विजय कुमार
पिछले दिनों अमरीका में ‘कश्मीर अमेरिकन सेंटर’ चलाने वाले डॉ. गुलाम नबी फई तथा उसका एक साथी पकड़े गये हैं, जो कुख्यात पाकिस्तानी संस्था आई.एस.आई के धन से अवैध रूप से सांसदों एवं अन्य प्रभावी लोगों से मिलकर कश्मीर पर पाकिस्तान के पक्ष को पुष्ट करने का प्रयास (लाबिंग) करते थे।
इसके लिए वे गोष्ठी, सेमिनार, सम्मेलन आदि आयोजित कर उसमें भारत से भी बुद्धिजीवी, पत्रकार, लेखक आदि को बुलाते थे। वे समाचार पत्रों में लेख लिखते और लिखवाते थे। इसीलिए उनकी गिरफ्तारी पर पाकिस्तान ने रोष व्यक्त किया है।
फई की गिरफ्तारी के बाद कई नाम सामने आये हैं, जिन्हें उसने समय-समय पर भारत से बुलाया था। इनमें प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार हरीश खरे, वरिष्ठ पत्रकार एवं गृह मंत्रालय की कश्मीर पर बनी आधिकारिक समिति के अध्यक्ष दिलीप पडगांवकर, बहुचर्चित सच्चर समिति के अध्यक्ष अवकाश प्राप्त न्यायाधीश राजेन्द्र सच्चर, कश्मीर टाइम्स के संपादक वेद भसीन, हेडलाइन्स टुडे के संपादक हरिंदर बवेजा, मानवाधिकार के नाम पर आतंकियों के अधिकारों के पैरोकार गौतम नवलखा, कमल चिन१य, प्रफुल्ल बिदवई, रीता मनचंदा, नक्सलियों का हमदर्द अग्निवेश, पाकिस्तान परस्त लेखक कुलदीप नैयर, बुकर पुरस्कार विजेता अरुन्धति राय, अंगना चटर्जी, संदीप पांडेय, अखिला रमन, मीरवाइज उमर फारुख एवं यासीन मलिक आदि शामिल हैं। आश्चर्यजनक रूप से इनमें सुब्रह्मण्यम स्वामी का नाम भी है। इस सूची के नाम लगातार बढ़ रहे हैं।
यद्यपि इनमें से अनेक ने स्पष्टीकरण दिये हैं। हरीश खरे ने समाचार को नकारते हुए समाचार पत्र को कानूनी नोटिस दिया है। दिलीप पडगांवकर के अनुसार, उन्हें फई के पाकिस्तानी संबंधों का पता नहीं था। कुलदीप नैयर ने कहा है कि जिस सम्मेलन में वे गये थे, वहां पाकिस्तान के लोग भी थे तथा सबने स्वतंत्रतापूर्वक अपनी बात कही थी। सुब्रह्ममण्यम स्वामी ने कहा है कि वे भारतीय दूतावास की सलाह पर वहां गये थे तथा भारतीय दूतावास के एक कर्मचारी ने उनके भाषण के नोट्स भी बनाये थे।
स्पष्टीकरण चाहे जो हों; पर इस सूची में अधिकांश लोग सेकुलर बिरादरी के घोषित चेहरे हैं, जो देश में हिन्दू और भारत विरोध का जहर फैला रहे हैं। अब फई की गिरफ्तारी से यह भी सिद्ध हो गया है कि इनके आवास, प्रवास एवं आतिथ्य का प्रबंध कौन करता था? यह प्रकरण हमें व्यक्तिगत और राष्ट्रीय चरित्र पर विचार करने को भी विवश करता है।
भारत में छात्र जीवन में ब्रह्मचर्य तथा गृहस्थ जीवन में निष्ठापूर्वक एक पति या पत्नीव्रत का पालन करने वाले को लोग चरित्रवान मानते हैं। दूसरी ओर रिश्वतबाज, मिलावटखोर, टैक्सचोर, लुटेरे या हत्यारे को व्यक्तिगत चरित्र की दृष्टि से खराब नहीं माना जाता। जयप्रकाश जी ने चंबल के जिन डाकुओं का आत्मसमर्पण कराया था, उनमें से एक ने अपना उज्जवल चरित्र बखानते हुए कहा था कि उसने हत्या तो कीं; पर न तो कभी किसी महिला को हाथ लगाया और न ही किसी छोटी जाति वाले के हाथ से पानी पिया।
