जम्मू व कश्मीर राज्य- एक परिचय
जम्मू-कश्मीर रियासत, जिसका विलय 26 अक्तूबर 1947 को भारतीय संघ में हुआ, वह आज के भारत द्वारा शासित जम्मू-कश्मीर राज्य से कहीं अधिक विशाल था। वर्तमान में जम्मू-कश्मीर रियासत के निम्न हिस्से हैं :-
जम्मू - इसका क्षेत्रफल कुल 36,315 वर्ग कि.मी. है जिसमें से आज हमारे पास लगभग 26 हजार वर्ग कि.मी. है। दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों से युक्त पीर पंजाल पर्वत के दक्षिण में इस क्षेत्र में तवी और चेनाब जैसी बारहमासी नदियां बहती हैं। यहां की वर्तमान जनसंख्या का लगभग 67 प्रतिशत हिन्दू है। मुख्य भाषा डोगरी व पहाड़ी है।
कश्मीर- लगभग 22 हजार वर्ग कि.मी. क्षेत्रफल, जिसमें से लगभग 16 हजार वर्ग कि.मी. ही हमारे पास है। वर्तमान में अधिकांश जनसंख्या मुस्लिम है, लगभग 4 लाख हिन्दू वर्तमान में कश्मीर घाटी से विस्थापित हैं। जेहलम और किशनगंगा नदियों में जाने वाली जलधाराओं से बना यह क्षेत्र दो घाटियों जेहलम घाटी एवं लोलाब घाटी से मिलकर बना है। मुख्यत: कश्मीरी भाषा बोली जाती है, परन्तु एक तिहाई लोग पंजाबी-पहाड़ी बोलते हैं।
लद्दाख- कुल 1,01,000 वर्ग कि.मी. क्षेत्र, जिसमें से लगभग 59 हजार वर्ग कि.मी. भारत के अधिकार में है। प्रकृति की अनमोल धरोहर के साथ ही बड़ी संख्या में बौद्ध मठ यहां हैं जहां दुनिया के कोलाहल से दूर शांति का अनुभव किया जा सकता है।
गॉडविन आस्टिन (K 28611 मीटर) और गाशरब्रूम I (8068 मीटर) सर्वाधिक ऊँची चोटियाँ हैं। यहाँ की जलवायु अत्यंत शुष्क एवं कठोर है। वार्षिक वृष्टि 3.2 इंच तथा वार्षिक औसत ताप 5 डिग्री सें. है। नदियाँ दिन में कुछ ही समय प्रवाहित हो पाती हैं, शेष समय में जमी रहती है। सिंधु मुख्य नदी है। उत्तर में कराकोरम पर्वत तथा दर्रा है। कारगिल में 9000 फुट से लेकर कराकोरम में 25000 फुट ऊंचाई तक की पर्वत श्रंखलायें है।
01 जुलाई 1979 को लद्दाख का विभाजन कर लेह और करगिल; दो जिलों का गठन किया गया। पश्चिम बंगाल के गोरखालैंड की तर्ज पर दोनों जिलों का संचालन ‘स्वायत्त पहाड़ी विकास परिषद’ द्वारा किया जाता है। वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार, लद्दाख की कुल जनसंख्या 236539 और क्षेत्रफल 59146 वर्ग कि.मी. है। यह भारत के सबसे विरल जनसंख्या वाले भागों में से एक है।
राज्य में लोकसभा की 6 और विधानसभा की 87 सीटें हैं जिसमें लद्दाख में लोकसभा की एक और विधानसभा की 4 सीटें हैं। करगिल और लेह जिले में विधानसभा की दो-दो सीटें है; जिनके नाम क्रमशः जांस्कर व कारगिल और नोब्रा व लेह है। दोनों जिले करगिल और लेह लद्दाख लोकसभा क्षेत्र के अंतर्गत आते हैं। राज्य में मतदाताओं की कुल संख्या 65 लाख से ज्यादा है; जिसमें करीब 1,52,339 मतदाता लद्दाख में हैं।
करगिल के मुसलमान पक्के देशभक्त माने जाते हैं और 1999 में पाकिस्तान द्वारा कारगिल घुसपैठ के दौरान उन्होंने भारतीय सेना का खुलकर साथ दिया था। लद्दाख को चीन पश्चिम तिब्बत कहता है और सिन्धु नदी तक अपनी सीमा को बढ़ाना चाहता है। 1950 से ही इस क्षेत्र पर उसकी नजर है। लेह, जंस्कार, चांगथांग, नुब्रा, यह चार घाटियां बौध्दबहुल व सुरू घाटी पूर्णतया मुस्लिमबहुल है।
गिलगित-वाल्टिस्तान- जम्मू-कश्मीर के इस क्षेत्र को पाकिस्तान ने विधिवत अपना प्रांत घोषित कर उसका सीधा शासन अपने हाथ में ले लिया है। यह लगभग 63 हजार वर्ग किमी. विस्तृत भू-भाग है जिसमें गिलगित लगभग 42 हजार वर्ग किमी. व वाल्टिस्तान लगभग 20 हजार वर्ग किमी. है। गिलगित का सामरिक महत्व है। यह वह क्षेत्र है जहां 6 देशों की सीमाएं मिलती हैं- पाकिस्तान, अफगानिस्तान, तजाकिस्तान, चीन, तिब्बत एवं भारत। यह मध्य एशिया को दक्षिण एशिया से जोड़ने वाला दुर्गम क्षेत्र है जो सामरिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है तथा जिसके द्वारा पूरे एशिया में प्रभुत्व रखा जा सकता है।
अमेरिका भी पहले गिलगित पर अपना प्रभाव रखना चाहता था और एक समय चीन के बढ़ते प्रभुत्व को रोकने के लिये सोवियत रूस की भी ऐसी ही इच्छा थी, इसलिये 60 के दशक में रूस ने पाकिस्तान का समय-समय पर समर्थन कर गिलगित को अपने प्रभाव क्षेत्र में लाने का प्रयास किया था। वर्तमान में गिलगित में चीन के 11000 सैनिक तैनात हैं। पिछले वर्षो में इस क्षेत्र में चीन ने लगभग 65 हजार करोड़ रूपये का निवेश किया व आज अनेक चीनी कंपनियां व कर्मचारी वहां पर काम कर रहे हैं।
1935 में जब सोवियत रूस ने तजाकिस्तान को रौंद दिया तो अंग्रेजों ने गिलगित के महत्व को समझते हुये महाराजा हरिसिंह से समझौता कर वहां की सुरक्षा व प्रशासन की जिम्मेदारी अपने हाथ में लेने के लिये 60 वर्ष के लिये इसे पट्टे पर ले लिया। 1947 में इस क्षेत्र को उन्होंने महाराजा को वापिस कर दिया। इसकी सुरक्षा के लिये
1947 में स्वाधीनता के समय जम्मू-कश्मीर
1. भारत की पांच ऐसी रियासतों में से एक, जिसकी व्यवस्था सीधे ही भारत के वायसराय गवर्नर जनरल देखते थे। अंग्रेजों ने जम्मू-कश्मीर के महाराजा (हरिसिंह बहादुर) के लिये 21 तोपों की सलामी की मान्यता दे रखी थी। ऐसी ही व्यवस्था मैसूर, बड़ौदा, ग्वालियर व हैदराबाद के शासकों के लिये थी।
2. भारत की सबसे बड़ी रियासत थी, जिसका क्षेत्रफल लगभग 2 लाख 22 हजार वर्ग किमी. था। यह क्षेत्रफल बम्बई प्रेजीडेंसी से 2/3 अधिक एवं बीकानेर, ग्वालियर, बड़ौदा व मैसूर चारों रियासतों को कुल मिलाकर भी उनसे अधिक था।
3. यह भारत की एकमात्र रियासत थी जो मुस्लिम बहुल (लगभग 76 प्रतिशत) थी परन्तु जिसमें हिन्दू राजा था। इसके विपरीत देश में ऐसी बहुत सी रियासतें थीं जो हिन्दू बहुल थीं परन्तु मुस्लिम शासक द्वारा शासित थीं। सामान्यत: डोगरा शासक न्यायसम्मत तथा सुसंगत शासन के कारण जनता में लोकप्रिय थे।
4. इस रियासत की सीमायें अफगानिस्तान, तजाकिस्तान (तत्कालीन सोवियत संघ), चीन व तिब्बत से मिलती थीं।
अंग्रेजों ने एक अनियमित सैनिक बल गिलगित स्काउटस का भी गठन किया।
पाकिस्तान के कब्जे में जम्मू-कश्मीर- लगभग 10 हजार वर्ग कि.मी. जम्मू क्षेत्र एवं 6 हजार वर्ग कि.मी. कश्मीर क्षेत्र पाकिस्तान के अनधिकृत कब्जे में है। प्रमुख रूप से यहां पंजाबी एवं पहाडी भाषी जनसंख्या है। आज यह क्षेत्र पूर्णतया मुस्लिम हो चुका है परन्तु 1947 में यहां से विस्थापित हुए लगभग दस लाख हिन्दू शरणार्थी जम्मू-कश्मीर एवं भारत के अन्य भागों में रहते हैं।
चीन अधिगृहीत जम्मू-कश्मीर- लद्दाख के लगभग 36,500 वर्ग किलोमीटर पर 1962 में चीन ने आक्रमण कर अवैध कब्जा कर लिया, बाद में 5500 वर्ग किलोमीटर जमीन पाकिस्तान ने भेंटस्वरूप चीन को दे दी।
जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय संपूर्ण
17 जून 1947 को भारतीय स्वाधीनता अधिनियम-1947 ब्रिटिश संसद द्वारा पारित किया गया। 18 जुलाई को इसे शाही स्वीकृति मिली जिसके अनुसार 15 अगस्त 1947 को भारत को स्वतंत्रता प्राप्त हुई तथा उसके एक भाग को काट कर नवगठित राज्य पाकिस्तान का उदय हुआ।
पाकिस्तान के अधीन पूर्वी बंगाल, पश्चिमी पंजाब, उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत एवं सिंध का भाग आया। ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन रहा शेष भू-भाग भारत के साथ रहा।
इस अधिनियम से ब्रिटिश भारत की रियासतें अंग्रेजी राज की परमोच्चता से तो मुक्त हो गईं, परन्तु उन्हें राष्ट्र का दर्जा नहीं मिला और उन्हें यह सुझाव दिया गया कि भारत या पाकिस्तान में जुड़ने में ही उनका हित है। इस अधिनियम के लागू होते ही रियासतों की सुरक्षा की अंग्रेजों की जिम्मेदारी भी स्वयमेव समाप्त हो गई।
भारत शासन अधिनियम 1935, जिसे भारतीय स्वाधीनता अधिनियम 1947 में शामिल किया गया, के अनुसार विलय के बारे में निर्णय का अधिकार राज्य के राजा को दिया गया। यह भी निश्चित किया गया कि कोई भी भारतीय रियासत उसी स्थिति में दो राष्ट्रों में से किसी एक में मिली मानी जायेगी, जब गवर्नर जनरल उस रियासत के शासन द्वारा निष्पादित विलय पत्र को स्वीकृति प्रदान करें।
भारतीय स्वाधीनता अधिनियम 1947 में सशर्त विलय के लिये कोई प्रावधान नहीं था।
26 अक्तूबर 1947 को महाराजा हरिसिंह ने भारत वर्ष में जम्मू-कश्मीर का विलय उसी वैधानिक विलय पत्र के आधार पर किया, जिसके आधार पर शेष सभी रजवाड़ों का भारत में विलय हुआ था तथा भारत के उस समय के गवर्नर जनरल माउण्टबेटन ने उस पर हस्ताक्षर किये थे…. ”मैं एतद्द्वारा इस विलय पत्र को स्वीकार करता हूं” दिनांक सत्ताईस अक्तूबर उन्नीस सौ सैंतालीस (27 अक्तूबर-1947)
