मीर घाटी में बरसों से खून की होली चल रही है। इस होली में कई चेहरे रंग से पुते हुए हैं, जिन्हें कश्मीरी अपना मानते हैं। सरकार ने उन्हें कश्मीरियों की रक्षा के लिए नियुक्त किया है। सरकार ने ही इन्हें ऐसे विशेषाधिकार दे रखे हैं, जिनका लगातार दुरुपयोग हो रहा है। इससे जनता में असंतोष व्याप्त हो रहा है। पूरे मामले में केंद्र सरकार की लापरवाही बार-बार सामने आ रही है। जो अधिकारी या जवान जनता पर कहर बरपाते हैं, उनके खिलाफ स्थानीय पुलिस कार्रवाई नहीं कर सकती। इसके लिए प्रस्ताव केंद्र सरकार के पास पहुंचाया जाता है, पर केंद्र सरकार इसकी इजाजत नहीं देती।

इस प्रकार एक तरह से सरकार कश्मीरी जनता पर अत्याचार करने वाले को संरक्षण दे रही है। कश्मीर में आतंकवाद के खात्मे के लिए आ‌र्म्ड फोर्सिस स्पेशल पावर्स एक्ट (अफस्पा) के तहत सेना को जो विशेष अधिकार दिए गए हैं, उनसे घाटी की जनता यह मानने लगी है कि इस कानून का उपयोग कम और दुरुपयोग अधिक हो रहा है। यह सच है कि इसी कानून के तहत आज घाटी शांत है। इसी कानून के खौफ से कई आतंकी संगठनों का सफाया हो चुका है। किंतु केंद्र सरकार की हीला-हवाली के कारण यह कानून अब बदनाम हो रहा है।

अगर इस कानून का दुरुपयोग करने वाले सेना के अधिकारियों और जवानों पर तत्काल कार्रवाई की जाती, तो संभव था अफस्पा कश्मीरी जनता का विश्वास न खोता। आतंकी गतिविधियों के कारण अशांत राज्यों में सेना को विशेषाधिकार देने के लिए 1958 से आ‌र्म्ड फोर्सिस स्पेशल पावर्स एक्ट नामक विशेष कानून अमल में लाया गया। इसका प्रयोग सबसे पहले असम और मणिपुर में किया गया। इस कानून में यह प्रावधान है कि सेना या अ‌र्द्धसैनिक बल का कोई भी जवान किसी भी व्यक्ति के घर में घुसकर तलाशी ले सकता है और किसी भी व्यक्ति को बंदी बना सकता है। ऐसे जवानों के खिलाफ जनता को सीधे मामला दर्ज करने की अनुमति नहीं है। इस प्रावधान के कारण ही कई बार अ‌र्द्धसैनिक बल बेकाबू होकर अत्याचार पर आमादा हो जाते हैं।

अफस्पा कानून के खिलाफ मणिपुर में बरसों से आंदोलन चल रहा है। अब कश्मीर के कुछ हिस्सों से इस कानून को हटाने की मांग जोर पकड़ रही है। इसके सबसे प्रबल पैरोकार हैं मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला। इससे सेना के अधिकारी बौखला गए हैं। उनका मानना है कि यदि इस कानून को वापस ले लिया गया तो आतंकवाद पर नियंत्रण नहीं हो पाएगा। आतंकवादी बेखौफ हो जाएंगे। सेना के उच्च अधिकारियों के इस तर्क के आगे सरकार दुविधा में है। बरसों से सरकार की इस दुविधा का लाभ सेना के अधिकारी और जवान बखूबी उठा रहे हैं। सरकार की दुविधा इस बात को लेकर है कि इससे नागरिकों के मूल अधिकारों की भावना आहत होती है।

सेना पर आरोप है कि इस कानून का दुरुपयोग करते हुए अधिकारियों एवं जवानों ने कुछ कश्मीरियों का फर्जी एनकांउटर किया है। कुछ जवानों पर बलात्कार के भी आरोप हैं। ऐसे अपराध करने वालों पर राज्य सरकार सीधी कार्रवाई नहीं कर सकती। इसके लिए पहले उसे केंद्र सरकार के गृह विभाग और रक्षा विभाग से मुकदमा चलाने के लिए मंजूरी लेनी पड़ती है। किंतु केंद्र सरकार आमतौर पर यह मंजूरी नहीं देती। यही कारण है कि सेना के अधिकारी और जवान बेलगाम हो गए हैं।

वर्ष 2003 में राज्य सरकार ने ऐसे 35 मामलों में कार्रवाई के लिए केंद्र सरकार से अनुमति मांगी थी, किंतु एक मामले के लिए भी अनुमति नहीं मिली। नागरिकों का सेना पर विश्वास बना रहे, इसके लिए आवश्यक है कि विशेषाधिकार का दुरुपयोग होने पर जल्द और सख्त कार्रवाई की जाए। यदि इस विशेषाधिकार को खत्म कर दिया जाता है तो आतंकवादी इसका फायदा उठाने से नहीं चूकेंगे। और अगर जवानों को कुछ भी करने की खुली छूट दी जाती रहेगी तो कश्मीर में सुधरते हुए हालात फिर से बिगड़ने में देर नहीं लगेगी। इस संबंध में मध्यमार्ग अपनाया जाना चाहिए। अफस्पा को हटाने के बजाए अ‌र्द्धसैनिक बलों को निरंकुश होने से रोकने के उपाय करने होंगे। इससे जनता में असंतोष नहीं फैलेगा और प्रदेश आतंक से भी सुरक्षित रहेगा।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

वीएचवी। सम्पादकीय डेस्क। 12 नवम्बर 2011




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