भारत में 99 प्रतिशत लोग व्यक्तिगत रूप से चरित्रवान ही होते हैं। यद्यपि अब पश्चिमी प्रभाव, गंदे दूरदर्शनी कार्यक्रम और फिल्मों के कारण सार्वजनिक रूप से लिपटना, चूमाचाटी तथा समलैंगिकता आदि को भी धीरे-धीरे मान्यता मिल रही है।
दूसरी ओर राष्ट्रीय चरित्र को देखें, तो दुख के साथ कहना पड़ता है कि मुगल, तुर्क, पुर्तगाली, डच, अंग्रेज आदि का साथ मानसिंह, जयचंद या मिर्जा राजा जयसिंह जैसे हमारे पूर्वजों ने ही दिया था। यों तो ये सब बड़े पूजापाठी थे; पर अपने प्रतिद्वन्द्वी हिन्दू राजा को हराने के लिए विदेशी तथा विधर्मियों का साथ देने में इन्हें संकोच नहीं हुआ। अंग्रेजों ने सेना में भारतीयों को लेने के साथ आई.सी.एस के नाम पर सर्वश्रेष्ठ बुद्धिजीवियों को अपना राज्य सुदृढ़ करने में लगा दिया। पहला और दूसरा विश्वयुद्ध अंग्रेजों ने भारतीय सैनिकों के बल पर ही जीता था।
इस संदर्भ में जवाहरलाल नेहरू और लेडी माउंटबेटन के चर्चित संबंधों को देखें। कहते हैं कि गांधी जी विभाजन नहीं चाहते थे; पर अंग्रेज भारत को बांटकर कमजोर करना चाहते थे। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद मित्र देशों ने जर्मनी को बांटकर भी ऐसा ही किया था। अंग्रेजों की सोच यह थी कि भारत और पाकिस्तान लड़ते रहेंगे और इससे उनके हित सदा पूरे होते रहेंगे। उनका यह चिंतन कितना सत्य सिद्ध हुआ, यह किसी से छिपा नहीं है।
इसके लिए उन्होंने अधिकार और सत्ताप्रेमी नेहरू पर दांव लगाया। अंग्रेज उसके व्यक्तिगत चरित्र की दुर्बलता जानते थे। अतः माउंटबेटन ने अपनी पत्नी की नेहरू से मित्रता करा दी। इससे नेहरू उसके रंग में रंग कर विभाजन को तैयार हो गये। उनके कहने पर ही नेहरू कश्मीर समस्या को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले गये, जिससे वह आज तक गले में हड्डी की तरह अटका है।
इस प्रसंग पर विचार करें, तो माउंटबेटन दम्पति का व्यक्तिगत चरित्र खराब कहा जाएगा; पर उन्होंने देशहित में यह लांछन स्वीकार किया। अर्थात उनका राष्ट्रीय चरित्र बहुत उज्जवल था, जबकि नेहरू दोनों कसौटियों पर घटिया सिद्ध हुए।
पश्चिमी देशों में बहुत खुलापन होने से व्यक्तिगत चरित्र पर बहुत अधिक ध्यान नहीं दिया जाता। विवाह पूर्व शारीरिक संबध, तलाक तथा कई बार पति या पत्नी बदलना, किशोरावस्था में मां-बाप बनना वहां आम बात है; पर उनका राष्ट्रीय चरित्र अनुकरणीय है।
यहां अमरीका के दो प्रसंगों की चर्चा उचित होगी। राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन पर वाटरगेट कांड में दूसरों के फोन टेप करने के आरोप लगे थे। अमरीका में लोकतंत्र एवं वैचारिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बहुत महत्व दिया जाता है। निक्सन ने इस मर्यादा को भंग किया था, अतः उन्हें महाभियोग का सामना कर त्यागपत्र देना पड़ा। इसी प्रकार राष्ट्रपति बिल क्लिंटन पर उनके कार्यालय की एक कर्मचारी मोनिका लेंविस्की से अवैध संबंध बनाने पर महाभियोग चला। क्लिंटन द्वारा अपराध मान लेने पर न्यायालय ने उन्हें त्यागपत्र देने पर विवश नहीं किया और उन्होंने अपना कार्यकाल पूरा किया।