महाराजा हरिसिंह द्वारा हस्ताक्षरित जम्मू-कश्मीर के विलय पत्र से संबंधित अनुच्छेद, जो कि जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय को पूर्ण व अंतिम दर्शाते हैं, इस प्रकार हैं :-
अनुच्छेद -1) ”मैं एतद्द्वारा घोषणा करता हूं कि मैं भारतवर्ष में इस उद्देश्य से शामिल होता हूं कि भारत के गवर्नर जनरल, अधिराज्य का विधानमंडल, संघीय न्यायालय, तथा अधिराज्य के उद्देश्यों से स्थापित अन्य कोई भी अधिकरण (Authority), मेरे इस विलय पत्र के आधार पर किन्तु हमेशा इसमें विद्यमान अनुबंधों (Terms) के अनुसार, केवल अधिराज्य के प्रयोजनों से ही, कार्यों का निष्पादन (Execute) करेंगे।”
अनुच्छेद-9) ”मैं एतद्द्वारा यह घोषणा करता हूं कि मैं इस राज्य की ओर से इस विलय पत्र का क्रियान्वयन (Execute) करता हूं तथा इस पत्र में मेरे या इस राज्य के शासक के किसी भी उल्लेख में मेरे वारिसों व उतराधिकारियों का उल्लेख भी अभिप्रेत हैं।
विलय पत्र में अनुच्छेद-1 के अनुसार, जम्मू-कश्मीर भारत का स्थायी भाग है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद-1 के अनुसार जम्मू-कश्मीर राज्य भारत का अभिन्न अंग है। भारत संघ कहने के पश्चात दी गई राज्यों की सूची में जम्मू-कश्मीर क्रमांक-15 का राज्य है।
महाराजा हरिसिंह ने अपने पत्र में कहा :-
”मेरे इस विलय पत्र की शर्तें भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 के किसी भी संशोधन द्वारा परिवर्तित नहीं की जायेंगी, जब तक कि मैं इस संशोधन को इस विलय पत्र के पूरक (Instrument Supplementary) में स्वीकार नहीं करता।”
भारतीय स्वाधीनता अधिनियम 1947 के अनुसार शासक द्वारा विलय पत्र पर हस्ताक्षर करने के उपरान्त आपत्ति करने का अधिकार पंडित नेहरू, लार्ड माउण्टबेटन, मोहम्मद अली जिन्ना, इंग्लैंड की महारानी, इंग्लैंड की संसद तथा संबंधित राज्यों के निवासियों को भी नहीं था।
1951 में राज्य संविधानसभा का निर्वाचन हुआ। संविधान सभा में सभी 75 सदस्य नेशनल कांफ्रेंस के थे और मौलाना मसूदी इसके अध्यक्ष बने। इसी संविधान सभा ने 6 फरवरी 1954 को राज्य के भारत में विलय की अभिपुष्टि की। 14 मई 1954 को भारत के महामहिम राष्ट्रपति ने भारतीय संविधान के अस्थायी अनुच्छेद 370 के अंतर्गत संविधान आदेश (जम्मू व कश्मीर पर लागू) जारी किया जिसमें राष्ट्र के संविधान को कुछ अपवादों और सुधारों के साथ जम्मू व कश्मीर राज्य पर लागू किया गया।
राज्य का अपना संविधान 26 जनवरी 1957 को लागू किया गया जिसके अनुसार :-
धारा-3 : जम्मू-कश्मीर राज्य भारत का अभिन्न अंग है और रहेगा।
धारा-4 : जम्मू-कश्मीर राज्य का अर्थ वह भू-भाग है जो 15 अगस्त 1947 तक राज्य के राजा के आधिपत्य की प्रभुसत्ता में था।
इसी संविधान की धारा-147 में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि धारा- 3 व धारा-4 को कभी बदला नहीं जा सकता।
1974 के इंदिरा-शेख अब्दुल्ला समझौते में पुन: यह कहा गया कि
जम्मू-कश्मीर राज्य भारतीय संघ का एक अविभाज्य अंग है, इसका संघ के ‘साथ’ अपने संबंधों का निर्धारण भारतीय संविधान के अस्थायी अनुच्छेद-370 के अंतर्गत ही रहेगा।
14 नवम्बर 1962 को संसद में पारित संकल्प एवं 22 फरवरी 1994 को संसद में सर्वसम्मति से पारित प्रस्ताव में स्पष्ट रूप से यह कहा गया कि जो क्षेत्र चीन द्वारा (1962 में) व पाकिस्तान द्वारा (1947) में हस्तगत कर लिये गये, वह हम वापिस लेकर रहेंगे, और इन क्षेत्रों के बारे में कोई सरकार समझौता नहीं कर सकती।
अवांछित तथा अवैधानिक टिप्पणियां
27 अक्तूबर 1947 को लार्ड माउण्टबेटन ने महाराजा हरिसिंह के विलय के प्रपत्र को स्वीकार करते हुये एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने एक अवांछित, अवैधानिक टिप्पणी की।
”मेरी सरकार ने कश्मीर रियासत के भारत में विलय के प्रस्ताव को स्वीकार करने का निर्णय लिया है। अपनी उस नीति को ध्यान में रखते हुये कि जिस रियासत में विलय का मुद्दा विवादास्पद हो वहां विलय की समस्या का समाधान रियासत के लोगों की आकांक्षाओं को ध्यान में रखते हुये किया जाये, मेरी सरकार की इच्छा है कि जब रियासत में कानून और व्यवस्था बहाल हो जाये और इसकी भूमि को आक्रमणकारियों से मुक्त कर दिया जाए तो रियासत के विलय का मामला लोगों की राय लेकर सुलझाया जाये।
1 नवम्बर 1947 को लार्ड माउण्टबेटन ने लाहौर में मोहम्मद अली जिन्ना से बातचीत करते हुये जम्मू-कश्मीर में जनमत संग्रह कराने की बात स्वीकार की। 2 नवम्बर 1947 को भारत की अंतरिम सरकार के तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने भी रेडियो पर अपने संबोधन में जम्मू-कश्मीर में जनमत संग्रह कराने का आश्वासन दिया।
1 जनवरी 1948 को संयुक्त राष्ट्र संघ को पाकिस्तान को आक्रामक घोषित करने तथा अपनी जमीन खाली करवाने का अनुरोध करते हुये शांतिकाल में जन आकांक्षा जानने का प्रस्ताव भारत सरकार ने दिया।
वास्तव में यह सुझाव, प्रस्ताव गैरकानूनी थे क्योंकि वर्ष 1947 के जिस भारतीय स्वतंत्रता कानून के अंतर्गत भारत का विभाजन हुआ, पाकिस्तान का निर्माण हुआ, 569 तत्कालीन रियासतों का भारत या पाकिस्तान में विलय हुआ, उसी अधिनियम के अंतर्गत महाराजा हरिसिंह ने जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय किया।
लार्ड माउण्टबेटन के पास यह अधिकार नहीं था कि वे इस भारत विरोधी, आपत्तिजनक शर्त को विलय के साथ जोड़ते और इसके साथ ही जिन्ना से बात करते हुये जम्मू-कश्मीर में जनमत संग्रह की कानूनी प्रतिबद्धता व्यक्त कर अपने अधिकार की सीमाओं का भी उल्लंघन करते। यह भी सच है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने भी जम्मू-कश्मीर में जनमत संग्रह की बात कर संवैधानिक रूप से लार्ड माउंटबेटन द्वारा की गयी गलती को दोहराया। इन गैरकानूनी आश्वासनों को मानने के लिए भारत राष्ट्र वैधानिक एवं नैतिक तौर पर प्रतिबध्द नहीं है।
न तो राज्य का संविधान और न ही भारतीय संविधान कश्मीर को स्वतंत्र होने का अधिकार प्रदान करता है। देश में किसी को भी यह अधिकार नहीं है कि वह भारतीय संविधान के मौलिक ढांचे को बदल सके या भारत की सीमाओं से छेड़-छाड़ कर सके।
अस्थायी अनुच्छेद-370
17 अक्तूबर 1949 को कश्मीर मामलों को देख रहे मंत्री गोपालस्वामी अयंगार ने भारत की संविधान सभा में अनुच्छेद-306(ए) (वर्तमान अनुच्छेद-370) को प्रस्तुत किया। डॉ. बी.आर. अम्बेडकर की अध्यक्षता में गठित समिति द्वारा संविधान का जो मूल पाठ (ड्राफ्ट) प्रस्तुत किया गया था, उसमें यहअनुच्छेद-306(ए) सम्मिलित नहीं था। डॉ. अंबेडकर ने संविधान सभा में इस विषय पर एक भी शब्द नहीं बोला।
जब पं. नेहरू ने शेख अब्दुल्ला को इस विषय पर बात करने के लिये डा. अम्बेडकर के पास भेजा तो उन्होंने स्पष्ट रूप से शेख को कहा ”तुम यह चाहते हो कि भारत कश्मीर की रक्षा करे, कश्मीरियों को पूरे भारत में समान अधिकार हों, पर भारत और भारतीयों को तुम कश्मीर में कोई अधिकार नहीं देना चाहते। मैं भारत का कानून मंत्री हूं और मैं अपने देश के साथ इस प्रकार की धोखा-धड़ी और विश्वासघात में शामिल नहीं हो सकता।”
गोपालस्वामी अयंगार और मौलाना हसरत मोहानी के अतिरिक्त संविधान सभा में इस पर हुई बहस में किसी ने भी भाग नहीं लिया, यहां तक कि जम्मू-कश्मीर से चुने गये चारों सदस्य वहां उपस्थित होते हुए भी चुप रहे ।
कांग्रेस कार्यसमिति में कुछ ही दिन पूर्व इस प्रस्ताव पर दो दिन तक चर्चा हुई थी जिसमें गोपालस्वामी अयंगार अकेले पड़ गये। केवल मौलाना अब्दुल कलाम आजाद उनके एकमात्र समर्थक थे जिनको सबने चुप करा दिया था। ऐस माना जाता है कि नेहरू जी को इस आक्रोश का अंदाजा था, इसलिये वे पहले से ही विदेश यात्रा के नाम पर बाहर चले गये और अंत में अनमने भाव से नेहरू जी का सम्मान रखने के लिए सरदार पटेल को अयंगार के समर्थन में आना पड़ा और कांग्रेस दल ने नेहरू की इच्छा का सम्मान करते हुये इस अनुच्छेद को संविधान में शामिल करने का निर्णय लिया।
अनुच्छेद-370 : संविधान में यह अस्थायी, विशेष, संक्रमणकालीन धारा के नाते सम्मिलित की गई। इसके अंतर्गत भारतीय संविधान की केन्द्रीय एवं समवर्ती सूची (union and concurrent list) में से भारतीय संसद -
1. विदेश, संचार, सुरक्षा (आंतरिक सुरक्षा सहित) पर जम्मू-कश्मीर सरकार से सलाह कर कानून बना सकती है।
