सी. उदयभाष्कर
अमेरिकी खुफिया एजेंसियों द्वारा पाकिस्तानी मूल के अमेरिकी नागरिक गुलाम नबी फई की गिरफ्तारी के घटनाक्रम में कई कारणों से भारत की गहरी रुचि है। फई वाशिंगटन स्थित कश्मीर मामलों की परिषद (केएसी) का अध्यक्ष है। भारत की रुचि जिन कारणों से है उनमें केएसी और पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आइएसआइ के बीच संबंध के साथ-साथ यह तथ्य भी है कि भारत के अनेक जाने-माने पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने केएसी के आमंत्रण स्वीकार किए।
इस तथ्य के कारण ही मुख्य विपक्षी दल भाजपा को संप्रग सरकार को कठघरे में खड़ा करने का मौका मिल गया है। डॉ. फई की गिरफ्तारी के संदर्भ में एक वजनदार विचार यह है कि यह अमेरिका-पाकिस्तान संबंधों में एक नए अध्याय की शुरुआत है और आइएसआइ का दोहरा खेल आखिरकार खुलकर सामने आ गया। इस विचार के तहत डॉ. फई की गिरफ्तारी को भारत के लिए एक बड़े लाभ के रूप में देखा जा रहा है, जो कि लंबे समय से वैश्विक समुदाय को यह बताने की चेष्टा करता रहा है कि पाकिस्तानी सेना अपने यहां मौजूद भारत विरोधी आतंकी ढांचे को मदद देती रही है और 26 नवंबर का मुंबई आतंकी हमला इसका साक्षात प्रमाण है।
हालांकि इस तरह की धारणा बना लेने में जल्दबाजी नहीं की जानी चाहिए कि फई मामले के बाद अमेरिका पाकिस्तान को मदद देना बंद कर देगा। डॉ. फई और उसकी अध्यक्षता वाली केएसी पर आरोप है कि उसने दबी-छिपी गतिविधियों के लिए एक विदेशी सरकारी प्रतिष्ठान (पाकिस्तान की आइएसआइ) से 40 लाख डालर से अधिक की वित्तीय सहायता प्राप्त की। इसके तहत अमेरिकी सांसदों को कश्मीर के महत्वपूर्ण मसले की वकालत करने तथा भारत के खिलाफ आइएसआइ के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए भारी-भरकम चंदे दिए गए। सर्वाधिक स्तब्धकारी खुलासा यह है कि पाकिस्तानी सेना के कुछ वरिष्ठ अफसरों के नाम केएसी के संचालनकर्ताओं के रूप में सामने आए हैं। इनमें एक सेवारत मेजर जनरल भी शामिल है। आइएसआइ और केएसी का नापाक रिश्ता एक ऐसे समय उजागर हुआ है जब दुनिया मई में इस्लामाबाद के करीब एबटाबाद में अल कायदा के सरगना ओसामा बिन लादेन के छिपे होने और अमेरिकी सुरक्षा बलों द्वारा उसके मारे जाने से आतंकी संगठनों के समर्थन के संदर्भ में पाकिस्तान से चुभते हुए सवाल कर रही है।
अमेरिकी संसद की इस बात पर नाराजगी बढ़ती जा रही है कि आतंकवाद के खिलाफ युद्ध में अमेरिका का कथित सहयोगी होने के बावजूद इस्लामाबाद आतंकी संगठनों को मदद देना जारी रखे हुए है। डॉ. फई के मामले पर 26 जुलाई को सुनवाई होनी है और यह शिकागो में हेडली-राणा मुकदमे के बाद अमेरिका में दूसरा हाई प्रोफाइल कानूनी मामला होगा। अब सवाल यह है कि क्या अमेरिका आखिरकार पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी पर इस बात का दबाव डालने में सफल होगा कि वह सभी आतंकी संगठनों से अपना रिश्ता तोड़े। इस सवाल का जवाब शायद नई दिल्ली में अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन की इस टिप्पणी में छिपा है कि आतंक के खिलाफ अमेरिका भारत के साथ है, लेकिन वह इस पर आश्वस्त नहीं है कि अमेरिका पाकिस्तानी सेना को सही रास्ते पर लाने के लिए कितना दबाव डाल सकेगा? इस मामले में तथ्य यह है कि जब तक अफगानिस्तान में अमेरिकी सेनाएं हैं तब तक व्हाइट हाउस यह सुनिश्चित करने के लिए पाकिस्तान सेना पर निर्भर है कि कराची से कंधार तक अमेरिकी सप्लाई लाइन बनी रहे। जाहिर है, अमेरिका और पाकिस्तान के संबंध टूटे-फूटे ही सही, लेकिन बने रहेंगे। फई की गिरफ्तारी के संदर्भ में जो बात ज्यादा महत्वपूर्ण है वह है कि एक ऐसे जाल का उभरना जिसका संबंध वैविश्क आतंकी नेटवर्क से है।
फई की गिरफ्तारी, राणा-हेडली मामले और अब ओस्लो आतंकी हमला-इस सब को एक साथ जोड़कर देखने की जरूरत है। वाशिंगटन में केएसी पूरे नेटवर्क का एक मोर्चा है। जांचकर्ता ऐसे ही मोर्चो की तलाश लंदन और ब्रुसेल्स में कर रहे हैं। दुनिया के लिए चिंता की बात यह है कि ओस्लो हमले से यह पता चल रहा है कि आतंक के स्लीपर सेल दुनिया के विभिन्न हिस्सों में फैले हुए हैं। 11 सितंबर के आतंकी हमले की दसवीं बरसी करीब आ रही है और यह तात्कालिक सवाल खड़ा हो गया है कि ओस्लो के बाद अगला निशाना क्या है?
इस संदर्भ में क्लिंटन के इस कथन पर ध्यान देने की जरूरत है-हम पाकिस्तान सरकार से उम्मीद करते हैं कि वे विद्रोहियों पर मुख्यधारा में आने की प्रक्रिया में शामिल होने के लिए दबाव बनाएं ताकि पाकिस्तानी क्षेत्र का अफगानिस्तान अथवा भारत को अस्थिर करने में इस्तेमाल रोका जा सके। भारत का रुख जनवरी 2004 में वाजपेयी-मुशर्रफसमझौते से लेकर अब तक इस पर दृढ़ रहा है कि पाकिस्तान को आतंकी संगठनों को मदद देने से दूर रहना चाहिए। यह वह प्रतिबद्धता है जो कयानी के नेतृत्व वाली पाकिस्तान सेना से लेने की जरूरत है और इस मोर्चे पर बहुत अधिक उत्साहित होने जैसा कुछ नहीं है। (लेखक सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)
(दैनिक जागरण)
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