व्यक्तिगत चरित्र अच्छा होने पर भी निक्सन के दुष्कर्म से अमरीका का राष्ट्रीय चरित्र लांछित हुआ, अतः उन्हें पद छोड़ना पड़ा, जबकि क्लिंटन का मामला व्यक्तिगत चरित्र का था, अतः उन्हें शासन ने ही नहीं, उसकी पत्नी और बेटी ने भी क्षमा कर दिया।
अमरीका में पिछले राष्ट्रपति चुनाव से पूर्व वहां की व्यवस्था के अनुसार पार्टी के अंदर प्रत्याशी बनने के लिए हिलेरी क्लिंटन और ओबामा में कांटे की टक्कर हुई। इसमें ओबामा को सफलता मिली। इसके बाद वे राष्ट्रपति निर्वाचित हुए और उन्होंने पुरानी प्रतिद्वंद्विता को भुलाकर हिलेरी क्लिंटन को विदेश मंत्री बना दिया। पिछले राष्ट्रपति बुश के साथ काम कर रहे रक्षामंत्री राबर्ट गेट्स ने भी ओबामा के आग्रह पर फिर से वही पद संभाल लिया।
ब्रिटेन में क्लीमेंट एटली के प्रधानमंत्री काल में विपक्षी नेता चर्चिल का अमरीका प्रवास हुआ। वहां पत्रकारों ने शासकीय नीति के बारे में उनसे तीखे प्रश्न पूछे। चर्चिल ने एटली की नीति का समर्थन यह कहकर किया कि मैं अपने देश में विपक्ष का नेता हूं; पर बाहर ब्रिटेन का प्रतिनिधि हूं। ऐसा ही प्रसंग इंदिरा गांधी के शासनकाल में विपक्षी नेता अटल बिहारी वाजपेयी के विदेश प्रवास का भी है। दूसरी ओर रामविलास पासवान तथा तीस्ता (जावेद) सीतलवाड़ जैसे भ्रष्ट लोग हैं, जो गोधरा कांड के बाद हुई प्रतिक्रिया को वैश्विक मुद्दा बनाकर नरेन्द्र मोदी और देश की बदनामी करते हैं।
1977 में अटल जी के विदेश मंत्री बनने पर शासन की ओर से चीन से संबंध सुधारने का प्रयास कर रहे श्री करंजिया अपना त्यागपत्र लेकर अटल जी के पास आये। अटल जी ने उनसे कहा कि आप जो काम कर रहे हैं, उसका दलीय निष्ठा से कोई संबंध नहीं है, अतः उसे पूर्ववत करते रहें। पर भारत में ऐसे राष्ट्रीय चारित्र एवं उदार हृदयता के उदाहरण बहुत कम हैं। यहां राष्ट्रीय और राष्ट्रवादी कहे जाने वाले दल वालों का छोटी सी बात पर लड़ना तथा सत्ता सुख के लिए रातोंरात पाला बदलना किसने नहीं देखा? क्या हमें राष्ट्रीय चरित्र भी दूसरों से सीखना पड़ेगा?
यहां शिवाजी के एक साथी खंडोबल्लाल का उदाहरण भी स्मरणीय है। शिवाजी के पुत्र शम्भाजी ने उनकी विधवा बहिन से दुर्व्यवहार किया। बहिन ने भाई से इसका बदला लेने को कहा। खंडोबल्लाल ने खून का घूंट पीकर कहा कि इससे शिवाजी महाराज द्वारा स्थापित हिन्दू साम्राज्य नष्ट होकर फिर मुस्लिम राज्य स्थापित हो जाएगा, जिसमें हर दिन सैकड़ों बहिनों का अपमान होगा। इसलिए उन्होंने दिल पर पत्थर रखकर बहिन को ही दूसरी जगह भेज दिया।
दुनिया के इतिहास में ऐसे प्रसंग भरे हैं। यद्यपि व्यक्तिगत चरित्र पर भी समझौता नहीं हो सकता; पर राष्ट्रीय चरित्र से हीन व्यक्ति तो अक्षम्य है। इसलिए फई और पाकिस्तान के पैसे पर मौज उड़ाने वाले इन मानसिक गुलामों के देशी और विदेशी संबंधों की पूरी जांच होनी चाहिए।
क्या हमारी सेक्यूलर सरकार और मजबूर प्रधानमंत्री ऐसा साहस दिखाएंगे?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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