2. केन्द्रीय एवं समवर्ती सूची के शेष सब विषयों पर संसद द्वारा पारित कानून तभी लागू किये जा सकेंगे जब जम्मू-कश्मीर विधानसभा की सहमति प्राप्त होने के बाद राष्ट्रपति आदेश पारित करेंगे।
3. अवशिष्ट शक्तियां (Residuary Powers) भी जम्मू-कश्मीर राज्य के पास निहित रहेंगी।
जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा का 1951 में गठन किया गया।
जम्मू-कश्मीर का अलग संविधान अनुच्छेद-370 की उत्पत्ति है।
जम्मू-कश्मीर में भारतीय संविधान की धारा-1 और अनुच्छेद-370 लागू होने के कारण ही शेष संविधान यहां पर लागू करने का राष्ट्रपति द्वारा भी तब तक आदेश नहीं हो सकता था, जब तक कि जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा द्वारा अनुमोदन न कर दिया जाय। इसीलिये 1951 में जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा का गठन किया गया।
अनुच्छेद 370(ए) में प्रदत्त अधिकारों के अंतर्गत जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा के अनुमोदन के पश्चात् 17 नवम्बर 1952 को भारत के राष्ट्रपति ने अनुच्छेद-370 के राज्य में लागू होने का आदेश दिया।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद-35(ए) के अंतर्गत जम्मू-कश्मीर के जिन निवासियों (जो 1944 से पूर्व से यहां रहते थे) के पास स्थायी निवासी प्रमाण पत्र (Permanent Resident Certificate) होगा, वे ही राज्य में नागरिकता के सभी मूल अधिकारों का उपयोग कर सकेंगे। इस कारण से शेष भारत के निवासी जम्मू-कश्मीर में न तो सरकारी नौकरी प्राप्त कर सकते हैं और न ही जमीन खरीद सकते हैं। उनको राज्य के अंतर्गत वोट देने का अधिकार भी नहीं है।
अस्थायी अनुच्छेद 370 के दुष्परिणाम
1947 में जम्मू-कश्मीर में पश्चिम पाकिस्तान से आये हिन्दू शरणार्थी (आज लगभग दो लाख) अभी भी नागरिकता के मूल अधिकारों से वंचित हैं, जबकि तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला ने ही खाली पड़ी सीमाओं की रक्षा के लिए यहां उनको बसाया था। इनमें अधिकतर हरिजन और पिछड़ी जातियों के हैं। इनके बच्चों को न छात्रवृति मिलती है और न ही व्यावसायिक पाठयक्रमों में प्रवेश का अधिकार है। सरकारी नौकरी, संपत्ति क्रय-विक्रय तथा स्थानीय निकाय चुनाव में मतदान का भी अधिकार नहीं है। 63 वर्षों के पश्चात भी अपने ही देश में वे गुलामों की तरह जीवन जी रहे हैं।
* शेष भारत से आकर यहां रहने वाले व कार्य करने वाले प्रशासनिक, पुलिस सेवा के अधिकारी भी इन नागरिकता के मूल अधिकारों से वंचित है। 30-35 वर्ष इस राज्य में सेवा करने के पश्चात भी इन्हें अपने बच्चों को उच्च शिक्षा हेतु राज्य से बाहर भेजना पड़ता है और सेवानिवृति के बाद वे यहां एक मकान भी बनाकर नहीं रह सकते।
* 1956 में जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन प्रधानमंत्री बख्शी गुलाम मुहम्मद ने जम्मू शहर में सफाई व्यवस्था में सहयोग करने के लिये अमृतसर (पंजाब) से 70 बाल्मीकि परिवारों को निमंत्रित किया। 54 वर्ष की दीर्घ अवधि के पश्चात भी उन्हें राज्य के अन्य नागरिकों के समान अधिकार नहीं मिले। उनके बच्चे चाहे कितनी भी शिक्षा प्राप्त कर लें, जम्मू-कश्मीर के संविधान के अनुसार केवल सफाई कर्मचारी की नौकरी के लिये ही पात्र हैं। आज उनके लगभग 600 परिवार हैं लेकिन उनकी आवासीय कॉलोनी को भी अभी तक नियमित नहीं किया गया है।
मंडल आयोग की रिपोर्ट न लागू होने के कारण यहां पिछड़ी जातियों को आरक्षण नहीं है।
* 1947 से 2007 तक कश्मीर घाटी में हरिजनों को कोई आरक्षण प्राप्त नहीं हुआ। सर्वोच्च न्यायालय के 2007 के निर्णय, जिसके अंतर्गत हरिजनों को कश्मीर घाटी में आरक्षण प्राप्त हुआ, को भी सरकार ने विधानसभा में कानून द्वारा बदलने का प्रयास किया, जो जनांदोलन के दबाव में वापिस लेना पड़ा।
संपत्ति कर, उपहार कर, शहरी संपत्ति हदबंदी विधेयक (Wealth tax, Gift tax, Urban Land Ceiling Act) आदि कानून लागू नहीं होते।
* शासन के विकेन्द्रीकरण के 73 एवं 74 वें संविधान संशोधन को अभी तक लागू नहीं किया गया। गत 67 वर्षों में केवल 4 बार पंचायत के चुनाव हुए।
* आज भी भारतीय संविधान की 135 धारायें यहां लागू नहीं हैं। यहां भारतीय दण्ड विधान (Indian Penal Code ) के स्थान पर रणवीर पैनल कोड (आर.पी.सी.) लागू है।
* अनुसूचित जनजाति के समाज को राजनैतिक आरक्षण अभी तक प्राप्त नहीं है।
* कानून की मनमानी व्याख्याओं के कारण जम्मू व लद्दाख को विधानसभा व लोकसभा में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है। जम्मू का क्षेत्रफल व वोट अधिक होने के बाद भी लोकसभा व राज्य विधानसभा में प्रतिनिधित्व कम है। लेह जिले में दो विधानसभाओं का कुल क्षेत्रफल 46000 वर्ग किमी. है।
* सारे देश में लोकसभा क्षेत्रों का 2002 के पश्चात पुनर्गठन हुआ, परन्तु जम्मू-कश्मीर में नहीं हुआ।
* यहां विधानसभा का कार्यकाल 6 वर्ष है जबकि पूरे देश में यह 5 वर्ष है।
* भारत के राष्ट्रपति में निहित अनेक आपातकालीन अधिकार यहां लागू नहीं होते।
अनुच्छेद-370 संविधान में क्यों जोड़ा गया
संविधान सभा में प्रस्ताव आने पर बिहार से आये संविधान सभा के प्रतिनिधि मौलाना हसरत मोहानी ने प्रश्न पूछा- यह भेदभाव क्यों? गोपालस्वामी अयंगार ने उतर दिया -कश्मीर की कुछ विशिष्ट स्थिति है, इसलिये विशेष व्यवस्थाओं की आज आवश्यकता है। उन्होंने स्पष्ट किया-
1. जम्मू-कश्मीर राज्य के अंतर्गत कुछ युध्द चल रहा है। युद्ध विराम लागू है, पर अभी सामान्य स्थिति नहीं है।
2. राज्य का कुछ हिस्सा आक्रमणकारियों के कब्जे में है।
3. संयुक्त राष्ट्र संघ में हम अभी उलझे हुये हैं, वहां कश्मीर समस्या का समाधान बाकी है।
4. भारत सरकार ने जम्मू-कश्मीर के लोगों को वादा किया है कि सामान्य स्थिति होने के पश्चात जनता की इच्छाओं के अनुसार अंतिम निर्णय किया जायेगा।
5. प्रजासभा का अब अस्तित्व नहीं है। हमने स्वीकार किया है कि राज्य की अलग से संविधान सभा द्वारा केन्द्रीय संविधान का दायरा एवं राज्य के संविधान का निर्णय किया जायेगा।
6. इन विशेष परिस्थितियों के कारण अस्थायी तौर पर इस अनुच्छेद-370 को संविधान में शामिल करने की आवश्यकता है। वास्तव में यह आंतरिक आवश्यकता एवं तदनुरूप व्यवस्था थी। जब स्थितियां सामान्य हो गईं, संविधान सभा ने विलय प्रपत्र का अनुमोदन कर दिया, बार-बार राज्यों के चुनाव के उपरांत भारत के संविधान के अंतर्गत राज्य सरकारें काम करती रहीं, तो इस व्यवस्था को समाप्त होना ही चाहिए था। जम्मू-कश्मीर के संविधान की प्रस्तावना में स्पष्ट कहा गया है-
हम जम्मू-कश्मीर के लोगों ने एकमत से स्वीकार किया है, …… 26 अक्तूबर 1947 के जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय के उपरांत पुनर्परिभाषित करते हैं कि जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है,… हम भारत की एकता-अखंडता के प्रति प्रतिबद्ध हैं।
महाराजा हरिसिंह ने उसी विलय प्रपत्र पर हस्ताक्षर किये, जिस पर शेष 568 रियासतों ने हस्ताक्षर किये थे। इस प्रपत्र का मसौदा उस समय के गृह मंत्रालय द्वारा तैयार किया गया था, जिसे लेकर स्वयं गृह सचिव वी.पी. मेनन महाराजा हरिसिंह के पास आये थे। यह झूठा दुष्प्रचार है कि महाराजा हरिसिंह बाकी राजाओं की तरह रियासत को भारत के साथ एकात्म नहीं करना चाहते थे।
महाराजा हरिसिंह ने 15 जुलाई 1948 को सरदार पटेल को पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने कहा स्वाभाविक ही हम पूरे भारत की प्रगति में इच्छुक हैं। इस विषय पर मेरे विचार से सभी अवगत हैं और अनेक अवसरों पर मैंने इसे व्यक्त भी किया है। संक्षेप में भारत के नये संवैधनिक ढांचे में हम अपना समुचित स्थान चाहते हैं, हमारी आशा है कि विश्व में एक महान राष्ट्र के रूप में भारत स्थापित होगा और अपने प्रभाव एवं विश्व बंधुत्व, श्रेष्ठ संस्कृति की अवधारणा के द्वारा मानव जाति की समस्याओं के समाधान में अपना योगदान देगा।
वास्तव में यह विशिष्ट स्थिति 1954 के संविधान सभा के प्रस्ताव के पश्चात समाप्त हो गई थी और अब तो संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी अपने विवादित विषयों की सूची में से भी जम्मू-कश्मीर को बाहर कर दिया है। इसके पश्चात भी सत्ता की लालची, अलगाववादी, विभेदकारी शक्तियों के सामने झुककर अलगाव के प्रतीक अलग संविधान, अलग झंडा, एवं अनुच्छेद-370 को जारी रखने की आवश्यकता ही नहीं है।
