Saturday, October 29, 2011

कश्मीर पर बेवजह बयानबाजी

दयासागर
जम्मू-कश्मीर के लोगों का यह दुर्भाग्य है कि वर्ष 1947 में देश के साथ राज्य के विलय के बावजूद यहां के लोग हर दिन खुद को एक नई भूल-भुलैया में खड़ा पाते हैं। लखनऊ के बड़े इमामबाड़ा की भूल-भुलैया का तो रास्ता कुछ सोच विचार के बाद खोजा जा सकता है, लेकिन राज्य के लोगों के साथ सत्ता में बैठे और सत्ता से बाहर के नेता जो खेल खेल रहे हैं, वह बहुत ही जटिल है। दुख की बात यह है कि कुछ सामाजिक कार्यकर्ता, कुछ मानवाधिकार कार्यकर्ता और कुछ अगली पंक्ति में खड़े होने की आस रखने वाले पत्रकार भी जम्मू-कश्मीर के विषयों को विवादित बनाने में जुटे हुए हैं। सबसे अजीब बात यह है कि कुछ लोग जो राज्य के बारे में नहीं के बराबर जानते हैं और कश्मीर घाटी को ही जम्मू-कश्मीर समझते हैं, बड़ी आसानी से जटिल विषयों पर बयानबाजी करते रहते हैं। इसी श्रृंखला में पिछले दिनों जेएंडके के बारे में कुछ राष्ट्रविरोधी वक्तव्य आए।

25 सितंबर को दिल्ली के एक वकील प्रशांत भूषण ने बनारस में मीडिया से बातचीत करते हुए कहा कि कश्मीर से सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (अफस्पा) को हटा देना चाहिए। सुरक्षा बलों को भी वहां से हटा देना चाहिए ताकि मानवाधिकार का हनन न हो। कश्मीर में जनमत संग्रह कराना चाहिए और यदि वहां के लोग भारत के साथ नहीं रहना चाहते तो उनको अलग होने देना चाहिए। 12 अक्टूबर को उनके चैंबर में हुई अप्रिय घटना के बाद उनका यह बयान लगातार टीवी चैनलों पर दिखाया गया। इसके बाद 13 अक्टूबर को प्रशांत भूषण का एक इंटरव्यू आइबीएन/सीएनएन के राजदीप के साथ यूट्यूब पर डाला गया, जिसमें प्रशांत भूषण ने अपने वक्तव्य में कोई बुराई नहीं होने का दावा किया और जब राजदीप ने उनसे पूछा कि कुछ लोग कश्मीर में जनमत संग्रह की बात को देश विरोधी कार्रवाई कहते हैं तो उन्होंने एक वकील के ढंग से उल्टा सवाल किया कि जवाहर लाल नेहरू ने भी संयुक्त राष्ट्र में कहा था कि भारत कश्मीर में जनमत संग्रह कराएगा तो फिर उनको (नेहरू) देश विरोधी क्यों नहीं कहते?