लाल और सफेद (दो रंगो का) अलग झंडा तो 1952 में स्वीकार किया गया। अगर राज्य का झंडा अलग रखना ही था तो जम्मू-कश्मीर रियासत का पहले से चला आ रहा झंडा ही जारी रह सकता था। वास्तव में हर विषय में शेख अब्दुल्ला नेशनल कांफ्रेंस को कांग्रेस के समानान्तर रखते थे तथा कश्मीर को अलग राष्ट्र मानते थे। इसीलिए नेशनल कांफ्रेंस के झंडे की तरह ही जम्मू-कश्मीर का राज्य ध्वज, राज्य के लिये अलग संविधान और यहां तक कि सदरे रियासत और वजीरे आजम (राज्य-अध्यक्ष एवं प्रधानमंत्री) की व्यवस्था लागू की गई। इसमें से अंतिम बात तो समाप्त हो गई परन्तु दो निशान एवं दो संविधान अभी भी हैं, जिसके कारण से अलग पहचान को बढ़ावा मिलता है।
अनुच्छेद-370 के कारण जम्मू-कश्मीर की पूरे भारत के साथ सहज एकात्मता समाप्त हो गई। कश्मीर घाटी को तो ऐसा स्थान बना दिया गया है जहां देश का कोई भी व्यक्ति अपने आप को बाहरी अनुभव करता है।
विस्थापितों की भूमि-जम्मू
गत 63 वर्षों से जम्मू विस्थापन की मार झेल रहा है। आज जम्मू क्षेत्र में लगभग 60 लाख जनसंख्या है जिसमें 42 लाख हिन्दू हैं। इनमें लगभग 15 लाख विस्थापित लोग हैं जो समान अधिकार एवं समान अवसर का आश्वासन देने वाले भारत के संविधान के लागू होने के 60 वर्ष पश्चात भी अपना अपराध पूछ रहे हैं। उनका प्रश्न है कि उन्हें और कितने दिन गुलामों एवं भिखारियों का जीवन जीना है।
पाकिस्तान अधिकृत जम्मू-कश्मीर के विस्थापित-
1947 में लगभग 50 हजार परिवार पाकिस्तान अधिकृत जम्मू-कश्मीर से विस्थापित होकर भारतीय क्षेत्र स्थित जम्मू-कश्मीर में आये। आज उनकी जनसंख्या लगभग 12 लाख है जो पूरे देश में बिखरे हुए हैं। जम्मू क्षेत्र में इनकी संख्या लगभग 8 लाख है। सरकार ने इनका स्थायी पुनर्वास इसलिये नहीं किया कि पाक अधिकृत जम्मू-कश्मीर हमारे नक्शे में है, हमारा दावा कमजोर हो जायेगा, अगर हम उनको उनका पूरा मुआवजा दे देंगे। आज 63 वर्ष पश्चात भी उनके 56 कैंप हैं जिनमें आज भी वे अपने स्थायी पुनर्वास का इंतजार कर रहे हैं।
¨ जो मकान, जमीन उनको दी गई, उसका भी मालिकाना हक उनका नहीं है।
¨ 1947 में छूट गई संपत्तियों एवं विस्थापित आबादी का ठीक से पंजीकरण ही नहीं हुआ फिर मुआवजा बहुत दूर की बात है। ¨ विभाजन के बाद पाक अधिगृहीत कश्मीर से विस्थापित हुए हिन्दू, जो बाद में देश भर में फैल गये, उनके जम्मू-कश्मीर में स्थायी निवासी प्रमाण पत्र ही नहीं बनते।
¨ विधानसभा में पाक अधिकृत जम्मू-कश्मीर के 24 क्षेत्र खाली रहते हैं। विधानसभा और विधान परिषद में इन विस्थापित होकर आये उस क्षेत्र के मूल निवासियों को आनुपातिक प्रतिनिधित्व दिये जाने का प्रस्ताव अनेक बार आया है किन्तु इस पर सरकार खामोश है।
¨ इनके बच्चों के लिये छात्रवृत्ति, शिक्षा-नौकरी में आरक्षण आदि की व्यवस्था नहीं है।
पश्चिमी पाक के शरणार्थी- इनकी आबादी लगभग दो लाख है। ये 63 वर्ष पश्चात भी जम्मू-कश्मीर के स्थायी नागरिक नहीं हैं। नागरिकता के सभी मूल अधिकारों – वोट, उच्च शिक्षा एवं व्यावसायिक शिक्षा में बच्चों को दाखिला, सरकारी नौकरी, संपत्ति खरीदने का अधिकार, छात्रवृति आदि से यह वंचित हैं।
छम्ब विस्थापित- 1947 तथा 1965 में युद्ध के समय इस क्षेत्र के लोग विस्थापित हुए। 1971 में इस क्षेत्र को शिमला समझौते में पाकिस्तान को देने के पश्चात स्थायी तौर पर विस्थापितों की यह संख्या भी लगभग एक लाख है। इनका पुनर्वास तो भारत सरकार की जिम्मेदारी थी, क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय समझौते में हमने छम्ब की 18 हजार एकड़ भूमि पाकिस्तान को दे दी। भारत सरकार ने वादे के अनुसार न तो भूमि अथवा उसके बदले कीमत दी, घर-पशु आदि के लिये भी एक परिवार को केवल 8,500 रूपये दिये।
कश्मीरी हिन्दू- 1989-1991 में आये कश्मीर के हिन्दू यह महसूस करते हैं कि हम देश, समाज, सरकार, राजनैतिक दल – सभी के ऐजेंडे से आज बाहर हो गये हैं। 52 हजार पंजीकृत परिवारों की अनुमानित आबादी 4 लाख है। एक के बाद एक आश्वासन, पैकेज – पर धरती पर वही ढाक के तीन पात।
20 वर्ष पश्चात् भी धार्मिक-सामाजिक संपत्तियों के संरक्षण का बिल विधानसभा में पारित नहीं हुआ, राजनैतिक तौर पर विधानसभा में कोई प्रतिनिधित्व नहीं है। 1991 में 1 लाख से अधिक पंजीकृत मतदाता थे जो आज कम होकर 70 हजार रह गये हैं। विस्थापन के पश्चात उनके वोट बनाने और डालने की कोई उचित व्यवस्था न होने के कारण समाज की रूचि कम होती जा रही है। आज भी समाज की एक ही इच्छा है कि घाटी में पुन: सुरक्षित, स्थायी, सम्मानपूर्वक रहने की व्यवस्था के साथ सभी की एक साथ वापसी हो।
जम्मू के आतंक पीड़ित क्षेत्रों के विस्थापित- कश्मीर घाटी के पश्चात जम्मू के डोडा, किश्तवाड़, रामबन, उधमपुर, रियासी, पुंछ, राजौरी, कठुआ जिलों के मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में यह आतंकवाद आया, पर सरकार ने आज तक इन क्षेत्रों से आंतरिक विस्थापित लोगों की न तो गिनती ही की और न ही उनके लिये उचित व्यवस्था की। यह संख्या भी लगभग एक लाख है। आतंकवाद से प्रभावित लोगों की कुल संख्या तो लगभग 8 लाख है। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के पश्चात भी सरकार इनकी उपेक्षा कर रही है। जबकि ये वे लोग हैं जिन्होंने आतंकवाद से लड़ते हुये बलिदान दिये, स्थायी रूप से विकलांग हो गये। गांव-घर-खेत छोड़े, पर न धर्म छोड़ा और न भारत माता की जय बोलना छोड़ा। आज इनके बच्चे बिक रहे हैं, घरों एवं ढाबों में मजदूरी कर रहे हैं।
जम्मू से भेदभाव
जम्मू क्षेत्र के 26 हजार वर्ग किमी. क्षेत्र में 2002 की गणनानुसार 30,59,986 मतदाता थे। आज भी 2/3 क्षेत्र पहाड़ी, दुष्कर, सड़क-संचार-संपर्क से कटा होने के पश्चात भी 37 विधानसभा क्षेत्र हैं व 2 लोक सभा क्षेत्र। जबकि कश्मीर घाटी में 15,953 वर्ग किमी. क्षेत्रफल, 29 लाख मतदाता, अधिकांश मैदानी क्षेत्र एवं पूरी तरह से एक-दूसरे से जुड़ा, पर विधानसभा में 46 प्रतिनिधि एवं तीन लोकसभा क्षेत्र हैं।
जम्मू एवं कश्मीर का तुलनात्मक अध्ययन
कश्मीर जम्मू
प्रति विधानसभा मतदाता 62673 84,270
क्षेत्रफल प्रति सीट 346 वर्ग किमी. 710.6 वर्ग किमी
प्रति लोकसभा सीट मतदाता 9.61 लाख 15.29 लाख
जिले (10+10+2=22) 10 10
क्षेत्रफल प्रति जिला 1594 वर्ग.किमी 2629 वर्ग किमी
सड़क की लम्बाई (कुल 2006) 7129 किमी. 4571 किमी
सरकारी कर्मचारी 4.0 लाख 1.25 लाख
सचिवालय में कर्मचारी 1329 462
केन्द्रीयसंस्थान(केन्द्रीयवि.वि.सहित) एन.आई.टी. कोई नहीं
पर्यटन पर खर्च 85प्रतिशत 10 प्रतिशत
पर्यटक (गत वर्ष) 8लाख
(5लाख अमरनाथ यात्रियों सहित)
80 लाख
2008 में राज्य को प्रति व्यक्ति केन्द्रीय सहायता 9754 रूपये थी जबकि बिहार जैसे बड़े राज्य को 876 रूपये प्रति व्यक्ति थी। कश्मीर को इसमें से 90 प्रतिशत अनुदान होता है और 10 प्रतिशत वापिस करना होता है, जबकि शेष राज्यों को 70 प्रतिशत वापिस करना होता है।
जनसंख्या में धांधली- 2001 की जनगणना में कश्मीर घाटी की जनसंख्या 54,76,970 दिखाई गई, जबकि वोटर 29 लाख थे और जम्मू क्षेत्र की जनसंख्या 44,30,191 दिखाई गई जबकि वोटर 30.59 लाख हैं।
उच्च शिक्षा में धांधली- आतंकवाद के कारण कश्मीर घाटी की शिक्षा व्यवस्था चरमरा गई, पर प्रतियोगी परीक्षाओं में वहां के विद्यार्थियों का सफलता का प्रतिशत बढ़ता गया।
मेडिकल सीटों में दाखिला- एमबीबीएस दाखिलों में जम्मू का 1990 में 60 प्रतिशत हिस्सा था जो 1995 से 2010 के बीच घटकर औसत 17-21 प्रतिशत रह गया है। सामान्य श्रेणी में तो यह प्रतिशत 10 से भी कम है।
लद्दाख से भेदभाव
जम्मू-कश्मीर राज्य में लोकतांत्रिक सरकार के गठन के बाद से ही इस क्षेत्र के साथ भेदभाव किया जाता रहा है। इस समस्या के समाधान के लिए पश्चिम बंगाल के गोरखालैंड की तर्ज पर लद्दाख के दोनों जिलों के संचालन हेतु ‘स्वायत्त पहाड़ी विकास परिषद’ का गठन किया गया लेकिन फिर भी इस क्षेत्र के साथ भेदभाव कम नहीं हुआ है।
लद्दाख से भारतीय प्रशासनिक सेवा (आई.ए.एस.) में अब तक 4 लोग चुने गए हैं। आश्चर्य की बात यह है कि इनमें से एक भी बौद्ध नहीं; बल्कि सभी मुस्लिम थे।
वर्ष 1997-98 में के.ए.एस. और के.पी.एस. अधिकारियों की भर्ती के लिए राज्य लोक सेवा आयोग ने परीक्षा आयोजित की। इन परीक्षाओं में 1 ईसाई, 3 मुस्लिम तथा 23 बौद्धों ने लिखित परीक्षा उत्तीर्ण की। 1 ईसाई और 3 मुस्लिम सेवार्थियों को नियुक्ति दे दी गयी जबकि 23 बौद्धों में से मात्र 1 को नियुक्ति दी गयी। इस एक उदाहरण से ही राज्य सरकार द्वारा लद्दाख के बौद्धों के साथ किये जाने वाले भेदभाव का अनुमान लगाया जा सकता है।
जम्मू-कश्मीर राज्य के सचिवालय के लिए कर्मचारियों की एक अलग श्रेणी है जिन्हें सचिवालय कॉडर का कर्मचारी कहा जाता है। वर्तमान में इनकी संख्या 3500 है। इनमें से एक भी बौद्ध नहीं है। यहां तक कि पिछले 52 वर्षों में सचिवालय के चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों में एक भी बौद्ध का चयन नहीं हुआ है।
राज्य सरकार के कर्मचारियों की संख्या 1996 में 2.54 लाख थी जो वर्ष 2000 में बढ़कर 3.58 लाख हो गई। इनमें से 1.04 लाख कर्मचारियों की भर्ती फारूख अब्दुल्ला के मुख्यमंत्रित्वकाल में हुई। इनमें से 319 कर्मचारी यानी कुल भर्ती का 0.31 प्रतिशत लद्दाख से थे।
राज्य में सार्वजनिक क्षेत्रों में कार्यरत कर्मचारियों की संख्या 21,286 है जिनमें राज्य परिवहन निगम में केवल तीन बौद्धों को ही नौकरी मिल सकी। राज्य के अन्य 8 सार्वजनिक उपक्रमों (PSUs) में एक भी बौद्ध को नौकरी नहीं मिली है।
1997 में 24 पटवारियों की भर्ती हुई जिसमें केवल एक बौद्ध और शेष सभी मुसलमान थे। इसी प्रकार 1998 में राज्य शिक्षा विभाग में चतुर्थ श्रेणी के 40 कर्मचारियों की भर्ती हुई जिनमे से एक को छोड़कर सभी मुस्लिम थे।
अन्याय की चरम स्थिति तब देखने को मिलती है जब बौद्धों को पार्थिव देह के अंतिम संस्कार के लिए भी मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में अनुमति नहीं मिलती। इसके लिए शव को करगिल की बजाय बौद्ध बहुल क्षेत्रों में ले जाना पड़ता है।
सरकार इस क्षेत्र को पर्यटन स्थल के रूप में प्रचारित करने में तो जुटी हुई है लेकिन घुसपैठ से प्रभावित होकर अपना महत्व और अपनी निजता खोती जा रही स्थानीय संस्कृति सहित बौद्ध मंदिरों व अन्य ऐतिहासिक धरोहरों को संरक्षण प्रदान किए जाने के लिये कोई ठोस कदम नहीं उठाये जा रहे हैं।
कश्मीर से नियंत्रित होने के कारण लद्दाख की भाषा और संस्कृति भी आज संकट में है। लद्दाख की भोटी भाषा एक समृद्ध भाषा रही है। संस्कृत के अनेक ग्रंथ भी मूल संस्कृत में अप्राप्य हैं किन्तु वे भोटी भाषा में सुरक्षित हैं। राज्य सरकार की उर्दू को अनिवार्य करने की नीति के कारण लद्दाख के आधे से अधिक विद्यार्थी लद्दाख से बाहर जा कर पढ़ने के लिये विवश हैं। भोटी भाषा को संविधान की 14वीं अनुसूची में शामिल करके ही उसके अस्तित्व को बचाया जा सकता है।
चीन से लगने वाली 1600 किमी लम्बी सीमा का बड़ा भाग लद्दाख से जुड़ा हुआ है। सीमा की सुरक्षा और लद्दाख की विशेष सामाजिक-आर्थिक परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए लद्दाख के समाज और उसकी विशिष्टता के संरक्षण का एकमात्र उपाय उसे संघ शासित राज्य घोषित करना ही है।
वर्तमान आंदोलन - संभावनायें और आशंकायें
वर्ष 2005-06 में अपनी मुस्लिम वोट की राजनीति और अंतर्राष्ट्रीय दबाव में मनमोहन सरकार ने पाकिस्तान से गुपचुप वार्ता प्रारंभ की। इसका खुलासा करते हुए पिछले दिनों लंदन में मुशर्रफ ने कहा कि ट्रेक-2 कूटनीति में हम एक समझौते पर पहुंच गये थे। वास्तव में परवेज कियानी- मुशर्रफ की जोड़ी एवं मनमोहन सिंह के नेतृत्व में दोनों पक्ष एक निर्णायक समझौते पर पहुंच गये थे। परस्पर सहमति का आधार था-
1. नियंत्रण रेखा (एलओसी) को ही अंतर्राष्ट्रीय सीमा मान लेना।
2. बंधन एवं नियंत्रण मुक्त सीमा (Porous and Irrelevant borders )
3. विसैन्यीकरण (Demilitarization)
4. सांझा नियंत्रण (Joint Control)
5. सीमा के दोनों ओर के जम्मू-कश्मीर क्षेत्रों को अधिकतम स्वायत्तता (Autonomy or self-rule to both the regions of J&K)
इस सहमति को क्रियान्वित करते हुये, कुछ निर्णय दोनों देशों द्वारा लागू किये गये :-
1. पाकिस्तान ने उतरी क्षेत्रों (गिलगित-बाल्टिस्तान) का विलय पाकिस्तान में कर अपना प्रांत घोषित कर दिया। वहां चुनी हुई विधानसभा, पाकिस्तान द्वारा नियुक्त राज्यपाल आदि व्यवस्था लागू हो गई। पाक अधिकृत जम्मू-कश्मीर का यह कुल 65,000 वर्ग किमी. क्षेत्रफल है। भारत ने केवल प्रतीकात्मक विरोध किया और इन विषयों को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर उठाकर पाकिस्तान को अलग-थलग करने की कोई कोशिश नहीं की।
2. भारत ने जम्मू-कश्मीर में 30 हजार सैन्य बल एवं 10 हजार अर्धसैनिक बलों की कटौती की ।
3. दोनों क्षेत्रों में परस्पर आवागमन के लिये पांच मार्ग प्रारंभ किये गये, जिन पर राज्य के नागरिकों के लिए वीजा आदि की व्यवस्था समाप्त कर दी गई।
4. कर मुक्त व्यापार दो स्थानों पर प्रारंभ किया गया।
जम्मू-कश्मीर के इतिहास में 60 वर्षों में पहली बार प्रदेश के सभी राजनैतिक दलों और सामाजिक समूहों को साथ लेकर स्थायी समाधान का प्रयास किया गया और 25 मई 2005 को आयोजित दूसरी राउंड टेबल कांफ्रेंस में विभिन्न विषयों पर विचार करने के लिये पांच कार्य समूहों की घोषणा की गई।
इन कार्यसमूहों में तीनों क्षेत्रों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व था, हर समूह में सामाजिक नेतृत्व, भाजपा, पैंथर्स पार्टी, जम्मू स्टेट मोर्चा आदि के प्रतिनिधि तथा शरणार्थी नेता भी थे।
24 अप्रैल 2007 को दिल्ली में आयोजित तीसरे गोलमेज सम्मेलन में जब 4 कार्यसमूहों ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की तो सभी जम्मू, लद्दाख के उपस्थित नेता व शरणार्थी नेता हैरान रह गये कि उनके सुझावों एवं मुद्दों पर कोई अनुशंसा नहीं की गई। उपस्थित कश्मीर के नेताओं ने तुरंत सभी अनुशंसाओं का समर्थन कर लागू करने की मांग की क्योंकि यह उनकी इच्छाओं एवं आकांक्षाओं के अनुसार था।
कार्य समूहों की इन रिर्पोटों से यह स्पष्ट हो गया कि अलगाववादी, आतंकवादी समूहों और उनके आकाओं से जो समझौते पहले से हो चुके थे, उन्हीं को वैधानिकता की चादर ओढ़ाने के लिये यह सब नाटक किया गया था।
बैठक के अंत में गृहमंत्री शिवराज पाटिल ने पहले से तैयार वक्तव्य हस्ताक्षर के लिये प्रस्तुत किया जिसमें केन्द्र सरकार से इन समूहों की रिपोर्टों को लागू करने के लिये उपस्थित सभी प्रतिनिधियों द्वारा आग्रह किया गया था।
भाजपा, पैंथर्स, बसपा, लद्दाख यूटी फ्रंट, पनुन कश्मीर एवं अनेक सामाजिक नेताओं ने दो टूक कहा कि यह सारी घोषणायें उनको प्रसन्न करने के लिए हैं जो भारत राष्ट्र को खंडित एवं नष्ट करने में जुटे हुए हैं। यह भारत विरोधी, जम्मू-लद्दाख के देशभक्तों को कमजोर करने वाली, पीओके, पश्चिम पाक शरणार्थी विरोधी एवं कश्मीर के देशभक्त समाज की भावनाओं एवं आकांक्षाओं को चोट पहुंचाने वाली हैं।
बाद में सगीर अहमद के नेतृत्व वाले पांचवे समूह ने अचानक नवम्बर 2009 में अपनी रिपोर्ट दी तो यह और पक्का हो गया कि केन्द्र-राज्य के संबंध की पुनर्रचना का निर्णय पहले ही हो चुका था। रिपोर्ट प्रस्तुत करने से पहले संबंधित सदस्यों को ही विश्वास में नहीं लिया गया। इन पांच समूहों की मुख्य अनुशंसायें निम्नानुसार थीं-
एम. हामिद अंसारी (वर्तमान में उपराष्ट्रपति) की अध्यक्षता वाली समिति के सुझाव
1. एम. हमीद अंसारी (वर्तमान में उपराष्ट्रपति) की अध्यक्षता में विभिन्न तबकों में विश्वास बहाली के उपायों के अंतर्गत उन्होंने सुझाव दिये कि कानून-व्यवस्था को सामान्य कानूनों से संभाला जाये। उपद्रवग्रस्त क्षेत्र विशेषाधिकार कानून एवं सशस्त्रबल विशेषाधिकार अधिनियम (Disturbed area act and AFSPA) को हटाया जाये।
2. पूर्व आतंकियों को पुनर्वास एवं समर्पण करने पर सम्मानपूर्वक जीवन की गांरटी दी जाये।
3. राज्य मानवाधिकार आयोग को मजूबत किया जाय।
4. आतंकवाद पीड़ितों के लिये घोषित पैकेज को मारे गये आतंकियों के परिवारों के लिये भी क्रियान्वित करना।
5. फर्जी मुठभेड़ों को रोकना।
6. पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में पिछले बीस वर्ष से रह रहे आतंकवादियों को वापिस आने पर स्थायी पुनर्वास एवं आम माफी।
7. कश्मीरी पंडितों के लिये एसआरओ-43 लागू करना, उनका स्थायी पुनर्वास।
एम के रसगोत्रा के नेतृत्व की कमेटी द्वारा दिये गये सुझाव –
1. नियंत्रण रेखा के आर-पार दोनों ओर के 10-10 विधायकों के सांझा नियंत्रण समूह (Joint Control Group) द्वारा व्यापार, पर्यटन, संस्कृति, आपदा प्रबंधन, पर्यावरण, बागवानी आदि पर सामूहिक विचार-विमर्श कर सुझाव देना।
2. आवागमन के 5 वर्तमान मार्गों के अतिरिक्त सात नये मार्ग खोलना। व्यापार, पर्यटन, तीर्थदर्शन, चिकित्सा के लिये आवागमन की खुली छूट देना।
3. परस्पर दूरसंचार की सुविधा प्रारंभ करना।
4. सभी बारूदी सुरंगों को सीमा से हटाना।