तकनीकी तौर पर भूषणजी को जवाब दिया जा सकता था पर उनके बयान से आम आदमी और देश के बाहर लोगों में कश्मीर घाटी के नागरिक के बारे में जो संदेश जाता है, वह यकीनन अच्छा नहीं है। उनकी इस दलील का जवाब दिल्ली से तत्काल आना चाहिए था, पर पांच दिन बीतने के बाद भी अभी तक कोई जवाब नहीं आया है। प्रशांत भूषण की दलील थी कि यह उनका निजी विचार है और उनको अपना विचार प्रकट करने का अधिकार है, लेकिन यह भूल गए कि अगर वह सिर्फ एक वकील होते तो कोई उनको सुनाने नहीं आता। चूंकि वह जनलोकपाल आंदोलन से जुड़कर रातोंरात सुर्खियों में आ गए हैं, इसलिए कोई भी बात जो वह सार्वजनिक रूप से कहते हैं, उनकी व्यक्तिगत राय नहीं होगी। उनके बयानों से यकीनन देश का माहौल बिगड़ा है। उनको इस पर खेद जताना चाहिए था जैसा कि उन पर हुए हमले के बाद सबने किया था।
जहां तक सुरक्षाबलों और अफस्पा को हटाने की बात है तो भूषणजी एक अच्छे वकील होने के नाते यह तो समझते होंगे कि अफस्पा-1990 और अशांत क्षेत्र अधिनियम (डीएए) जरूरत के हिसाब से लगाया जाता है न कि लोगों को दबाने के लिए। पर उनके बयान से देश-दुनिया में यह संदेश जाता है कि भारत ने कश्मीर के लोगों को ताकत से दबा रखा है, जो किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। दूसरी बात यह है कि प्रशांत भूषण जैसे लोग जेएंडके को सिर्फ कश्मीर घाटी समझते हैं, जबकि कश्मीर घाटी से 160 प्रतिशत बड़ा जम्मू कई गुणा बड़ा लद्दाख क्षेत्र है। पर विलय और सुरक्षाबलों के खिलाफ आवाज सिर्फ कश्मीर घाटी के नेताओं की तरफ से उठते हैं।
केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा जो तीन वार्ताकारों की टीम 13 अक्टूबर 2010 को नियुक्त की गई थी, उसने ठीक एक साल बाद 12 अक्टूबर को गृह मंत्री पी चिदंबरम को अपनी रिपोर्ट सौंप दी है। वार्ताकारों द्वारा मीडिया के सामने कही गई बातों के आधार पर कुछ लोगों ने यह अनुमान लगाया है कि वार्ताकारों ने जम्मू-कश्मीर में सुरक्षाबलों की नियुक्ति और अफस्पा-1990 के विषय में भी अपनी रिपोर्ट में कुछ सिफारिशें की हैं। अगर यह सच है तो इसमें कोई बुराई नहीं है। यह उम्मीद की जा सकती है कि वार्ताकारों ने अपनी रिपोर्ट में यह भी कहा होगा कि किन-किन इलाकों में केंद्रीय सुरक्षाबलों को लगाने की जरूरत नहीं है। अगर ऐसा होगा तो यकीनन वहां से सुरक्षाबलों को हटा दिया जाएगा और अफस्पा का इस्तेमाल नहीं होगा। अफस्पा पर अनौपचारिक ढंग से दिए गए बयानों ने कुछ लोगों को इस विषय पर बात करने और सरकार का विरोध प्रकट करने का मौका दिया है। कुछ लोगों का कहना है कि प्रधानमंत्री द्वारा बनाए गए वर्किंग ग्रुप जिसके अध्यक्ष उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी हैं, ने भी तीन साल पहले अपनी रिपोर्ट में कहा था कि अफस्पा और डीएए को खत्म कर देना चाहिए। पर ऐसे लोग वर्किंग ग्रुप की रिपोर्ट के उस हिस्से की अनदेखी करते हैं, जिसमें कहा गया है कि जहां सशस्त्र बल की जरूरत नहीं है वहां से इसको हटा देना चाहिए। इसलिए यदि राज्य सरकार ही यह कह देती कि कश्मीर घाटी के नागरिक क्षेत्रों में राष्ट्रीय सुरक्षाबलों और सेना की जरूरत नहीं है तो उनको हटा दिया गया होता। ऐसे इलाकों को डीएए से बाहर कर दिया जाता। ऐसी बातें करने वाले आम आदमी को सिर्फ गुमराह करना चाहते हैं।
16 अक्टूबर 2011 को प्रताप पार्क, श्रीनगर से इंफाल (जहां जवाहर लाल नेहरू अस्पताल में इरोम शर्मिला अफस्पा के विरोध में भूख हड़ताल पर हैं) तक विरोध रैली निकाली गई। इसकी शुरुआत श्रीनगर से जम्मू-कश्मीर और उत्तरी पूर्वी राज्यों से अफस्पा हटाने के लिए की गई थी। मेधा पाटेकर और डॉ. संदीप पांडेय अपने कुछ सहयोगियों के साथ इसे हरी झंडी दिखाने के लिए श्रीनगर आए हुए थे। स्थानीय मीडिया ने अफस्पा विरोधी, सुरक्षाबल विरोधी और स्वतंत्रता समर्थित नारे की रिपोर्टिग की। मेधा पाटेकर ने कहा कि हम सभी प्रकार की हिंसा की निंदा करते हैं और जेएंडके या देश के दूसरे हिस्सों में सैन्य शासन नहीं चाहते हैं। जहां यह कानून प्रचलन में है वहां हत्याएं, गायब होने और मनमाने ढंग से गिरफ्तारियां आम बात है।
इस प्रकार के सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा सुरक्षाबलों पर चाहे गलत ही आरोप क्यों न लगाए गए हों, पूरी दुनिया में गलत संदेश जाता है। इसलिए केंद्र/राज्य सरकार को जेएंडके जैसे राज्य के लोगों के बीच अशांति फैलाने की अनुमति नहीं देनी चाहिए। मेधा और संजीव पिछले 11 वर्षो से कहां थे? वे इंफाल में इरोम शर्मिला के साथ भूख हड़ताल पर क्यों नहीं बैठे? यदि वे अलगाववादियों के लिए इतना ही चिंतित हैं तोग्रामीण क्षेत्रों में जनमत संग्रह और नागरिक क्षेत्रों से सुरक्षाबलों को हटाने के लिए आंदोलन क्यों नहीं छेड़ते?
(लेखक : जम्मू-कश्मीर मामलों के अध्येता हैं।)

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