केन्द्र-राज्य संबंधों पर सगीर अहमद कमेटी की रिपोर्ट - सरकार नेशनल कांफ्रेंस के स्वायत्तता के प्रस्ताव पर विचार करे, पीडीपी के स्वशासन पर भी विचार किया जा सकता है। धारा 370 पर एक बार अन्तिम निर्णय कर लेना चाहिए, पर यह निर्णय का अधिकार जम्मू-कश्मीर के लोगों को हो। अनुच्छेद 356 की समाप्ति, चुना हुआ राज्यपाल, परस्पर बातचीत के आधार पर अधिक अधिकारों के लिये संवैधानिक गारंटी आदि की भी अनुशंसा की गई।
वास्तव में ये दोनों रिपोर्ट लागू होने पर मुशर्रफ-मनमोहन समझौते के तीन सूत्र – विसैन्यीकरण, नाम-मात्र की सीमा (नियंत्रण मुक्त सीमा) व सांझा नियंत्रण व्यवहार में आ जायेंगे और सगीर अहमद के समूह के सुझावों के मानने से स्वायत्तता वाला प्रस्ताव स्वयमेव लागू हो जायेगा।
इस ट्रेक-2 की कूटनीति को व्यवहार में पूरी तरह लाने से पूर्व ही पाकिस्तान में मुशर्रफ के कार्यकाल का अंत हो गया और जम्मू-कश्मीर में अमरनाथ आंदोलन के कारण अचानक हालात बदल गये जिसके चलते सरकार को पीछे हटना पड़ा।
पाकिस्तान में सत्ता परिवर्तन के बाद भी इस ट्रेक-2 कूटनीति को आगे बढ़ाने का कार्य प्रारंभ हुआ क्योंकि वर्तमान सेनाध्यक्ष परवेज कियानी ही सभी वार्ताओं में शामिल थे। यूपीए के दूसरे कार्यकाल में फिर इसी सहमति पर आगे बढ़ने का निर्णय हुआ। अमेरिका ने भी अफगानिस्तान में पाक सहायता-समर्थन प्राप्त करने बदले पाकिस्तान को सैन्य, आर्थिक सहायता के अतिरिक्त उसी की इच्छानुसार कश्मीर समस्या के समाधान के लिए भी भारत पर दबाव बढ़ा दिया है।
इसी प्रक्रिया के अंतर्गत गत दो वर्षों से नेशनल कांफ्रेंस के नेतृत्व में राज्य की सांझा सरकार और केन्द्र में कांग्रेसनीत गठबंधन सरकार ने तेजी से कदम आगे बढ़ाये हैं।
वास्तव में उपरोक्त समितियों की रिपोर्ट को यदि आंशिक रूप से भी स्वीकार कर लिया जाता है तो एक प्रकार से वह मुशर्रफ-मनमोहन के फार्मूले का ही क्रियान्वयन होगा। केन्द्र सरकार जानती है कि यदि इन निर्णयों को पाकिस्तान के साथ समझौते के रूप में प्रस्तुत किया जायेगा तो उसे देश कभी भी स्वीकार नहीं करेगा। लेकिन यदि उन्हीं को विशेषज्ञ समूहों के सुझावों की शक्ल में सामने लाया जाय तो संभवतः इन्हें स्वीकार करा पाना सरल होगा।
हामिद अंसारी, एस के रसगोत्रा और सगीर अहमद के नेतृत्व वाली समितियों की सिफारिशों को हमें समेकित रूप में देखना और विष्लेषित करना होगा। इसके अंतर्गत उपद्रवग्रस्त क्षेत्र विशेषाधिकार कानून एवं सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम को हटाने, बीस साल से पाक अधिकृत कश्मीर में रह रहे अतंकवादियों के वापस आने पर आम माफी और उनका पुनर्वास, नियंत्रण रेखा के आर-पार के विधायकों का साझा नियंत्रण समूह, परस्पर दूरसंचार की सुविधा और सीमा पार आवागमन की खुली छूट आदि सुझाव यदि मान लिये जाते हैं तो यह संभवतः उससे भी अधिक है जिसकी मांग अलगाववादी करते रहे हैं। इन्हें स्वीकार करने के बाद कश्मीर की आजादी केवल एक कदम दूर रह जाती है।
स्व. नरसिम्हाराव के वक्तव्य- “आजादी से कम कुछ भी” का यह कूटनीतिक फलन है जिसमें अलगाववादियों के ही नहीं बल्कि विदेशी शक्तियों के भी मंसूबे पूरे हो रहे हैं। इसमें कश्मीर से विस्थापित हुए लाखों लोगों के लिये उम्मीद की किरण कहीं नजर नहीं आती है। वहीं इन फैसलों के कारण जम्मू और लद्दाख की सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक स्थितियों पर क्या प्रभाव पड़ेगा, इसका भी आकलन किया जाना बाकी है। जम्मू और लद्दाख के नागरिक इस स्थिति की कल्पना करके भी सिहर उठते हैं ।
उमर अब्दुल्ला के बयान
- जम्मू-कश्मीर की समस्या आर्थिक व रोजगार के पैकेज से हल होने वाली नहीं है। यह एक राजनैतिक समस्या है और समाधान भी राजनैतिक होगा।
- जम्मू-कश्मीर का भारत में बाकी राज्यों की तरह पूर्ण विलय नहीं हुआ। विलय की कुछ शर्तें थीं जिन्हें भारत ने पूरा नहीं किया।
- जम्मू-कश्मीर दो देशों (भारत एवं पाकिस्तान) के बीच की समस्या है जिसमें पिछले 63 वर्षों से जम्मू-कश्मीर पिस रहा है।
- स्वायत्तता ही एकमात्र हल है। 1953 के पूर्व की स्थिति बहाल करनी चाहिए।
पी. चिदंबरम के बयान
- जम्मू-कश्मीर एक राजनीतिक समस्या है।
- जम्मू-कश्मीर का एक विशिष्ट इतिहास एवं भूगोल है, इसलिये शेष भारत से अलग इसका समाधान भी विशिष्ट ही होगा।
- समस्या का समाधान जम्मू व कश्मीर के अधिकतम लोगों की इच्छा के अनुसार ही होगा।
- गुपचुप वार्ता होगी, कूटनीति होगी और समाधान होने पर सबको पता लग जायेगा।
- हमने 1952, 1975 और 1986 में कुछ वादे किये थे, उन्हें पूरा तो करना ही होगा।
- विलय कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में हुआ था, यह बाकी राज्यों से अलग था, उमर ने विधानसभा के भाषण में विलय पर बोलते हुये कुछ भी गलत नहीं कहा।
- स्वायत्तता पर वार्ता होगी और उस पर विचार किया जा सकता है।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी राजनैतिक समाधान की आवश्यकता, सशस्त्रबल विशेषाधिकार अधिनिययम को नरम करना, कुछ क्षेत्रों से हटाना, सबकी सहमति होने पर स्वायत्तता के प्रस्ताव को लागू करना आदि संकेत देकर वातावरण बनाने की कोशिश की।
प्रधानमंत्री द्वारा घोषित त्रि-सदस्यीय वार्ताकारों के समूह के सदस्य दिलीप पड़गांवकर, राधा कुमार और एम.एम. अंसारी ने तो ऐसा वातावरण बना दिया कि शायद जल्द से जल्द कुछ ठीक (अलगाववादियों की इच्छानुसार) निर्णय होने जा रहे हैं। आखिर क्या कहते हैं वार्ताकारों के निम्नलिखित बयान -
-उन्होंने जम्मू-कश्मीर समस्या के लिये पाकिस्तान से वार्ता पर बल दिया।
-उन्होंने आश्वासन दिया- आजादी का रोडमेप बनाओ, उस पर चर्चा करेंगे।
-हमारा एक खूबसूरत संविधान है, जिसमें सबकी भावनाओं को समाहित किया जा सकता है, 400 बार संशोधन हुआ है, आजादी के लिये भी रास्ता निकल सकता है।
वार्ताकारों की अनुशंसा पर अलगाववादियों को रिहा करना, सीमापार के आतंकवादियों की सुरक्षित वापसी के लिये समर्पण नीति आदि घोषणाएं क्रियान्वित होनी भी प्रारंभ हो गयी हैं।
यह भी जानें
वर्तमान आंदोलन पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित है जिसे परोक्ष रूप से अमेरिकी समर्थन हासिल है। आंदोलन को कट्टरवादी मजहबी संगठन अहले-हदीस (जिसके कश्मीर में 120 मदरसे, 600 मस्जिदें हैं) एवं आत्मसमर्पण किये हुये आतंकवादियों के गुट के द्वारा हुर्रियत (गिलानी गुट) के नाम पर चला रहे हैं। वास्तव में यह आंदोलन राज्य एवं केन्द्र सरकार की सहमति से चल रहा है। देश में एक वातावरण बनाया जा रहा है कि कश्मीर समस्या का समाधान बिना कुछ दिये नहीं होगा। वहीं कश्मीर के लोगों के बीच वातावरण बन रहा है कि अंतिम निर्णय का समय आ रहा है।
सुरक्षाबलों को न्यूनतम बल प्रयोग करने का आदेश है। 3500 से अधिक सुरक्षाकर्मी घायल हो गये, सुरक्षा चौकियों पर हमले किये गये, आंदोलनकारी जब बंद करते थे तो सरकार कर्फ्यू लगा देती थी, उनके बंद खोलने पर कर्फ्यू हटा देती थी। अलगाववादियों के आह्वान पर रविवार को भी स्कूल, बैंक खुले।
वास्तविकता यह है कि पूरा आंदोलन जम्मू-कश्मीर की केवल कश्मीर घाटी (14 प्रतिशत क्षेत्रफल) के दस में से केवल 4 जिलों- बारामुला, श्रीनगर, पुलवामा, अनंतनाग और शोपियां नगर तक ही सीमित था। गुज्जर, शिया, पहाड़ी, राष्ट्रवादी मुसलमान, कश्मीरी सिख व पंडित, लद्दाख, शरणार्थी समूह, डोगरे, बौद्ध कोई भी इस आंदोलन में शामिल नहीं हुआ पर वातावरण ऐसा बना दिया गया जैसे पूरा जम्मू व कश्मीर भारत से अलग होने पर आमादा है और आजादी के नारे लगा रहा है। गिलानी और मीरवायज जैसे राष्ट्रद्रोहियों को देश में प्रवास कर अपनी मांगों के समर्थन में वातावरण बनाने की इजाजत दी जा रही है।
उमर अब्दुल्ला द्वारा बार-बार जम्मू-कश्मीर के भारत में पूर्ण विलय को नकारना, जम्मू-कश्मीर को विवादित मानना, वार्ताकारों के समूह द्वारा भी ऐसा ही वातावरण बनाना और इस पर केन्द्र सरकार एवं कांग्रेस के नेताओं का खुला समर्थन इस बात का सूचक है कि अलगाववादी, राज्य एवं केन्द्र सरकार किसी समझौते पर पहुंच चुके हैं, उपयुक्त समय एवं वातावरण बनाने की कोशिश एवं प्रतीक्षा हो रही है। ओबामा का इस विषय पर कुछ न बोलने का यह निहितार्थ नहीं है कि अमेरिका ने कश्मीर पर भारत के दावे को मान लिया है। बार-बार अमेरिका एवं यूरोपीय दूतावासों के प्रतिनिधियों का कश्मीर आकर अलगाववादी नेताओं से मिलना उनकी रूचि एवं भूमिका को ही दर्शाता है।
पिछले दिनों राष्ट्रवादी शक्तियों, भारतीय सेना एवं देशभक्त केन्द्रीय कार्यपालिका का दबाव नहीं बना होता तो यह सब घोषणायें कभी की हो जातीं। गत दो वर्षों में केन्द्रीय सरकार द्वारा सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम को हटाने, जेल में बंद आतंकियों एवं अलगाववादियों की एकमुश्त रिहाई के असफल प्रयास कई बार हो चुके हैं।
पाकिस्तान का अपूर्ण लक्ष्य
• जम्मू-कश्मीर को प्राप्त करना पाकिस्तान का अपूर्ण लक्ष्य है और वह इसे किसी भी कीमत पर पूरा करना चाहता है।
• देश विभाजन से ही पाकिस्तान (अंग्रेजों के सहयोग से) जम्मू-कश्मीर को पाकिस्तान में मिलाना चाहता था।
• जब मोहम्मद अली जिन्ना महाराजा को विलय के लिए मनाने में असफल रहे तो सितंबर, 1947 से ही आर्थिक एवं संचार नाकाबंदी कर दी। उस समय सड़क एवं रेल मार्ग, आपूर्ति, संचार संपर्क, लाहौर, रावलपिंडी, सियालकोट व पेशावर से ही था।
• अक्तूबर के प्रारंभ से ही घुसपैठ, लूटमार प्रारंभ हो गई व 22 अक्तूबर को कबायलियों की आड़ में पाकिस्तान ने सीधा आक्रमण ही कर दिया।
• 27 अक्तूबर को भारत की सेना ने आने के पश्चात वीरतापूर्ण संघर्ष कर कश्मीर घाटी में 8 नवम्बर तक उड़ी तक का क्षेत्र मुक्त करा लिया। 1 जनवरी 1948 को भारत पाकिस्तान के खिलाफ यू.एन.ओ. में गया, जनवरी 1949 में युध्दविराम घोषित हुआ। पर यह रहस्य है कि भारत की सेनायें चाहतीं भी थीं, व सक्षम भी थीं कि पूरे जम्मू-कश्मीर को मुक्त करा लेते, पर 13 महीने हाथ पर हाथ रख कर बैठने के बाद भी सेना को आज्ञा क्यों न मिली ? परिणामस्वरूप 85 हजार वर्ग किमी. क्षेत्र पाकिस्तान के कब्जे में रह गया। 50 हजार हिन्दू-सिख मारे गये, लाखों हिन्दू शरणार्थी हो गये।
• पाकिस्तान ने 1965 एवं 1971 में सीधे युध्द के द्वारा जम्मू-कश्मीर छीनने की कोशिश की।
• 1975 के पश्चात आपरेशन टोपाक के अंतर्गत आतंकवाद का प्रशिक्षण, घुसपैठ, इस्लामिक कट्टरवाद के द्वारा अघोषित युध्द प्रारंभ किया गया। बीस वर्ष के कालखंड में लगभग 1 लाख लोग (5000 सुरक्षाबलों सहित) मारे गये व हजारों स्थायी रूप से विकलांग हो गये।
• करगिल युद्ध में 1999 में पाकिस्तान ने लद्दाख को शेष भारत से काटने की कोशिश की। युद्ध में लगभग 500 भारतीय सैनिक मारे गये।
रणनीति में बदल
• वर्तमान आंदोलन भी केवल रणनीति की ही बदल है। पाकिस्तान को ध्यान में आ गया है कि भारत से न तो सीधे युद्ध में जीता जा सकता है और न ही आतंक के बल पर उसे झुकाया जा सकता है।
• गत तीन वर्षों में पूर्व आतंकियों का एक तंत्र खडा कर समाज के उग्र आंदोलन के द्वारा अपने अधूरे लक्ष्य को पूरा करना ही पाकिस्तान की इच्छा है।
• पत्थरबाजी के द्वारा सुरक्षाबलों का मनोबल तोड़ना, उनको कार्रवाई करने के लिए मजबूर करना, जनांदोलन के दबाव में सभी दलों को अपने पक्ष में आने के लिए मजबूर करना। गत डेढ़ वर्ष में 3500 से अधिक सुरक्षाबलों के जवान घायल हुये। इस आंदोलनात्मक आतंकवाद के द्वारा कश्मीर विषय का पुन: अंतर्राष्ट्रीयकरण करने में पाकिस्तान कामयाब हुआ।
अंतर्राष्ट्रीय हस्तक्षेप
हाल ही में गिरफ्तार हुए अलगाववादियों से पूछ-ताछ में हुए खुलासे से पता चला है कि कश्मीर घाटी और उसके आस-पास चल रहा आंदोलन विदेशी ताकतों और विदेशी पैसे के बल पर चलाया जा रहा है।
कश्मीर में चल रहा आतंक का खेल जिस मुकाम पर पहुंच चुका है वहां कश्मीरी अलगाववादी केवल मुहरे भर रह गये हैं। चालें कहीं और से चली जा रही हैं, दांव कोई और लगा रहा है। पाकिस्तान जहां कश्मीर को लेकर लगातार विवाद को बनाये हुए है वहीं चीन ने भी कश्मीर पर अपना दावा जताने के लिये नत्थी वीजा देने का क्रम बंद नहीं किया है।
सामरिक महत्व के कारण कश्मीर का एक बड़ा भू-भाग हड़पने के बाद भी चीन लगातार भारत की सीमा पर अपनी गतिविधियां बढ़ा रहा है। अमेरिका भी कश्मीर पर प्रत्यक्ष हस्तक्षेप से जहां इनकार करता रहा है वहीं पाकिस्तान के माध्यम से अलगाववादी गतिविधियों को मौन समर्थन दे रहा है।
अमेरिका कश्मीर को विवादित बनाये रखना चाहता है अथवा उसे भारत और पाकिस्तान के बीच एक बफर स्टेट के रूप में देखने का इच्छुक है। कूटनीतिक रूप से यही उसके अनुकूल है। कश्मीर में अगर उसे घुसने का मौका मिलता है तो वह चीन सहित मध्य एथिया और भारत सहित दक्षेस के देशों पर निगरानी बनाये रख सकता है।
यही कारण है कि बार-बार आतंकवादी घटनाओं में पाकिस्तान की कुख्यात गुप्तचर एजेंसी आईएसआई का हाथ साबित होने के बाद भी अमेरिका न तो पाकिस्तान से संबंध तोड़ने को तैयार है और न ही उसे दी जाने वाली आर्थिक सहायता ही रोक रहा है।
वर्तमान में अमेरिका, अपने हित (अफगानिस्तान में पाकिस्तान से समर्थन प्राप्त करने) एवं अस्थिर जम्मू-कश्मीर के माध्यम से मध्य एशिया में अपनी स्थायी उपस्थिति को पूर्ण करने के लिये इस आंदोलन का छद्म रूप से अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर समर्थन कर रहा है। 1950 के कालखंड में अमेरिका ने ही शेख अब्दुल्ला की स्वतंत्र कश्मीर की आकांक्षा जगाई थी। वह जम्मू-कश्मीर में अपनी स्थायी सैन्य उपस्थिति के द्वारा मध्य एशिया में प्रभाव कायम रखना चाहता था।
दूसरी ओर चीन भी गिलगित-पीओके में अपने सामरिक हितों को ध्यान में रखते हुये जम्मू-कश्मीर के विवाद को जीवित रखना चाहता है। इसलिये लद्दाख में सेना द्वारा सीमा अतिक्रमण, भारतीय वीजा के स्थान पर जम्मू-कश्मीर के लिये अलग अनुमति पत्र, अपने नक्शे में जम्मू-कश्मीर को भारत का हिस्सा न दिखाना आदि अवांछित हरकतों के द्वारा जम्मू व कश्मीर विवाद को हवा देता रहता है।
देश चाहता है इन सवालों के जबाव
जम्मू-कश्मीर के विषय में कांग्रेस की नीति पहले से ही अस्पष्ट थी। जम्मू-कश्मीर की गत 63 वर्षों की समस्या का कारण केवल कांग्रेस नेतृत्व की सरकारों द्वारा लिये गये निर्णय हैं। अब समय आ गया है कि देश की जनता को इन सवालों पर हर गली-मोहल्ले-चौक पर कांग्रेस के नेताओं से और विशेषकर नेहरू खानदान से निम्न सवाल करने चाहिए –
1. 1946 में जम्मू-कश्मीर के लोकप्रिय महाराजा को हटाने के लिये नेशनल कांफ्रेंस के तत्कालीन नेता शेख अब्दुल्ला ने ”कश्मीर छोड़ो” (Quit Kashmir) आंदोलन छेड़ा। आंदोलन घाटी के कुछ लोगों में ही सक्रिय था। वह देश की आजादी का समय था, ऐसे समय किसी भी रियासत में ऐसे आंदोलन का कोई औचित्य नहीं था। शेख अब्दुल्ला चाहते थे कि देश की आजादी की घोषणा से पूर्व महाराजा उन्हें सत्ता हस्तांतरित करें। उसके अनुसार मुस्लिमबहुल होने के कारण हिन्दू राजा को मुस्लिमबहुल कश्मीर पर राज्य करने का अधिकार नहीं है। महाराजा हरिसिंह ने शेख अब्दुल्ला को गिरफ्तार कर लिया।
यह प्रश्न आज तक अनुत्तरित है कि सांप्रदायिक विद्वेष एवं व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा पर आधारित इस आंदोलन का समर्थन करने के लिए नेहरू जी ने जम्मू-कश्मीर आने की जिद क्यों की जबकि महाराजा हरिसिंह ने भी उनसे न आने का व्यक्तिगत अनुरोध किया, व कांग्रेस पार्टी ने भी उन्हें ऐसा करने से मना किया। नेहरू जी को कोहाला पुल पर रोक लिया गया एवं रियासत से वापिस भेज दिया गया। परिणामस्वरूप नेहरू जी हमेशा के लिए देशभक्त महाराजा हरिसिंह के विरोधी हो गये। वास्तव में 1931 की गोलमेज कॉन्फ्रेंस में महाराजा हरि सिंह की देशभक्तिपूर्ण भूमिका के कारण अंग्रेज उनसे नाराज थे। माउण्टबेटन ने कश्मीर के विलय को उलझा कर उनसे व्यक्तिगत बदला लिया जिसकी कीमत देश को आज तक चुकानी पड़ रही है।
2. महाराजा 26 अक्तूबर से पूर्व और संभवत: 15 अगस्त से पूर्व ही विलय के लिये तैयार थे, पर प्रश्न यह है कि नेहरू जी ने विलय के साथ आंतरिक शासन के लिये शेख अब्दुल्ला को सत्ता हस्तांतरण की जिद क्यों की, जबकि इसके लिये महाराजा कदापि तैयार नहीं थे.?
3. इसी विषय पर समझाने के लिये गांधी जी भी जम्मू-कश्मीर महाराजा के पास क्यों आये?
4. विलय होने के पश्चात नेहरू जी एवं उनकी सरकार ने जनमत संगह कराने की अवैधानिक, एकतरफा घोषणा क्यों की ?
5. पाकिस्तान के कब्जे वाले क्षेत्रों को खाली कराये बिना हम संयुक्त राष्ट्र संघ में 1 जनवरी, 1948 को क्यों गये ? भारत की सेना आगे बढ़कर पाकिस्तान के कब्जे वाले क्षेत्रों को वापिस लेना चाहती थी, परन्तु उसे अनुमति क्यों नहीं दी गई ? पाकिस्तान की सेना इतनी कमजोर थी कि वह प्रतिरोध भी नहीं कर सकती थी। जनवरी 1949 को युद्धविराम घोषित हुआ, भारतीय सेना को आगे बढ़ने का आदेश क्यों और किसने नहीं दिया? हमने संयुक्त राष्ट्र संघ में जनमत संग्रह का आश्वासन क्यों दिया?
6. पी.ओ.के. में 50 हजार हिन्दू-सिखों के नरसंहार का जिम्मेदार कौन है?
7. पाकिस्तान के कब्जे वाले जम्मू-कश्मीर (पी.ओ.के.) के लाखों शरणार्थी 63 वर्षों से विस्थापित कैंपों में ही रहते हैं। सरकार जबाव दे कि 63 वर्षों से पी.ओ.के. को वापिस लेने के लिये हमने क्या किया?
8. 1965 एवं 1971 में युध्द जीतने के बाद भी अपने क्षेत्र वापिस लेने के स्थान पर 1972 में शिमला समझौते में छम्ब का क्षेत्र भी हमने पाकिस्तान को क्यों दे दिया ?
9. संविधान सभा में जम्मू-कश्मीर का प्रतिनिधित्व स्वाधीनता अधिनियम 1947, का उल्लंघन कर महाराजा हरिसिंह के स्थान पर शेख अब्दुल्ला की इच्छा के अनुसार नेशनल कांफ्रेंस के प्रतिनिधियों को प्रतिनिधित्व देने के लिये संविधान सभा में प्रस्ताव क्यों लाया गया ? इसी कारण से संविधान निर्माण के समय शेख अब्दुल्ला को अनुच्छेद-370 के लिये दबाव बनाने का मौका मिला।
10. स्वाधीनता अधिनियम के अनुसार आंतरिक प्रशासक शेख अब्दुल्ला को महाराजा एवं प्रधानमंत्री की देख-रेख में ही सरकार चलानी थी पर वे बार-बार महाराजा हरिसिंह और प्रधानमंत्री मेहरचंद महाजन का अपमान करते थे। उनको समझाने के स्थान पर अवैधानिक ढंग से पहले मेहरचंद महाजन और फिर महाराजा हरिसिंह को हटाने का कार्य केन्द्र सरकार ने क्यों किया?
11. 1949 के प्रारंभ में ही शेख अब्दुल्ला की कुत्सित महत्वाकांक्षायें स्पष्ट होने लगी थीं और उन्होंने भारत सरकार पर दवाब की नीति प्रारंभ कर दी थी। फिर भी उन्हें हटाने के स्थान पर महाराजा हरिसिंह को ही राज्य से अपमानजनक ढ़ंग से हटाने का कार्य क्यों किया गया ?
12. भारत की संविधान सभा में प्रस्ताव लाकर जम्मू-कश्मीर नाम से जम्मू को हटाकर राज्य का नाम कश्मीर रखने का असफल प्रयास पं. नेहरू और गोपालस्वामी अयंगार ने क्यों किया?
12. डा. अंबेडकर, पूरी संविधान सभा, पूरी कांग्रेस पार्टी के विरोध के बाद भी अनुच्छेद-306(ए) (बाद में अनुच्छेद-370) लाने की जिद पं. नेहरू ने क्यों की?
13. धर्म निरपेक्षता की नीति के बावजूद केवल मुस्लिमबहुल होने के कारण जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने की नीति नेहरू ने क्यों बनाई?
14. शेख अब्दुल्ला की राष्ट्रविरोधी मांगों के आगे (1947-1953 तक) नेहरू जी बार-बार क्यों झुकते रहे?
15. पूरे लद्दाख एवं जम्मू में शेख अब्दुल्ला के विरोध के बाद भी कांग्रेस ने केवल शेख को ही जम्मू-कश्मीर का नेता क्यों माना?
16. कांग्रेस ने 1953 में शेख को गिरफ्तार क्यों किया ? 1958 में उसे रिहा किया, पर कुछ महीनों बाद पुन: गिरफ्तार क्यों करना पड़ा ? ऐसी क्या मजूबरी थी कि 1975 में बिना चुनाव के कांग्रेस का पूर्ण बहुमत होते हुये भी शेख अब्दुल्ला को ही मुख्यमंत्री बना दिया?
17. 1951 में संविधान सभा के चुनाव का नाटक हुआ। विपक्षी दलों के समस्त उम्मीदवारों के आवेदन रद्द कर दिये गये। 75 में से 73 सीटों पर नेशनल कांफ्रेंस के उम्मीदवार निर्विरोध चुने गये। कांग्रेस लोकतंत्र की इस हत्या पर चुप क्यों रही ?
18. कांग्रेस ने ऑटोनामी (स्वायत्तता) के नाम पर शेख अब्दुल्ला के सामने घुटने क्यों टेके, जिसके अंतर्गत 1952 में पं. नेहरू ने निम्न बातों को स्वीकार किया-
• जम्मू-कश्मीर राज्य का अलग संविधान व अलग झंडा रहेगा। भारत के राष्ट्रीय ध्वज के समान ही जम्मू-कश्मीर के राज्य ध्वज को राज्य में सम्मान प्राप्त होगा।
• मुख्यमंत्री, राज्यपाल के स्थान पर जम्मू कश्मीर में सदरे रियासत (राज्य अध्यक्ष), वजीरे आजम (प्रधानमंत्री) कहलाये जायेंगे।
• स्थायी निवासी प्रमाण पत्र की व्यवस्था, जिसके द्वारा शेष भारत का व्यक्ति जम्मू-कश्मीर में बस नहीं सकेगा, परन्तु जम्मू-कश्मीर का व्यक्ति देश में कहीं भी जाकर बस सकता है।
• सदरे रियासत का चुनाव जम्मू-कश्मीर की विधानसभा करेगी, राष्ट्रपति केन्द्र सरकार की सलाह पर सदरे रियासत अर्थात राज्यपाल को नियुक्त नहीं कर सकेगा।
• सर्वोच्च न्यायालय का दखल कुछ ही क्षेत्रों में सीमित रहेगा।
• भारत का चुनाव आयोग, प्रशासनिक सेवा अधिकरण (आई.ए.एस एवं आई.पी.एस.), महालेखा नियंत्रक के अधिकार क्षेत्र में जम्मू-कश्मीर नहीं रहेगा।
19. सीमापार और यहां तक कि कश्मीर घाटी में भी चल रहे आतंकवादी प्रशिक्षण शिविरों, कश्मीर में आने वाले समय में पाकिस्तान की आतंकवाद फैलाने की योजनाओं, बढ़ते मदरसे, जमायते-इस्लामी की कट्टरवाद फैलाने की गुप्तचर रिपोर्टों की राजीव गांधी सरकार ने 1984 से 1989 तक अनदेखी क्यों की?
20. जम्मू-कश्मीर में बार-बार चुनाव के नाम पर धोखाधडी होती रही, विशेषकर 1983 व 1987 के चुनाव के समय नेशनल कांफ्रेंस द्वारा की गई धांधलियों पर कांग्रेस चुप क्यों रहीं?
21. जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान की भूमिका स्पष्ट होने के बाद भी राष्ट्रवादी शक्तियों को मजबूत करने के स्थान पर अलगाववादी मानसिकता की नेशनल कांफ्रेंस, पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी को बढावा क्यों दिया गया? कांग्रेस ने स्वयं अपने नेतृत्व को ही कश्मीर घाटी में कभी विकसित क्यों नहीं होने दिया ?
22. पी.वी. नरसिंहराव ने भी आजादी से कुछ कम (less than freedom, sky is the limit) जैसा आश्वासन क्यों दिया ?
23. 1952 में नेहरू-शेख सहमति (दिल्ली प्रस्ताव), 1975 का शेख-इंदिरा समझौता, 1986 का राजीव-फारूक समझौता, नरसिंहराव की स्वायत्तता संबंधी घोषणा और अब वर्तमान सरकार की पाकिस्तान व अलगाववादियों से पिछले 5 वर्षों से चल रही गुपचुप वार्ता और भविष्य की स्वायत्तता की संभावित योजनायें क्या यह नहीं दर्शातीं कि कांग्रेस की अलगाववादियों के सामने घुटने टेकने की नीति व मुस्लिम बहुल क्षेत्र होने के कारण कश्मीर को अलग दर्जे की नीति ही कश्मीर की समस्या का वास्तविक कारण है ?
वास्तव में जम्मू-कश्मीर समस्या का मूल जम्मू-कश्मीर में नहीं है अपितु नई दिल्ली की केन्द्र सरकार में निहित है। इसलिये इसका समाधान भी जम्मू-कश्मीर को नहीं पूरे भारत को मिलकर खोजना है। समय आ गया है कि 63 वर्षों की कांग्रेस की नेहरूवादी सोच के स्थान पर भारतीय संविधान की मूल भावना एकजन-एकराष्ट्र को स्थापित किया जाय तथा अलग संविधान, अलग झंडा, अनुच्छेद-370 जैसी अलगाववादी मानसिकता को बढ़ावा देने वाली व्यवस्थाओं को समाप्त किया जाये।
अन्य राज्यों की तरह पूर्ण एकात्म जम्मू-कश्मीर इस अलगाववादी मानसिकता को समाप्त करेगा एवं जम्मू-कश्मीर वासियों की पिछले 63 वर्षों की पीड़ा को दूर कर सकेगा।
यह आजाद भारत की सबसे बड़ी असफलता है कि 63 वर्षों में लाखों करोड़ रूपये खर्च कर, हजारों सैनिकों के बलिदान के पश्चात भी जम्मू-कश्मीर की देश के साथ मानसिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक एकात्मता उत्पन्न नहीं की जा सकी। अनुच्छेद-370 के कारण वहां हमेशा एक एहसास रहता है कि हमारी एक अलग राष्ट्रीयता है, हम शेष भारत से अलग हैं। यहां का मीडिया एवं नेता हर समय इसे भारत के कब्जे वाला कश्मीर (India occupied Kashmir) ही संबोधित करते हैं।
भारत हर वर्ष अनुदान बढ़ाता रहता है। पिछले 20 वषों में 1 लाख करोड़ रुपये से अधिक की केन्द्रीय सहायता-अनुदान कश्मीर को दिये गये। इससे अधिक विशेष बजटीय प्रावधान किये गये। यह परंपरा बन गयी कि प्रधानमंत्री के प्रत्येक दौरे में हजारों करोड़ के विशेष पैकेज की घोषणा की जाय। परन्तु फिर भी अलगाववाद बढ़ता ही जा रहा है। क्योंकि अलगाववादी भाषा से अलगाववाद को समाप्त नहीं किया जा सकता। आज कश्मीर घाटी का प्रत्येक दल और शेष देश से वहां जाने वाले अधिकांश नेता एक ही भाषा बोलते हैं जिसके कारण कश्मीर घाटी में अलगाव कम होने के स्थान पर जड़ जमा गया है।
आवश्यकता है घाटी तथा देश की सभी शक्तियों को बताने की कि अनुच्छेद-370 की समाप्ति, अलग संविधान और अलग निशान की समाप्ति ही अलगाववाद की समाप्ति का एकमात्र उपाय है और यह कार्य तुरन्त होना चाहिये ताकि उमर, महबूबा, गिलानी, मीरवायज एवं शेष देश के मुस्लिम वोट के भूखे, स्वार्थी, सत्तालोलुप नेता कोई नयी दुविधाजनक, राष्ट्रघाती परिस्थिति देश के सामने उत्पन्न न कर सकें
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